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श्री सतीजी



पतिव्रता स्त्रियों में सबसे पहले दक्ष-कन्या सतीका नाम लिया जाता है। वे ही साध्वी स्त्रियोंकी आदर्श हैं। उन्हींके नामपर अन्य पतिव्रता स्त्रियाँ भी 'सती' की उपाधिसे विभूषित हुई हैं। सती-धर्म वही है, जिसका भगवती सतीने पालन किया है। उनके द्वारा स्वीकृत और पालित धर्म ही शास्त्रों में 'सती-धर्म' के नाम से संकलित है।

भगवती सती साक्षात् सच्चिदानन्दमयी आद्या प्रकृति हैं। व्यक्त और अव्यक्त सब उन्हींके रूप हैं। अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूपमें उन्हींकी अभिव्यक्ति होती है। वे ही कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी जननी हैं। उन्हींके भृकुटिविलाससे जगत्की सृष्टि, पालन और संहार आदि कार्य होते हैं। वे सर्वत्र व्यापक और सर्वस्वरूप होकर भी सबसे विलक्षण हैं। जगत्के जीवोंपर करुणा करके लीलाके लिये ही वे सगुणरूपमें प्रकट हैं। भिन्न-भिन्न पुराणों और उपपुराण आदि ग्रन्थोंमें उनके प्रादुर्भावकी अनेकों कथाएँ विभिन्न रूपोंमें उपलब्ध होती हैं। कल्पभेदसे वे सभी ठीक भी हैं। यहाँ अति संक्षेपसे उनके जीवनकी कुछ बातें निवेदन की जाती हैं।

प्रसिद्ध है कि भगवान् शंकर स्वभावसे ही विरक्त एवं आत्माराम हैं। सृष्टिके प्रारम्भमें ही उन्होंने स्त्री-परिग्रहकी इच्छा त्याग दी। ब्रह्माजीको उनके इस अखण्ड वैराग्यसे अपने सृष्टिकार्यमें बाधा पड़ती दिखायी दी। वे शंकरजीके वीर्यके एक पराक्रमी पुत्र प्राप्त करना चाहते थे, जो विध्वंसकारी असुरोंका दमन करनेवाला तथा देवताओंका संरक्षक हो। इसके लिये उन्होंने शंकरजीसे विवाह करनेके लिये अनुरोध किया, किंतु वे अपने संकल्पसे विचलित न हुए। भगवान् शिव दीर्घकालीन समाधिमें संलग्न होकर सदा अपने इष्टदेव साकेतविहारी श्रीरघुनाथजीका चिन्तन करते रहते थे। सृष्टि और संसारके झमेलेमें पड़ना उन्हें स्वीकार नहीं था। ब्रह्माजी एक ऐसी नारीकी खोजमें थे, जो महादेवजीके अनुकूल हो, उनके तेजको धारण कर सके और अपने दिव्य सौन्दर्यसे उनके मनपर भी अधिकार प्राप्त करनेमें समर्थ हो; किंतु ऐसी कोई स्त्री उन्हें दिखायी न दी, तब उन्होंने अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये भगवती विष्णुमायाकी आराधना करना ही उचित समझा।

ब्रह्माजीके नव मानस पुत्रोंमें प्रजापति दक्ष बहुत प्रसिद्ध हैं। इनकी उत्पत्ति ब्रह्माजीके दाहिने अँगूठेसे हुई थी । एक समय शापवश इनको यह शरीर त्यागना पड़ा। उसके बाद वे दस प्रचेताओंके अंशसे उनकी पत्नी मारिषाके गर्भसे उत्पन्न हुए। तबसे प्राचेतस दक्षके नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई। प्रजापति वीरणकी कन्या वीरिणी इनकी धर्मपत्नी थी।- ब्रह्माजीके आदेशसे दक्षने आराधना करके भगवतीको पुत्रीरूपमें प्राप्त किया। परंतु भगवतीने उनसे पहले ही कह दिया कि यदि तुम कभी मेरा तिरस्कार करोगे, तो मैं तुम्हारी पुत्री न रह सकेंगी। शरीर त्यागकर अन्यत्र चली जाऊँगी।'

कन्याका साधु-स्वभाव और भोलापन देखकर ही माता-पिताने उसका नाम 'सती' रख दिया था। सतीका हृदय बचपनसे ही भगवान् शंकरकी ओर आकृष्ट था। कुछ बड़ी होनेपर उसने खेल-कूद और मनोरंजनसे मनको हटा लिया और वह नियमपूर्वक महादेवजीकी आराधना करने लगी। वह प्रात: काल ब्राह्मवेलामें उठकर गंगास्नान करती और भगवान्‌की पार्थिव मूर्ति बनाकर फूल और बिल्वपत्र आदिसे उसकी विधिवत् पूजा करती थी। फिर नेत्र बन्द करके मन-ही-मन प्राणाधारका ध्यान धरती और उनसे मिलनेको उत्सुक होकर देरतक आँसू बहाया करती थी।

सच्चे प्रेमकी पिपासा प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है। यही दशा सतीकी भी थी। उसके मन-प्राण भगवान् शंकरके लिये व्याकुल रहने लगे। उसे विरहका एक-एक क्षण युगके समान प्रतीत होता था। उसकी जिह्वापर 'शिव' का नाम था। हृदयमें उन्हींकी मनोहर मूर्ति बसी हुई थी। उसकी आँखें शिवके सिवा दूसरे पुरुषको देखना नहीं चाहती थीं। वह सोचती, 'क्या आशुतोष भगवान् शिव मुझ दीन अबलापर भी कभी कृपा करेंगे? क्या कभी ऐसा समय भी आयेगा, जब मैं अपने-आपको उनके चरणों में समर्पित करके यह तन, मन, जीवन और यौवन सार्थक कर सकेंगी?' इन्हीं भावनाओं में वह बेसुध रहती थी। सतीकी यह प्रेमसाधना आगे चलकर कठोर तपस्याके रूपमें परिणत हो गयी।

उधर ब्रह्मा आदि देवता भगवान् शंकरके पास गये और उनसे असुरविनाशक पुत्रकी प्राप्तिके लिये विवाह करनेका अनुरोध करने लगे। शिवने विवाहकी अनुमति दे दी और योग्य कन्याकी खोज करनेको कहा । ब्रह्माजीने कहा-महेश्वर ! दक्ष-कन्या सती आपको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये तपस्या कर रही हैं। वे ही आपके सर्वथा अनुरूप हैं। आप उन्हें ग्रहण करें।' शिवने 'तथास्तु' कहकर देवताओंको विदा कर दिया।

सतीकी व्रताराधना अब पूर्ण होनेको आयी। आश्विनमासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथि थी। सतीने उस दिन बड़े प्रेम और भक्तिके साथ अपने प्राणाराध्य महेश्वरका पूजन किया। दूसरे दिन व्रत पूर्ण होनेपर भगवान् शिव एकान्त कुटीरमें सतीके सम्मुख प्रकट हुए। सती निहाल हो गयी। जिनकी बाट जोहते-जोहते युग बीत गये थे, उन्हीं आराध्यदेवको सहसा सामने पाकर वे क्षणभरके लिये लज्जासे जडवत् हो गयीं। मन आनन्दके समुद्रमें लहरें लेने लगा। उनकी आँखें भगवान्के चरणोंमें जा लगीं। शरीर रोमांचित हो उठा। काँपते हाथोंसे प्रियतमका चरणस्पर्श किया और भक्तिभावसे प्रणाम करके प्रेमाश्रुओंसे वह उनके पाँव पखारने लगी।

भगवान्ने अपने हाथोंसे सतीको उठाकर खड़ा किया। उस समय उसका रोम-रोम अनिर्वचनीय रसमें डूबा हुआ था। शंकरजी सतीकी तपस्याका उद्देश्य जानते थे, तो भी उन्होंने उन्हींके मुँहसे उनका मनोरथ सुननेके लिये कहा‘दक्षकुमारी ! मैं तुम्हारी आराधनासे बहुत सन्तुष्ट हूँ। बताओ, किसलिये अपने कोमल अंगोंको इस कठोर साधनाके द्वारा कष्ट पहुँचाया है ?'

सती संकोचसे मुख नीचे किये हुए बोलीं- 'देवाधिदेव! आप घटघटवासी हैं, मेरी अभिलाषा आपसे छिपी नहीं है। आप स्वयं ही आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूं?’ सतीका यह अलौकिक प्रेम देखकर भगवान् शिव उसके हाथों बिना दाम बिक गये। वे सहसा बोल उठे– 'देवि! तुम मेरी पत्नी बनकर मुझे अनुगृहीत करो।’ सतीका हाथ भगवान् शिवके हाथमें था। प्रभुकी वह अनुरागभरी वाणी सुनकर वे पुनः रमणी-सुलभ लज्जाके वशीभूत हो गयीं। उनकी जन्म-जन्मकी साध अब पूरी होने जा रही थी। उस समय उनके मनमें कितना सुख, कितना आह्लाद था, इसका वर्णन नहीं हो सकता। उन्होंने थोड़ी ही देरमें अपनेको सँभाला और मन्द मुसकानके साथ संकोचयुक्त वाणीमें कहा – 'भगवन् ! मैं अपने पिताके अधीन हूँ; आप उनकी अनुमतिसे मुझे अपनी सेवाका सौभाग्य प्रदान करें।

- 'बहुत अच्छा' कहकर शंकरजीने सतीको आश्वासन दिया और उससे विदा लेकर वे वहीं अन्तर्धान हो गये। इधर सतीकी तपस्या और वरदान प्राप्तिकी बात दक्षके घरमें फैल गयी। उसे सुनकर दक्ष चिन्ता पड़े थे कि किस प्रकार सतीका विवाह शिवजीके साथ होगा?' इतनेमें ही भगवान् शंकरकी अनुमतिसे ब्रह्माजीने आकर कहा— 'मैं स्वयं ही शंकरजीको साथ लेकर यहाँ आऊँगा; तुम विवाहकी तैयारी करो। नियत समयपर ब्रह्मा आदि देवताओं के साथ भगवान् शिव विवाहके लिये पधारे। उस समय भी उनका वही अड़भंगी वेष था। दक्षको उनकी वेष-भूषापर क्षोभ हुआ; फिर भी उन्होंने समारोहपूर्वक सतीका विवाह शिवजीके साथ कर दिया।

विवाहके पश्चात् सती माता-पितासे विदा हो पतिके साथ कैलासधाम चली गयीं। वे भगवान् शिवके साथ दीर्घकालतक वहाँके सुरम्य प्रदेशों में सुखसे रहने लगीं। देवताओं और यक्षोंकी कन्याएँ उनकी सेवा किया करती थीं। भगवान् शिवके पास अनेक देवर्षि, ब्रह्मर्षि, योगी, यति, सन्त-महात्मा पधारते और सत्संगका लाभ उठाया करते थे। सतीको वहाँ भगवच्चर्चामें बड़ा सुख मिलता था। उस दिव्य वातावरणमें रहते हुए उन्हें कितने ही युग बीत गये। सतीके तन, मन और प्राण केवल शिवकी आराधनामें लगे रहते थे। उनके पति, प्राणेश और देवता सब कुछ भगवान् शिव ही थे।

एक बार त्रेतायुग आनेपर पृथ्वीका भार उतारनेके लिये श्रीहरिने रघुवंशमें अवतार लिया था। उस समय वे पिताके वचनसे राज्य-त्याग करके तापस-वेषमें दण्डकवनके भीतर विचरण कर रहे थे।

- इसी समय रावणने मारीचको कपटमृग बनाकर भेजा था और सूने आश्रमसे सीताको हर लिया था एवं श्रीरामजी साधारण मनुष्यकी भाँति विरहसे व्याकुल होकर लक्ष्मणजीके साथ वनमें सीताकी खोज कर रहे थे। जिनके कभी संयोगवियोग नहीं है, उनमें भी विरहका दुःख प्रत्यक्ष देखा जा रहा था। इसी अवसरपर भगवान् शंकर सतीदेवीको साथ लिये अगस्त्यके आश्रमसे राम-कथाका आनन्द लेकर कैलासको लौट रहे थे। उन्होंने अपने आराध्यदेव श्रीरघुनाथजीको देखा, उनके हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। श्रीराम शोभाके समुद्र हैं, उन्हें शिवजीने आँख भरकर देखा; परंतु ठीक अवसर न होनेसे परिचय नहीं किया। उनके मुँहसे सहसा निकल पड़ा – 'जय सच्चिदानंद जग पावन। ' शंकरजी सतीके साथ चले जा रहे थे, आनन्दातिरेकसे उनके शरीरमें बारम्बार रोमांच हो आता था। सतीने जब उनकी इस अवस्थाको लक्ष्य किया तो उनके मनमें बड़ा सन्देह हुआ। वे सोचने लगीं— ‘शंकरजी तो सारे जगत्के वन्दनीय हैं; देवता, मनुष्य और मुनि सब इनको मस्तक झुकाते हैं; इन्होंने एक राजकुमारको 'सच्चिदानन्द परमधाम' कहकर प्रणाम कैसे किया और उसकी शोभा देखकर ये इतने प्रेममग्न कैसे हो गये कि अबतक इनके हृदयमें प्रीति रोकनेसे भी नहीं रुकती। जो ब्रह्म सर्वत्र व्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेद-शून्य है, जिसे वेद भी नहीं जान पाता, वह क्या देह धारण करके मनुष्य बन सकता है? देवताओंके हितके लिये जो मनुष्य-शरीर धारण करनेवाले विष्णु हैं, वे भी तो शिवजीकी ही भाँति सर्वज्ञ हैं, भला वे कभी अज्ञानीकी भाँति स्त्रीको खोजते फिरेंगे? परंतु शिवजीने सर्वज्ञ होकर भी उन्हें 'सच्चिदानन्द' कहा है, उनकी बात भी तो झूठी नहीं हो सकती।

इस प्रकार सतीके मनमें महान् सन्देह खड़ा हो गया। यद्यपि उन्होंने प्रकट कुछ नहीं कहा, फिर भी अन्तर्यामी शिवजी सब जान गये। उन्होंने सतीको समझाकर कहा कि 'समस्त ब्रह्माण्डोंके अधिपति मायापति, नित्य, परम स्वतन्त्र ब्रह्मरूप मेरे इष्टदेव भगवान् श्रीरामने ही अपने भक्तोंके हितके लिये अपनी इच्छासे–‘रघुकुल-रत्न’ होकर अवतार लिया है। पर सतीके मनमें उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मनही-मन भगवान्की मायाका बल जानकर मुसकराते हुए बोले- 'यदि तुम्हारे मनमें अधिक सन्देह है, तो जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेतीं? जबतक तुम लौट न आओगी, मैं इसी बड़की छाँहमें बैठा रहूंगा।'

भोली-भाली सतीपर भगवान्‌की योगमायाका प्रभाव पड़ चुका था। वे पतिकी आज्ञा पाकर चलीं। इधर शंकरजी अनुमान करने लगे, 'आज सतीका कल्याण नहीं है। मेरे समझानेपर भी जब सन्देह दूर नहीं हुआ तो विधाता ही विपरीत है, इसमें भलाई नहीं है। जो कुछ रामने रच रखा है, वही होगा, तर्क करके कौन प्रपंचमें फँसे ।' यों विचारकर वे भगवान्का नाम जपने लगे। उधर सतीने खूब सोच-विचारकर सीताका रूप धारण किया और आगे बढ़कर उस मार्गपर चली गयीं, जिधर श्रीरामचन्द्रजी आ रहे थे। लक्ष्मणजी सीताको मार्गमें खड़ी देखकर चकित हो गये। जिनके स्मरणमात्रसे अज्ञान मिट जाता है, उन सर्वज्ञ श्रीरामचन्द्रजीने सारी बात जानकर मन-ही-मन अपनी मायाके बलका बखान करते हुए हाथ जोड़कर सीतारूपिणी सतीको प्रणाम किया। अपना और अपने पिताका नाम बतलाया तथा हँसकर पूछा- ‘देवि! शिवजी कहाँ हैं? आप वनमें अकेली क्यों विचर रही हैं?' अब तो सतीजी संकोचसे गड़ गयीं। वे भयभीत होकर शंकरजीके पास लौट चलीं। उनके हृदयमें बड़ी चिन्ता हो गयी थी, वे सोचने लगीं– 'हाय ! मैंने स्वामीका कहना नहीं माना, अपना अज्ञान श्रीरामचन्द्रजीपर आरोपित किया। अब मैं उनको क्या उत्तर देंगी।

फिर वे बारम्बार श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रणाम करके उस स्थानकी ओर चलीं, जहाँ शिवजी उनकी प्रतीक्षामें बैठे थे। निकट जानेपर शिवजीने हँसकर कुशलसमाचार पूछा और कहा - 'सच-सच बताओ, किस प्रकार परीक्षा ली है?’ सतीने श्रीरघुनाथजीके प्रभावको समझकर भयके मारे शिवजीसे अपने सीतारूप धारण करनेकी बात छिपा ली। शंकरजीने ध्यान लगाकर देखा और सतीने जो कुछ किया था, यह सब जान लिया। फिर उन्होंने श्रीरामजीकी मायाको मस्तक झुकाया !

‘सतीने सीताका वेष बना लिया, ' यह जानकर शिवजीके मनमें बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा, 'अब यदि मैं सतीसे पत्नीकी भाँति प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्गका लोप हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है। सती परम पवित्र हैं, अतः इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करनेमें बड़ा पाप है।' महादेवजी प्रकटरूपसे कुछ नहीं कह सके; किंतु उनके हृदयमें बड़ा संताप था। तब उन्होंने श्रीरामको मन-ही-मन प्रणाम किया। भगवान्‌की याद आते ही उनके हृदयमें यह संकल्प उदित हुआ— 'एहि तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । ' ऐसा निश्चय करके वे श्रीरामका स्मरण करते हुए चल दिये। उस समय आकाशवाणी हुई- 'महेश्वर ! आपकी जय हो, आपने भक्तिको अच्छी दृढ़ता प्रदान की। आपको छोड़कर ऐसी प्रतिज्ञा कौन कर सकता है। आप श्रीरामचन्द्रजीके भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं।'

सतीने भी वह आकाशवाणी सुनी। उनके मनमें बड़ी चिन्ता हो गयी। उन्होंने सकुचाते हुए पूछा- 'दयामय ! कहिये, आपने कौन-सा प्रण किया है। प्रभो! आप सत्यके धाम और दीनदयालु हैं। मुझ दीनपर दया करके अपनी की हुई प्रतिज्ञा बताइये।’ सतीने भाँति-भाँतिसे पूछा, किंतु उन्होंने कुछ नहीं बताया। तब सतीने अनुमान किया, 'शिवजी सर्वज्ञ हैं, वे सब कुछ जान गये । हाय ! मैंने इनसे भी छल किया। स्त्री स्वभावसे ही मूर्ख और बेसमझ होती है। अपनी करनीको याद करके सतीके हृदयमें बड़ा सोच और अपार चिन्ता हुई। उन्होंने समझ लिया कि शिवजी कृपाके अथाह सागर हैं, इसीसे प्रकटमें इन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा; किंतु उनका रुख देखकर सतीको यह विश्वास हो गया कि स्वामीने मेरा परित्याग कर दिया है।

त्यागका विचार आते ही उनका हृदय व्याकुल हो गया। सतीको चिन्तामग्न देख शंकरजी उन्हें सुख देनेके लिये सुन्दर-सुन्दर कथा - वार्ता कहने लगे। मार्ग में अनेक प्रकारके इतिहासका वर्णन करते हुए वे कैलासधाम पहुँचे। वहाँ अपनी प्रतिज्ञाको याद करके वे वटवृक्ष नीचे आसन लगाकर बैठ गये। अपने सहज स्वरूपका स्मरण किया और अखण्ड समाधि लग गयी। सतीजी कैलासपर रहकर एकाकी जीवन व्यतीत करने लगीं। उनके मनमें बड़ा दुःख था । एक-एक दिन एक-एक युगके समान बीत रहा था और इस दुःख-समुद्रसे पार होनेका कोई उपाय नहीं सूझता था।

इस प्रकार दक्ष-कुमारी सतीके दारुण दुःखकी कोई सीमा नहीं थी। वे रात-दिन चिन्ताकी आगमें झुलस रही थीं। इस अवस्थामें पड़े-पड़े उनके सत्तासी हजार वर्ष बीत गये। इतने दिनों बाद शिवकी समाधि खुली, वे स्पष्ट वाणीमें वे राम-रामका उच्चारण करने लगे। तब सतीने जाना कि जगदीश्वर शिव समाधिसे जगे हैं। उन्होंने जाकर शंकरजीके चरणों में प्रणाम किया। शिवजीने उनको बैठनेके लिये सामने आसन दिया और श्रीहरिकी रसमयी कथाएँ सुनाने लगे। इस प्रकार दयालु महेश्वरने सतीके सन्तप्त हृदयको कुछ शीतल किया, जिससे उनके दुःखका आवेग बहुत कुछ कम हो गया।

इसी बीचमें सतीके पिता दक्ष प्रजापति' के पदपर अभिषिक्त हुए। यह महान् अधिकार पाकर दक्षके हृदयमें बड़ा भारी अभिमान पैदा हो गया । संसारमें कौन ऐसा है, जिसे प्रभुता पाकर मद न हो। उन्होंने ब्रह्मनिष्ठ महात्माओंको जिनमें शंकरजी भी थे, उपेक्षाकी दृष्टिसे देखना आरम्भ किया। शंकरजीपर उनके रोषका कुछ विशेष कारण था । वे उनके तत्त्वसे बिल्कुल अनभिज्ञ थे। सतीके विवाहके कुछ ही समय बाद एक बार प्रजापतियोंने यज्ञका आयोजन किया था।

उसमें बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि भी अपने अनुयायियोंसहित उपस्थित हुए थे। ब्रह्मा और शिवजी भी उस सभामें विराजमान थे। उसी समय दक्ष भी वहाँ पधारे। सभी सभासद् उनके स्वागतमें उठकर खड़े हो गये। केवल ब्रह्माजी और महादेवजी अपने स्थानपर बैठे रहे। ब्रह्माजी तो दक्षके पिता ही थे; अतः दक्षने झुककर उनके चरणोंमें प्रणाम किया, किंतु शंकरजीका बैठे रहना उनको बहुत बुरा लगा। उन्हें इस बातके लिये खेद था कि 'शंकरने उठकर मुझे प्रणाम क्यों नहीं किया' अतः उन्होंने भरी सभामें उनकी बड़ी निन्दा की, कठोर वचन सुनाये और शापतक दे डाला। भगवान् शंकर चुपचाप चले आये। उन्होंने उनकी बातका कुछ भी उत्तर नहीं दिया।

इतनेपर भी दक्षका रोष उनके प्रति शान्त नहीं हुआ था। वे शिवसे सम्बन्ध रखनेवाले प्रत्येक व्यक्तिसे द्वेष रखने लगे । यहाँतक कि अपनी पुत्री सतीके प्रति भी उनका भाव अच्छा नहीं रह गया । प्रजापतियोंके नायक बन जानेपर उनको वैर-साधनका अच्छा अवसर मिला। पहले तो उन्होंने वाजपेय यज्ञ किया और उसमें शंकरजीको भाग नहीं लेने दिया। उसके बाद पुनः बड़े समारोहके साथ 'बृहस्पति-सव' नामक यज्ञका आयोजन किया। इस उत्सवमें प्रायः सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर, देवता और उपदेवता आदि आमन्त्रित थे। सबने अपनीअपनी पत्नी के साथ जाकर यज्ञोत्सवमें भाग लिया और स्वस्तिवाचन किया। केवल ब्रह्मा और विष्णु कुछ सोचकर उस यज्ञमें सम्मिलित नहीं हुए। सतीने देखा, कैलासशिखरके ऊपर आकाशमार्गसे विमानोंकी श्रेणियाँ चली जा रही हैं। उसमें देवता, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, किन्नर आदि बैठे हैं। उनके साथ उनकी स्त्रियाँ भी हैं, जो चमकीले कुण्डल, हार तथा विविध रत्नमय आभूषण पहने भलीभाँति सज-धजकर गीत गाती हुई जा रही हैं ।

सतीने पूछा– ‘भगवन्! यह सब क्या है? ये लोग कहाँ जा रहे हैं?' भगवान् शिवने मुसकराते हुए कहा- 'तुम्हारे पिताके यहाँ बड़ा भारी यज्ञ हो रहा है। उसीमें ये लोग निमन्त्रित हैं।' पिताके यज्ञकी बात सुनकर सतीको कुछ हर्ष हुआ। उन्हींने सोचा, “यदि स्वामीकी आज्ञा हो तो यज्ञके ही बहाने कुछ दिन वहीं चलकर रहूँ।' यह विचारकर वे भय, संकोच और प्रेमरसमें सनी हुई वाणीमें बोलीं— ‘देव! पिताजीके घर यज्ञ हो रहा है तो उसमें मेरी अन्य बहनें भी अवश्य पधारेंगी। माता और पितासे मिले मुझे युग बीत गये। इस अवसरपर आपकी आज्ञा हो तो आप और मैं दोनों वहाँ चलें। यज्ञका उत्सव भी देखेंगे और सबसे भेंट-मुलाकात भी हो जायगी। प्रभो! यह ठीक है कि उन्होंने निमन्त्रण नहीं दिया; अतः वहाँ जाना ठीक नहीं है, तथापि पति, गुरु और माता-पिता आदि सुहृदोंके यहाँ बिना बुलाये भी जाना चाहिये। सम्भव है भीड़-भाड़में निमन्त्रण देना भूल गये हों, अथवा देनेपर भी यहाँ पहुँच न पाया हो।'

शिवजीने कहा— ‘इसमें सन्देह नहीं कि माता- ा-पिता आदि गुरुजनोंके यहाँ बिना बुलाये भी जा सकते हैं, परंतु ऐसा तभी करना चाहिये जब वहाँके लोग प्रेम रखते हों। जहाँ कोई विरोध मानता हो, वहाँ जानेसे कदापि कल्याण नहीं होता। तुम्हारे पिता मुझसे द्वेष रखते हैं, अतः तुम्हें उनको और उनके अनुयायियोंको देखनेका भी विचार नहीं करना चाहिये । यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी तो इसका परिणाम अच्छा न होगा; क्योंकि किसी प्रतिष्ठित व्यक्तिको जब अपने स्वजनोंद्वारा तिरस्कार प्राप्त होता है, तो वह तत्काल उसकी मृत्युका कारण बन जाता है। '

इसके बाद शंकरजीने बहुत प्रकारसे समझाया-बुझाया, पर सती रहना नहीं चाहती थीं। स्वजनोंके स्नेहका स्मरण करके उनका हृदय भर आया। वे आँखोंमें आँसू भरकर रोने लगीं। तब महादेवजीने अपने प्रधान-प्रधान पार्षदोंको साथ देकर सतीको अकेली ही विदा कर दिया। सती अपने समस्त सेवकों के साथ गंगातटपर बनी हुई दक्षकी यज्ञशालामें पहुँचीं। मण्डपमें पहुँचनेपर दक्षने सतीका किंचित् भी सत्कार नहीं किया। उनकी चुप्पी देखकर दूसरे लोग भी उन्हींके भयसे कुछ भी न बोले। केवल माता और बहनें सतीसे प्रेमपूर्वक मिलीं और उन्हें आदरपूर्वक उपहारकी वस्तुएँ देने लगीं, किन्तु पितासे अपमानित होनेके कारण स्वाभिमानिनी सतीने किसीकी दी हुई कोई भी वस्तु स्वीकार नहीं की। सतीको स्वामीकी कही हुई बातें याद आने लगीं।

उस यज्ञमें शिवजीके लिये कोई भाग न देकर उनका घोर अपमान किया गया था। सतीने इस बातकी ओर भी लक्ष्य किया। इससे उनके मनमें बड़ा क्रोध हुआ। उनकी भौंहें तन गयीं, आँखें लाल हो गयीं और ऐसा जान पड़ा, मानो वे सम्पूर्ण जगत्को भस्म कर डालेंगी। उनका यह भाव देखकर शिवके पार्षद भी दक्षको दण्ड देनेके लिये उद्यत हो गये, किंतु सतीने उन्हें रोक दिया और समस्त सभासदोंके सामने इस प्रकार कहना आरम्भ किया

'पिताजी ! भगवान् शंकर सम्पूर्ण देहधारियोंके प्रिय आत्मा हैं, उनसे बढ़कर इस संसारमें दूसरा कोई भी नहीं है। उनके लिये न कोई प्रिय है, न अप्रिय । वे सर्वरूप हैं, अतः उनका किसीके साथ भी वैर - विरोध नहीं है। ऐसे भगवान्‌के साथ आपको छोड़कर दूसरा कौन विरोध कर सकता है? अहो ! महापुरुषोंके मनरूपी भ्रमर ब्रह्मानन्दमय रसका पान करनेकी इच्छासे जिनके चरण-कमलोंका निरन्तर सेवन करते हैं तथा जो भोग चाहनेवाले पुरुषों को उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन्हीं विश्वबन्धु भगवान् भूतनाथसे आप वैर करते हैं, यह आपके लिये बड़े दुर्भाग्यकी बात है! सुनती हूँ, आप कहा करते हैं, वे केवल नाममात्रके शिव हैं; उनका वेष तो महान् अशिव-अभद्र है, क्योंकि वे नरमुण्डोंकी माला, चिताकी राख और हड्डियाँ धारण किये, जटा बिखराये, भूत-पिशाचोंको साथ लिये श्मशानमें विचरा करते हैं। मालूम होता है, शिवके उस अशिव रूपका ज्ञान सबसे अधिक आपको ही है; आपके सिवा दूसरे देवता ब्रह्मा आदि भी इस बातको नहीं जानते। तभी तो वे शिवके चरणोंपर चढ़े हुए निर्माल्यको अथवा उनके चरणोदकको अपने मस्तकपर धारण करते हैं। पिताजी ! शास्त्र क्या कहता है? यदि कोई उच्छृङ्खल प्राणी धर्मकी रक्षा करनेवाले ईश्वरकी निन्दा करे तो अपनेमें उसे दण्ड देनेकी शक्ति न होनेपर दोनों कान मूंद ले और वहाँसे हट जाय। अथवा यदि शक्ति हो तो उस बकवादीकी - दुष्टकी जिह्वाको काटकर फेंक दे। ऐसा करते समय कदाचित् प्राणों पर संकट आ जाय तो प्राणोंको भी त्याग दे; वही धर्म है। आप भगवान् नीलकण्ठकी निन्दा करनेवाले हैं; अतः आपसे उत्पन्न हुए इस शरीरको अब मैं नहीं धारण करूंगी। यदि भूलसे कोई दूषित अन्न खा लिया जाय तो वमन करके उसे निकाल देना ही आत्मशुद्धिके लिये आवश्यक बताया गया है। भगवान् शिव जबजब आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसीमें भी दाक्षायणी (दक्षकुमारी)के नामसे पुकारते हैं, तब-तब उस हास-परिहासको भूलकर मेरा मन तुरंत ही दुःखके अगाध समुद्रमें डूब जाता है। अतः आपके अंगसे उत्पन्न हुए इस शवतुल्य शरीरको अब त्यागे देती हूँ; क्योंकि यह मेरे लिये कलंकरूप है।'

यज्ञमण्डपमें इस प्रकार कहकर देवी सती मौन हो उत्तर दिशामें बैठ गयीं। उनका शरीर पीताम्बरसे ढका था। वे आचमन करके नेत्र बन्द किये योगमार्गमें स्थित हो गयीं। पहले उन्होंने आसनको स्थिर किया, फिर प्राण और अपान वायुको एकरूप करके नाभिचक्रमें स्थापित किया । तदनन्तर उदान वायुको नाभिचक्रसे धीरे-धीरे ऊपर उठाया और बुद्धिसहित हृदयमें स्थापित कर दिया; फिर हृदयस्थित वायुको वे कण्ठमार्गसे भृकुटियोंके बीचमें ले गयीं। महापुरुषोंके भी पूजनीय भगवान् शिव जिसको बड़े आदरके साथ अपने अंकमें बिठा चुके थे, उसी शरीरको मनस्विनी सतीदेवी दक्षपर क्रोध होनेके कारण त्याग देना चाहती थीं; अतः उन्होंने अपने सम्पूर्ण अंगों में अग्नि और वायुकी धारणा की। इसके बाद वे अपने स्वामी जगद्गुरु भगवान् शिवके चरणारविन्द-मकरन्दका चिन्तन करने लगीं; उसके सिवा दूसरी किसी वस्तुका उन्हें भान न रहा। उस समय उनकी वह दिव्य देह, जो स्वभावसे ही निष्पाप थी, तत्काल योगाग्निसे जलकर भस्म हो गयी।

इस प्रकार पतिप्राणी सतीकी ऐहलौकिक लीला समाप्त हुई। उन्होंने जीवनभर सदा ही तन-मन, प्राणसे अपने पति भगवान् शिवकी सेवा और समाराधना की तथा अन्तमें भी उन्हींका चिन्तन करते-करते प्राण त्याग किया। मरते समय भी उन्होंने भगवान्से यही वर माँगा था कि प्रत्येक जन्ममें मेरा भगवान् शिवके ही चरणोंमें अनुराग हो ।

इसीलिये वे पुनः गिरिराज हिमालयके यहाँ पार्वतीके रूपमें प्रकट हुईं और भगवान् शंकरको ही पतिरूपमें प्राप्त किया। सतीका यह दिव्य पतिप्रेम भारतकी नारियोंके लिये आदर्श बन गया। आज घर-घरमें सती-पूजाकी जो प्रथा चली आती है, उसमें दक्ष-कन्या सतीके प्रति ही भारतीय नारियाँ अपनी श्रद्धा और भक्ति अर्पित करती हैं। सतीजी भगवान् शिवके लिये ही उत्पन्न हुईं, उन्हीं की सेवाके लिये जीवित रहीं और उसीमें बाधा पड़नेपर फिर उन्हींको सम्पूर्णरूपसे प्राप्त करनेके लिये उन्होंने अपने शरीरको त्याग दिया। गंगाके किनारे जिस स्थानपर सतीने अपना शरीर छोड़ा था, वह आज भी 'सौनिक तीर्थ' के नामसे विख्यात है।

- कहीं-कहीं स्वायम्भुव मनुकी कन्या प्रसूति' को इनकी धर्मपत्नी बताया गया है।

१. ततः स्वभर्तुश्चरणाम्बुजासवं जगद्गुरोश्चिन्तयती न चापरम् । ददर्श देहो हतकल्मषः सती सद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना॥

(श्रीमद्भा० ४।४।२७)

2- सती मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥ (श्रीरामचरितमानस)