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सर्कस - 3

                                                                                                  सर्कस: ३

 

            सुबह हो गई। एक अलग, अपरिचित उर्जा की लहरें वातावरण को पुलकित कर रही थी। कोलाहल भरे मन को, एक नये लक्ष्य की ओर प्रेरित करने वाले विचारों से अब मैं उत्साहित अनुभव कर रहा था। आज चाचाजी के साथ अरुण वर्माजी से मिलने जाना है, यह बात एक कुछ हद तक मनोधैर्य बढा भी रही थी और घटा भी रही थी। हम दोनों तयार होकर ऑफिस जाने के वक्त से पहिले ही निकल गए। जाते वक्त विनीत और राधा ने शुभकामनाएं देते हुए मेरा मनोबल बढाया। सर्कस के ऑफिस में पहुंचने तक हम दोनों कुछ जादा बोल नही पाए। अपने ही खयालों में खोए रहे। अनजाने में मेरे फैसले की जिम्मेदारी चाचाजी पर आ गई थी। इस कारोबार में पैसा, मेहनत, खतरों की संभावना बहोत जादा थी। अलग-अलग जगहों पर घुमते हुए वहाँ के वातावरण से भी परिचित होना था। सर्कस में करतब दिखाते वक्त चोट लगना, जानवरों का मनमौजीपन, विभिन्न प्रकार का भोजन, इतने सारे लोगों की अलग-अलग मानसिकता, कौन कब दुश्मन बन जाए यह बात कह नही सकते। बुरी आदतों में फँसे लोग भी यहाँ मिल सकते है। ऐसे हालात में इतने छोटे बच्चे को छोडना मतलब वास्तविकता में बहोत मुश्किल काम था। केवल एक अलग दुनिया में जाने का सपना देखना और वास्तव में उसका सामना करना इसमें जमीन-आसमान का फर्क था।

        विचारों की शृंखला में हम लोग ऑफिस पहुंच गए। केबिन में प्रवेश करते ही मेरी मुलाकात एक मुस्कुराते हुए, नेक, लम्बे व्यक्तित्व से हुई। घने मुछो में से सफेद चमकते दातों की माला दिखाकर, आँखों में झाँककर हँसने की अदा किसी को भी लुभाने वाली थी। जैसे मैं उनको करीब से देख रहा था, वैसे वह भी मुझे बारिकी से देख रहे थे। पहाडी इलाके से होने, और दादाजी के प्रशिक्षण के कारण लंबी चौडी शरीरयष्टी, चमकीला गोरा वर्ण, मुझे मिला था। बचपन से ही सबके साथ घुलमिल कर बात करने की सीख के कारण, किसी से भी बात करते वक्त मेरे आवाज या व्यवहार में कोई तनाव नही आता था। खुलापन, फुर्तीली भाषा, और मेरा कुलीन व्यवहार सबको मोहित कर लेता था। चाहे कहीं भी जाऊँ, सबको प्रिय बना लेने की कला मुझ में थी। लोग जादा देर तक मेरे खिलाफ नही रह पाते, खुशी से अपनी हार स्वीकार कर लेते थे। इसलिए केवल सोलह वर्ष का होते हुए भी मेरा व्यक्तित्व आत्मविश्वास से भरपूर था। चाचाजीं ने अरुण वर्माजी से मिलवाया तब हम दोनों एक-दुसरे को देखकर मुस्कुराते ऐसे मिले, मानो जनम-जनम से जानते हो। उनके मजबुत हाँथ का पकडने का ढंग मानो मेरा स्वागत कर रहा था। नई चुनौतियों का सामना करते समय, साथ देने की हमी और वफादार व्यवहार की भाषा हम अपने आँखों से ही जैसे कर रहे थे। हमे कुर्सी की ओर इशारा करते हुए बैठने के लिए उन्होंने कहा। मेरे मन ने अरुणचाचा ऐसा नामकरण भी कर दिया। उनको ‘सर’ बोलने का भी जी नही कर रहा था। उन्होंने एक आदमी को बुलाकर चाय बिस्किट लाने को कहा और हमने बातें करना चालू किया। पहले तो दोनों चाचा आपस में बात कर रहे थे। फिर मुझसे बात करने लगे।

      “ श्रवण, आपका निर्णय बहुत ही स्वागतार्ह है। मैं तो सचमुच चाहूंगा कि, आप इसमें शामिल हो। लेकिन यह क्षेत्र ऐसा है, जहाँ भ्रम और हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर है। हर रोज नए लोग मिलेंगे। अच्छे, बुरे अनुभवों से सामना करना पडेगा। निसंदेह आप अभी बहोत छोटे हो। जिम्मेदारी का काम तो आप के उपर सौंपा नही जाएगा। एक सर्कस में लगभग ग्यारह से पंधरह विभिन्न विभाग होते है। उनके बारे में विस्तृत जानकारी होना बहुत आवश्यक है। तुम्हे वह सब सीखना होगा। मैं तो हमेशा से ही सर्कस के साथ रहता हूं इसलिए हर हाल में तुम्हारे साथ ही रहूंगा। कल आपके चाचाजी जाने के बाद, मैंने सब रुपरेषा मन में तयार कर ली। आपको देखा भी नही था फिर भी मन ने आपके बारे में ग्वाही दी। आज तुम्हे देख के विश्वास ही हो गया कि अगर तुम यह सब सीख लोगे तो कामयाब सर्कस मालक जरूर बन जाओगे। मैं कुछ साल के बाद यह जिम्मेदारी तुम्हे सौंप सकता हूँ। अभी से यह बात आपके सामने बता रहा हूँ ताकि मन में ऐसा कोई संदेह नही रहे कि बाद में सर्कस का कारोबार सौंप दुंगा या नही ? और मेरे भी मन में यह बात ना रहे की यह मेरी परीक्षा के निकष में उतरता है या नही ? ऐसे सवाल के बिना, आपको भविष्य में सर्कस का मालिक बनाना है तो विभिन्न तरीके, नुस्खे सिखाकर में तुम्हे तयार कर सकुंगा और तुम भी आने वाले कल में इसकी उपयोगिता समझते हुए सब अच्छे से सीख जाओगे। एक प्रकार की दृढता हम दोनों के बीच में बनी रहेगी। हम दोनों गुरु-शिष्य के रुप में कार्यरत रहेंगे। जहाँ जरूरत पडेगी वहाँ मैं तुमपर क्रोधित भी हो जाऊँगा, और बदलते जमाने की दृष्टिकोन से तुम्हारे मन में कोई नया पहलू ध्यान में आता है तो, तुम भी मुझे उसके बारे में बेझिझक बता सकते हो। लेकिन वह बात परिणामकारक तरीके से समझानी पडेगी। मैं, भविष्य में एक मालिक के रुप में तयार करूंगा, पर तुम्हे भी एक कॉन्ट्रॅक्ट पर हस्ताक्षर करने होंगे कि दस साल तक यह सर्कस छोडकर नही जा सकोगे। क्युंकी तुम सीखकर तयार होने के बाद बीच में ही चले गए तो मेरा बहोत भारी नुकसान होगा। सर्कस का काम बहुत फैला हुआ होता है, अचानक ऐसेही किसी के हाँथ नही सौंप सकते। एकबार यहाँ सब सीख गए तब सर्कस आपको बेच दुंगा। तब तक यहाँ काम करनेवाले एक कर्मचारी के रुप में रखा जाएगा और तनखा भी मिलेगी। तुम्हे यहाँ बसा हुआ देखकर परिवार के लोग भी संतुष्ट होते हुए पैसा इसमें निवेश कर सकेंगे। यहाँ हर विभाग में आपको काम करना होगा तभी पता चलेगा की कहाँ पर कौनसी समस्या रहती है। तब तुम्हे कोई धोखा नही दे सकता। मुझे जो कहना था वह सब कह दिया, अब इसपर आपकी क्या राय है यह मैं जानना चाहता हूँ।”  अरुण चाचाजी के सुसंबधित विचारों को सुनकर हम दोनों तो हक्का-बक्का रह गए।   

       सब कुछ स्पष्टरुप था। मेरे सपने और उनकी रिटायर्ड लाइफ की ओर जा रही जिंदगी ने जैसे आपस में मेल बनाया हो। मैंने उनसे कहाँ “ चाचाजी, हम तो सिर्फ मेरे मन में जो विचार आया, उसके बारे में बात करने आए थे। और आपने तो मेरे ख्वाब की ओर चलने का रास्ता ही बता दिया। काम के बारे में आप जो भी बात कर रहे है, उससे मैं सहमत हूं। धन और अग्रिमेन्ट के बारे में पिताजी, चाचाजी, बडे बुजुर्ग लोग आपसे बात कर लेंगे। मैं भी सर्कस में काम करते हुए पढना चाहता हूँ। उसे अधुरा नही छोडूंगा। इस व्यवसाय के लिए आवश्यक विषयों का चयन करते हुए पढना जारी रखूंगा। पहले परिवार वालों से इस विषय के बारे में बात करनी होगी। अभी दसवी के नतीजे के बाद मैं कॉलेज में दाखिला लुंगा, फिर काम शुरू करूंगा।”

      चाचाजी ने कहाँ “ अरुण सर, आपको ऐसा नही लगता, इतने छोटे बच्चे के केवल एक विचार पर हम इतना भरोसा कर सकते हैं ?”

      “ विश्वास सर, इसमें दो-तीन बातें है। एक तो यही आयु होती है की व्यक्ति अपने मजबूत इरादों की राह पर तन-मन-धन से चल पडता है और सफलता प्राप्त कर लेने में कामयाब हो जाता है। खुद क्या करना है ? उसके लिए क्या चाहिये ? इस बात पर दो दिन में उसने योजना तयार कर ली। युवावस्था के जोश को स्पष्ट रुप से तरीका मिल जाए तो वे शीघ्र ही कामयाब होते है। कुछ लोग तो जान ही नही पाते कि जीवन में क्या हासिल करना है। वे अपना जीवन बस, प्रयास करने में ही बिता देते है। मैं तो यह भगवान का आशिर्वाद ही समझूंगा की हम दोनों की मुरांदे एक-दुसरे के साथ पूरी हो जाएगी। आपके खानदान से मैं वाकिफ हूँ। इसलिए मेरा पैसा डुबेगा नही, इस बात का मुझे यकीन है। आप अपने परिवार से बात करे, तय होने के बाद मुझे बताएँ। एक महिना सर्कस इसी शहर में है, उसके बाद आगे भोपाल या जबलपूर में सर्कस लगेगी। आप सब कुछ तय करने के बाद कभी भी उसे मेरे पास छोड सकते है।”

        अरुण चाचाजी ने टेबल के उपर की घंटी बजाई। पांच मिनिट में एक आदमी चाय और बिस्किटस लेकर आ गया। चायपान के साथ बाकी विषयों पर चर्चा करते हुए बाद में उनसे विदाई ली। चाचाजी वहाँ से सीधा ऑफिस चले गए।

        मैं खुश होकर घर की ओर मुड गया। मन में विचारों का सैलाब उठा था। चार दिन पहले, अपने घोसलें में बैठा नन्हा पंछी, आसमान में उडान भरने का ख्वाब देख रहा था, आज वो ही आसमान, अपनी बाहें फैलाए उसके सामने खडा था। क्या सचमुच यह रास्ता चल पाऊंगा ? युवावस्था की मौज-मस्ती, ट्रीप, कॉलेज की रंगीन दुनिया यह सब चीजे मुझसे छूट जाएगी। घर का प्यार याद आएगा, लेकिन ठीक है। कुछ अलग काम करना है तो कही ना कही कोई बात तो छूट ही जाएगी। अगर सीखने के लिए दुसरी जगह चला जाता तो वहाँ भी घर से दुर हॉस्टेल में ही रहना पडता। और मैं दस साल घर ही नही जा सकता ऐसी बात भी नही है। अभी से मेरी कमाई भी चालू हो जाएगी। दिमाग में आने वाले हर विचार को, सकारात्मकता से मार्ग दिखा रहा था।  

        जब घर पहुंचा तब तक बाकि लोगों ने खाना खा लिया था। सिर्फ राधा और विनीत खाने के लिए मेरा इंतजार कर रहे थे। खाना खाते वक्त जब हम तीनों वहाँ रह गए तब दोनों को रहा नही गया। सवाल पे सवाल करने लगे। मैंने भी फिर बात को जादा ना खींचते हुए सब घटना बता दी। वह बात सुनकर दोनों दंग रह गए। इतने बडे फैसले कि किसीने उम्मीद न की थी। इस बारें में हमारा वैचारिक स्तर कहीं ना कहीं आरंभिक परीक्षण, विचार और क्रिया इतने में ही रुका हुआ था, और आज, भविष्य में सर्कस मालिक बनने का सिक्का हाथ में था। यह सब सुनकर उनकी भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने उनको चुप रहने का इशारा किया। रात को चाचाजी सब बडे लोगों के सामने यह विषय रखेंगे और अगले हफ्ते हम अल्मोडा वापस जा रहे है, तब चाचाजी भी हमारे साथ आकर पिताजी से बात करेंगे। चाचाजी के साथ तय हुई बात राधा, विनीत को बताकर हम लोगों ने खाना खत्म किया और लेटने के लिए चल दिए। रात को एक अजीब तरह का तनाव महसुस होने के कारण ठीक से नीन्द नही आयी थी।

         जब मैं नींद से उठा तो घर में मिलीजुली आवाजें आ रही थी। चाय की गंध और कपों की खनक ने मन उत्साहित हो उठा। हाँथ पाँव धोकर हॉल में आ गया। राधा से नजर मिली तो कुछ क्षण, मैं अपना होश खो बैठा। हम दोनों को यह एहसास हो गया था कि कुछ अलग तरह का खिंचाव, आकर्षण से रेशम की डोर में हम बंधे जा रहे है। समय बीतता गया। भोजन के बाद सभी लोग बाहर के लॉन में बैठकर बाते करने लगे। अब मेरी टेंशन बढने लगी। चाचाजी ने यह कहकर सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया कि उन्हे कुछ कहना है।

  “ अब मैं जो कहने जा रहा हूँ वह आपको आश्चर्यचकित कर देगा, लेकिन इसके बारें में बात करेंगे और तय करेंगे कि यह अच्छा है या नहीं।”

  “ ओह, विश्वास अब तुम बडे हो गए हो। जिसके बारे में सोचा होगा वह ठीक ही होगा।” दादाजी बोले।             

  “ हाँ पिताजी, लेकिन आज की कहानी कुछ अलग हैं। अपने श्रवण के विचार में यह बात आ गई है कि सर्कस का मालिक बन जाऊँ।” चाचाजी सबका अनुमान लेने के लिए जरा रुक गए। उन्हें चारों तरफ फैली खामोशी कि ठंडी लहर महसुस हो गई। फिर धीरे-धीरे उस खामोशी का रूपांतर हँसी के ठहाकों में हो गया।

दादी गुस्से से बोली कुछ भी बात करता हैं ये। दादी के साथ बाकी महिलाओं का गुस्सा देखकर मैं सदमें में आ गया। दो-तीन दिन मेरे सपनों ने जो उडान भरी थी वह अब पानी के बुलबुले समान लगने लगा। जब दादाजी ने मेरी तरफ देखा तब उन्हें एहसास हुआ कि यह कोई मजाक नही, बल्कि हकीकत है। फिर उन्होंने चाचाजी की तरफ बडी गंभीरता से देखा और कहाँ “ विश्वास, हमे ठीक-ठीक बताओ यह क्या बात है ? तुम लोगों में आपस में बातचीत हो गई है।” दादाजी को नया व्यवसाय शुरू करने वाले लोगों के संवेदनाओं के बारे में बहुत बारीकियों की जानकारी थी। हर एक को अपने नए व्यवसाय के प्रति कितना गहरा लगाव होता है, इस बात से वह अच्छी तरह से वाकिफ थे।

     सबको शांत करते हुए चाचाजी ने शुरू से लेकर अब तक की सारी कहानी बताई। उसे सुनकर सभी लोग आश्चर्य, जिज्ञासा, प्रसन्नता, भय ऐसे भावनाओं से भर गए। महिला वर्ग इसके विरोध में उठ खडा हुआ, क्योंकि  अपना बच्चा इस तरह का भटका जीवन जीए यह बात उन्हे नामंजूर थी। दादाजी ने कुछ देर सोचा फिर मेरे तरफ मुडकर बोले “ श्रवण, क्या तुम सच में यह सब करना चाहते हो ? इसमें कितनी जोखिम है, इस बात का तुम्हे अंदाजा नही है।”

     “ हाँ दादाजी, मुझे कई चीजों के बारे में पता भी नही है। लेकिन हम जब नया काम चालू करते है तब उसके बारे में पहले से थोडी सब पता रहता है। वह तो सीखना पडता है। सर्कस की दुनिया अलग है, आमतोर पर लोग इस बारे में कम जानते है इसलिए सबके मन में सर्कस के प्रति भय भी है ओर आकर्षण भी। खुले आसमान के नीचे ये लोग अपनी जिंदगी जीना पसंद करते है। ऐसा खुला जीवन मतलब आनंद के साथ वेदनाओं से भी भरा होगा। वैसे देखा जाय तो सब की जिंदगी की यही कहानी है। कभी छाँव कभी धूप। जिंदगी के बारे में मैं कुछ कहूँगा यह तो छोटा मुँह बडी बात हो गई। मैंने अब तक चार दिवारों के भीतर सुरक्षित दुनिया का अनुभव किया है। अभी तो सिर्फ दुसरी दुनिया का अंदाजा लगा सकता हूँ। मुझे पता है आप सभी इसे हासिल करने में मदद करेंगे। शिक्षा तो मैं पूरी करूंगा। अगर सर्कस की दुनिया बाद में मुझे राज नही आई तो क्या करेंगे यह सवाल तो अपने परिवार के सामने आता ही नही है। अपना व्यवसाय तो सभी को अपने में समाता है। रही बात अरुणचाचाजी के अग्रिमेन्ट की, अग्रिमेन्ट किया और वहाँ मैं अपना स्थान नही बना सका तो क्या ? इसका जबाब मेरे पास नही है।”

        दादाजी सराहना के साथ मुस्कुराए “ श्रवण, तुम तो बहुत जल्दी बडे हो गए। इतनी कम उम्र में बडे व्यापक तरीके की सोच बहोत कम लोगों में दिखती है। ठीक है, इसके बारे में जरूर सोच विचार करेंगे। तुम्हारे माता-पिताजी से बात करेंगे। फिर देखते है क्या होता है ? तुम्हे हम मना तो नही करेंगे लेकिन अग्रिमेन्ट के बारे में सोचना होगा।” इस बयान के बाद किसी के हाँ या ना कहने का सवाल ही नही था। दादाजी का शब्द मतलब आखरी शब्द। फिर तय हुआ कि चाचाजी भी हमारे साथ अल्मोडा आएंगे, वहाँ सब मिलकर चर्चा करते हुए मिलकर फैसला करेंगे। थोडी देर बातचीत करने के बाद सब अपने-अपने कमरों में सोने के लिए चले गए।

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