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प्रेम की परीक्षा...

"अरी !भाग्यवान सुनती हो,ये लो सब्जी-भाजी का थैला,जो जो तुमने मँगाया था ले आया हूँ",दिलीप यादव जी बोले...
"जी! अभी आई",
और ऐसा कहकर सरयू अपने पति दिलीप के पास आई और उनके हाथ से सब्जी का झोला उठाकर रसोईघर की ओर मुड़ गई....
ये दिलीप यादव जी और उनकी पत्नी सरयू,भरापूरा परिवार है उनका,दो बेटे ,दो बहूएँ,तीन पोते और एक पोती,दिलीप यादव जी बैंक से रिटायर्ड कैशियर हैं,लेकिन उनके बेटे पढ़ लिखकर उनकी तरह सरकारी नौकरी नहीं पा पाए,इसलिए उन्होंने उन दोनों को एक कपड़े की दुकान डलवा दी,अब दोनों दुकान सम्भाल रहे हैं और अच्छा खासा पैसा कमा लेते हैं,उनके घर में सबसे अच्छी बात ये है कि दोनों बहूएँ के बीच कभी खटपट नहीं होती,दोनों बहूएँ समझदार और सुलझी हुईं हैं,सरयू और दिलीप का जीवन नदी की धारा के समान सरलता से बह रहा है और भला बुढ़ापे में क्या चाहिए?
लेकिन सरयू जैसा उसका नाम है वो वैसी ही नदी की तरह चंचल है,पान सुपारी की शौक़ीन,उसके होंठों पर ताज़े पान की लाली और आँखों में काजल जरूर लगा रहता है,एड़ियों में महावर की लाली और माथे में बड़ी सी कुमकुम की टिकुली हमेशा उसकी भौंहों के बीच विराजमान होती है,घर में मखमल और पैबन्द वो अपने दोनो ही वक्त की साक्षी है,दिलीप यादव के साथ जब उसकी भाँवरें पड़ीं थीं तब वो बमुश्किल सत्रह अठारह साल की रही होगी,हालाँकि उस ज़माने में वर या वधू की मर्जी या नामर्ज़ी जैसे सवालों का कोई रिवाज नहीं हुआ करता था,फिर भी देखें तो सरयू की नामर्ज़ी की घोर उपेक्षा करके उसका कन्यादान किया गया था और इधर दिलीप के घर की जर्जर हालत चरमावस्था पर थी,दिलीप यादव बैंक की तैयारी कर रहे थे और उनके स्वर्गीय पिता की धरी-छोड़ी पूँजी से उनकी पढ़ाई का ख़र्च चल रहा था,लोगों को ऐसा पता था, लेकिन सच्चाई कुछ और ही थी,
दिलीप यादव अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थे,उनके पिता उनके लिए बिना कुछ छोड़े ही मर गए थे,उस ज़माने में शरीफ़ घराने की औरतें दिन-दहाड़े बाहर के काम नहीं किया करती थीं, तो उनकी उम्र दराज़ कुलीन माँ रात के अँधेरे में सूती धोती के पल्लू से अपना मुँह ढाँककर रेलगाड़ियों में मूँगफली, लेमनचूस,सुपारी के पैकेट वगैरह बेचा करती थीं और दिन के उजाले में बचे-खुचे गहने और खानदानी बरतन, माँ की उस कमाई के पैसों से जिन्दगी की गाड़ी जैसे तैसे खिच रही थी,सरयू के ब्याह के बाद जब उसका उस सच्चाई से सामना हुआ तो उसकी चेतना सुन्न होकर रह गई,
लेकिन जल्दी ही वह इस सदमे से उबर आई क्योंकि इससे बड़ा सदमा उसके सामने आने वाला था, एक रात, इसी तरह रेलगाड़ियों से चढ़ने-उतरने वाले खेल में ट्रेन से उतरते वक़्त दिलीप की माँ के कुलीन अभ्यस्त पैर सूती धोती में उलझ गए और गाड़ी एक सिसकी लेती हुई खच...खच...खचाक की आवाज़ से उस स्टेशन पर रुकी और दो मिनट बाद फिर चल पड़ी, बिनबिकी मूँगफली जो प्लेटफ़ॉर्म और पटरियों पर फैल गई थीं उनसे उस रात चिटियों का अच्छा भोज हुआ,लेकिन तेरह दिन बाद सगे सम्बन्धियों और ब्राह्मणों को जिमाने के लिए एक छोटे भोज का प्रबंध दिलीप ठीक से ना कर सका, माँ की दुआ, वक़्त का बदलाव और सरयू की क़िस्मत...जो कहें,इस घटना के तुरंत बाद दिलीप को एक कपड़े की दुकान पर छोटी-मोटी नौकरी मिल गई,सरयू ने ख़ुशहाल बचपन और सुस्त कौमार्यावस्था वाले दिनों के अपने सीखे हुनर को चमकाया और लोगों के कपड़े उसके घर सिलने के लिए आने लगे,जिससे नून रोटी का जुगाड़ चलने लगा, फिर दिलीप की बैंक में नौकरी लग गई और सरयू के दिन पलट गए...
समय अपनी गति से चल रहा था, लेकिन सरयू अपने पुराने समय की बातें अब तक ना भूली थी,भूलने के लिए ही तो वो इतना काम किया करती थी,सन् उन्नीस सौ पैसठ सरसठ की बात है,वह ज़माना, जब सरयू उलटे पल्ले की साड़ी पहनकर और रिबन से कसकर बाँधी हुई चोटी लटकाकर, शहर के इकलौते वीमेंस कॉलेज में पढ़ने जाया करती थी,उस समय मुहल्ले में कोई नया परिवार रहने आया था और उस परिवार के इकलौते लगभग हमउम्र विजातीय लड़के से उसका प्रेम हो गया,युवावस्था वाला मासूम प्रेम,प्रेम होने की स्थिति और उसे करने का तरीक़ा भी वही, जो उस ज़माने में ख़ूब चलन में था, पहले छत से देखा-देखी, फिर गली में कभी आते-कभी जाते नज़रों का टकराना, मेले में या फिर कॉलेज के बाहर..मिलना मिलाना,ना कोई प्रेमपत्र बस मूक संदेशों का ही सहारा था, लेकिन ऐन वक़्त पर सरयू के पिता फिल्मी खलनायक की तरह सामने आएँ और उन्होंने नौजवान दिलीप से उसका ब्याह कर दिया,वर के सुयोग्य निकलने की गारंटी थी,इसलिए उन्होंने सरयू को दहेज में कुछ नहीं दिया,दहेज ना देने का दूसरा कारण था उसका विजातीय लड़के से प्रेम,सरयू से ना उसकी मर्ज़ी पूछी गई ना उसे मर्जी बताई गई,बस ब्याह कर दिया गया,सरयू का दूल्हा राँक्ड और प्रेमी शाँक्ड....
सरयू अग्नि के फेरे लेने के बाद उदासीन हो गई,उदासीनता के साथ ही उसकी गृहस्थी की शुरुआत हुई,शुरु के दिन तो ताज़े-ताज़े बहूपने को सँभालने में गुज़र गए और ट्रेन वाले हादसे में दिलीप की माँ के गुज़रते ही वो एकदम से जिम्मेदार बन गई, वह दिन-भर खटने लगी और अपने आपको काम में लगाए रहती,लेकिन किसके लिए? किसी और के लिए नहीं, शायद अपने लिए,ताकि पुरानी यादों से और उन हसीन सपनों से पीछा छुड़ाया जा सके,फिर सरयू की मेहनत रंग लाई और उसका पति बैंक में कैशियर बन गया,फिर सरयू ने सुना कि उसके प्रेमी ने भी अपना खानदानी कारोबार सम्भाल लिया है,दोनों अपने प्रेम की बात छिपाने और क़िस्मत की मार को भुलाने के लिए ताबड़-तोड़ मेहनत करने लगे ,
जब कभी सरयू बीस पच्चीस मिनट की ताँगे की सवारी करके अपने मायके पहुँचती तो शाम के अँधेरे में उसकी आँखें उस घर को निहार लेतीं,सबकुछ दिखता लेकिन वो दिखाई ना देता था, फिर सरयू की जवान आँखों के सामने उसके प्रेमी का घर बसा, उसकी आँखों के सामने उसके प्रेमी के घर किलकारियाँ गूँजी और फिर उसकी आँखों के सामने ही उसका प्रेमी विधुर भी हो गया, दूर की चीज़ें धुँधली दिखाई देने वाली उसकी आँखों के सामने उसके प्रेमी के बाल सफ़ेद हुए और अब उसकी आँखों के सामने उसके प्रेमी के दोनों बच्चे अपने परिवार समेत, कार-दुर्घटना में मारे गए,
छोटा सा शहर था,कोई भी बात फैलते देर ना लगती थी,लोगों ने खबर सुनी तो हाय हाय कर उठे, दिलीप यादव जब शाम को घर लौटे तो उनके बदहवास होंठों पर ये मनहूस ख़बर थी, सभी लोग ये खबर सुनकर हक्के-बक्के रह गए,लेकिन उस समय सबसे गहरा भाव सरयू के चेहरे पर उभर आया था, इसके आगे अपना-पराया, जायज़-नाजायज़, उचित-अनुचित, सही-ग़लत...सब एक-एक कर के उसकी आँखों के सामने से मिटने लगे, वह चुपचाप उठकर अपने बिस्तर पर चली गई,उनसठ साल की उम्र में दो जवान बेटों की माँ सरयू बिस्तर पर लेटी थी,उसकी पलकें पथरा गईं थीं,फिर उसके गले से एक बेसुध चीत्कार निकली,उसका परिवार इन सब बातों से अन्जान था,वो अर्धचेतना में रातभर चौंकती रही.....

सरयू वक़्त की रफ़्तार के साथ चलना चाहती थी,लेकिन अपने साथ छल करने की वजह से कभी वो वक़्त से आगे निकल जाती तो कभी वक़्त उसे पीछे छोड़ देता,फिर एक रोज़ आखिर वक़्त उसके साथ छल कर ही गया,उस घटना के लगभग दो महीने बाद सरयू अपने सबसे छोटे पोते को साथ लेकर मायके गई ,लेकिन नन्हा मेहमान घर से नदारद हो गया,फिर वो उसकी खोज में निकल पड़ी,उसने देखा कि उसका पोता उसके प्रेमी के घर के आगे लगे गुड़हल के पेड़ से फूल तोड़ रहा था और उसका प्रेमी घर के चबूतरे में चुपचाप बैठा उसे देख रहा था,उसने सरयू को अपने बगल में बैठ जाने का इशारा किया और इशारों में बोला कि देखो फूल तोड़ते हुए बच्चा कितना प्यारा लग रहा,वो भी वहीं बैठकर उसे देखने लगी,वो उसके बगल में बैठी जरूर थी लेकिन उसके मन में एक तूफान चल रहा था,
कुछ देर बाद बच्चे को सुध आई तो उसने अपने दादी को वहाँ बैठे हुए देखा,वो अपनी दादी की ओर बढ़ा तो सरयू ने अपनी गरदन उठाकर उससे आँखें मिलाईं और जाने का इशारा करके वो चबूतरे से उठने की कोशिश करने लगी,लेकिन उसके घुटने अकड़ गए थे और वो चबूतरे से उठ नहीं पाई, उसने पास की दीवार पकड़नी चाही कि तभी उसके प्रेमी ने अपनी खुली हथेली उसकी ओर बढ़ा दी,सरयू के हाथ बग़ैर सोचे-समझे स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ गए, उसकी हथेली में अपना भार सौंप देने के लिए,सहारा पाकर सरयू चबूतरे से उठ खड़ी हुई,अपनी हथेली पर उस स्पर्श से उसे लज्जा महसूस हुई,फिर अचानक ना जाने उसे क्या सूझा,वो उसकी हथेली छुड़ाकर पोते के पास गई और उसे लेकर वो चली गई,लेकिन उसने उसे वापस मुड़कर नहीं देखा,
सरयू इस बार मायके से अपने पुराने दिन के सपने वापस लेकर लौटी थी, अब उसकी चेतना उसे ज़बरदस्ती आइने के सामने खड़ा कर देती, हल्के रंग अपनी उम्र के मुताबिक उसने पहनने छोड़ दिए थे,उसके जीवन में अब चटक रंगों की वापसी हो गई थी,उसका चेहरा सौंदर्य के तमाम घरेलू नुस्ख़ों को आजमाने लगा था, वो सोचती अब तक अपनेआप को सँवारने का ख़्याल किए बग़ैर उसकी ज़िन्दगी कैंसे गुज़र गई,उसके दिल में अब भी उसकी यादें हैं,वो उसे अब तक नहीं भूला,वो हाथों का सहारा और वो मौन की भाषा...वो सब सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी के लिए थी,उम्र के इस मोड़ पर ये कैसा भटकाव था, जब उम्र थी, इच्छाएँ थीं,प्रेम की भूख थी, तब वो ये सब नहीं कर पाई, उन चीज़ों की ओर अब...इतने सालों बाद! अब तो जीवन का अन्त क़रीब आ रहा है, फिर से एक नया जीवन जीने की चाह, वह भी इतने दायित्वों में बँधी होने पर भी...समाज, घर, परिवार, रिश्तेदार...एक औरत होने के बावजूद, नहीं! उसे अपनी पुरानी दुनिया में ही रहना होगा, उसी में खो देना होगा अपने मन को,सरयू ने ये सोचकर अपनी आँखें कसकर मूँद लीं,
ऐसे ही बहुत वक्त बीत गया,सरयू बहुत कश्मकश में रही, फिर एक दिन की बात है,रात ढल चुकी थी, दिलीप यादव सोने की तैयारी में थे और उन्होंने सरयू से कहा....
"जरा लाइट बंद कर देना"
"मैं कुछ सोच रही थी"सरयू बोली...
"क्या सोच रही थी",दिलीप ने पूछा..
"मैं सोच रही थी कि अगर मैं ना रहूँ तो क्या होगा? ",सरयू बोली...
"तुम अचानक ये सब क्या सोच रही हो"
दिलीप ने सरयू से कहा,तब सरयू बोली...
"अचानक नहीं! मैं ये कब से सोच रही हूँ कि अगर मैं कहूँ कि मैं संन्यास लेना चाहती हूँ तो?"
"सन्यास!",दिलीप ने अचरज से पूछा...
"बोलो! जाने दोगे मुझे",सरयू बोली...
"क्या हो गया है तुम्हें?",दिलीप बोला...
"नहीं!मुझे आज कहने दो,ये बात मुझे तुम्हें पहली रात को ही बता देनी चाहिए थी जो कि नहीं बता पाई और आज तुम्हें वो बात सुननी ही पड़ेगी"सरयू बोली...
सरयू की बात सुनकर दिलीप ने उसके माथे पर हाथ रखा तो सरयू बोली....
"तबियत ठीक है मेरी,मुझे कुछ नहीं हुआ,शादी से पहले किसी और के साथ मेरे सम्बन्ध थे और अब मैं उसके पास जाना चाहती हूँ"
"कैसा सम्बन्ध"?,दिलीप ने गरजते हुए पूछा..
"मन का सम्बन्ध",सरयू बोली...
सरयू की बात सुनकर दिलीप ने दोनों हाथों से सरयू का चेहरा पकड़ा,उसके बालों को जोर से खींचते हुए गुस्से में उसे बिस्तर पर धकेल दिया और गुस्से से काँपने लगा,बिस्तर पर गिरते ही सरयू हाँफते हुए बोली...
"मैं उसके पास जाना चाहती हूँ,मैंने अपने सारे कर्त्तव्य पूरे कर दिए हैं,अब मुझे मुक्ति चाहिए"
सरयू की बात सुनकर दिलीप उसकी ओर झपटा और पूरी ताकत से उसका गला दबाते हुए बोला....
"मुक्ति! मैं तुम्हें देता हूँ मुक्ति!"
सरयू मौत से जूझ रही थी,उसे मुक्ति तो चाहिए थी, लेकिन मरकर नहीं, उसे अब जीना था,इसलिए उसने दिलीप के हाथ पर अपने दाँत गड़ा दिए,अब बंधन ढ़ीला हुआ और वो झटपट उससे अलग जा खड़ी हुई,फिर दिलीप ने सरयू को ताबड़-तोड़ मारना शुरू किया ,सरयू को मार-मारकर उसने उसकी दशा बिगाड़ दी,सरयू ने बिस्तर से उठने की कोशिश की लेकिन वो भरभरा कर बिस्तर पर बिखर गई....
उसमें अब जान ना बची थी,दिलीप ने उसे हिलाया डुलाया लेकिन वो ना उठी,उसे अब मुक्ति मिल चुकी थी,दिलीप उसे देखकर दहाड़े मार मारकर रोने लगा और जब ये खबर सरयू के प्रेमी तक पहुँची तो दिल का दौरा पड़ जाने से उसकी भी मृत्यु हो गई....
ताउम्र दोनों प्रेमी प्रेमिका प्रेम की परीक्षा देते रहे और अन्त में प्रेम की परीक्षा में पास होकर इस दुनिया से चले गए....

समाप्त....
सरोज वर्मा...


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