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दलित ग्रंथि

दलित ग्रंथि

रात के ग्यारह बज रहे थे। हरीश बिस्तर पर लेट चुका था। उसने बगल में सोये हुए बबलू का माथा चूम कर उसके बाल ठीक किये उसे ठीक से चादर ओढाई और सीमा के आने का इंतज़ार करने लगा। सीमा रात के खाने के बाद कल सुबह की कुछ जरूरी तैयारियों में लगी थी। हरीश को सुबह स्कूल जाना होता है उसके नाश्ते की तैयारियाँ वह रात में ही करके रख देती है। वह खुद भी ग्यारह बजे स्कूल जाती है इसलिए थोडा बहुत खाने की तैयारी भी देख लेती है। तभी फोन की घंटी बजी हरीश चौंक गया हालांकि वह समझ तो गया कि भैया का ही फोन होगा।वह तेज़ी से फोन उठाने के लिए लपका।वह नहीं चाहता था कि सीमा फोन उठाये। अब तो सीमा भी समझ चुकी थी इसलिए करीब होते हुए भी उसने फोन उठाने की कोशिश नहीं की वह ख़ामोशी से अपने काम में लगी रही। फोन सुन कर हरीश वहीँ कुर्सी पर बैठ गया। वह पहले की तरह स्तब्ध तो नहीं रह जाता लेकिन दुखी तो होता ही है। सीमा ने बिना कुछ कहे उसे पानी ला कर दिया और उसके पास ही कुर्सी खिसका कर बैठ गयी।

किसका फोन था भैया का?जानते हुए भी उसने पूछा .

हाँ संक्षिप्त सा जवाब दिया हरीश ने।

कहाँ से दिल्ली या जयपुर?

जयपुर से।

क्या कह रहे थे? वही पुरानी बात या अब कुछ और नया सूझ गया है। सीमा के लहजे में थोड़ी कड़वाहट आ गयी। हालांकि उसने छुपाने की बहुत कोशिश की।

क्या कहेंगे बस वही। हरीश ने सामान्य दिखने की ईमानदार कोशिश की लेकिन शब्दों के ठंडेपन ने कोशिश कामयाब नहीं होने दी।

चलो सोया जाए हरीश ने उठते हुए कहा।

सीमा भी उठ गयी लाईट बंद करते हुए बोली लेकिन ऐसे कैसे चलेगा? ये लोग हमेशा ऐसे फोन करते रहेंगे कभी तो कुछ तो फैसला लेना होगा न?

हाँ फैसला भी लेंगे अभी तो सोया जाये कल सुबह स्कूल जाना है। हरीश इस समय इन बातों से बचना चाह रहा था। लेकिन बच पाना इतना आसान थोड़ी था।कमरे में अँधेरा होते ही उसे पिछले बीस सालों की तस्वीरें स्पष्ट दिखने लगीं।

लगभग चौदह वर्ष का था वह जब उसके पिताजी की मृत्यु हुई थी। तीन भाइयों में सबसे छोटा सबका लाडला। बड़े भैया अपनी पढ़ाई पूरी कर दिल्ली में नौकरी में लगे ही थे। छोटे भैया की दो साल की पढ़ाई अभी बाकी थी। उनकी पढाई का जिम्मा बड़े भैया ने उठा लिया और वह माँ के साथ इस कस्बेनुमा गाँव में रह गया। माँ पिताजी की यादों से भरे इस घर को छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी। पेंशन से उनका खर्च चल जाता था। पढाई पूरी होने के बाद छोटे भैया की नौकरी जयपुर में लगी। दोनों भाइयों ने उसे पिता की कमी महसूस नहीं होने दी। अपने बड़े शहर के खर्चों के बावजूद जब भी आते उसके लिए उसकी जरूरत के उपहार लाते। पेंशन में सिर्फ जरूरतें ही पूरी होती थीं किसी भी शौक ख्वाहिश के लिए भैयाओं का मुँह ताकना ही पड़ता था। अकेले रहते माँ का वही सहारा था। वक्त बेवक्त बाज़ार जाना, रिश्तेदारी निभाना उसी के हिस्से में आता। हायर सेकेंडरी में था जब परीक्षाओं के महीने भर पहले बड़े भैया की शादी हुई। ख़ुशी के कारण वह सब कुछ भूल कर शादी के इंतजाम में लगा रहा। माँ भी कहाँ चैन लेने देती थीं जो चीज़ जब याद आ जाये उसे लेने तभी बाज़ार दौड़ा देतीं थीं। ऐसे में क्या रिजल्ट आना था? हाँ उसका रिजल्ट देख कर दोनों भैया नाराज़ जरूर हुए थे। माँ ने भी कह दिया घर में पाँव टिकता नहीं है इसका जब देखो तब साइकिल उठाई और बाज़ार।

आगे क्या करने का इरादा है?

भैया आपके पास दिल्ली आ जाते है वहीँ कोई डिग्री या डिप्लोमा कर लेंगे।

इन नंबरों के साथ कहाँ एडमिशन मिलेगा तुम्हे दिल्ली में? यहीं कॉलेज में एडमिशन ले कर बी ए कर लो। भैया दिल्ली चले गए।

अब तो माँ भी महीने पंद्रह दिनों के लिए चली जातीं जब लौटतीं तो ढेर सारी सौगातें लेकर जिसमे होते भैया के ढेरों पुराने शर्ट, टी शर्ट,पेंट बर्तन,मिले हुए उपहार जिन्हें वे रिश्तेदारी में देने के लिए ले आतीं। उनका घर भरा रहता और हर जरूरत के लिए भैया की और ताकना अनिवार्य बना रहता।

बी ए के तीन सालों में जिंदगी अपनी विविधता के साथ चलती रही। भाभी का डिलीवरी के लिए यहाँ आना,भतीजे का आगमन,रस्मों रिवाज़,समारोह,छोटे भैया की शादी,माँ का आते जाते रहना। बी ए का रिजल्ट देख कर बड़े भैया ने पिताजी की जगह अनुकम्पा नियुक्ति का फार्म भरवा दिया। हरीश की बड़ी इच्छा थी वह बाहर जाकर अच्छी पढाई करे,एकाग्र चित्त हो कर सिर्फ अपने करियर पर ध्यान दे,लेकिन पेंशन से वह संभव नहीं था,भाइयों की मंजूरी के बिना बाहर जाना संभव नहीं था और जीवन भर भाइयों की छत्र छाया में रहते उनकी मंजूरी और इच्छा के बिना कोई कदम उठा लेने का हौसला उसमे नहीं था। आखिर अनुकम्पा नियुक्ति को ही अपनी नियति मान कर उसने संतोष कर लिया।

नौकरी के दो साल बाद ही सीमा से उसकी शादी हो गयी। सीमा ने बड़ी कुशलता से रिश्तों को निभाया। छुट्टियों में जब सब यहाँ आते या वो लोग वहाँ जाते अपनी पाक कला से वह सबका मन जीत लेती। दिल्ली, जयपुर से बार बार आना संभव नहीं होता था इसलिए सारी रिश्तेदारी वे दोनों ही निभाते रहे। हाँ किसे क्या देना है या कब कहाँ जाना या नहीं जाना है ये दोनों भाई ही निश्चित करते। दोनों बड़े बेटों के घर के मुखिया से व्यक्तित्व के आगे माँ कभी दोनों बहुओं की सास नहीं बन पायीं थीं सो अपने सास बनने के अरमान वे सीमा के साथ पूरे करती रहीं।

भैया ने कहा फ़ोन लगवा लो,इस कमरे का फर्श बदलवा दो,फर्नीचर ठीक करवा लो,वह उनकी हर बात मानकर अपनी जमा पूँजी उनकी बात रखने में खर्च करता रहता। कभी कभी सीमा विरोध करती भी तो उसे चुप करवा देता भैया चाहते है हम ठीक से रहें तो हर्ज़ क्या है करवा लेते हैं कभी कभी दो-चार हज़ार की मदद वे कर देते लेकिन सच तो ये था की उससे ज्यादा का खर्च उनकी उनके रिश्तेदारों की आवभगत में खर्च हो जाता। इस तरह भैया की ओर ताकना बदस्तूर जारी रहा।

बड़े भैया ने दिल्ली में और छोटे भैया ने जयपुर में मकान खरीद लिया था। दोनों ही उच्च सरकारी पदों पर थे। उनके लिए ये बड़ी बात नहीं थी। भाभियों ने भी छोटा मोटा बिजनेस शुरू कर उसे अच्छा बढ़ा लिया था। उनकी बातें लाखों से शुरू हो कर लाखों तक होती थीं। आये दिन फर्नीचर बदलवाना, गाड़ी बदलना हर साल घूमने जाना। वह भी बचे समय में कुछ न कुछ कर ही लेता था और सीमा ने नौकरी के साथ साथ ट्यूशन करना शुरू कर दिया था। उसका विषय ऐसा था की उसे रोज़ थोडा बहुत पढना ही होता था। उसकी नौकरी, पढ़ाई,ट्यूशन के साथ बढ़ती व्यस्तता ने माँ को चिडचिड़ा बना दिया था। शादी के पांच साल बाद भी उसकी गोद नहीं भरी थी इस बात से भी वे नाराज़ रहतीं थीं। फिर वे दिल्ली चली गयीं।

बबलू नींद में कुनमुनाया उसे चादर ओढ़ा कर हरीश ने करवट बदल ली। सामने दीवार कर पूरे परिवार की फोटो लगी थी। सब कितने खुश थे। हरीश की आँख भर आयी।

उसकी शादी के छह साल बाद की बात है। बड़े भैया ने दूसरी मंजिल बनवा ली थी और पास वाला एक और मकान खरीद लिया था। बहुत दिनों बाद सारा परिवार इकठ्ठा हुआ था बातों का दौर जारी था तब बड़े भैया ने कहा मेरे पास दो मकान हो गए हैं उमेश के पास भी अपना मकान है तो क्यों न पिताजी वाला मकान हरीश के नाम कर दें। वह भी निश्चिन्त हो जायेगा। वह भाइयों का प्रेम देख कर अभिभूत हो गया। माँ, छोटे भैया, भाभियों की सहमति बन गयी और अगले छह महीनों में मकान उसके नाम हो गया।

जिसने भी सुना दोनों भाइयों की मुक्त कंठ से सराहना की, उसके भाग्य को जी भर कर सराहा। भाइयों के बरगद जैसे विशाल अस्तित्व के सामने वह नतमस्तक था यही सोचता रहा कि ये उसके पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों का फल है।

सीमा और वह अपने जीवन से संतुष्ट थे। बच्चे की कमी उन्हें खलती थी सारे इलाज़ करवाने के बाद भी आशा की किरण नज़र नहीं आयी। बच्चा गोद लेने के लिए वे खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे। भाइयों के बच्चों पर वे दोनों ही जान छिड़कते थे। फिर अचानक जैसे चमत्कार हुआ, शादी के सात साल बाद बबलू उनके जीवन आँगन में फूल बन कर महका। छह महीने सीमा छुट्टी ले कर घर पर रही फिर बबलू के लिए एक आया की व्यवस्था की गयी जो घर पर ही उसे संभालती थी। सीमा और हरीश का प्रमोशन भी उसी साल हुआ दोनों की तनख्वाह भी बढ़ गयीं। अब वे दोनों इतने सक्षम थे की अपना जीवन भली भांति बिना किसी की मदद के चला सकते थे।

सबके जीवन की व्यस्तताएं बढती जा रही थीं। बबलू के आने से घर और जीवन का खालीपन भर गया था।

सोचते सोचते हरीश की आँखे भारी होने लगीं। दिन भर की थकान उसकी चिंताओं पर भारी पड़ी और उसे नींद के आगोश में ले गयी।

सुबह सुबह दूर बस्ती की औरतों के सामूहिक रुदन की आवाज़ से हरीश की आंख खुल गयी। हडबडा कर उसने दरवाज़ा खोला तो देखा मोहल्ले के सभी लोग बाहर सड़क पर छत पर खड़े चर्चा कर रहे हैं। वह बिना किसी से बोले छत पर चला गया और आवाज़ की दिशा में देखने और कुछ समझने की कोशिश करने लगा। चेहरे पर पड़ती सूरज की किरणों से आँखें चौंधिया रही थीं। उसने माथे के सहारे हथेली लगा कर आँखों पर धूप को आने से रोका और देखने लगा। कितना अजीब है न साफ साफ देखने के लिए जितनी रोशनी चाहिए उससे ज्यादा अगर हो तो चीज़े साफ नहीं दिखती। गाँव के बाहर वाले रास्ते की तरफ दलित बस्ती में हलचल होती दिखी। बस्ती की ओर मुड़ने वाले रास्ते पर बहुत सारे लोग खड़े थे तभी दो पुलिस की जीप वहाँ आकर रुकीं उसके पीछे एक एम्बुलेंस भी थी। सड़क पर खड़े लोग और पुलिस के जवान बस्ती की ओर चल दिए उनके पीछे पीछे स्ट्रेचर ले कर दो लोग कच्चे मकानों के बीच गुम हो गए। हरीश कुछ देर वहाँ खड़ा उस ओर देखते समझने की कोशिश कर ही रहा था तभी रोने की आवाजें तेज़ हो गयीं कच्ची सड़क पर स्ट्रेचर पर किसी को लेकर वे दोनों लोग फिर प्रकट हुए। उनके पीछे विलाप करती छाती कूटती औरतों का झुण्ड था। पुलिस के दो सिपाही बॉडी को एम्बुलेंस में रखवा रहे थे। बस्ती के आदमी पुलिस इंस्पेक्टर को घेरे चल रहे थे वह उन्हें कुछ समझाता जा रहा था। जब वह गाडी में बैठ गया धुल का गुबार उड़ाती गाड़ी चल पड़ी उसके पीछे दूसरी जीप और एम्बुलेंस भी चल पड़ी। उन्ही गाड़ियों के पीछे मोटर साइकिल पर सवार हो कर बस्ती के कुछ लडके भी चल पड़े।

हरीश कुछ देर धुल का गुबार देखता रहा। वे औरतें वहीँ घेर बना कर बैठ गयीं। उनकी रोने की आवाजें भी बैठते धुल के गुबार की तरह धीमी होती जा रही थी। ये तो समझ आ रहा था कि बस्ती में किसी की मौत हो गयी है लेकिन किसकी, कैसे कुछ समझ नहीं आ रहा था उस पर पुलिस का आना बॉडी ले कर जाना। हरीश छत से नीचे उतर आया तो सामने खड़े गुप्ता जी ने आवाज़ लगा दी।

हरीश भाई साहब कुछ दिखा क्या? आपकी छत से तो बस्ती दिखती है।

कुछ खास नहीं किसी की मौत हो गयी है बस्ती में। पुलिस आयी थी बॉडी लेकर गए हैं शायद पोस्ट मार्टम के लिए, लेकिन हुआ क्या है?

तभी मोहल्ले का चलता फिरता रेडिओ नंदू साइकिल से वहाँ पहुंचा साइकिल एक तरफ पटक कर हांफता हुआ आया और बताने लगा दौलतराम का बेटा जो अभी शहर से पढ़ कर वापस आया है वह बस्ती में एक कारखाना खोलना चाहता था। इस बात पर गाँव के ठाकुर सूरज सिंह ने उसे तलब भी किया था बस्ती छोड़ कर शहर में कारखाना खोलने को कहा था लेकिन वह नहीं माना। कल रात वह शहर से वापस लौट रहा था आज सुबह उसकी लाश गाँव के बाहर वाले रास्ते पर पड़ी मिली। लोगों को शक है की ठाकुर सूरज सिंह के गुर्गों ने ही उसे मारा है। अभी बॉडी पोस्टमार्टम के लिए ले गए हैं।

चर्चा का दौर गरम हो गया। गुप्ताजी ने कहा ठाकुर सूरज सिंह का विरोध करके जीना मुश्किल है वो पुराने आदमी हैं ठाकुरी खून उनमे जोश मारता है। अपने सामने किसी दलित को सिर उठाने की इजाज़त वे नहीं दे सकते। उनकी बात ना मान कर दौलतराम के बेटे ने गुस्ताखी की है ये तो होना ही था।

इस बात पर गिरधारी लाल जी भड़क गए। क्या बात करते हैं आप गुप्ताजी? ये इक्कीसवीं सदी है आज कोई दलित ठाकुर का भेदभाव नहीं है। हर इंसान अपने मन का करने को स्वतंत्र है। एक दलित का बेटा अपना कारखाना क्यों नहीं खोल सकता? वो पढ़ा लिखा लड़का था जीवन में कुछ करना चाहता था। ठाकुर कौन होता है उसे रोकने वाला?

गिरधारीलालजी को तैश में आता देख कर हीरालालजी ने उनके कंधे पर हाथ रखा और समझाने के से अंदाज़ में कहने लगे। बात तो तुम्हारी ठीक है गिरधारीलाल लेकिन इस इलाके में इक्कीसवें सदी आने में अभी देर है। ठाकुर परिवार का पिछले अस्सी सालों का रौब दाब एकदम तो ख़त्म नहीं होगा। दलित बस्ती के ही लोग अभी तक उन्हें राजा की तरह पूजते हैं। पुलिस कानून सब उनकी जेब में है। ये दो चार लडके जो शहर जा कर थोडा पढलिख लेते हैं उनका जवान खून जोश मारता है और वे एकदम से उनके सामने सिर उठा कर खड़े हो जाते हैं। उन्हें बर्दाश्त करने की आदत अभी ठाकुरी खून को नहीं हुई है /ठाकुर और उनके गुर्गों में नहीं है। लेकिन जो हुआ बहुत गलत हुआ। कुछ लोग इसे गलत नहीं मानते थे लेकिन हीरालालजी की उम्र का लिहाज़ करके चुप रह गए।

हरीश के दिमाग में भी उथल-पुथल मच गयी। किसी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए उसे मार डालना, एक दलित लड़का अपनी मेहनत से पढलिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था उसके पैर जमने से पहले ही उसे उखाड़ देना। ये कैसी ठाकुरी मानसिकता है? ये कैसा अहम् है कि जो व्यक्ति या जाति आजतक उनके सामने सिर झुका कर चली है वह आज उनके सामने सिर उठा कर चले ये वो सहन नहीं कर सकते।

हरीश के स्कूल जाने का समय हो रहा था। उसने इस चर्चा और विचारों को वहीं गली में छोड़ा और तैयार होने के लिए घर में चला गया। सीमा भी सुबह की दौड़ भाग में लगी थी।

उसे देखते ही बोली-सुबह-सुबह कहाँ चले गए थे आप? चाय भी ठंडी हो गयी। जाइये नहा लीजिये फिर चाय नाश्ता साथ ही कर लीजियेगा। वह तौलिया उठाये बाथरूम में घुस गया।

आज स्कूल में भी सबकी जुबान पर वही चर्चा थी। पक्ष और विपक्ष में सबके अपने अपने तर्क थे। हरीश को ये जानकार आश्चर्य हुआ की अधिकाँश लोग ठाकुर के पक्ष में थे। कैसी सामंतवादी सोच है लोगों की? यूं तो उदारवाद का मुखौटा लगाए घूमते हैं छोटे बड़े,अमीर गरीब की बराबरी पर भाषण झाड़ते हैं। लेकिन कभी चाय लाने वाला लड़का खड़े होकर उनकी बातें सुनने लगे या उनकी बातों पर अपनी कोई राय दे दे तो उसे अपनी तौहीन समझते हैं। ऊँच-नीच का ये आँकड़ा उनके दिमाग में इस तरह बैठा है की इसमें जरा सा हेर-फेर बर्दाश्त नहीं करते।

दोपहर में हरीश अपने दो साल के बेटे बबलू को झूला घर से लेकर घर आ गया। सीमा दोपहर की शिफ्ट में स्कूल जाती है जाते हुए वह बबलू को झूला घर में छोड़ देती है वह उसे लेते हुए वापस आ जाता है। बबलू सो रहा था। उसे बिस्तर पर लिटा कर उसने चादर ओढ़ाई और कपडे बदल कर खुद भी उसकी बगल में लेट गया। आज उसका खाना खाने का मन नहीं हो रहा था। जाने क्यों एक उथल पुथल सी लग रही थी। वैसे उसकी जिंदगी शांति से चल रही थी,लेकिन कभी कभी पानी की विशाल शांत सतह के नीचे की भंवर जिस तरह दिखाई नहीं देती ऐसा ही कुछ हरीश के साथ भी था। आज सुबह जब से वह घटना हुई है वह अपने ही विचारों के भंवर में फंसता सा जा रहा है। जितना उबर कर ऊपर आने की कोशिश करता है उतना ही डूबता जाता है। जितना किनारे पर आने की कोशिश करता है उतना ही उन कटु बातों की गहराई में धँसता जाता है। पिछले छह महीनों में चाह कर भी वह इन बातों की थाह नहीं पा सका था। सोचा तो उसने कई बार था कि अब इस बारे में नहीं सोचेगा लेकिन नहीं सोचना इतना आसन कहाँ था?

आज हरीश को बहुत पुरानी वे बातें याद आ रहीं थी जिनका उस समय कोई महत्व नहीं था।या शायद ऐसी ही छोटी छोटी महत्वहीन बातें जीवन के किसी महत्वपूर्ण पड़ाव का आधार बनती हैं।ये बातें अपने क्षुद्र रूप में भी किसी बड़े परिवर्तन की और इशारा करती है लेकिन शायद हम ही इसे नहीं समझ पाते और बेकार की बात कह कर इन्हें नज़र अंदाज़ कर देते हैं। पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े ही तो मिल कर पहाड़ खड़ा कर देते हैं।

उस बार जब भैया- भाभी आये दिन भर की आया देख कर चौंक गए। भैया ने तो कहा भी इतना पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत है? दो-चार घंटे के लिए बच्चे को किसी झूलाघर या किसी के यहाँ छोड़ा जा सकता है।

घर घर होता है यहाँ बच्चा ज्यादा आराम से रहता है। एक दिन की बात तो है नहीं फिर आया घर के कामों में सीमा की मदद भी कर देती है। हरीश ने कहा।

सीमा के गले में नया मंगलसूत्र देख कर भाभी चौंक पड़ीं। छुपाने की कोशिश करते भी कडवाहट का अंश उनके प्रश्न में आ गया। ये कब बनवा लिया तुमने? उन्होंने सीमा से पूछा।

ये मैंने ट्यूशन के पैसों से बनवाया है सीमा ने सहज ही जवाब दिया। मुस्कुराने की कोशिश करते होंठों का तिरछापन हरीश ने भी देख लिया।

ये उनके लिए पहला झटका था। जो भाई हर काम में उनकी राय लेता था आज उनसे पूछे बिना अपनी जिंदगी की राहों पर अपने दम पर पाँव बढ़ा रहा है। ये उनके लिए असहयनीय था। भैया भाभी दोनों ही थोड़े असहज से लगे।

तुम मकान की एक और मंजिल क्यों नहीं बनवा लेते?

भैया ने उसके बढ़ते क़दमों को दिशा दिखा कर उसके जीवन में स्वयं के अस्तित्व को पुनः स्थापित करने की कोशिश की।

क्या करना है मकान बनवा कर? हमारे लिए इतना काफी है।

किराया आता रहेगा उससे लोन चुक जाएगा और एक प्रॉपर्टी बन जाएगी।

यहाँ इतना किराया थोड़ी मिलेगा। अभी बबलू छोटा है अब उसके लिए सोचना है। क्यों बेकार लोन ले कर अपनी शांति भंग करे?

शांति क्या भंग होना है? अब कुछ बनाना है तो मेहनत तो करना होगी न? तुम हर बात में पीछे क्यों हट जाते हो?

बात मेहनत से डरने की नहीं है। ये छोटा सा क़स्बा है यहाँ एक तो किरायेदार नहीं मिलते, फिर गली में मकान है किरायेदार होंगे तो उनकी गाड़ी रखने में परेशानी होगी फिर कौन किराये से लेगा यहाँ?

हर बात में जी भैया कहने वाले हरीश के मुँह से पहली बार न सुनकर भैया थोड़े आवेश में आ गए।

तुम समझते क्यों नहीं हो अभी बना लोगे तो बन जायेगा आगे महंगाई कितनी बढ़ रही है। फिर बबलू बड़ा होगा तब तुम्हे ये घर छोटा पड़ेगा। चाहो तो थोडा पैसा हम लगा देंगे।

भैया से हमेशा लेते रहना एक मजबूरी थी लेकिन नौकरी और शादी के बाद ऐसे रुपये पैसों का लेनदेन बंद सा हो गया था, सिवाय साझा खर्चों के।अब जब मकान हरीश के नाम था उसमे भैया पैसे लगाये ये हरीश को ठीक नहीं लगा।आखिर उसका भी आत्मसम्मान है।लेकिन भैया को आवेश में देख वह चौंक गया,फिर खुद को संयत करके कहा अभी देखते है।

बात वहीँ आई गई हो गयी। उनके जाने के बाद हरीश सोचता रहा आखिर ऐसा क्या हुआ जो भैया असहज,असंतुष्ट से लगे। सीमा ने भी शिकायत की कि भाभी हर चीज़ की खोज खबर ले रही थीं। ये साड़ी कब खरीदी,कितने की ली? मिक्सर नया ले लिया पुराना ही ठीक करवा लेतीं क्यों पैसे खर्च किये? नए परदे कब बनवा लिए? मैं क्या छोटी सी बच्ची हूँ अपनी गृहस्थी कैसे चलाना है मुझे पता है,कहाँ कैसे,कितना खर्च करना है मैं जानती हूँ।

कुछ दिन उसके मन में कडवाहट बनी रही।

दो महीने बाद बड़े भैया का फिर फोन आया क्या सोचा तुमने मकान के बारे में?

भैया अभी नहीं बनवा सकते खर्चे बढ़ गए हैं। मेरी और सीमा की तनख्वाह से इतनी बचत नहीं होती जिससे लोन की किश्तें चुकायीं जा सकें।

तो खर्चे कम करो,बचत करना सीखो। क्यों अनाप-शनाप चीज़ों पर खर्च करते हो? खर्चे तो बढ़ते रहेंगे अभी इन्वेस्ट करोगे तब उससे कमाई होगी। तुम दोनों आगे की क्यों नहीं सोचते और भी जाने क्या क्या?

हरीश ने कभी भाइयों के सामने मुँह नहीं खोला था बहस करना तो दूर की बात थी। उनकी बातें सुनकर उसे गुस्सा तो नहीं आया लेकिन वह दबाव महसूस कर रहा था।

उस दिन सुबह सुबह हरीश, सीमा और बबलू को अपने घर देख कर बड़े भैया आश्चर्य चकित रह गए। उनके चहरे पर रात भर की नींद पूरी न होने की थकान के बावजूद सबको सरप्राइज़ देने की ख़ुशी ने उन्हें असमंजस में डाल दिया।

अरे तुम लोग अचानक यहाँ कैसे? सब ठीक तो है?

हाँ भैया सब मजे में है हम लोग शिमला घूमने गए थे सोचा लौटते में सबसे मिलते चलें। पैर छूते हुए हरीश ने कहा।

शिमला गए अचानक कोई खबर ही नहीं दी तुम लोगों ने।

हाँ हम दोनों के स्कूल की छुट्टियाँ थी बहुत समय से कहीं बाहर गए भी नहीं थे। अब बबलू भी थोडा बड़ा हो गया है तो इतनी मुश्किल नहीं हुई। बस अचानक प्रोग्राम बना एक दोस्त ने होटल में बुकिंग करवा दी थी तो बस चले गए। वैसे हरीश जानता था अगर जाने से पहले बता देते तो फिर खर्चे कम करो, मकान बनाओ वाली बातें सुननी पड़तीं इसलिए बेहतर था की वापस आ कर बताया जाये। दिल्ली से निकलते हुए सबसे मिले बिना जाने का दोनों का ही मन नहीं हुआ।

हाँ-हाँ ठीक किया तुमने आओ। जाने क्यों भैया की आवाज़ में वो उत्साह महसूस नहीं किया हरीश ने।

उसका मन बुझ सा गया लेकिन फिर भाभी,माँ, भतीजे भतीजी से मिलते हुए उसने इस बात को नज़र अंदाज़ कर दिया।

सीमा ने सबके लिए कुछ न कुछ लिया था माँ, भाभी के लिए शाल,भतीजे के लिए कोट,भतीजी के लिए स्वेटर भैया के लिए मफलर ताज़े फलों की टोकरी जो उन्होंने आते समय बस में रखवा ली थी और सारे रास्ते संभाल कर लाये थे। सीमा ने अपने लिए लिए गरम कपडे भी सबको दिखाए सब एक समान था। छोटे भैया भाभी के लिए भी कुछ न कुछ लिया था। उपहार लेते हुए भैया भाभी चुप्पी साधे रहे। घर का माहौल अचानक बोझिल सा हो गया। कारण दोनों को ही समझ नहीं आया।

शाम को चाय पीते समय फिर मकान की बात छिड़ी। ऐसा लगा जैसे भैया ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। उनकी बात का ना माना जाना उन्हें परेशान कर रहा है। हरीश की जिंदगी में अपना स्थान उन्हें कमतर लगने लगा जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे।वहाँ एक दिन रुकना भी उन लोगों को भारी लगने लगा।

दिल्ली से लौट कर आये उन्हें एक हफ्ता भी नहीं हुआ था उस दिन रविवार था।हरीश अखबार पढ़ रहा था,सीमा घर के कामों में लगी थी तभी फोन की घंटी बजी। जयपुर से छोटे भैया का फोन था। उनका नाम सुनकर सीमा भी हाथ पोंछते पास आ खड़ी हुई। नमस्ते भैया के बाद हरीश सिर्फ हाँ भैया, जी भैया कहता रहा, उसकी आवाज़ बुझती जा रही थी चेहरे का रंग उड़ता जा रहा था। सीमा से बात करवाए बिना उसने फ़ोन बंद कर दिया और धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। आँसू उसके गालों पर बह निकले गला रुंध गया। सीमा उसकी ऐसी दशा देख कर घबरा गयी आखिर हुआ क्या? माँ, माँ ठीक तो है न? हरीश के दोनों कंधे पकड़ कर उसने उसे झकझोर दिया।

बताइये तो आखिर हुआ क्या है? सब ठीक तो है न? माँ तो ठीक हैं न? क्या कह रहे थे उमेश भैया?

पानी पीने के बाद भी बहुत देर हरीश अपने को संयत नहीं कर पाया, उसके आँसूं रोके नहीं रुक रहे थे,वह स्तब्ध था।अविश्वास से उसकी आँखें जैसे फटी रह गयीं। वह पलकें झपकाए बिना शून्य में घूरता जा रहा था। उसने जो बताया उस पर विश्वास करना सीमा के लिए भी मुश्किल था। उसने तीन चार बार वही बात पूछ कर जैसे अपने कानों को विश्वास दिलाया की उसने जो सुना है वही कहा भी गया है।

छोटे भैया ने कहा है कि उस समय भावावेश में आकर हमने ये फैसला कर लिया था और मकान तुम्हारे नाम कर दिया था। अब तुम दोनों कमाते हो एक ही बेटा है माँ भी सालों से कभी दिल्ली या जयपुर में हैं फिर छोटे शहर के खर्चे भी कम हैं। यहाँ बड़े शहरों में खर्च बहुत ज्यादा हैं और दो दो बच्चों की पढ़ाई लिखाई दुःख बीमारी सभी में बहुत पैसा लगता है इसलिए अब मैं और भैया चाहते है कि मकान में से हमें हमारा हिस्सा दे दिया जाए। अगर तुम हिस्सा देने को तैयार नहीं हो तो हम तुम पर धोखे से मकान हड़पने का केस कर देंगे।

जो भाई हरीश का गुरुर थे जिन्हें उसने मातापिता से भी ऊँचा दर्ज़ा दिया था जिनके हर कहे को सिर आँखों पर लिया वो आज अचानक बेगाने बन कर उसके सामने खड़े हो गए थे। वे भाई जिनकी तरक्की, जिनकी ख़ुशी हरीश के लिए अपनी ख़ुशी से बढ़ कर थी वे अगर कह देते कि मकान हमारे नाम कर दो हरीश ख़ुशी से कर देता लेकिन उनका ये कहना की धोखाधड़ी का केस कर देंगे। हरीश को ऐसा लगा मानों इस संसार में वह एकदम अकेला है,उसका कोई नहीं है कोई भी नहीं। निराशा के भंवर में अकेले ही गोते लगाता रहा और किसी अपने की थाह पाने को हाथ पैर मारता रहा लेकिन उसका अपना वहाँ था कौन?

हमने कब कहा था मकान हमारे नाम करने का? हमने तो कभी इसका जिक्र तक नहीं किया। उस समय तो दोनों भाइयों को ही लाड़ उमड़ रहा था खुद ने ही ये निर्णय किया अब क्यों वापस चाहिए? सीमा आक्रोशित स्वर में बोली। नहीं देते हमें कुछ तो हम अपना खुद का कुछ करने का सोचते। जैसे तैसे करके अब तक एक प्लाट तो जुटा ही लेते। दिया तो इसलिए कि उन्हें कभी यहाँ रहना नहीं था। अब क्या यहाँ आ कर रहेंगे या इसे बेच देंगे? सीमा दुःख और गुस्से से काँप रही थी।उसकी आवाज़ में अचानक सब कुछ खो जाने जैसी हताशा थी।जो खोया था वह मकान तो नहीं था क्योंकि वह तो अभी भी उनका ही था लेकिन रिश्तों का विश्वास,अपनापन, बड़ों की छत्रछाया तो खो ही गयी थी।

फिर कुछ सोचते हुए बोली भैया लोगों के मकान की कीमत क्या होगी?

बताओ न उनके मकान की क्या कीमत होगी? उसने थोडा झुंझलाते हुए हरीश से पूछा। उसकी बैचेनी साफ़ झलक रही थी।

होगी यही कोई पचास साठ लाख।

और हमारे मकान की?

सात आठ लाख। कहते हुए हरीश खुद ही चौंक गया। सात आठ के मकान के तीन हिस्से हर एक के हिस्से में सिर्फ ढाई तीन लाख।

मुझे समझ नहीं आता इतनी कम कीमत के मकान से हिस्सा ले भी लेंगे तो उनके हिस्से में इतना क्या आ जायेगा? सीमा के स्वर में असमंजस था।

समझ तो हरीश को भी नहीं आ रहा था। इसके बाद फोन पर फोन आते रहे, सम्बन्ध तोड़ने की, केस करने की धमकियाँ मिलती रहीं।

हरीश अक्सर सोचता अब इन संबंधों में बचा ही क्या है?अब अगर सम्बन्ध बने भी रहे तो क्या उनका वही स्वरुप होगा जो पहले था? वह तो अकेला हो ही गया है।रात दिन सोच सोच कर हरीश अब टूटने लगा था उसका खुद पर से विश्वास हिलने लगा था। वह यही सोचता कि उससे या सीमा से ऐसी कौन सी गलती हुई है कि दोनों भाई एकदम से पराये हो गए। माँ क्या माँ भी यही चाहती हैं?

उस दिन फोन पर माँ से बात करते हुए हरीश रो पड़ा। माँ का बड़ा निर्लिप्त सा उत्तर मिला तुम भाई लोग आपस में मिल बैठ कर तय कर लो हम क्या कहें? इतने सालों उनके साथ रह लेने के बाद उनके घर से बात करते हुए माँ और कह भी क्या सकती थीं लेकिन फिर भी उनकी बात से हरीश को बहुत दुःख हुआ।

हरीश को रात दिन परेशान देख कर एक दिन सीमा ने ही कहा क्यों इतना दुखी होते हो उन्हें मकान में हिस्सा चाहिए दे दो हम किराए के मकान में रह लेंगे। पांच दस सालों में जैसे भी होगा दो कमरों का जुगाड़ तो कर ही लेंगे।

हरीश को परेशानी हिस्सा देने में नहीं थी उसकी परेशानी थी भाइयों का व्यवहार।

आज की इस घटना ने उसके इतने दिनों के विचार मंथन को एक अंजाम तक पहुँचाया था। आज उसे कुछ कुछ समझ आ रहा था।

गाँव के ठाकुर की परेशानी थी उस की सामंतवादी प्रवृत्ति,दलितों को अपने अँगूठे तले दबाये रखने की आदत, उनका अपने आगे झुका सिर देखने की चाह, खुद का बड़ा होने का दंभ,जी हुजूरी करवाने का शौक। दौलतराम के लडके ने पढलिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो कर अपनी जिंदगी अपने दम पर जीना चाहा, अपने निर्णय खुद लेने शुरू किये तो ठाकुर को खुद की स्थापित की हुई प्रतिष्ठा डिगती हुई नज़र आयी। उसने उसे इनकार, धमकियों, समझाइशो से रोकना चाहा लेकिन वह ना रुका। इसलिए अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए उसने उसे ख़त्म करवा दिया। हरीश को ठाकुर और भैया के चहरे गड़मग होते नज़र आये। उसे अकेले अलग थलग करके भाइयों ने उसके साथ वही तो किया उसका विश्वास चकना चूर करके उसके व्यक्तित्व को ख़त्म करने की कोशिश ही तो की।

अचानक जैसे धुंध छंट गयी।हरीश को अब वही सारी घटनाये एक अलग सन्दर्भ में नज़र आने लगीं।उसका पहली बार अपनी राय रखना,भैया का पहली बार आवेश में आना, उसका अपने निर्णय खुद करना अपनी जिंदगी को अपने तरह से अपनी हैसियत के हिसाब से जीना,भैया से किसी मदद को लेने के लिए राज़ी न होना।

अचानक वह उठ बैठा, नहीं वह अपने साथ ऐसा नहीं होने देगा।वह किसी सामंतवादी विचार के आगे सिर नहीं झुकाएगा वह उठ बैठा,उसने कुछ निश्चय कर लिया था।उस निश्चय की रोशनी से उसका चेहरा चमक उठा। इतने दिनों की चिंता परेशानी सब इस चमक के आगे धुंधली पड़ गयीं। उसने घड़ी देखी सीमा को आने में बस थोड़ी ही देर थी।वह जल्दी से जल्दी अपना निर्णय सीमा को बता देना चाहता था।

कविता वर्मा