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कुन्ती

महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। वे वसुदेव की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं। महाराज कुन्तिभोज से इनके पिता की मित्रता थी। कुन्तीभोज की कोई सन्तान नहीं थी, अत: ये कुन्तिभोज के यहाँ गोद आयीं और उन्हीं की पुत्री होने के कारण इनका नाम कुन्ती पड़ा। महाराज पाण्डु के साथ कुन्ती का विवाह हुआ। किन्दम ऋषि की हत्या के कारण पाण्डु ने राजपाट छोड़कर वन में निवास किया। वन में ही कुन्ती को धर्म, इन्द्र, पवन के अंश से युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई। पांडु की दूसरी रानी माद्री से अश्वनीकुमारों के अंश से नकुल, सहदेव का जन्म हुआ। पाण्डु का शरीरान्त होने पर माद्री उनके साथ सती हो गयी और कुन्ती बच्चों की रक्षा के लिये जीवित रह गयीं। इन्होंने पाँचों पुत्रों को अपनी ही कोख से उत्पन्न हुआ माना, कभी स्वप्न में भी उनमें भेदभाव नहीं किया।

'पृथा' (कुंती) महाराज शूरसेन की बेटी और वसुदेव की बहन थीं। शूरसेन के ममेरे भाई कुन्तिभोज ने पृथा को माँगकर अपने यहाँ रखा। इससे उनका नाम 'कुंती' पड़ गया। पृथा को दुर्वासा ऋषि ने एक मंत्र दिया था, जिसके द्वारा वह किसी भी देवता का आवाहन करके उससे संतान प्राप्त कर सकती थीं। समय आने पर स्वयंवर-सभा में कुंती ने पाण्डु को जयमाला पहनाकर पति रूप से स्वीकार कर लिया।

आगे चलकर पाण्डु को शाप हो जाने से जब उन्हें संतान उत्पन्न करने की रोक हो गई, तब कुंती ने महर्षि दुर्वासा के वरदान का हाल सुनाया। यह सुनने से महाराज पाण्डु को सहारा मिल गया। उनकी अनुमति पाकर कुंती ने धर्मराज के द्वारा युधिष्ठिर को, वायु के द्वारा भीमसेन को और इन्द्र के द्वारा अर्जुन को उत्पन्न किया। इसके पश्चात् पाण्डु ने पुत्र उत्पन्न करने के लिए जब उनसे दोबारा आग्रह किया, तब उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। कह दिया कि यह नियम विरुद्ध और अनुचित होगा।

वास्तव में कुंती का वैवाहिक जीवन आनन्दमय नहीं हुआ। आरम्भ में उन्हें कुछ सुख मिला, किंतु इसके अनंतर पति के शापग्रस्त होकर रोगी हो जाने और कुछ समय पश्चात् मर जाने से उनको बड़े क्लेश सहने पड़े। ऋषि लोग जब बालकों समेत विधवा कुंती को उनके घरवालों को सौंपने हस्तिनापुर ले गये, तब वहाँ उनका स्वागत तो हुआ नहीं, उल्टा वे सन्देह की दृष्टि से देखी गईं। उनकी संतान को वैध संतति मानने में आपत्ति की गई। किसी प्रकार उनको रख भी लिया गया तो तरह-तरह से सताया जाने लगा। वे अपने पुत्रों के साथ वारणावत भेजी गईं और ऐसे भवन में रखी गईं, जो किसी भी घड़ी भभककर सबको भस्म कर देता। किंतु हितैषी विदुर के कौशल से वे संकट से पुत्रों समेत बचकर निकल गईं। जंगल में उन्होंने विविध कष्ट सहे। साथ में पुत्रों के रहने से उनके लिए बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ भी सरल हो गईं। इन्हीं कष्टों के सिलसिले में उनको पुत्रवधू द्रौपदी की प्राप्ति हुई। इससे उन्हें कुछ संतोष हुआ। इसी बीच उन्हें धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर में बुलाकर अलग रहने का प्रबन्ध कर दिया, जिसमें कोई झगड़ा-बखेड़ा न हो। यही थोड़ा-सा समय था, जब कुंती को कुछ आराम मिला।

इसके बाद दुर्योधन ने युधिष्ठिर को जुए में हराकर शर्त के अनुसार वनवास करने को भेज दिया। इस वनवास के समय कुंती को अपने पुत्रों से अलग हस्तिनापुर में रहना पड़ा। उनके लिए यह बहुत बड़ा संकट था। उन्होंने हस्तिनापुर से युधिष्ठिर के पास संदेशा भेजा था, वह उन जैसी वीर पत्नी और वीरमाता के अनुरूप था। वे नहीं चाहती थीं कि संकट में पड़कर उनके पुत्र आत्मसम्मान को खो बैठें। संकट सहते-सहते उन्हें संकटों से एक प्रकार का प्रेम हो गया था। इसी से, एक बार श्रीकृष्ण के वरदान देने को तैयार होने पर कुंती ने कहा था कि यदि मैं धन-दौलत अथवा और कोई वस्तु माँगूँगी तो उसके फेर में पड़कर तुम्हें (भगवान को) भूल जाऊँगी, इसलिए मैं ज़िन्दगी भर कठिनाइयों से घिरी रहना पसन्द करती हूँ। उनमें फँसे रहने से मैं सदा तुमको स्मरण किया करूँगी।

महाराज पांडु की दूसरी रानी माद्री के साथ कुंती का बर्ताव बहुत ही अच्छा था। वह कुंती को अपने बेटे सौंपकर सती हो गई थी। उसने कुंती से कहा था कि मैं पक्षपात से बचकर अपने और तुम्हारे बेटों का पालन न कर सकूँगी। यह कठिन काम तुम्हीं करना। मुझे तुम पर पूरा भरोसा है।

धृतराष्ट्र और गांधारी के पुत्रों ने यद्यपि कुंती के पुत्रों को कष्ट देने में कुछ कमी नहीं की थी, फिर भी वे सदा जेठ-जेठानी का सत्कार किया करती थीं। पाण्डवों को राज्य प्राप्त हो जाने पर कुछ समय के बाद जब धृतराष्ट्र, गान्धारी के साथ, वन को जाने लगे, तब कुंती भी उनके साथ हो गईं। धृतराष्ट्र आदि ने उनको घर पर ही रहने के लिए बहुत समझाया, किंतु वे नहीं लौटीं। उन्होंने धर्मराज से स्पष्ट कर दिया कि 'मैंने अपने आराम के लिए तुमको युद्ध करने के लिए सन्नद्ध नहीं किया था, युद्ध कराने का मेरा उद्देश्य यह था कि तुम संसार में वीर की भाँति जीवन व्यतीत कर सको।' उन्होंने वन में जाकर अपने जेठ-जेठानी की सेवा-शुश्रूषा जी-जान से की। इस दृष्टि से उसका महत्त्व गान्धारी से भी बढ़ जाता है। गान्धारी को संतान-प्रेम था, वे अपने पुत्रों का भला चाहती भी थीं। यद्यपि दुर्योधन के पक्ष को न्याय-विरुद्ध जानकर उन्होंने उसे विजय का आशीर्वाद नहीं दिया था, फिर भी माता का हृदय कहाँ तक पत्थर का हो जाता। उन्होंने कुरुक्षेत्र का संहार देख अंत में श्रीकृष्ण को शाप दे ही डाला। किंतु कुंती ने हज़ार कष्ट सहने पर भी ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे उनके चरित्र का महत्त्व कम हो जाय। उनमें इतनी अधिक दया थी कि वे एकचक्रा नगरी में रहते समय, अपने आश्रयदाता ब्राह्मण के बेटे के बदले अपने पुत्र भीमसेन को राक्षस की भेंट करने को तैयार हो गईं। थीं। यह दूसरी बात है कि उस राक्षस से भीमसेन इक्कीस निकले और उसे मारकर उन्होंने बस्तीवालों का संकट काट दिया। कुंती इतनी उदार थीं कि उन्होंने हिडिम्बा राक्षसी को भी पुत्रवधू मानने में आपत्ति नहीं की।