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सर्कस - 5

                                                                                                 सर्कस : ५

 

          सुबह उठा, तब दिशाएँ हल्के-हल्के खुल रही थी। पंद्रह दिन का शारीरिक ओैर  मानसिक तनाव अब खत्म हो गया। अब जो था वह आगे एक स्पष्ट खुला क्षितिज। उसके तरफ जाने का रास्ता, कितना भी उबड-खाबड क्यों ना हो मंजिल का पता मालुम होना चाहिए। फिर रास्तें अपने आप मिल जाते है। बहुत लोगों को अपने मंजिलों के बारे में ही पता नही रहता है, तो कितने साफ रास्ते सामने हो क्या फायदा ? दिशाहीन भटकने वालें लोग, आधे-अधुरे रास्ते ही चलकर छोड देते है। मेरे मन में विचार घुम रहे थे। बाहर अभी भी किसी की आहट सुनाई नही दे रही थी। थोडी देर ऐसे ही लेटा रहा, फिर दादाजी, चाचा-चाची के जगने का एहसास हो गया तो मैं भी बिस्तर से निकलकर बाहर आ गया। चुँकि छुट्टीयाँ खत्म होने के कारण बाकी परिवार के सदस्य अब यहाँ मौजुद नही थे। राधा भी नही थी। उसकी याद में थोडी उदासी महसुस गई। उठकर हॉल में चला गया, बडे लोग आपस में बाते कर रहे थे। चाची बडे प्यार से मुझे रसोईघर में लेके गई। चाय-बिस्किटस मेरे सामने रखकर बातें करने लगी। मेरे फैसले की सराहना हर कोई कर रहा था लेकिन घर छूट जाने का गम बाकी लोगों को ही जादा सता रहा था।

      सब कुछ निपटाने के बाद हम चारों अरुण चाचाजी से मिलने ऑफिस गए। रास्ते में कोई किसी से बात करने की स्थिती में नही था। एक अजीब खामोशी छाई हुई थी। ऑफिस पहुंचने पर अरुण चाचाजी ने दिल से हम लोगों का स्वागत किया, इस से सबके मन के उपर का तनाव थोडा हल्का हुआ।

   अरुण चाचाजी बोले “ तुम्हे यहाँ देखकर बहोत अच्छा लगा। जैसे तुम लोग तनाव में थे, वैसे ही मैं भी तनाव महसुस कर रहा था। क्योंकि जब कोई व्यक्ति खुद निर्णय लेने की कोशिश करता है, तो सभी परिस्थितियाँ उसके अनुकूल नही होती, अनेक बाधाएँ सामने आकर खडी हो जाती है। ऐसे में व्यक्ति का उचित निर्णय ले पाना मुश्किल हो जाता है, तुम तो अभी बहुत छोटे हो। मैं इंतजार कर रहा था, देखना चाहता था कि आप कितने मजबूती से यहाँ पर आ जाते हो। आप आ गए, परिवार वालों ने तुम्हारा साथ दिया, आधी लढाई तो यही जीत गए। अब बाकी लढाई तुम्हारे कार्यक्षेत्र पर। कल फायनल काँट्रॅक्ट पर दस्तखत कर देते है। यह पुरा दस्ताऐवज आज घर पर आप सब लोग पढ लो, आपके वकील से बात कर लो। कल मेरे वकील के साथ आपके घर दोपहर चार बजे पहुँच जाऊँगा फिर फायनल काँट्रॅक्ट पर दस्तखत करेंगे। अब हमारा यहाँ का ठिकाना सिर्फ आठ दिन का बचा है। मेरी राय में यदि आपकी अनुमती हो तो श्रवण को परसो से ही सर्कस जॉइन करने दो। आठ दिन, रात को घर पहुँचाने की व्यवस्था मैं कर दुँगा, सुबह उसे आने में कोई दिक्कत नही होगी। ऐसा करने से आठ दिन में उसकी सब से जान पहचान भी होगी ओैर कामकाज के बारे में थोडा कुछ जान भी पाएगा, नये मित्र जुडेंगे तो घर की याद भी कम सताएगी। शुरूं में सब के साथ काम करते समय सिर्फ देखना, सुनना है। कोई बात अच्छी नही लगी तो भी उसे कुछ बोलना नही कि तुम ऐसे क्युँ करते हो, ऐसा मत करो। क्योंकि उस समय वह व्यक्ति ऐसा क्युँ कर रहा है, इसके कई कारण हो सकते है, पूर्व अनुभव हो सकते है। पूर्वानुभव से व्यक्ति कुछ अलग तरीके से सोच सकती है, ओैर तुम्हारे अननुभव की वजह से किसी को कुछ नही कहना सिर्फ निरीक्षण करते रहना यही तुम्हारा काम है। जब कोई व्यक्ति उस क्षेत्र में काम करने के बाद अपनी श्रेष्ठता हासिल करता है तभी वह कुछ कहने का हक रखता है। इसलिए अभी सिर्फ सीखने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। तुम्हे कही कुछ अलग लगे, तो हम जब बातें करेंगे तब मेरे साथ साझा करें। इतने सारे लोगों की देखभाल करना एक कला हैं। समय के अनुसार कभी कठीन होना पडता हैं, तो कभी-कभी प्यार से समस्याओं का समाधान करना पडता है। कभी पैसा देते हुए काम निकलवाना पडता है, उनके सुख-दुख में शामिल होते हुए उन्हे अपनाना पडता है। आठ दिन में मानसिक तौर पर तुम संभल जाओगे तो आगे का सफर आसान होगा।”

      पिताजी ने कहा “ मैं एक आखरी सवाल पुछना चाहता हूँ, क्या आपने कभी अपने  क्षेत्र में किसी को बताया है कि सर्कस का भार मैं तुम्हे सौंप दुँगा। ऐसा कुछ होगा तो वह आदमी श्रवण से नाराज होकर उससे बदला लेने की कोशिश करेगा।”

      अरुण चाचाजीने बडे गंभीरता से कहा “ सौभाग्य से मैने यह बात किसी से नही कही। मेरे बच्चे इस क्षेत्र में नही हैं, इसलिए कभी ना कभी कुछ साल बाद यह सर्कस किसी को बेच दुँगा यही अनुमान सबका हैं, ओैर सबसे मुख्य बात आप ध्यान में रखिये कि श्रवण भावी मालिक के रुप में यहाँ तैयार हो रहा है यह बात किसी को भी पता नही चलनी चाहिये। यह बात सिर्फ हम लोगों में ही सीमित रहेगी। श्रवण अपनी कार्यकुशलता दिखाकर सबका दिल जीत लेगा ओैर खुद को साबित करेगा। फिर कुछ ही वर्षों के बाद सर्कस के भावी मालिक के रुप में सभी लोग उसे स्वीकार करेंगे।” चाचाजी ने जो कहा उस बात पर सभी की सहमती थी। मुझपर जो जिम्मेदारी आने वाली थी उसकी व्याप्ती अब सब पहचान गए।  लेकिन इस में चिंता की कोई बात नही जैसे कॉलेज की शिक्षा ६/७ साल चलती है फिर वह बच्चा उस क्षेत्र में माहीर हो जाता है वैसे ही श्रवण भी ६ साल में तैयार हो जाएगा यह बात अरुणचाचाजी ने सबको समझा दी। मन का भार हलका होने से सबके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान दिखाई देने लगी।

       उनके विचार, दुनिया की समझ बहुत अच्छी थी। सबके मन की बात वह अच्छे से समझ जाते ओैर सही सलाह देते हुए तनाव दूर कर देते थे। दादाजी ओैर पिताजी ने अपने वकील मित्र से हुआ वार्तालाप उनको बता दिया। कुछ नए कलम के बारें में फिर चर्चा हो गई ओैर अगरीमेन्ट फायनल करने से पहले अगर कुछ निर्देश देने है तो विश्वासचाचाजी अरुण चाचाजी को फोन करेंगे। ऐसी बाते तय हो गई। उस हिसाब से कल चार बजे अरुणचाचाजी फायनल काँट्रॅक्ट लेकर हमारे घर पहुंचेंगे। यह सब तय होने के बाद चायपान का स्वाद ओैर चर्चा चलती रही, बाद में हम सब घर आ गए।

     विनीत हमारी राह ही देख रहा था। मैंने चुनी हुई अलग राह में उसको बहुत दिलचसपी आ गई थी। सर्कस के ऑफिस में क्या हुआ वह सब उसे पहले बता दिया, फिर हम लोग खाना खाने बैठ गए। माँ ओैर चाची ने मेरे पसंद के कई व्यंजन बनाए थे। भोजन का आनंद उठाते हुए गपशप चलती रही। थोडी देर विश्राम के बाद काँट्रॅक्ट पढना तय हो गया। भोजन के बाद हलकीसी नींद आँखों में समाने लगी। सच पुछो तो मेरी यह उम्र नही थी कि दोपहर में सोया करू, पर मन का तनाव ओैर शरीर भी शांती चाहता था, ओैर परसों से काम तो चालू होने ही वाला था, तो दो दिन चैन की नींद सोया तो उसमें कुछ हर्ज नही था। झट से आँख लग गई। चार बजे विनीत ने आकर जगाया तभी आँख खुली। हॉल में सभी इकठ्ठा हो गए थे। चाय के बाद काँट्रॅक्ट पर फिर से चर्चा शुरू हो गई। कुछ शर्तों पर सवाल उठाए गए, कुछ नए शर्तों पर विचार विनिमय हुआ, जो मंजुर था वह विनीत लिखता गया। आखरी में अरुणचाचाजी से फोन पर बात हो गई ओैर फायनल काँट्रॅक्ट उनको सुनाया गया। शाम ऐसे ही बीत गई।

      रात का खाना, खाने के बाद चाचाजी, विनीत ओैर मैं घुमने के लिए बाहर निकले। उस समय हम तीनों ने तय किया था कि सर्कस के बारे में अब कोई कुछ नही बात करेगा।

     विनीत ने कहा “ पिताजी, ऐसी कौनसी घटना हुई कि आपने फॉरेस्ट ऑफिसर बनने का फैसला किया ? तब की परिस्थिती कैसी थी ? आपने जो सोचा उसमें ओैर वास्तव में क्या अंतर था ? अब आप उस निर्णय से खुश हो ?”  

     “ विनीत अभी इस विषय को छेडा है तो, वही याद सुनाता हूँ। व्यक्ति के जीवन में कोई सपना या ध्येयप्राप्ती मिलने के लिए कोई छोटी घटना भी काफी हो जाती है।  पिताजी के खास दोस्त के लडके की शादी तय हुई। बुलावे पर ओैर नजदिकी संबध के कारण घर के सभी लोग शादी में शामिल हो जाएँगे यह तो अनिवार्य था। वह फॉरेस्ट ऑफिसर थे। डेहराडून में वनक्षेत्र के नजदिक उनकी बहुत बडी हवेली थी। वही शादी का शमियाना लगाया गया। कुछ अलग अनुभव लेने के लिए सभी उत्सुक थे। मुझे दुनिया की नई चीजे देखने का बडा शोक था। वह शादी बडी अनोखी ओैर शानदार रही। शादी के शामियाने के चारों तरफ घने वृक्षलता छाये हुए थे। जमिन पर उगे हुए हरे घास की बिछायत बहुत ही प्यारी लग रही थी। वन में खिले हुए नानाविध फुलों की खुशबू चारों तरफ महक रही थी। चाँद-सितारों के साक्षी में चल रही शादी की रस्मे, सुर्योदय के मंगल पावन समय पर पवित्र आशिर्वाद के साथ संपन्न हुई शादी कोई भुल नही पाएगा। उस समय श्रवण मैं तुम्हारी ही उम्र का था। जंगल की उस रात ने मेरा जीवन बदल दिया। चाचा के वन अधिकारी मित्र, उनके शिष्टाचार, जानवरों के बारे में चल रही बातचीत डाक बंगले के कुछ अद्भुत अनुभव, पक्षियों की आदते, इन सबके बारे में चर्चाएँ सुनकर मैं बहुत प्रभावित हुआ। शादी समारोह के बाद सीधे चाचाजी से मिलने गया, ओैर उनसे कहा मैं भी आपकी तरह वन अधिकारी बनना चाहता हूँ। पहले तो उन्हें मेरे बात पर हँसी आयी, लेकिन मेरे आँखों में दृढ संकल्प देखकर, मेरे विचार के बारे में ओैर जानना चाहा। सब सुनने के बाद उन्होंने जंगल के जानवरों, शिकारियों के खतरें, बारिश के दौरान, तरह-तरह की आनेवाली समस्याए, गर्मियों में जंगल की आग, आदिवासी लोगों के विभिन्न अनुभव इन सब के बारे में बताया, लेकिन मेरे मन में जंगल के बारे में जो तसबीर बसी हुई थी वह आकर्षण कायम रहा। यह सब देखकर चाचाजी ने वन अधिकारी बनने की तैयारी के बारे में बताया। परीक्षाएँ, शारीरिक क्षमता इसके लिए आवश्यक कठोर प्रशिक्षण के बारे में जब वह बता रहे थे उस समय उनके चेहरे के भाव देखने जैसे थे। घर पर कोई ना कहेगा यह तो कुछ सवाल ही नही था। मैंने पुरे लगन के साथ परीक्षा की तैयारी की ओैर वन अधिकारी बन गया। सब क्षेत्र में चढाव-उतार तो आते ही है, वैसे ही मेरे जीवन में भी आये ओैर चले गए। जिंदगी जी ली वह अपने हिसाब से, अपने शर्तों पर जी ली। कभी भी तुम्हारी वजह से ऐसा हुआ, वैसा हुआ यह वाक्य नही दोहराया। खुले दिल से जिंदगी जी ली वैसे तुम लोग भी जी लो। वरना जीवन बोझिल हो जाता है। अपना जीवन हमे खुद सवाँरना है।”  

     विनीत ओैर मैं चाचाजी की बाते बडे ध्यान से सुन रहे थे। उन पर गर्व महसुस हो रहा था। बातो-बातों में हम लोग घर पहुँच गए। कल बहुत काम था। पुरा दिन शायद उसी में लग जाए। चाचाजी ने भी कल छुट्टी ली थी। कल की बातें तय करने के बाद हम भी सोने के लिए चले गए।

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