Deh ke dayre - 26 books and stories free download online pdf in Hindi

देह के दायरे भाग - 26

देह के दायरे

भाग - छब्बीस

“आह...आह...” देव बाबू की चेतना वापस लौट रही थी | धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं | वह एक तख्त पर लेटा हुआ था और उसका शरीर गर्म कम्बलों में लिपटा हुआ था |

देव बाबू ने उठने का प्रयास किया मगर शरीर की क्षीणता के कारण वह उठ नहीं पाया |

“लेटे रहो वत्स, उठो नहीं |” एक वृद्ध तपस्वी ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा |

देव बाबू प्रश्नभरी दृष्टि से अपने चारों ओर देख रहा था |

“मैं कहाँ हूँ बाबा?”

“तुम मेरे आश्रम में हो वत्स | मेरे शिष्यों ने तुम्हें बर्फ में धँसे हुए देखा तो निकालकर यहाँ ले आए | तुम पहाड़ी तो नहीं हो वत्स, फिर यहाँ पहाड़ पर क्या कर रहे थे?”

“मैं मरने आया था बाबा |”

“आत्महत्या पाप है वत्स |”

“जानता हूँ बाबा, मगर मेरे पास इसके सिवाय कोई उपाय न था |”

“मौत किसी समस्या का समाधान नहीं होती | तम्हें क्या क्लेश है वत्स?”

“बाबा मैं अपंग हूँ, अपुरुष हूँ |”

“शादी हो गयी है?”

“हाँ |”

“सब कुछ जानते हुए भी शादी क्यों की?”

“शादी के बाद एक दुर्घटना में यह सब हो गया बाबा |”

“तुमने अपनी पत्नी को बताया?”

“नहीं, वह इसे कैसे सहन करती!”

“नारी बहुत महान् होती है वत्स! शायद वह तुम्हें स्वीकार कर लेती | तुम्हें सब कुछ अपनी पत्नी से कह देना चाहिए था |”

“मैं ऐसा नहीं कर सका बाबा |”

“अब लौटकर उसे सब कुछ बता दो |”

“मैं वापस नहीं जा सकता बाबा |”

“क्यों...?”

“मेरा एक मित्र मेरी पत्नी को बहुत अधिक चाहता है | मुझे विश्वास है कि वह उसे स्वीकार कर लेगा | मैं अपने शेष जीवन को प्रभु के चरणों में बिताना चाहता हूँ बाबा |”

“बहुत कठिन रास्ता अपना रहे हो वत्स |”

“मुझे आश्रय दे दो बाबा | आपकी दया से सब कुछ सरल हो जाएगा |” देव बाबू ने लेटे-लेटे ही हाथ जोड़ दिए |

“तथास्तु!” हाथ उठाकर उस वृद्ध तपस्वी ने उसे आशीर्वाद दे दिया |

तभी एक शिष्य एक लोटा गर्म दूध लेकर वहाँ उपस्थित हुआ |

“दुग्ध पी लो वत्स! शीघ्र ही स्वस्थ हो जाओगे |”

देव बाबू उठने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहा था | शिष्य ने दूध का लोटा गुरुदेव को देकर, आगे बढ़ उसे सहारा देकर उठाया | देव बाबू ने धीरे-धीरे वह दूध पी लिया | गर्म-गर्म दूध शरीर में पहुँचने से उसे लगा, जैसे उसके शरीर में जान वापस आती जा रही है | उसने अपने हाथ-पाँवों को हिलाकर देखा | सभी अंग ठीक तरह से कार्य कर रहे थे | देव बाबू ने सन्तोष की साँस ली |

“तुम थके हुए हो और काफी क्षीण भी हो, आराम करो | सन्ध्या का समय हो गया है, मैं पूजा करने को जाता हूँ |” कहकर वृद्ध तपस्वी कुटिया से बाहर निकल गया |

देव बाबू उत्सुकता से अपने चारों ओर देख रहा था | यह एक लकड़ी की बनी हुई कुटिया थी, जिसमें वह लेटा हुआ था | वह वहाँ पर अधिक देर तक लेटा न रह सका और शरीर की क्षीणता के उपरान्त भी कम्बल लपेटे हुए किसी तरह उठकर चलता हुआ बाहर आ गया |

कुटिया के द्वार पर खड़े होकर उसने देखा, चारों ओर गहन मौन छाया हुआ था | वहाँ पर स्वर्ग जैसी शान्ति थी | फलों से लदे घने वृक्ष, उनपर लिपटी हुई सुन्दर लताएँ | दूर गिरते हुए एक झरने की हल्की-सी ध्वनी सुनाई दे रही थी | इधर-उधर दौड़ते नन्हे हरिण-शावक | सब कुछ बहुत ही अलौकिक लग रहा था | वह बहुत ही सुन्दर घाटी थी, देव बाबू ने देखा, आसपास और भी कई कुटियाँ बनी हुई थीं |

“सन्ध्या का आहार आपके स्थान पर रख दिया गया है, ले लो | गुरुदेव ने आपको आराम करने के लिए कहा है |” देव बाबू के समीप खड़ा एक शिष्य उसीसे कह रहा था | वह दरवाजे के समीप ही खड़ा था परन्तु उसे इसका ध्यान भी न था कि यह शिष्य कब उसकी कुटिया में आहार रख आया था |

“धन्यवाद!” देव बाबू ने कहा मगर शिष्य बिना कुछ सुने ही लौट गया था |

कुटिया के अन्दर आकर देव बाबू ने देखा-केले के पते पर कुछ फल रखे हुए थे | समीप ही लोटे में दूध रखा था | उसकी इच्छा अन्न खाने की हो रही थी परन्तु वहाँ तो सिर्फ फल और दूध ही उपलब्ध थे | भूख अधिक थी इसीलिए उसने बिना अधिक सोचे फल खाने प्रारम्भ कर दिए | इनमें से कई फलों का स्वाद तो उसने पहली बार ही चखा था | बहुत ही स्वादिष्ट फल थे | फल खाकर उसने दूध पिया और आराम करने के लिए तख्त पर लेट गया |

तख्त पर लेटते ही उसे विचारों ने घेर लिया और विचारों में घिरे उसे कब नींद आयी, वह जान न सका |