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झारखण्ड का गौरव: हुन्डरु

झारखण्ड का गौरव: हुन्डरु

छोटानागपुर पठार पर बसा झारखण्ड यानि “वनों का प्रदेश” एक ऐसी धरती जिसे प्रकृति ने मुक्त-हस्त से सजाया है, संवारा है। इसी झारखण्ड की धरती का सीना चीर कर निकलती है स्वर्णरेखा नदी जो यहाँ की प्रमुख नदी है। अपने चार सौ किलोमीटर लम्बे सफ़र में झारखण्ड, बंगाल और ओडिशा से होती हुई स्वर्णरेखा बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है। इस लम्बे सफ़र में उसकी हमसफ़र बनती हैं – खरकई, कांची, रोरो, करू और न जाने और कितनी नदियाँ!

स्वर्णरेखा का नाम दो अक्षरों का मेल है – स्वर्ण + रेखा। ऐसा माना जाता है कि झारखण्ड की रत्नगर्भा धरती अपनी कोख से जन्मी स्वर्णरेखा को बिदाई भेंट में सोने के कण उसके आँचल में बाँध देती है। आज भी कई स्थानों पर स्वर्णरेखा के बालू को छान कर स्वर्ण प्राप्त करने का प्रयत्न करते लोग मिल जाते हैं।

अपने उद्गम से आगे बढती स्वर्णरेखा राँची के निकट जब अपने बाल्यावस्था से निकल कर अपनी पूरी तरुनाई से अठखेलियाँ करती, इतराती-इठलाती तीन सौ बीस फीट की ढलान उतरती है तो जो नज़र आता है उसके लिए एक ही शब्द है – अद्भुत! कई लोगों से सुन रखा था कि झारखण्ड में रह कर अगर हुन्डरु जल-प्रपात नहीं देखा तो क्या देखा? घुमक्कड़ को क्या चाहिए? बस प्रेरणा! ऊँचे-नीचे पहाड़, घने जंगल और टेढ़े-मेढ़े ऊँचे-नीचे रास्ते जब बाहें फैलाये पुकारती है तो दिल को रोक पाना असंभव होने लगता है। हुन्डरु जल-प्रपात का पर्यायवाची होता है – अद्भुत! इस वाक्य ने हमारे लिए प्रेरणा-स्त्रोत का काम किया। प्रकृति की इसी अद्भुत अनुपम कृति को देखने का कार्यक्रम जब तय हुआ तो कुछ उत्साही मित्रगण भी हमारे साथ जुड़ गए।

हुन्डरु जल-प्रपात जमशेदपुर से करीबन डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर है। हमने तय किया कि हम अपनी गाड़ियों से न जा कर किसी बड़ी गाड़ी में साथ चलेंगे। सफ़र लम्बा था, साथ में बच्चे भी थे और मेरा पुराना निजी अनुभव बता रहा था कि रास्ते में नाश्ता नहीं मिलेगा। सो यह तय हुआ कि सभी अपने साथ खाने-पीने का कुछ सामान रख लेंगे। निश्चित तिथि और समय पर हम हुन्डरु जल-प्रपात देखने चल दिए।

दिसंबर के महीने में झारखण्ड के अधिकांश हिस्सों में कड़ाके की ठंड पड़ती है। हालाँकि यहाँ कई बड़े उद्योग-धंधे हैं पर झारखण्ड की धरती अब भी हरी चूनर ओढ़े इस तरह इठलाती है कि उसका स्पर्श कर लेने को आसमान भी झुक सा जाता है। दो हज़ार फुट से ज्यादा की ऊंचाई पर बसे राँची और आस-पास के इलाके गर्मियों में भी ऐसे रहते हैं कि आप को तकलीफ नहीं होगी। शायद यही कारण रहा हो कि अंग्रेजों ने राँची को अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया था। भारतीय क्रिकेट के सितारे महेंद्र सिंह धोनी से पहले इस शहर की पहचान अपने आस-पास बसे खूबसूरत झरनों से थी। राँची से बस घंटे भर की दूरी पर हुन्डरु, दशम, जोन्हा, सीता, हिरणी और पंचघाघ जैसे जल-प्रपात इस शहर की प्राकृतिक छटा में चार चाँद लगा देते हैं।

हरे-भरे पहाड़ों के बीच बलखाती सड़क पर हमारी गाड़ी हवा से बातें करती बढ़ी जा रही थी। ऊँचे-नीचे पहाड़ों की अनगिनत श्रृंखलाएँ एक दूसरे के पीछे गहरे हरे रंग से नीले रंग का होते हुए स्लेटी रंग में गुम हो जा रहे थे। जंगलों में फैले पलाश के पेड़ अभी लाल होना शुरू ही हुए थे। बस महीने भर की बात है। संक्रांति बीतते ही इन वनों की हरियाली को ये लाल फूल अपने रंग में रंग लेंगे। पलाश के पेड़ जब फूलों से लद जाते हैं तो लगता है मानो किसी ने धरती पर केसर के फूल बिखेर दिए हों। चारों ओर लाल ही लाल, ओज और उर्जा से भरपूर। बीच-बीच में बहती किसी पहाड़ी नदी की पतली लकीर मानो घाटियों में चाँदी पिघल कर बहा जा रहा हो। ऐसे-ऐसे नज़ारे कि आपको लगेगा कि अगर पलक झपक गए तो शायद कुछ छूट जाएगा। उस अनंत के स्वामी, प्रकृति के चितेरे, की कूची के रंग भी ऐसे-ऐसे रंग दिखाते हैं कि बरबस समझ ही नहीं आता कि जो हम देख रहे हैं वह सत्य है या स्वप्न!

लगभग चार घंटे की यात्रा के बाद जब हम हुन्डरु के नज़दीक पहुंचे तो अचानक से गाड़ी रुक गई। आगे देखा तो गाड़ियों की लंबी कतार थी। कुछ गुंडे किस्म के लड़के चंदा उगाही कर रहे थे। जब सभी आगे वाले वाहनों ने बीस रूपए दे कर अपना पिंड छुड़ाया तो हमने भी रस्म निभाने में ही अपना कल्याण समझा। ऐसा और भी दो जगहों पर हुआ। मन में एक कड़वाहट सी तो आ गई पर हम चुप-चाप आगे बढ़ते गए।

जब हम प्रपात के निकट पहुंचे तो माहौल ऐसा था मानो कोई मेला लगा हो। तकरीबन तीन सौ मीटर चलने के बाद हम नीचे उतरने की सीढ़ियों तक पहुंचे। वहाँ पता चला कि आगे जाने का शुल्क लगेगा। प्रवेश शुल्क दे कर हम सीढ़ियों से उतरने लगे। घने जंगलों से होती घुमावदार सीढ़ियाँ कहाँ तक हैं, इसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल हो रहा था। आसपास नज़र दौड़ाने पर सिर्फ पहाड़ों की चोटियाँ नज़र आती थीं। हमारे साथ नीचे उतरने वाले तो मस्ती में कूदते-फाँदते सीढियाँ उतर रहे थे किन्तु जो लोग नीचे से वापस ऊपर की ओर आ रहे थे, उनके चेहरों पर थकान साफ़ झलक रही थी। हमारा मन प्रपात की एक झलक पाने को बेकरार था पर सीढियां तो मानो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं। एक के बाद एक मोड़ आते किन्तु अंत कहीं नज़र नहीं आ रहा था। आठ सौ सीढ़ियाँ उतरने के पश्चात जो हमें दिखा, वह वाकई अद्भुत था। ये हुन्डरु की पहली झलक थी। हम अभी भी प्रपात से तकरीबन दो-तीन सौ मीटर दूर थे।

हम कदम-दर-कदम आगे बढ़ते रहे और हुन्डरु अपनी खूबसूरती और भव्यता से परत-दर-परत चिल्मन उठाता गया। किसी किले सरीखी खड़ी चट्टानों के शिखर से पानी यूँ अठखेलियाँ करता उतर रहा था मानो ईश्वर स्वयं अपने हाथों उसे उड़ेल रहे हों। इतना जोश, इतना शोर कि आपके विचार तक उसके आगे मौन पड़ जाएँ। गहरे रंग की चट्टानों पर उतरती जल-धारा जैसे-जैसे हमारी आँखों के आगे अनावृत होती गई, हम उसके कायल होते गए। नज़ारा इतना सम्मोहित करनेवाला था कि सिर्फ हम ही नहीं, सभी लोग उसे ही एकटक देखते आगे बढ़ रहे थे। प्रपात के ऐन सामने आकर हमने देखा कि वहाँ हजारों की भीड़ जमा है। एक हम ही नहीं थे जो इस नज़ारे को नज़रों में बसा लेने को आतुर थे। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या स्त्रियाँ और क्या पुरुष, सभी अपने-अपने तरीके से आनंदित हो रहे थे।

वहाँ एक सपाट सी चट्टान ने हमें आसरा दिया। हमने अपना आसन जमाया और माहौल का जायजा लेने लगे। चूँकि दिसंबर का अंतिम सप्ताह था तो प्रपात में पानी भी कम था। बारिश के दिनों में पूरी चौड़ाई में बहने वाले प्रपात की सिर्फ एक धारा ही थी। मेरे मन में ये ख़याल आया कि जब एक धारा में इतनी उर्जा है, इतना शोर है तो जब ये प्रपात अपने पूरे यौवन पर हो तो सुंदर तो लगेगा ही पर डरावना भी लगेगा। साथ ही साथ ये ख्याल भी आया कि क्या नदी ने स्वयं ऐसे रास्ते का चयन किया जहाँ उसे खड़ी ढलान से उतरना पड़े या फिर कालांतर में कुछ ऐसी प्राकृतिक घटनाएँ घटी जिनसे नदी के रास्ते में इस प्रकार के कटाव का निर्माण हो गया। जो भी हो, एक बात तो तय थी। पानी की अविरल धारा ने चट्टानों को समतल और चिकना बना दिया था। साथ ही उसके वेग ने नीचे के चट्टानों का क्षरण कर एक अर्ध-गोलाकार कुंड का निर्माण कर दिया था। अभी तो प्रपात के नीचे बने इस जल-कुंड का जलस्तर काफी नीचे था। इस कारण कई ऐसे चट्टान जो आम-तौर पर पानी के नीचे रहते होंगे, ऊपर आ गए थे। इन सब को पार करके नीचे पानी तक जाने के लिए बांस के अस्थाई पुल बनाए गए थे। इन पर पानी के कारण काफी फिसलन थी। हालाँकि वहाँ एक चेतावनी पट्टी भी थी पर जब प्रकृति का सम्मोहन हो तो कौन रुक सकता है भला! लोग-बाग़ एक दूसरे का हाथ पकड़ कर या फिर चट्टानों का सहारा लिए प्रपात के नज़दीक तक पहुँच जाना चाहते थे।

कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपने साथ खाना बनाने का सामान लेकर आये थे। ऐसे लोगों ने नदी के नीचे की तरफ अपना डेरा डाल रखा था। वहाँ भीड़ भी कम थी और सपाट चट्टानों की संख्या भी ज्यादा थी। इससे अच्छी जगह उनके लिए भला क्या होती? उनमे से अधिकांश ने अपने चूल्हों में लकड़ी जला रखा था। ये अच्छी बात है कि सामूहिक रूप से वनभोज का आनंद उठाया जाये किन्तु उसके लिए पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले ईंधन का उपयोग कहाँ तक उचित है? वैसे यहाँ एक बात देखने को मिली। इन नजारों का आनंद लेते-लेते यदि भूख लग आये या प्यास सताए तो सोचना क्या? यहाँ कई झोपड़ीनुमा होटल हैं जो आपकी परेशानी पल में हल कर देंगे। क्या शाकाहारी और क्या मांसाहारी, बस आप हुक्म कीजिये। आप अपनी जेब ढ़ीली करने को तैयार रहिए और ये आपकी सेवा में तत्पर हैं!

हरी-भरी वादियों के बीच प्रपात के इस मनोरम दृश्य को अपनी आँखों से दिल में उतारते-उतारते तीन घंटे कैसे बीत गए, हमें पता भी नहीं चला। सूरज जब पश्चिमोन्मुख हुआ तो हमें सुध आई कि अभी लम्बा रास्ता तय कर वापस भी जाना है। हमने अपना बोरिया-बिस्तर समेटा और चल पड़े। रास्ते में क्या देखता हूँ कि एक जगह लिखा है - मदिरापान वर्जित है! मैंने सोचा, कोई मूर्ख ही होगा जो मदिरापान कर जल-क्षेत्र में जाएगा और अपनी जान जोखिम में डालेगा। तभी देखा की चेतावनी के ऐन सामने कुछ स्त्रियाँ “हंडिया” बेच रही हैं। आपको बता दूँ कि हंडिया झारखण्ड का “राइस बियर” है जिसे उबले चावल (भात) से बनाया जाता है। पारंपरिक तौर पर यह उतना नशीला नहीं होता किन्तु जो इसका व्यापार करते हैं, वे इसमें “रासी” नाम का कोई रसायन डालते हैं जिससे इसकी नशा लाने की क्षमता में इज़ाफा होता है। मैंने अपना सर पीट लिया – हे भगवान! ये कैसी वर्जना?

थोड़ा आगे बढे तो देखा कि कुछ लोग सीढ़ियों के किनारे यहाँ-वहाँ लकड़ी के हस्तशिल्प की दुकान लगाए बैठे हैं। उन्ही में से एक में मैंने देखा कि एक नौ-दस वर्ष का बालक अपने औजारों से कुछ बना रहा है। उसके सामने बिछा कर रखे शिल्प किसी भी मायने में वयस्कों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों से कम नहीं थीं। अपनी सुंदर कलाकृतियों के पीछे बैठा ये नन्हा कलाकार अपने हाथ रोक कर आने-जाने वालों को सूनी निगाहों से यूँ देखता मानो पूछ रहा हो – मैं कब स्कूल जाऊंगा?

आठ सौ सीढियाँ कोई कम नहीं होती। उतरने की बात और थी लेकिन चढ़ने में अच्छे-अच्छों का दम निकल जा रहा था। बड़े तो राम का नाम लेकर किसी तरह सीढियाँ गिन रहे थे लेकिन छोटे बच्चों की तो मौज ही थी। ऐसे कई बच्चे थे जो अपने पिता के कंधों पर सवार, अपने नन्हे हाथों को उनके हाथों में दिए मुफ्त की सवारी का आनंद उठा रहे थे। सच कहूँ तो मुझे अपना बचपन याद आ गया। इतने में कुछ अति-उत्साही लड़कों का झुण्ड कूदते-फाँदते सीढियाँ चढ़ते हमारे बगल से गुजरा। दस मिनट की चढ़ाई के बाद देखता हूँ कि सभी एक मोड़ पर बैठे हाँफ रहे हैं। जब हम उनके सामने से गुज़रे तो शायद उन्हें अपने पराजित हो जाने का एहसास हुआ होगा। तभी तो वे सभी एक साथ उठे और फिर से कूदते-फाँदते सीढियाँ चढ़ने लगे। उनका क्या हुआ, ये तो पता नहीं पर अब हम सब भी थक चुके थे। वहाँ बैठने की अच्छी जगह थी जिसे अभी-अभी उन्होंने खाली किया था। ऐसे में थोड़ा सुस्ता लेना जायज़ ही था।

थोड़ा आराम करके जो हम चले तो ऊपर पहुँच कर ही दम लिया। रास्ते में मैंने देखा कि जगह-जगह पर “नो प्लास्टिक जोन” का बोर्ड लगा है। साथ ही हर मोड़ पर अनेक कूड़ेदान लगे हैं। अधिकांश लोग तो अपने साथ के डब्बे, प्लास्टिक की बोतलें और चिप्स के खाली पैकेट इन कूड़ेदानों में ही डाल रहे थे किन्तु ऐसे लोग भी थे जिनमें या तो सामान्य व्यावहारिक ज्ञान की कमी थी या वे अपने को विशिष्ट साबित करना चाहते थे। उन्हें अपना कूड़ा रास्ते पर डाल देने में शायद आनंद की अनुभूति हो रही होगी। तभी तो कचड़ा-प्रबंधन की व्यवस्था होने के बावजूद यहाँ-वहाँ कचरा फैला था। यह इस बात का भी गवाह था कि हम अपनी प्राकृतिक विरासत के प्रति कितने सजग हैं।

सूरज अब तेजी से पेड़ों की ओट में ओझल हुआ चाहता था। ऐसे में उचित था कि हम और देर न करें। पर एक हम ही नहीं थे जो घर लौटने की जल्दी में थे। ऐसे में गाड़ियों का जाम लगना तो स्वाभाविक ही है। बहरहाल, बाधाएँ क्षणिक साबित हुईं और हम आगे बढ़ चले। घने जंगलों से गुजरते हुए मैं सूरज को पेड़ों के पीछे छिपता देखता रहा और इस अद्भुत प्रपात के दृश्यों को याद करता रहा। कुछ किलोमीटर आगे गेतलसूद बांध और झील है। वहाँ भी वन-भोज का आनंद उठा रहे लोग अब वापस हो रहे थे। छोटे-छोटे गाँवों के हाट-बाज़ारों में बिजली के लट्टू अपनी छटा बिखेरने लगे थे। सुदूर गावों तक बिजली-रानी ने अपनी पैठ बना ली है, यह देख कर लगा कि वाकई अपना देश तरक्की कर रहा है। आसमान नारंगी से भूरा होता हुआ अब काला होता जा रहा है। हम अब आबादी से दूर राष्ट्रीय राजमार्ग पर सरपट भागे चले जा रहे हैं। साथ ही मैं ये भी सोचता जा रहा था कि जाने कब इस प्रपात को पूरे शबाब पर देख पाउँगा।

अगर आप भी इस प्रपात को देखने की इच्छा रखते हैं तो कुछ बातें याद रखें –

  • राँची से तकरीबन एक घंटे की यात्रा में आप यहाँ पहुँच जायेंगे।
  • ये प्रपात कोई सामान्य मार्ग पर नहीं है। राँची से गेतलसूद तक आसानी से गाड़ियाँ मिल जाती हैं किन्तु आगे का रास्ता कठिन है। अतः यह उचित होगा कि राँची से ही एक गाड़ी पूरे दिन के लिए भाड़े पर ले लिया जाये।
  • यहाँ उपलब्ध खाना-पीना व्यस्ततम पर्यटन मौसम में उपलब्ध होता है। अन्य समय अपने भोजन-पानी का इंतज़ाम साथ रखना उचित होगा।
  • ये प्रपात सुदूर क्षेत्र में अवस्थित है। अतः अति-उत्साह में कोई ऐसा कदम न उठाएँ जिससे किसी प्रकार की कोई दुर्घटना घट जाये और आपको चिकित्सकीय सेवा की आवश्यकता पड़े।
  • अगर आपको कोई चिकित्सकीय समस्या है या आपके साथ बच्चे हैं तो एक-दो सामान्य इस्तेमाल की दवाइयाँ अपने साथ ज़रूर रख लें।
  • अगर हो सके तो सितंबर-अक्टूबर में इस प्रपात को देखें। उस समय इसकी बात ही और होती है।
  • गेतलसूद बांध और झील के नज़ारे भी अद्भुत हैं। यदि समय की बाध्यता न हो तो कुछ समय वहाँ भी बिताया जा सकता है।
  • हुन्डरु प्रपात के निकट ही सीता-प्रपात और जोन्हा-प्रपात हैं। बहुत से पर्यटक तीनों प्रपातों को एक ही दिन में घूम लेते हैं। हालाँकि यदि आपके साथ बुजुर्ग और बच्चे हैं तो मैं आपको ऐसा करने की सलाह नहीं दूंगा।