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मैसूर चलें हम

मैसूर चलें हम

मैसूर में पहला दिन

भारत का इतिहास राजा, रानी, विशाल साम्राज्य, धोखा, युद्ध, हत्याएँ और न जाने कैसी-कैसी बातों से भरा पड़ा है। इन्हें पढ़ते वक़्त यूँ लगता है मानो हम इतिहास नहीं पढ़ रहे अपितु कल्पनालोक में विचरण कर रहे हैं। जब इन साम्राज्यों के ऐतिहासिक साक्ष्यों से सामना होता है तो यूँ लगता है कि कल्पनाएँ भी छोटी पड़ गईं। आज ऐसी ही एक यात्रा का वृतांत लेकर उपस्थित हूँ।

कुछ दिनों पूर्व जब बेंगलुरु (पहले इसे बैंगलोर कहते थे) जाना हुआ तो मन में इच्छा जगी कि मैसूर घूम लिया जाये। हमने तय किया कि हम एक गाड़ी लेकर सड़क मार्ग से मैसूर घूमने जायेंगे। हमने एक निजी एजेंसी से संपर्क किया और उन्होंने अगली सुबह छह बजे गाड़ी लेकर हरीश को भेज दिया। हमने बिना समय व्यर्थ किये अपना सामान लिया और चल पड़े। आठ बजते-बजते हमें भूख सताने लगी। तब हम कनकपुरा इलाके से गुज़र रहे थे।


अचानक हमारी नज़र एक रेस्तरां पर पड़ी। हमने गाड़ी रुकवाई और “श्रीनिवास सागर” के अन्दर गए। हालाँकि रेस्तरां मध्यम स्तर का लग रहा था किंतु वहाँ की इडली और उपमा लाजवाब थे। हमने चलते समय मेनेजर मंजुनाथ जी का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने जब ये सुना कि उनका रेस्तरां हमें बहुत पसंद आया है तो वे फूले नहीं समाए।

यहाँ से चलने के तकरीबन सवा घंटे के बाद हम “शिवनासमुद्रा जलप्रपात” पहुँचे। जंगल के बीच के अत्यंत मनोहारी रास्तों से गुजरते हुए जब हम वहाँ पहुँचे तो देखा कि भीड़ ज्यादा नहीं थी। प्रपात की आवाज़ हम सुन पा रहे थे। इस आवाज़ ने हमारे अन्दर एक नव उत्साह का संचार कर दिया था। जब हम प्रपात के निकट पहुंचे तो थोड़ी मायूसी हाथ लगी।

हमने देखा कि प्रपात की एक ही धारा बह रही है। हम सिर्फ ये अंदाज़ा ही लगा सकते थे कि यदि इस प्रपात की एकल धारा का गर्जन ऐसा है तो जब पूरा प्रपात अपने उफ़ान पर होता होगा तो कितना निर्मल और कितना निर्मम दीखता होगा! खैर, हमें अब प्यास लग आई थी।

ऐसे में नारियल-पानी से बेहतर और क्या हो सकता था? नारियल विक्रेता ने हमें बताया कि जनवरी से जुलाई तक प्रपात में ज्यादा पानी नहीं होता है। पेप्सी-कोला की दुकान खाली थी और उसके पास खरीदारों की भीड़ लगी थी, इस बात से वह अत्यंत प्रसन्न नज़र आया। घड़ी की ओर देखा तो साढ़े-दस बजने को थे। हमने तलाकाडू की ओर प्रस्थान किया।

चालीस-पैंतालीस मिनट की यात्रा और कई जगहों पर पूछ-ताछ करने के बाद हमारी गाड़ी मुख्य मंदिर के द्वार के सामने थी। हमने अपनी पादुकायें वहीँ एक लड़के के पास जमा कर दी और अन्दर गए। अन्दर जो देखा, उससे हम अचंभित हुए बिना नहीं रह सके। पत्थर को तराश कर की गयी अद्वितीय कारीगरी ने मानो हमारे कदम रोक लिए हों। शिव-मंदिर के मुख्य द्वार के दोनों ओर जिन गण की मूर्तियाँ थीं, उनके पेट इस प्रकार तराशे गए थे मानो वे नंदी का मुख हों।

मंदिर के कोने में पाँच फण वाले नाग विराजमान थे।

एक ही पत्थर से तराशी गईं कड़ियाँ जिनमे मंदिर के घंटे लटकाए जाते थे, कलाकारी का अद्भुत नमूना थे। मंदिर परिसर में अनेक शिव-लिंग और नंदी की अनेक मनभावन प्रतिमाएँ थीं।

तकरीबन आधा घंटा मंदिर परिसर में बिता कर हम नदी किनारे आ गए। नदी का तट देख गंगा नदी की याद आ गयी। पतित-पावनी गंगा के किनारे सफ़ेद रेत का नज़ारा जिसने आत्मसात कर रखा हो, वो इस भावना को भली-भांति समझ जायेगा।

नदी के किनारे अनेक भोजशालायें थीं जिनमे नाना प्रकार के व्यंजन उपलब्ध थे। हमें देख सभी में होड़ सी लग गयी कि कौन ज्यादा प्रभावशाली तरीके का इस्तेमाल कर संभावित ग्राहक को अपना वास्तविक ग्राहक बनाने में कामयाब होता है। नदी किनारे बैठने की अच्छी व्यवस्था थी। कई लोग परिवार सहित वहाँ वनभोज का आनंद उठा रहे थे तो अन्य कई नदी में नौका-विहार का आनंद ले रहे थे।

यहाँ आ कर एक अविश्वसनीय कथा के बारे में पता चला। यह कथा मैसूर के वाडियार राजवंश के पुत्रहीन होने के श्राप और उस श्राप के तलाकाडू से संबंध के बारे में है। वापस आने पर जब मैंने थोड़ी पड़ताल की तो एक लेख सामने आया। आप सब भी इसे पढ़े। अच्छा लगेगा।

अब सूरज सर पर था। हमने इन अद्भुत नजारों को अलविदा कहा और सोमनाथपुर की ओर निकल चले। तकरीबन पौन घंटे की यात्रा के बाद हम सोमनाथपुर के केशव मंदिर प्रांगण के द्वार पर थे।

माना जाता है कि तेरहवीं शताब्दी में होयसला राजा नरसिंह तृतीय के सेनापति सोमनाथ दंडनायक ने यहाँ “विद्यानिधि प्रसन्न सोमनाथपुर” की स्थापना की और भगवान विष्णु को समर्पित “केशव मंदिर” बनवाया था। पूर्व दिशा में भव्य मुख्य-द्वार “नवरंग मंडप” है। हमने जब मुख्य मंदिर में प्रवेश किया तो अन्दर काफी अँधेरा था। तेज़ धूप से आने के कारण हमें वहाँ के माहौल में ढ़लने में कुछ मिनट लगे। तीन गर्भ-गृहों वाले इस मंदिर में विष्णु, वेणुगोपाल और जनार्दन स्थापित हैं।

अनेक स्तंभों वाले सार्वजनिक कक्ष में की गयी मूर्तिकारी और नक्काशी उस समय के कलाकारों की अद्भुत क्षमता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

मुख्य मंदिर के चारों ओर चौंसठ गर्भ-गृह बने हैं। हमें बताया गया कि इन में अन्यान्य देवी-देवताओं का पूजन होता था। गर्भ-गृहों के सामने गलियारे के स्तंभों की कारीगरी ने हमें अचंभित कर दिया। वहाँ कई खंडित मूर्तियाँ भी थीं। तकरीबन एक घंटे का समय बिता कर हम मैसूर की ओर बढ़ चले।

आधे घंटे में हम अपने होटल के सामने थे। सफ़र के थकान और भूख ने अगले तीन घंटे हमें व्यस्त रखा। थोड़े तरो-ताज़ा होने के बाद हम चामुंडेश्वरी देवी के दर्शनों को चल दिए। माना जाता है कि यहीं पर आदि-शक्ति ने महिस-असुर का वध किया था। कालांतर में ऋषि मार्कंडेय ने यहाँ अष्ट-भुज महिस-मर्दिनी के मंदिर की स्थापना की।

होयसला, विजयनगर और मैसूर के शासकों की इस पवित्र मंदिर में अटूट आस्था थी और उन्होंने समय-समय पर परिसर का विस्तार और जीर्णोद्धार कराया। मुख्य द्वार पर सात तलोंवाले गोपुर की सुन्दरता और भव्यता मनमोहक है। इस क्षेत्र में प्रवेश मात्र से मन को इतनी शांति मिली कि एक घंटा कब बीता, पता ही नहीं चला। पहाड़ी के शिखर से मैसूर शहर के पीछे सुदूर क्षितिज के पीछे अस्ताचल सूर्य की लालिमा मन्त्र-मुग्ध करने वाली थी। कुछ देर रुक कर हमने इसका आनंद लिया और फिर लौट चले।

लौटते वक़्त हम पंद्रह मिनट के लिए नंदी के मंदिर भी रुके। नंदी की सोलह फ़ीट ऊँची और चौबीस फ़ीट लम्बी विशाल पाषाण प्रतिमा की भव्यता देखते ही बनती है। हमें बताया गया कि यह प्रतिमा कोई तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष पुरानी है! यहाँ हमने देखा कि अनेक श्रद्धालु मूर्ति पर सिक्के चिपका रहे हैं। ये हमें कुछ अजीब तो लगा किंतु आस्था के समक्ष तर्क का क्या काम?

घड़ी ने बताया कि शाम के पौने सात बज चले हैं। यूँ तो सूरज ढ़ल चुका था किंतु उसका प्रकाश अब भी हमारे साथ था। हमें शहर लौटने में बमुश्किल पंद्रह मिनट लगे और इन पंद्रह मिनटों में अँधेरे ने शहर को अपनी आगोश में ले लिया था। जगमगाते प्रकाश-स्तंभ और आती-जाती गाड़ियों की लाल-सफ़ेद रौशनी से सराबोर ये सड़कें, दिन-रात के अनंत चक्र-गति में न जाने कितने यायावरी सपनों को उनकी मंजिलों तक पहुँचाती होंगी। यूँ तो हमारा विचार था कि मैसूर पैलेस में होनेवाली प्रकाश-व्यवस्था का आनंद लिया जाए किंतु वहाँ पहुँच कर ज्ञात हुआ कि कुछ तकनीकी कारणों से ये बंद है और इसे पुनः शुरू होने में तकरीबन महीना भर लगेगा। हमारा मन निराशा से भर गया। तकरीबन घंटे भर मैसूर के बाज़ारों-दूकानों का जायज़ा लेने के बाद हम विश्रामगृह लौट आये।

अलविदा मैसूर

सुबह-सुबह जब सूरज की पहली किरणें, बगैर दस्तक, झरोखे से दाखिल हो गईं तो हमारी आँखें खुली। हमने ज़रा-सा पर्दे सरकाए तो अपने को मैसूर शहर की चहल-पहल के बीच पाया। काम पर जाते लोग, सिटी-बस के रेले, सफाई-कर्मियों के झाड़ू से उड़ती धूल, चौराहे के किनारे जीप लगा कर चौकसी करते पुलिसवाले; सब कुछ अपने जमशेदपुर जैसा ही तो था! सच कहूँ तो मैसूर ऐसा पहला शहर मिला जिसका मिजाज़ अपनी लौहनगरी का सा है।

मैसूर में आज हमारा दूसरा दिन है। कल की अविराम यात्रा की थकान मिट चुकी है और हम नए सिरे से नयी जगहों से वाकिफ़ होने को तैयार हैं, पर पहले ज़रा नाश्ता तो हो जाये! सुबह-सुबह दक्षिण-भारतीय और कॉन्टिनेंटल व्यंजनों से सजी बुफे-ब्रेकफास्ट की टेबल हमारा इंतज़ार कर रही थी। हमने हरीश को कहा कि वह भी नाश्ता निपटा ले ताकि हमें निकलने में देर नहीं हो।

तकरीबन नौ-सवा नौ बजे हम मैसूर महल पहुंचे। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि टिकटों की बिक्री तकरीबन घंटे भर बाद शुरू होगी। हरीश ने हमें सुझाव दिया कि क्यों न तब तक संत फिलोमेना गिरिजाघर देख लिया जाये। हमें यह विचार अत्यंत पसंद आया। फिर क्या था – कुछ ही मिनटों में हम गिरिजाघर के बाहर खड़े थे।

वहाँ जो ईमारत खड़ी थी, वह हैरतअंगेज तरीके से जर्मनी के कोलोन कैथेड्रल से मेल खाती थी। हम अन्दर गए। वहाँ प्रार्थना सभा चल रही थी। हमने भी कुछ समय वहाँ बिताया। फिर बाहर आ कर परिसर घूमने लगे। ये गिरिजाघर काफी ऊँचा है और बहुत बड़े परिसर में फैला हुआ है। जब हम वापस आ रहे थे तो मुख्य-द्वार पर खड़े फोटोग्राफर ने पूरे परिवार का फोटो खींचने में हमारी काफी मदद की। बदले में हमने भी उससे एक-दो तस्वीरें खिंचवा लीं। उसने पाँच मिनट में ही उसकी प्रिंट निकाल कर ला दी। अब बारी थी मैसूर पैलेस देखने की। सो हम वहाँ से चल दिए।

मैसूर पैलेस के पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके हमने टिकट लिया और अन्दर चले गए। वहाँ एक जगह हमने अपने जूते जमा किए। हमें पहले एक ऐसे कमरे से जाने को कहा गया जहाँ चीज़ें बिक्री की जा रही थीं। ऐतिहासिक स्थल का ऐसा व्यवसायिक इस्तेमाल देख कर कोफ़्त तो बहुत हुई पर हम कर भी क्या सकते थे। आगे जा कर हमने दरबार देखा और अंतःपुर देखा। राजा को मिले अनगिनत भेंटें भी यहाँ प्रदर्शित की गयी हैं। राज-परिवार के अनेक सदस्यों के चित्र भी प्रदर्शित थीं। इस महल के बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब और ज्यादा लिखना सूरज को दिया दिखाने समान होगा। बहरहाल हम यहाँ कोई डेढ़-पौने दो घंटे का समय बिता चुके थे। हमें होटल जा कर चेक-आउट भी करना था। तो हमने बिना देर किए होटल का रुख किया। अपना सामान समेट हमने वहीँ खाना खाया, चेक-आउट की रस्में पूरी की और वापसी को निकल पड़े।

हमारा अगला पड़ाव था – सैंड म्यूजियम! यहाँ टिकट ले कर हमने प्रवेश किया तो अंदर कलाकार की मेहनत देख कर हैरान हुए बिना नहीं रह सके। हालाँकि जिन लोगों ने पुरी (ओडिशा) या आस-पास के सैंड-आर्टिस्ट की कलाकृतियाँ देखी हैं, उनके मानकों पर ये कहीं से खड़ी नहीं उतरती पर फिर भी इन अद्भुत कलाकृतियों को देखना एक अलग तरह की सुखद अनुभूति प्रदान करता है।

गणपति, सूर्यदेव और वाडियार राजाओं की कलाकृतियाँ सराहनीय बनी हैं। सभी कलाकृतियों को देख कर कलाकार की मौलिकता और कल्पनाशीलता की सहज अनुभूति होती है। यहाँ हमने कोई बीस मिनट बिताए और अगले पड़ाव की ओर बढ़ चले।

तकरीबन पंद्रह मिनट के रास्ते पर आया – “दरिया दौलत बाग”। बाग़-बगीचों से घिरा ये छोटा सा लकड़ी का महल टीपू-सुल्तान का ग्रीष्म-कालीन आवास था। हमने इसके बागीचों का आनंद लिया किन्तु महल में कुछ मरम्मत-कार्य चल रहे होने की वजह से हम अन्दर नहीं जा सके। यहाँ आधे घंटे का समय बिता कर हम “गुम्बज़” पहुंचे।

यह टीपू के पिता की समाधि है जहाँ बाद में खुद टीपू और उनकी माता को दफनाया गया। इस की स्थापत्य कला अनोखी है और हरियाली से घिरे इस जगह को देख कर लगा कि चिर-निद्रा में लीन परिवार को इतना सुकून तो मिलना ही चाहिए। आधा घंटा बिता कर जब हम वहाँ से बाहर निकले तो फुटपाथी दुकानदारों और घोड़े की सवारी कराने वालों ने हमें घेर लिया। बड़ी मुश्किल से उनसे पीछा छुड़ा कर हम गाड़ी में बैठ पाए। यहाँ से चले तो दस मिनटों में हम संगम किनारे थे। हमें बताया गया कि यह तीन नदियों – कावेरी, लोकपावनी और हेमावती का संगम है। यहाँ मेले का सा माहौल था। लोग-बाग संगम में उतर कर पवित्र स्नान कर रहे थे। कहीं पूजा-पाठ चल रहा था तो कुछ परिवार मानो पिकनिक मनाने आये थे। यहाँ का भक्तिमय माहौल अत्यंत शांति प्रदान करनेवाला था।

यहाँ से चले तो बीस-पच्चीस मिनट में कर्नल बैली की काल कोठरी पहुँच गए। रास्ते में हमने वह जगह भी देखी जहाँ टीपू-सुल्तान मृत पाए गए थे। फिर हम श्री रंगनाथस्वामी मंदिर के सामने थे। शाम के चार बजने वाले थे किन्तु मंदिर अभी बंद था। हमें बताया गया कि मंदिर खुलने में आधा-पौन घंटा समय लगेगा। हमने देवों को बाहर से ही प्रणाम किया और बृंदावन गार्डन की ओर प्रस्थान कर गए।

जब हम बृंदावन गार्डन पहुंचे, हमारी घड़ी ने बताया कि साढ़े-चार बज रहे हैं। इस बागीचे की क्या तारीफ करूँ? जब तक आप इसे देखे नहीं, घूमे नहीं, इसकी सुन्दरता समझ नहीं आएगी। यहाँ पर क्या नहीं है – करीने से बना बागीचा जिसमें भांति-भांति के पुष्प पल्लवित हो रहे हैं, बड़ा सा तालाब जिसमें नौकायन की व्यवस्था है, मन को हरते झरने-फव्वारे और मछली-घर। हाँ, यदि आप घूमते-घूमते थक जाएँ तो चाय-नाश्ते की भी भरपूर व्यवस्था है। घबराइए नहीं, बस घूमते जाइये! एक और बात – जब ऐसी सुन्दर जगह घूमने जाएँ तो कैमरे की आँखों के बजाए अपनी आँखों का इस्तेमाल करें और तस्वीरों को कार्ड पर नहीं, दिल में संरक्षित करें। जब उन तस्वीरों को ज़ेहन में लायेंगे तो फूलों के चटख रंगों के साथ-साथ उसकी खुशबू भी आपके अंतर्मन को अपने आगोश में ले लेगी।

एक और बात – जमशेदपुर के जुबिली पार्क देख चुके लोगों को दोनों में हैरतअंगेज़ समानता दिखती है और हो भी क्यों न? जुबिली पार्क आखिर बृंदावन गार्डन की तर्ज़ पर ही बनाया गया है। इस मनोरम स्थल को घूमते-घूमते कब तीन घंटे निकल गए, पता ही नहीं चला। वक़्त हो रहा था कि हम आगे प्रस्थान करें। राष्ट्रीय राजमार्ग पर सरपट भागते वाहनों के बीच हम भी आँखें बंद किए कन्नड़ गानों की धुन को आत्मसात किए जा रहे थे।

रास्ते में हमने मद्दुर वड़े और कॉफ़ी का आनंद लिया। इधर घड़ी ने दस बजाए और उधर हमारा गंतव्य आ गया। हमने हरीश को विदा किया और इस आनंददायक सफ़र के सुखद पलों को पुनः जीने में लग गए।