Andhayug aur Naari - 51 books and stories free download online pdf in Hindi

अन्धायुग और नारी - भाग(५१)

फिर मैं उस पुराने मकान के पास पहुँचा और मैंने किवाड़ों पर लगी साँकल को धीरे से खड़काया,तब भीतर से कोई जनाना आवाज़ आई और उसने पूछा....
"कौन...कौन है?"
तब मैंने कहा....
"मैं हूँ जी! एक भटका हुआ मुसाफिर"
"सच कहते हो ना तुम! झूठ तो नहीं बोल रहे,पता चला मैं किवाड़ खोल दूँ और तुम दंगाई निकले तो",वो बोली...
"सच! कहता हूँ जी! मैं हालातों का मारा एक भटका हुआ मुसाफिर हूँ,कोई दंगाई नहीं हूँ,भूखा प्यासा भटक रहा हूँ,कुछ खाने पीने को मिल जाता तो बहुत मेहरबानी हो जाती",मैंने कहा...
"तुम वहीं ठहरो,मैं अभी दरवाजा खोलती हूँ",
और ऐसा कहकर एक अठारह उन्नीस साल की लड़की ने दरवाजा खोला,उसके हाथ में गौरापत्थर से बनी एक ढ़िबरी थी,जिसकी रोशनी में मैं उसका चेहरा देख पा रहा था,सच वो बहुत ही खूबसूरत और मासूम थी, उसने खद्दर का बना सलवार कमीज पहना था और चुनरी को सिर से ओढ़ रखा था,मैं उसके चेहरे को निहार ही रहा था कि एकाएक वो मुझसे बोली....
"मुझे क्या देखते हो,भीतर आओ,बाहर बहुत खतरा है",
उसकी बात सुनकर मैं चौंका और फिर घर के भीतर जैसे ही पहुँचा तो भीतर की कोठरी से कोई जनाना आवाज आई....
"विम्मो....ऐ...विम्मो ! कहाँ मर गई,बाहर का दरवाजा क्यों खोला तूने?"
"दादी! कोई आया था,उसी के लिए दरवाजा खोला था",विम्मो किवाड़ बंद करते हुए बोली...
"अक्ल की मारी...जानती नहीं कि कैसा माहौल चल रहा है,कोई दंगाई घुस आया तो",दादी बोली...
"दादी! अब तो वो भीतर आ गया है,तुम घबराओ मत शरीफ आदमी लगता है"विम्मो बोली...
"क्या उसकी शक्ल पर लिखा है कि वो शरीफ़ आदमी है?",दादी ने पूछा...
"दादी! शख्सियत देखकर भी तो जाना जा सकता है ना कि वो इन्सान कैसा है",विम्मो बोली...
"मुझे पढ़ा रही है,मैंने धूप में बाल सुफेद नहीं किए हैं,अभी मैं वहीं आकर देखती हूँ कि तूने किसे इस घर में पनाह दी है",
और फिर डण्डा टेकते हुए दादी अपनी कोठरी से निकलकर बाहर आई और लालटेन की रोशनी को बढ़ाकर मुझे अपनी ऐनक में से ध्यान से देखने लगी,जब उन्हें तसल्ली हो गई कि मैं कोई शरीफ इन्सान हूँ तो विम्मो से बोली.....
"शकल से कई दिनों का भूखा लगता है बेचारा है,जा मक्के की दो तीन रोटी सेंक दे,दो चार आलू रखे हैं भूने हुए तो उनमें नून मिर्च मिलाकर भरता बना दे और देख कोने में पीतल की बटलोई रखी होगी,थोड़ा दूध बचा है तो खाना खिलाने के बाद वो दूध गुनगुना करके दे देना,भूख मिट जाएगी बेचारे की,मैं आराम करने जा रही हूँ और इसे यही बाहर वाले कमरे में सुलाकर तू मेरे पास सोने के लिए आ जाना"
और इतना कहकर दादी फिर से अपने कमरे में सोने के लिए चली गई,मैंने दादी को ध्यान से देखा उन्होंने भी खद्दर का सलवार कमीज ही पहन रखा था,गोरा रंग,अच्छी लम्बाई,सन से सफेद बाल ,आँखों में ऐनक,बुढ़ापे की वजह से कमर थोड़ी झुक गई थी,मैं उन्हें जाते हुए देख ही रहा था कि विम्मो बोली....
"दादी दिल की बहुत अच्छी है,बस हालातों ने उन्हें सख्त बना दिया है,आँगन में गुसलखाना है,वहाँ पानी भरा रखा है,तुम वहाँ जाकर हाथ मुँह धो लो तब तक मैं तुम्हारे लिए रोटियाँ सेंक देती हूँ"
और ऐसा कहकर उसने लालटेन अपने पास रख ली और मेरे हाथ में ढ़िबरी थमा दी,मैं हाथ मुँह धोने गुसलखाने की ओर बढ़ गया और वो आँगन में ही बनी रसोई में जाकर चूल्हा बालकर आटा गूँथने लगी, आटा गूँथने के बाद उसने आलुओं का भरता तैयार कर दिया,मैं हाथ मुँह धोकर आया तो वो बोली....
"वो उधर अलगनी से साफ तौलिया टँगा है,तुम उससे अपने हाथ मुँह पोंछ लो"
मैं हाथ मुँह पोंछकर उसकी ओर आया तो उसने मेरे बैठने के लिए लकड़ी का पटला खिसकाते हुए कहा....
"लो इस पर बैठ जाओ,मैं तुम्हारे लिए खाना परोसती हूँ"
फिर मैं उस पटले पर बैठ गया,तब उसने पीतल की एक थाली में भरता परोसा और मक्के की तवे पर सिकी अधपकी रोटी उसने अँगारो पर सेंककर उस में घी लगाकर मेरी थाली में रख दी,फिर मैं वो रोटी खाने लगा,भूख के कारण मैं उससे पूछना ही भूल गया कि तुम नहीं खाओगी,जब मैंने एक रोटी खतम कर दी तो तब मैंने उससे कहा..
"माँफ करना,इतनी जोरों की भूख लगी थी कि मैं तुमसे खाना खाने के लिए पूछना ही भूल गया"
तब वो बोली....
"कोई बात नहीं,मैं और दादी खाना खा चुके हैं,दादी तो खाकर सो गई थी,लेकिन मुझे इतनी जल्दी नींद नहीं आती"
"तो तुम क्या कर रही थी",मैंने पूछा...
"मैं कुछ सीने पिरोने और कसीदाकारी का काम करती रहती हूँ",वो बोली....
"एक बात पूछूँ",मैंने उसे कहा...
"हाँ! कहो",वो बोली...
"तुमने मुझ पर भरोसा कैंसे कर लिया",मैंने उससे पूछा...
"शकल से सब पता चल जाता है",वो बोली....
"ओह...तो मेरी शकल पर लिखा है कि मैं शरीफ़ इन्सान हूँ",मैंने मुस्कुराते हुए कहा....
फिर वो मेरी इस बात को अनदेखा करते हुए बोली...
"और रोटी लोगे",
तब मैंने कहा...
"हाँ! एक और ले लूँगा",
और वो अपनी गरदन नीचे करके फिर से रोटी बनाने में लग गई,मैंने उस रात भरपेट खाना खाया,खाना खाने के बाद विम्मो ने मुझे पीतल के बड़े गिलास भर गुनगुना दूध दिया,उसके बाद बाहर वाले कमरे में उसने मेरे लिए एक चारपाई बिछाकर उस पर बिस्तर लगा दिया और खुद दादी के कमरे में सोने चली गई, मुझे विम्मो की सादगी भा गई थी,मैं थोड़ी देर तक उसके बारें में सोचता रहा और फिर मुझे नींद आ गई, सुबह गाय के रम्भाने की आवाज़ से मैं उठ गया,उस वक्त मेरे कमरे के दरवाजे खुले थे और विम्मो सामने ही घर के बाहर बाड़े में गाय का दूध दुह रही थी,दूध दुहने के बाद वो मेरे पास आई और मेरे हाथ में नीम की दातून थमाते हुए बोली....
"जाओ दातून वगैरह कर आओ,मैं नाश्ता बनाने जा रही हूँ",
"लेकिन मुझे तो नहाने का मन कर रहा है,कई दिनों से नहाया भी नहीं है मैंने",मैंने उससे कहा...
"तो यहाँ पानी की कोई कमी नहीं है,आँगन में कुआँ है तुम आराम से जी भर कर नहा सकते हो",वो बोली...
"लेकिन एक समस्या है",मैंने कहा....
"वो भला क्या",उसने पूछा....
"मेरे पास कपड़े नहीं हैं"मैंने कहा....
"तुम यहीं ठहरो मैं तुम्हारे लिए कपड़े ले आती हूँ",

क्रमशः...
सरोज वर्मा...