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Mrugtrushna

पंजाबी कहानी

मृगतृष्णा

एस. बलवन्त

अनुवाद : सुभाष नीरव

उसका नाम तो मिस्टर बसरा था, पर लोग उसे प्यार से बसु पुकारते थे।

कई दिनों से बसु दफ्तर नहीं आया था। रमाकांत हर रोज उसका इंतजार करता। सोचता...पता नहीं क्या हो गया उसे? वह तो कभी भी दफ्तर से छुट्टी नहीं करता था। रमाकांत ने सोचा कि आज वह बसु के घर जायेगा।

जब से वह इस दफ्तर में आया था, उसकी दोस्ती रमाकांत से हो गई थी। दोनों एक साथ खाना खाते, शाम को घर के लिये भी एक साथ ही चलते। दिन भर की बातें साझी करते। रास्ते में एक मोड़ तक दोनों साथ—साथ जाते लेकिन फिर अलग—अलग रास्तों पर चले जाते।

बसु रमाकांत के घर आता—जाता था। लेकिन रमाकांत को अपने घर कभी नहीं लेकर गया। यही कहता — वह तो घर पर अकेला ही रहता है। उनके आने पर वह उनकी क्या खातिर कर सकेगा?

पिछले हफ्ते ही वह रमाकांत की बेटी के जन्मदिन पर फूल लेकर आया था। जब रमाकांत ने वे फूल अपनी नन्हीं बेटी को दिए तो वह बहुत खुश हुई। कहने लगी, “अंकल को मेरा थैंक्स कहना...। अंकल बहुत अच्छे हैं। आप तो कभी भी फूल लेकर नहीं आते।”

रमाकांत को यह बात बहुत चुभी। ऐसा नहीं कि वह फूलों के खर्चे से डरता था। पर उसे कभी यह सूझा ही नहीं। ...यह बात उसे उसी दिन पता लगी कि किसी के जन्मदिन पर फूल भेंट करने से उस इंसान की खुशी में कितना इजाफा होता है। रमाकांत को बहुत अफसोस हुआ कि वह ऐसा क्यों नहीं कर सका। यहाँ भी बसु ही पहल कर गया।

बसु और भी कई बातों में कमाल था। वह हर मौका संभाल लेता और लोगों के दिलों पर छा जाता था। कई बार दफ्तर में ऐसी मुश्किलें आईं। बसु उनको अपने ऊपर ले लेता, चाहे वह फालतू काम की बात हो या किसी जिम्मेदारी की। रमाकांत हमेशा पीछे रहता।

इन्हीं यादों में गुम आज पता नहीं रमाकांत ने दफ्तर का कौन—सा काम छोड़ा और कौन—सा किया।

शाम को वह बसु का हाल पूछने के लिये उसके घर की तरफ चल पड़ा। आखिर क्या बात थी, वह इतने दिनों से दफ्तर नहीं आ रहा? कहीं बीमार ही न पड़ गया हो? लेकिन अगर बीमार होता तो फोन तो कर सकता था।...खैर, चल के देखता हूं। रमाकांत सोच रहा था।

वह उसके घर जाने वाली बस में बैठ गया।

रास्तेभर वह बसु की यादों में ही डूबा रहा।

एकाएक रमाकांत कांप—सा गया...उसे वह घटना याद हो आई जब बसु ने उसकी पत्नी को चूमा था। कितना गुस्सा आया था उस दिन रमाकांत को...! बहुत दुखी हुआ था रमाकांत!

उस दिन उनकी शादी की सालगिरह थी। बसु ने मीयां—बीवी को दावत पर बुलाया। कनॉट प्लेस के अच्छे से रेस्टोरेंट पर खाना खाने का फैसला हुआ।

इन्वीटेशन बसु की तरफ से था। रमाकांत पत्नी और छोटी बच्ची को लेकर निश्चित स्थान पर पहुँच गया।

खाने का आर्डर दिया गया। खाना बहुत स्वादिष्ट था।

दरअसल, उनकी इतनी आमदनी नहीं थी कि वे हर रोज होटलों—रेस्टोरेंटों में खाना खा सकते। कभी—कभी ऐसी दावत मिलती तो वे ज़रूर जाते और सारी कसर निकालते।

आज भी वे कुछ ऐसा ही कर रहे थे।

बसु उन दोनों की तरफ बड़े प्यार से देखता रहा। उनकी बातें सुनता रहा। मिसेज रमाकांत गठीले शरीर की औरत थी। बसु एकटक उसके शरीर को देखता रहा। उसकी नजरें सिर के संवरे हुए बालों से होती हुई मांग के सिंदूर की तरफ गईं। माथे की बिंदी, आँखें, नाक, गाल और फिर उसके होठों को वह निहारता रहा। जिन पर लगी लिपस्टिक खाना खाने से उतरनी शुरू हो गई थी और होठों की असल लाली उभर रही थी।

फिर वह मिसेज रमाकांत के बाकी अंगों को देखता रहा।

रमाकांत को पहले तो बुरा लगा लेकिन बाद में उसने सोचा कि उसकी बीवी है ही सुंदर तो देखता रहे...उसका कौन—सा कुछ घिस रहा है।

लेकिन जब बसु की निगाहें मिसेज रमाकांत की छाती पर जा टिकीं तो मिसेज रमाकांत से रहा न गया। उसने कह ही दिया, “बसु आप शादी क्यों नहीं कर लेते?”

“शादी? आप जैसी खूबसूरत औरत तो यह रमाकांत ले गया, अब शादी किसके साथ करूं?” बसु ने अपने बायें हाथ की हथेली पर जोर से दायें हाथ की हथेली मारते हुए ठहाका लगाया और अपना पूरा बदन लहरा दिया। जब बसु बहुत अधिक खुश होता था तो वह इसी अंदाज में हँसता और ठहाका लगाया करता था।

बसु के इतना कहने पर वह शरमा गई, मुँह नीचा करके चोर नज़र से उसने अपने पति रमाकांत की तरफ देखा। शायद वह सोच रही थी कि यह बात उससे रमाकांत ने तो कभी नहीं कही।...उसे लगा शायद वह सचमुच खूबसूरत है।

रमाकांत चुप बैठा यह सब देख—सुन रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपनी बीवी की तारीफ करे या बसु को ऐसा करने से रोके। ...पर इसमें बुराई भी क्या थी। उसकी बीवी खूबसूरत है, और यदि बसु ने कह ही दिया तो हर्ज़ क्या है?... आज वे उसके मेहमान भी तो हैं। छोटा—मोटा मजाक तो चलता ही है।... उसने मन में सोचा।

बसु को लगा, अनजाने में उसने कुछ ऐसा कह दिया जो उसे नहीं कहना चाहिये था। बहुत मुश्किल से इस दुनिया में भटकने के बाद एक अच्छा दोस्त मिला है। कहीं यह भी नाराज़ न हो जाये।

वे खाना खाकर इंडिया गेट की तरफ घूमने आ गए।

थोड़ी—थोड़ी ठण्ड उतर आई थी। वे वहाँ पार्क की घास पर बैठ गए। बच्ची ऊंघन लगी तो मिसेज रमाकांत ने पास ही घास पर तौलिया बिछाकर उसे लिटा दिया। थोड़ी देर बाद उन्होंने फैसला किया कि आईसक्रीम खाई जाए। रमाकांत ने जबरदस्ती की कि आज उनकी शादी की सालगिरह है और आईसक्रीम वही लेकर आएगा।

रमाकांत सड़क पर खड़ी रेहड़ी की तरफ आईसक्रीम लेने के लिये चल दिया।

मिसेज रमाकांत का दिल धड़कने लगा। अब वे दोनों अकेले थे। बच्ची घास पर बिछाये तौलिए के उपर सो रही थी।

मिसेज रमाकांत शायद वह कुछ पूछना चाहती थी। एक बार कोशिश भी की लेकिन हिम्मत न हुई।

आखिर मिसेज रमाकांत ने हिम्मत की और कहा, “क्या मैं सचमुच खूबसूरत हूं?”

“बेशक !...आप बहुत खूबसूरत हो।” उसके कहते ही, मिसेज रमाकांत का चेहरा शर्म से लाल हो उठा तो बसु ने आगे बढ़कर उसको चूम लिया। मिसेज रमाकांत हत्प्रभ—सी होकर कांप गई।

रमाकांत यह सब देख रहा था।

उसका दिल किया कि जाकर आईसक्रीम उनके मुँह पर दे मारे। लेकिन उसने सोचा, इसमें अकेले बसु की गलती थोड़े ही है?... उसकी बीवी भी तो एतराज कर सकती थी?...वह ही साली हरामजादी है।...हर औरत ही ऐसी होती होगी।

बाद में उसे ख्याल आया कि क्या कभी खुद उसने अपनी बीवी को इतने प्यार से निहारा?...कभी उसकी खूबसूरती की तारीफ की है? ...उसे अपना आप बहुत ही घटिया लगा।

वह आईसक्रीम ले आया। तीनों ने ली और एक दूसरे से आँख बचाकर सिर झुकाए आईसक्रीम खाने लगे। आईसक्रीम खाकर घर जाने के लिए उठ खड़े हुए।

घर आकर रमाकांत सोचता रहा कि आज के बाद वह कभी बसु के साथ बात नहीं करेगा। बहुत ही घटिया किस्म का आदमी है। तभी तो शादी नहीं करता साला।...दूसरों की बीवियों पर नज़र रखता है। अकेले रहने से पैसे बच जाते होंगे, दूसरों की बीवियों पर खर्च करने के लिए।

मिसेज रमाकांत भी काफी डरी हुई थी। यह तो बहुत पाप हो गया। उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था।...लेकिन यह उसने जानबूझ कर तो नहीं किया।...बस हो गया। वह एक वफादार पत्नी की तरह ही तो रह रही थी? अचानक उसके दिल में क्या फूटा कि वो ऐसा करने के लिये मजबूर हो गई ? मुझे लालसा नहीं करनी चाहिये थी।

इन्हीं विचारों में खोये पता नहीं वे कब सो गए।

सवेरे उठ कर मिसेज रमाकांत ने माफी मांगी। रमाकांत चुप रहा। उसकी खामोशी ने मिसेज रमाकांत को और अधिक परेशान कर दिया। वह डर रही थी। पता नहीं उसे क्या हो गया था? शायद कोई दर्द था उसके अंदर, जिसने उसको कोंच लिया था।

रमाकांत तैयार होकर दफ्तर चला गया, पर बोला कुछ नहीं।

मिसेज रमाकांत और परेशान हो गई।

जब रमाकांत दफ्तर पहुँचा तो बसु पहले से आया हुआ था। उसने पहले की तरह रमाकांत से बात की। जैसे कल कुछ हुआ ही न हो, लेकिन वह ठीक से नहीं बोला।

इतने में स्टाफ के बाकी लोग भी आ गए। उनमें से तानिया और ऊषा के साथ उसकी काफी पटती थी। उन्होंने आपस में विश किया और अपने—अपने कामों मे लग गए।

लंच का समय हो गया था। रमाकांत और बसु इकट्ठे लंच किया करते थे। लेकिन आज रमाकांत समय से पहले ही लंच करने के लिए उठकर बाहर चला गया।

बसु ने तानिया और ऊषा के साथ लंच किया। ऊषा ने उसको ताना मारा, “आज आपने दोस्त के साथ लंच नहीं किया?...क्या बात है, झगड़ा हो गया है क्या ?” ऊषा मजे ले रही थी। पर बसु चुप ही रहा।

कुछ देर दफ्तर की बातें होती रहीं। बाद में तानिया की शादी की बात चल पड़ी। तानिया ने बताया कि उसने सारे स्टाफ को बुलाया है।

तभी रमाकांत आ गया। वे तीनों एक दूसरे से सटकर बैठे थे। उसको लगा, “यह साला आज तानिया के साथ भी वही करेगा जो कल उसकी बीवी के साथ किया था।”

वह गुस्से से भरा अपने काम में व्यस्त होने की कोशिश करता रहा। यह सिलसिला काफी दिन चलता रहा। रमाकांत घर जाता तो अपनी बीवी से खीझता लेकिन कहता कुछ नहीं। दफ्तर आता तो बसु से दूर—दूर रहता और खीझता रहता।

बसु जब तानिया या ऊषा के साथ हँस—हँस कर बातें करता। बीच बीच में, बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ को ज़ोर से मारते हुए ठहाका लगाते समय अपने शरीर को पूरा का पूरा लहराता। रमाकांत से सहन न होता। अब वह बसु को बहुत गौर से देखता। लंबा पतला शरीर। सुन्दर मुखड़ा। स्त्रियों के कपड़े पहना दो सुन्दर लड़की को भी मात दे। दफ्तर में हर किसी के साथ काफी मेल—मिलाप बना कर रखता।

कुछ दिन बाद सोने के समय मिसेज रमाकांत ने बताया कि वह फिर से माँ बनने वाली है। यह सुनकर रमाकांत पहले तो खुश हुआ लेकिन बाद में उदास होकर उसकी तरफ देखता रहा। शायद वो यह ढूंढने की कोशिश कर रहा था कि उस बच्चे का बाप कौन है..!

वह हमेशा इसी संदेह में घिरा रहता कि उसकी पत्नी चोरी छिपे बसु से मिलती होगी और यह बच्चा भी उसी का होगा।

बिस्तर पर लेटे रमाकांत को अपने आप से घृणा हो उठती। उस रात वह ठीक ढंग से सो न सका। यह सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा। लेकिन धीरे—धीरे उसका गुस्सा ठंडा होता गया।

आखिर एक दिन उन्होंने बीते हुए समय पर मिट्टी डालना बेहतर समझा। ज़िंदगी नए सिरे से चलने लगी।

बस अपनी पूरी स्पीड के साथ चलती, रुकती और फिर चलने लगती। रमाकांत बसु के साथ बिताये समय में गुम हो जाता और फिर वर्तमान में लौट आता। यादों का सिलसिला भी चलता रहा और बस भी।

बसु के घर का स्टॉप आ गया और वह उतरकर उसके घर की तरफ चल पड़ा। चलते चलते उसकी घबराहट और बढने लगी। ख़ैरियत हो। कहीं बीमार ही न पड़ा हो। वह रहता भी तो अकेला है। माँ—बाप, भाई बहन और किसी रिश्तेदार के बारे में तो उसने कभी बताया ही नहीं।

आखिर वह बसु के घर पहुँच गया। एक मर्दनुमा औरत ने दरवाजा खोला। जब रमाकांत ने अपने बारे में बताया तो वह उसे अंदर ले गई। उसने बताया कि बसु अक्सर तुम्हारा जिक्र करता था।

कुछ देर बाद वह चुप हो गई और फिर अचानक उसने चुप्पी तोड़ी और कहा, “बसु तो परसों ही यह जून छोड़ गया।”

रमाकांत की मुँह से चीख निकल गई। अपने आप पर काबू पाकर उसने पूछा, “दफ्तर में तो किसी को नहीं बताया, हम लोग चिंतित थे।”

“हमारी बिरादरी में जब कोई यह जून छोड़ता है तो हम लोगों को नहीं बताते, बल्कि आधी रात को शव को छुपा कर ले जाते हैं, कहीं कोई गर्भवती औरत देख न ले और हमारे जैसी औलाद पैदा कर दे — न मर्द और न औरत। बल्कि हम लोग तो उसे जूतों से पीटते हैं कि फिर इस जून में पैदा न होना !”

रमाकांत को लगा, जैसे वह ज़मीन पर धड़ाम से गिर गया हो और प्रकृति के करिश्मे उसको थप्पड़ मार रहे हों।

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परिचय

एस. बलवंत

जन्मरू 10 दिसंबर 1946

लेखक, पत्रकार व प्रकाशक।

दो कहानी संग्रह ‘महानगर' व ‘इक मरियम होर' प्रकाशित। ‘महानगर' कहानी संग्रह हिंदी में भी। ‘लंघदियां लंघदियां' शीर्षक से सफ़रनामा प्रकाशित। देश—विदेश में अनेक पत्र—पत्रिकाओं के लिए कई वषोर्ं से निरंतर लेखन व पत्रकारिता। भारत, यूराप और दक्षिण अमेरिका में कई पुरस्कारों, सम्मानों से सम्मानित।

संपर्क : 8ए ब्व्स्म्ैभ्प्स्स् ैन्न्म्म्ज्ए थ्र्।म्स्म्ल्ए ज्।डॅव्त्ज्भ्ए ठ78 3त्। ;न्ज्ञद्ध

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