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महाराज मनु

मनि विनु पनि जिमि जल बिनु मीना।
मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना
—(श्रीरामचरितमानस)

जब ब्रह्माजी ने सृष्टि के प्रारम्भ में देखा कि उनकी मानसिक सृष्टि नहीं बढ़ रही है, तब अपने शरीर से उन्होंने एक दम्पति को प्रकट किया। ब्रह्माजी के दाहिने अङ्ग से मनु तथा बायें अङ्ग से उनकी पत्नी शतरूपा प्रकट हुई। ब्रह्माजी ने मनु को सृष्टि करने का आदेश दिया। उस समय पृथ्वी जल में डूब गयी थी। मनु ने स्थल की माँग की प्रजाविस्तार के लिये। ब्रह्माजी की प्रार्थना पर भगवान्ने वाराहरूप धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया। पृथ्वी का उद्धार हो जानेपर मनु अपनी पत्नीके साथ तप करने लगे। तपके द्वारा उन्होंने भगवान्‌को प्रसन्न किया। भगवद्दर्शन करके भगवान्‌की आज्ञासे महाराज मनुने प्रजा उत्पन्न करना स्वीकार किया; क्योंकि सन्तानोत्पादनका मुख्य उद्देश्य ही यह है कि सन्तान उत्तम गुणवाली तथा भगवद्भक्त हो और वह अपने पूर्वजोंको परलोकमें अपने कर्मोसे सन्तुष्ट करे। कामवासनासे स्त्री-सेवन तो एक प्रकारका पाप ही है। वासनासे उत्पन्न की गयी सन्तानमें भी वासना ही प्रधान होगी। तप, भगवद्धजन आदिके द्वारा जब अपना चित्त निर्मल हो जाय, तभी सन्तानोत्पत्ति करनी चाहिये - यह हिंदू-धर्मकी बड़ी पवित्र मान्यता थी। भगवान्का दर्शन हो जानेके पश्चात् मनुने शतरूपासे दो पुत्र तथा तीन कन्याएँ उत्पन्न कीं। महाराज मनुके पुत्र हुए प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा कन्याएँ हुई आकृति देवहूति तथा प्रसूति ।

सृष्टिके प्रथम कल्पमें इन स्वायम्भुव मनु महाराजकी सन्तानोंसे ही पृथ्वीपर सभी मनुष्य वंश बढ़े। महाराज मनुके प्रथम पुत्र प्रियव्रतजी परम भगवद्भक्त हुए। उन्होंने ही इस पृथ्वीको सद्वीपवती बनाया। दूसरे पुत्र उत्तानपादजीके पुत्र ध्रुवजी जैसे भक्त श्रेष्ठ हुए मनुको कन्या आकृतिका विवाह महर्षि रुचिसे हुआ, जिससे भगवान् यज्ञरूपमें अवतरित हुए। दूसरी कन्या देवहूतिका विवाह महर्षि कर्दमसे हुआ, जिससे भगवान्ने कपिलरूपमें अवतार लिया। तीसरी कन्या प्रसूति ब्रह्माजीके मानसपुत्र दक्षको विवाही गयीं। इनकी सन्तानोंसे ही जगत्में मनुष्यसृष्टिका सर्वाधिक विस्तार हुआ। महाराज मनुने अपनी सन्तानोंको कल्याणपथपर चलानेके लिये 'मानव-धर्मशास्त्र का उपदेश किया। यह मनुस्मृति अब भी स्मृतियोंमें प्रधान मानी जाती है।

अपना मन्वन्तर काल व्यतीत होनेपर मनुजीने राज्य पुत्रोंको दे दिया और स्वयं विरक्त होकर पत्नीके साथ तप करने वनमें चले गये। दीर्घकालीन अखण्ड राज्यमें मनुने देख लिया था कि विषयोंका कितना भी सेवन किया जाय, उनसे तृप्ति नहीं होती। इन दुःखदायी विषयोंसे मनको बलपूर्वक हटाकर ही प्राणी शान्ति पाता है। समस्त विषयभोगोंको त्यागकर वे वनमें पहुँचे और भगवत्प्राप्तिके लिये कठोर तप करने लगे। वे द्वादशाक्षर मन्त्रका निरन्तर जप करते और बराबर उनका चित्त भगवान् वासुदेवमें लगा रहता। उनके मनमें केवल एक ही इच्छा थी कि जो सर्वेश्वर, सर्वमय, परम प्रभु हैं, उनका इन चर्मचक्षुओंसे साक्षात्कार हो।

'वे दयामय प्रभु यद्यपि अखण्ड हैं, अनन्त हैं, निरुपाधिस्वरूप हैं; किंतु वे भक्तवत्सल भक्तोंके वशमें रहते हैं। भक्तोंपर कृपा करनेके लिये वे नाना मङ्गलमय रूप धारण करते हैं। अवश्य वे दयाधाम मुझपर दया करेंगे।' मनु इस अविचल विश्वाससे तपस्यामें लगे थे। उनके साथ उनकी साध्वी पत्नी शतरूपा भी तप कर रही थीं। दीर्घकालतक वे केवल जल पीकर रहे और फिर उसे भी छोड़ दिया। वे महान् दम्पति एक पैरसे खड़े होकर भगवान्‌में चित्त लगाये एकाग्र मनसे प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब वे करुणामय कृपा करते हैं। अनेक बार ब्रह्माजी तथा दूसरे देवता मनुके समीप आये और उन्होंने वरदान माँगनेको कहा; किंतु मनुकी निष्ठामें अन्तर नहीं पड़ा। वे अपने निश्चयपर स्थिर थे। अपने आराध्यको छोड़ दूसरेसे उन्हें कुछ कहना नहीं था। तपस्या करते-करते दम्पतिके शरीर अस्थियोंके ढाँचेमात्र रह गये; किंतु उनका मन प्रसन्न था। उनके चित्तमें खेद या निराशाका नाम नहीं था। भगवान्की कृपापर उन्हें पूरा भरोसा था। अन्ततः प्रभु द्रवित हुए। आकाशवाणीने महाराज मनुको वरदान माँगनेको कहा। वह साधारण आकाशवाणी नहीं थी, उसके कानों में पड़ते ही दोनोंके शरीर पुष्ट हो गये। प्राणोंमें जैसे अमृतसंचार हो गया। रोम-रोम खिल उठा। मनुने दण्डवत् करके बड़ी श्रद्धासे कहा- 'प्रभो! यदि हम दीनोंपर आपका स्नेह है तो आप हमें दर्शन दें! श्रुतियाँ आपके जिस सौन्दर्य- माधुर्यमय रूपका वर्णन करती हैं, भगवान् शंकर आपके जिस रूपका ध्यान करते हैं, उस आपके भुवनमङ्गल रूपको हम भर नेत्र देखना चाहते हैं।'

भक्तवत्सल भगवान् मनुकी प्रार्थना सुनकर उनके सम्मुख प्रकट हो गये। प्रभुके नवीन जलधर-सुन्दर श्री अङ्गकी छटासे दिशाएँ आलोकित हो गयीं। एकटक मनु उस पीताम्बरधारी, सर्वाभरणभूषित मुनिमनहारी दिव्यरूपको देखते रह गये। प्रभु अकेले नहीं प्रकट हुए थे, उनके साथ उनकी पराशक्ति भी प्रकट हुई थीं। * भगवान्ने प्रकट होकर फिर वरदान माँगनेके लिये कहा। महाराज मनु एकटक उस दिव्यरूपको देख रहे थे । नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे। हृदय कहता था कि यह रूप सदा नेत्रोंके सामने ही रहना चाहिये। मनुने बड़े संकोचसे कहा-'दयामय ! आप उदारचूड़ामणि हैं! आपके लिये अदेय कुछ भी नहीं है। मेरे मनमें एक लालसा है तो सही; किंतु मुझे बड़ा संकोच हो रहा है -

दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ।
चाह तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥

भगवान्ने जब बार-बार निःसङ्कोच माँगनेको कहा तब, मनुने माँगा - 'आपके समान पुत्र मुझे प्राप्त हो । ' भगवान् हँस पड़े। भला, उनके समान रूप-शील-गुणमें दूसरा कोई कहाँसे आ सकता है। उन्होंने स्वयं मनुका पुत्र होना स्वीकार किया।

श्रीशतरूपाजीने भगवान्‌के आग्रह करनेपर कहा- 'मेरे पतिदेवने जो वरदान माँगा है, मुझे भी वही अत्यन्त प्रिय है। प्रभो! आपके जो अपने जन हैं, जो भक्त आपको परम प्रिय हैं, उनको जो सुख, जो गति, जो भक्ति, जो ज्ञान प्राप्त होता है, वही आप हमें प्रदान करें।'

महाराज मनुने हाथ जोड़कर भगवान्से पुनः प्रार्थना की— 'दयाधाम ! मेरा चित्त आपमें वात्सल्यभावसे लगा रहे। चाहे संसारमें मैं मोहमुग्ध अज्ञानी ही कहा जाऊँ, पर मेरा अनुराग आपमें ऐसा हो कि मेरा जीवन आपके बिना सम्भव न रहे। जैसे मणिके बिना सर्प तथा जलके बिना मछली जीवित नहीं रहती, वैसे ही मेरा जीवन आपपर अवलम्बित रहे ।'

भगवान्ने मनुको आश्वासन दिया। त्रेतामें यही महाराज मनु अयोध्यानरेश दशरथजी हुए और उनकी पत्नी शतरूपा कौसल्या हुईं। भगवान्‌ने श्रीरामके रूपमें अवतार ग्रहण किया। अपने अंशोंके साथ वे महाराज दशरथके पुत्र बने और उनकी नित्यशक्ति मिथिलाराजकुमारीके रूपमें प्रकट होकर चक्रवर्ती महाराज दशरथकी पुत्रवधू बनीं।