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वह अपराधी थी

वह अपराधी थी?

जाहन्वी सुमन

दिसम्बर की एक ठिठुरती सुबह, सूर्य ने कोहरे की चादर से अपना मुँह बाहर निकाल कर , पृथ्वी को निहारते हुए एक अंगढाई ही ली थी। अन्य दिनों के सामान ही, उस दिन भी सभी के जीवन में नव चेतना व नव उत्साह भरा था। उस दिन भी पत्ते पत्ते पर धूप की सुनहरी छटा बिखरी हुई थी।
कोने-कोने को उज्जवल करने वाली ये किरणें भी , न जाने क्यों कभी-कभी पक्षपाती हो जाती हैं। किसी-किसी के जीवन में ये घोर अंधकार का संदेश लेकर आ जाती हैं.
उस का जीवन सीधा सपाट चल रहा था। अचानक आज यह क्या हो गया? हाथ पर अंकित रेखाओं का अनसुलझा निर्देश कब किसकी समझ में आया है।
उसके घर के बाहर न्यूज़ चैनलों के बीसीयों कैमरे एक दूसरे से सट कर लगे थे।। पचासियों संवाददाता आकर खड़े हो गए थे। मीडिया ़द्वारा उस के घर को फोकस किया जा रहा था।
आम जनता तक, र्स्वप्रथम उसकी तस्वीरें पहुँचाने के लिए मीडिया के कार्यकर्ता आपस में होड़ कर रहे थे। समाचार पत्रों के संवाददाता आस-पास खड़े लोगों से जो जानकारी मिलती उसे झटपट अपनी डायरी में लिख रहे थे। कैमरामैन उसकी तस्वीर उतारने का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे। पुलिस की दो गाडि़याँ ख़तरे का सायरन बजाती हुई पुरे इलाकें में घूम रहीं थी, जैसे वह किसी खूंखार आंतकवादी को हिरासत में लेने के लिए बेकरार हों। महिला पुलिसकर्मी हाथों में हथकड़ी लिए उसे गिरफ्रतार करने के लिए तैयार थीं। आस-पास के पड़ोसी समूहों में बँटे हुए खड़े थे। बुजु़र्ग महिलाएँ ज़माने को कोस रहीं थी, ‘क्या ज़माना आ गया है।’ बुजु़र्ग पुरुष कह रहे थे, ‘महिलाओं को सीमा से अधिक स्वतंत्राता, यदि यह समाज देगा, तो ऐसे ही परिणाम भुगतने पड़ेगें।’
पेशे से वकील होने के कारण , वसुधा के लिए यह सब नया नहीं था। फि र भी वह अपने टी वी चैनल पर यह सब देख रही थी। इस पेशे में हर केस पर पैनी नज़र रखनी ज़रुरी होता है। न्यूज़ चैनल की क्षेत्राीय संवाददाता ने कहा, ‘अब किसी भी पल ‘भ्रामरी तौमर’ को हिरास्त में लिया जा सकता है।
भ्रामरी तौमर का नाम सुनते ही वसुधा चौंक पड़ी। यह तो उसके बचपन की घनिष्ठ मित्र का नाम था।
सोलह वर्ष पहले जब उसके पिताजी का तबादला जयपुर हुआ था, तब वह केन्द्रीय विद्यालय में सातवीं कक्षा में थी। वहीं उसकी दोस्ती भ्रामरी से हो गई थी। दोस्ती भी इतनी गहरी के एक दूसरे के बिना एक पल भी काटना मुश्किल लगता था। कक्षा दस तक दोनो साथ-साथ पढ़ी। वसुधा के पिता ’ का तबादला दिल्ली हो जाने से दोनों सखियाँ बिछड़ गईं थी। कुछ दिन दोनों के बीच पत्र व्यवहार भी चला और फिर न जाने कब यह सिलसिला भी थम गया।
वसुधा ने सोचा, ‘मेरी वह बचपन की मित्र ‘भ्रामरी’ तो अपराधी नहीं हो सकती। अवश्य यह कोई अन्य भ्रामरी है।
तभी वसुधा की माँ ‘जया’ बैठक में प्रवेश करती है। टी वी का रिमोट उठाकर चैनल बदल देती है। वसधा के माथे पर त्यौरियाँ चढ़ जाती हैं। वह माँ से कहती है, ‘वही न्यूज़ चैनल लगा रहने दो ना मुझे देखना है, भ्रामरी कौन है?’ ‘भ्रामरी?’ माँ ने वसुधा से प्रश्न किया और स्वयं उत्तर भी दे डाला, ‘भ्रामरी तो जयपुर में तेरी सहेली का नाम था।’ ‘
हाँ माँ! इसलिए तो देखना चाहती हूँ। उसके बाद मैंने भ्रामरी नाम किसी अन्य महिला का नहीं सुना।’ वसुधा ने माँ से कहा।
माँ ने जवाब में कहा, ‘एक ही नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं। फिर भी तुम्हें इस समाचार में रुचि है, तो मैं वही चैनल लगाा देती हूँ।’ माँ ने रिमोट उठाकर फिर से न्यूज़ चैनल लगा दिया।
टी वी की संवाददाता ने माईक हाथ में लेकर उत्तेजि़त होकर बोलना शुरू किया, ‘आप अपनी टी वी स्क्रीन पर इस समय ‘भ्रामरी तौमर’ का चेहरा साफ-साफ देख सकते हैं।
अपने पति ‘जतिन तौमर’ को ज़हर देकर चिर निद्रा में सुला देने वाली, ‘भ्रामरी तौमर’, आखिर पुलिस हिरासत में आ ही गई। गा़ैर से उसके चेहरे की ओर देखिए इतना घिनौना अपराध् करने के बावजू़द भी उसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं है। वसुधा की निगाह भी उसके चे हरे पर टिक गई। इतने सालों में चेहरा काफी बदल गया था, लेकिन कुछ जाना पहचाना सा भी लग रहा था। वह असमंजस में थी, कि यह वही भ्रामरी है या नहीं। उसने इन्टरनेट पर ‘प्रसिद्ध ’ ;सोशल नेटवर्क पर भ्रामरी नाम की सभी महिलाओं के विषय में जानकारी प्राप्त की। भ्रामरी तौमर नाम से जिस महिला का एकाउँट खुला, उसे देखकर वसुधा की आँखे खुली की खुली रह गईं। वह उसकी बचपन की सहेली भ्रामरी ही थी। ‘
नहीं ऐसा नहीं हो सकता? भ्रामरी कातिल नहीं हो सकती।’ बुदबुदाते हुए ,वसुधा के चेहरे पर परेशानी मंडराने लगी। वह कम्प्यूटर टर्न अॅाफ करके दुबारा टी वी देखने लगी। टी वी संवाददाता बोल रही थी, ‘आईए हम आपकी मुलाकात भ्रामरी के घर के अन्य सदस्यों से करवाते हैं, और जानते हैं कि क्या उन्हें इस बात का अहसास था, कि उनके घर में एक कातिल गुनाह करने के बाद बड़े आराम से रह रहा है। सबसे पहले पश्चिमी दिल्ली में स्थित, भ्रामरी के ससुराल आपको लेकर चलते हैं। कैमरा एक बुजुर्ग महिला को फोकस करता है। संवाददाता दर्शकों को कहती है, ‘यह वही महिला है, जिसने अपना बेटा खोया है।’ महिला चिल्ला कर कह रही थी, ‘मेरी बहु कातिल है, उसे ज़ल्द से ज़ल्द फाँसी पर लटकाया जाए।’
संवाददाता ने दर्शकों से कहा, ‘देखा आपने एक दुखियारी माँ कैसे कानून के समक्ष, अपने बेटे की कातिल, बहु के खिलाफ गुहार लगा रही है।
संवाददाता ने
फिर से दर्शकों की ओर देखकर कहा, ‘अब दक्षिण दिल्ली में रह रहे भ्रामरी के माता-पिता के घर चलते हैं और जानते हैं, उनका क्या कहना है, इन सब के विषय में। टी वी संवाददाता दर्शकों के सामने सबसे पहले भ्रामरी की भाभी को लाती है। वह कहती है, ‘आप की नन्द ने एक ख़तरनाक अपराध् किया है। क्या कभी आप को ऐसा आभास हुआ था, कि वो ऐसा कोई कदम उठा सकती है।’ भ्रामरी की भाभी ने जवाब देते हुए कहती है, ‘कानून अपना काम कर रहा है। मुझे इस विषय में कुछ नहीं कहना।’
टी वी संवाददात दर्शकों को संबोधित करती हुई कहती है, ‘चलिए भ्रामरी की माताजी से जानते हैं, वह इस बारे मैं क्या सोचती हैं। कैमरा एक अधेड़ उम्र की महिला को फोकस करता है। गौरी वर्ण व सुनहरे बालों वाली इस महिला ने पीले रंग की साड़ी पहनी है। चेहरे का रंग उड़ा हुआ है। संवाददाता सबसे पहले प्रश्न करती है,‘आप का नाम क्या है?’ भ्रामरी की माताजी कहती हैं, ‘आशा।’ टी वी संवाददाता कहती है, ‘आशा जी जब आप को यह पता चला कि आपकी बेटी कातिल है, तो आपको कैसा लगा?’ भ्रामरी की माताजी ने कहा, ‘नहीं मेरी बेटी कातिल नहीं हो सकती।’ संवाददाता कहती है, ‘लेकिन उसने इतना संगीन ज़ुर्म किया है।’
वही बगल में सफ़ेद कुर्ता पज़ामा पहने भ्रामरी के पिता क्रोधित होकर कहते हैं, ‘अभी केवल आरोप लगा है। अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है।’
वसुधा को टी वी स्क्रीन पर भ्रामरी के माता-पिता के घर का पता दिखाई दे जाता है। वह जल्दी से डायरी में लिख लेती है।
वसुधा के पिता कमरे में प्रवेश करते हैं, सोफे पर बैठते हुए कहते हैं, ‘ वसु! तुम्हारी बचपन की सहेली ने तो अपने पति की हत्या कर दी।’ वसुधा टी वी की आवाज़ को धीमा करते हुए कहती है, ‘पापा कम से कम आप तो ऐसा न कहें।’ वसुधा के पिता बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘बिना आग के धुअाँ नहीं निकलता। इतना शोर गुल क्या बिना कारण ही हो रहा है?’
तभी वसु के घर काम करने वाली सहायिका ‘यमुना’ भी वहाँ आ जाती है । वह वसुधा से कहती है, ‘ आपकी सहेली ने अपने पति को क्यों मार दिया?’ वसुधा झुंझला जाती है। वह यमुना को डपटकर कहती है, ‘अपने काम में तो तुम्हारा मन लगता नहीं । इधर उधर की बातें बनाने में तुम्हें विशेष आानन्द की प्राप्ति होती है।’ यमुना मुँह बिचका कर कहती है , ‘मैं अकेली हूँ, क्या? बाते बनाने वाली। आज तो सब जगह यही चर्चा है।’
जया ने यमुना से कहा, ‘अच्छा बस ठीक है, दीदी से अधिक बहस मत कर। दीदी पहले ही तनाव में हैं।’ यमुना सिर झटकर कर कमरे में झाड़ू लगाना शुरु कर देती है।
वसुधा ने जया से कुछ दबे स्वर में कहा, ‘माँ यमुना से कह कर, दो पानी की बोतलें गाड़ी में रखवा दोे। मैं भ्रामरी के मााता-पिता से मिलने जा रही हूँ।’ जया कहती है, ‘वहाँ क्यों जा रही है तू?"
मांं तू - सीधे साधे केस लेती आई है। यह अपराधिक किस्म के केस लड़ना तेरे बस की बात नहीं। तू इस झमेले में क्यों पड़ रही है?
वसुन्ध्रा जया से कहती है, ‘माँ मैं वहाँ जाकर देखना चाहती हूँ, आखिर यह मामला क्या है।’
जया ने कहा, सोच समझकर ही जाना वहाँ। कहीं ऐसा न हो तू स्वयं किसी मुसिबत में फँस जाए।’
यह सब सुन कर कैलाश ने जया से कहा, ‘कैसी कायरों जैसी बातें कर रही हो। हमारी बेटी वकील है। लोगों को मुसीबतों से बचाती है। वह स्वयं कैसे मुसीबत में फँस जाएगी।’
जया ने कहा, ‘सारे मीडिया के लोग वहाँ मौजूद हैं। न जाने कितने वकील इस केस को पाने की कौशिश कर रहे होंगे। सगे संबंधी तक उनके घर आने से कतरा रहे होगें। ऐसे में इस झमेले में पड़ना मुझे तो उचित नहीं लगता।’
वसु्धा ने अपना पर्स उठाया और कार की चाबियाँ ढूँढते हुए बोली, ‘चिंता मत करो माँ! मैं किसी झमेले मैं नहीं पडँ़ूगी।’
वसुधा दिल्ली में स्थित अपार्टमैन्ट में चौथी मंजिल के अपने क्वाटर से नीचे उतरती है। उसे न जाने ऐसा क्यों लग रहा था, कि हर व्यक्ति उसकी ओर देख रहा है। हर खामोश होंठ भी जैसे कह रहा हो, ‘देखो! उस कातिल की सहेली जा रही है।’ वह कार में बैठने ही वाली थी, कि उसका मोबाइल बजने लगा। नम्बर वसुधा की सहेली ‘ताक्षी’ का था । वसुधा ने ताक्षी से फोन पर बातचीत शुरु की। दोनो ने एक दूसरे के हाल-चाल पूछे और वार्तालाप आगे बढ़ा। ताक्षी ने वसुधा से कहा, ‘आज न्यूज़ देखी तुमने?’ वसुधा ने जवाब में कहा, ‘हाँ देखी है। लेकिन यह न्यूज़ सबको इतनी विशेष क्यों लग रही है?’ ताक्षी का उधर से जवाब मिला, ‘सबका तो पता नहीं। लेकिन मेरे लिए यह केस हैरान कर देने वाला है।’
वसुधा ने ताक्षी से पूछा, ‘क्यों? यह क्या दुनिया में पहली बार हो रहा है, जब किसी महिला पर यह आरोप लगा हो कि उसने अपने पति की हत्या की है।’
ताक्षी ने कहा, ‘ नहीं यह बात नहीं है। एैक्चुअली , तौमर फैमली सात साल पहले हमारी किरायेदार थी।’
क्या?’ वसुधा ने हैरानी से पूछा। ‘
हाँ सचमुच।‘ ताक्षी ने जवाब दिया। वसुधा ने पूछा , ‘ इस समय तू कहाँ है?’ ताक्षी ने कहा, ‘अपने ऑफिस में।’ वसुन्धा ने पूछा, ‘क्या कल तू मुझ से मिल सकती है?’ ‘
अभी तो अॅापिफस में दो दिन बहुत काम है?’ ताक्षी ने जवाब दिया।
कुछ देर दोनो के बीच चुप्पी छा गई। ताक्षी ने पुनः सवाल किया, ‘क्या कोई जरुरी काम था।’
वसुधा ने इधर उधर देखकर धीरे से कहा, ‘वास्तव में बात यह है कि भ्रामरी तौमर बचपन में मेरी सहेली थी। तब हम लोग जयपुर में रहते थे।’
ताक्षी ने कहा, ‘ इससे पहले तो तुमने यह बात मुझे नहीं बताई?’
वसुधा ने कहा, ‘सारी बातें फोन पर नहीं हो सकतीं इसलिए, तो मैं तुमसे मिलना चाहतीं हूँ।’
ताक्षी ने कहा, ‘अच्छा परसों मिलतें ।
इसी के साथ दोनों के बीच
फोन पर चल रहा वार्तालाप समाप्त हो गया।
वसुधा कार में बैठ कर मोबाईल अपने पर्स में रख लेती है और कार का रुख भ्रामरी के माता-पिता की ओर करते हुए आगे बढ़ जाती है। वह अभी आधे रास्ते पर ही पहुँची थी, कि उसका मोबाईल बजने लगा। उसने कार को सड़क के किनारे करके रोका और फोन में नम्बर देखा। ताक्षी का फोन था।
वसुधा से ताक्षी का वार्तालाप फिर से प्रारम्भ हो गया।
ताक्षी ने वसुधा से पूछा, ‘ वसु!भ्रामरी से तुम आखिरी बार कब मिलीं थीं?’
वसुधा ने कहा, ‘हम दोनों दसवीं कक्षा तक जयपुर के केन्द्रीय विद्यालय में एक साथ थे। उसके बाद हम कभी भी नहीं मिले।’
ताक्षी ने कहा, तो क्या अब तू उससे मिलना चाहती है?’
हाँ! बिलकुल। मैं अभी उसके माता-पिता से मिलने ही जा रहीं हूँ।’ वसुधा का जवाब सुनकर ताक्षी ने पूछा, ‘भ्रामरी से भी मिलने जाओगी?’ वसुधा ने कहा, ‘उसके लिए तो पहले कई कानूनी औपचारिकताएँ पूरी करनी होगीं।’
ताक्षी ने वसुन्ध्रा से कहा, ‘तू भ्रामरी से केवल वकील के रूप में ही मिलना। उसे यह मत बताना कि तुम उसकी बचपन की मित्र हो।’
वसुधा ने पूछा, ‘क्यों?’ ताक्षी ने कहा, ‘किसी भी इज़्ज़तदार युवती को यह अच्छा नहीं लगेगा कि, उसकी कोई बचपन की सहेली उसे , उस हालात में तब मिले जब वह अपराधी बन सलाखों के पीछे खड़ी हो।’
वसुधा ने कहा, ‘थैंक्स फॉर युअर सज़ैशन! मैंने तो इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था।’
ताक्षी ने दूसरी ओर से ‘ओ के बाय!’ कहा और दोनों के बीच होने वाला वार्तालाप समाप्त हो गया।
वसुधा ने फिरर से कार चलाना शुरू कर दिया।
करीब चालीस मिनट के बाद साउथ दिल्ली में स्थित वह भ्रामरी के माता-पिता के घर पहुँची। । वसुन्ध्रा ऐेसे समय पर वहाँ पहुँची, भ्रामरी के माता -पिता प्रैस और मीडिया वालों के सवालों के जवाब देते-देते परेशान हो गए थे। वह लोगों से हाथ जोड़ कर कह रहे थे, कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। हमें और परेशान मत करो।
वसुधा नने कुछ देर तक भीड़ के छँटजाने का इन्तज़ार किया। फिर वह हताश बैठी भ्रामरी की माँ ‘आशा’ के पास पहुँची। वह समझ नहीं पा रही थी कि, कैसे बात प्रारम्भ करे। वह आशा को ढांढस बँधते हुए बोली, ‘आँटी मैं आपका दुख समझ सकती हूँ।
आशा ने तुरंत झुँझलाकर कहा , "भगवान् के लिए आप सब लोग हमे अकेला छोड़ दो।
वसुधा ने आशा के पास बैठते हुए कहा, "आंटी आपने मुझे पहचाना नहीं , मैं भ्रामरी की बचपन की सहली , वसुधा हूँ।"
आशा की आखों में चमक आ गई। वह बोली, "अरे वसु! कितनी बदल गई हो।"
वसुधा ने थोडा मुस्कुराते हुए पूछा, "अच्छा यह बताइए, आपने सुबह से कुछ खाया है या नहीं?’
आशा ने उदासी से कहा, मेरी तो भूख प्यास सब समाप्त हो गई है। आज का सूरज तो न जाने हमारे लिय कैसा दिन लेकर उगा है। मैं तो फिर भी भूख प्यास सह लँूगी, लेकिन मेरी बच्ची के साथ न जाने कैसा व्यवहार किया जा रहा होगा?’ वसुधाा ने कहा, ‘आप अपना ध्यान रखिये। मैं जानती हूँ, भ्रामरी कातिल नहीं हो सकती। वह जल्द ही रिहा हो जाएगी। "
यह सुनकर आशा फुट- फुट कर रोने लगी। वह बोली, ‘तुम ही देखो बेटा, सबने उसे कातिल-कातिल कह कर जेल भिजवा दिया है।’
वसुधा ने कहा, ‘लेकिन आँटी! यह सब हुआ कैसे?’ आशा ने कहा, ‘बेटा मुझे तो यही ज्ञात है कि जतिन को कैंसर हुआ था।’
वसुधा ने पूछा, ‘ जतिन, आप के दामाद थे?’
आशा ने आँखों से अश्रु पोंछते हुए कहा, हाँ बहुत अच्छे थे जतिन।
वसुधा ने पूछा, ‘फिर यह सब क्या माज़रा है?’
आशा ने कहा, ‘ चार महीने पहले जतिन यह दुनिया छोड़ कर चले गए। अब चार महीने बाद उसके घर वालों ने भ्रामरी पर यह आरोप लगाया है, कि भ्रामरी ने अपने पति की हत्या की है। बस अचानक पुलिस उसे अरेस्ट करने अ गई अभी, भ्रामरी के मामाजी वकील को लेकर उसकी जमानत की अर्जी देने गए हैं।’

वसुधा ने कहा, ‘आँटी मैं भी एक वकील हूँ।"
आशा ने कहा, ‘ईश्वर ने तुम से मिलवा दिया। अब कोई रास्ता भी मिल जाएगा।’

वसुधा ने कहा, ‘आँटी! लेकिन भ्रामरी को आप बस इतना ही बताना कि, मैं एक वकील हूँ। उसे गल्ती से भी यह पता न चल जाए ,कि मैं उसकी बचपन की दोस्त हूँ।’

आशा ने कहा, ‘जैसा तुम ठीक समझो।

तभी वसुधा की निगाह चार -पाँच वर्ष की लड़की पर पड़ती है, जो पर्दे के पीछे से डरी - डरी सब देख रही थी।

'यह प्यारी सी बच्ची कौन है ?' वसुधा अाशा से सवाल करती है.

'ये भ्रामरी की बेटी, 'सुजान' है।' अाशा जिया को अपनी बाहों में समेट कर है। वह सुजान के सिर पर हाथ फ़ैरते हुए कहती है. 'अब वसु मासी अा गई, अब मम्मा भी जल्दी घर अअा जाएगी।

वसुन्ध्रा ने अगले दिन आने का वादा किया और भ्रामरी के माता-पिता को अपना टेलीफोन नंबर दिया ,उनसे विदा ली.

वसुन्ध्रा घर लौट रही थी और साथ ही साथ वर्षों पीछे लौट रहीं थीं, उसकी यादें।
जयपुर के केन्द्रीय विद्यालय की सातवीं कक्षा का वह दिन आज भी आँखों की पलकों में सपने सा ठहरा हुआ था।
भ्रामरी ने ग्रीष्मावकाश समाप्त होने के बाद, दाखिला लिया था। कक्षा में प्रथम दिन, उसको छोड़ने के लिए उसके पिताजी साथ आए थे।
कितनी सुन्दर दिखती थी- भ्रामरी! अपने नाम के ठीक विपरीत। दूध् जैसा श्वेत रंग था भ्रामरी का, तिस पर बड़ी- बड़ी काली अांखें। उसके पिताजी ने अध्यापिका से अनुरोध् किया था, कि भ्रामरी को किसी होशियार छात्रा के समक्ष बैठा दिया जाए, ताकि वह अब तक पढ़ाए गए पाठृयक्रम को भली भांति समझ जाए। उसी दिन भ्रामरी और वसुधा के बीच दोस्ती हो गई थी, जो दिनों-दिन गहराती गई। दोनों के विचारों में बहुत अध्कि समानता थी। कभी-कभी तो उन्हें लगता था, उनका रिश्ता इस जन्म का नहीं जन्मो जन्मांतर का है। वसुधा उस को प्यार से ' भ्रम' कहती ओर वह वसुधा को 'वसी'
जयपुर के ‘गोल चौक’ से दोनों स्कूल के लिए रिक्शा लेती थीं। किराया देने के लिए दोनों के बीच रोेज़ झगड़ा होता था, लखनउू के नवाबों की तरह। जहाँ लखनउू के दो नवाबों की गाड़ी पहले आप, पहले आप के चक्कर में छूट जाती थी, ठीक उसी तरह, ‘किराया मैं दूँगी।’ ‘नहीं किराया मैं दूँगी।’ के झगड़े में उनकी पाठशाला की प्रार्थना की घंटी बज जाती थी।
वसुधा को विश्वास नहीं हो रहा था, कि उसकी ऐसी चंचल, भोली-भाली सहेली, कातिल हो सकती है। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। वह मन ही मन विचार कर रही थी। किसी की जान लेना क्या कोई आसान काम है? लेकिन बचपन से कोई इतना नेक हो ,वो यकायक कातिल कैसे बऩ सकता है। वह विचारों की गहराई में डूबती ही जा रही थी। वह भ्रामरी से मिलने के लिए बेचैन हो रही थी।
वह बार-बार अपनी बचपन की सखी भ्रामरी के विषय मैं सोच रही थी--- यदि कभी कोई शिक्षिका पूरी कक्षा को दंड स्वरुप कुछ देर के लिए खड़ा रखती थी, तो भ्रामरी फूट फूट कर रोने लगती थी। एक सुबह विद्यालय जाते समय भ्रामरी ने सड़क पर एक दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को देख लिया था, उस दिन उसने खाना भी नहीं खाया था।
यह तो मैं मान सकती हूँ कि बचपन से लेकर बढ़े होने तक हम बहुत कुछ सीखते हैं, लेकिन क्या समय किसी व्यक्ति को इतना बदल सकता है?
वसुधा के घर लौटते ही उसकी माँ ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

वसुधा अपनी माँ से बारबार कह रही थी, ‘माँ! भ्रामरी कातिल नहीं हो सकती।’ इस पर जया ने जवाब में कहा, ‘लेकिन अभी तू तो उससे मिली ही नहीं, इतनी जल्दी उसके बारे में कोई भी राय बनाना उचित नहीं।’ जया ने उदाहरण देते हुए कहा, ‘तेरे पापा ने जो नौकर रखा था, वह क्या सूरत से चोर दिखाई देता था? पन्द्रह ही दिन में तेरे पापा का विश्वास जीत लिया था। बैंक में रुपए जमा कराने भेजा था और रकम लेकर अपने गाँव फ़रार हो गया था।’

वसुधा ने अपनी माँ से कहा, लेकिन माँ मेरा मन यह स्वीकार नहीं करता, कि भ्रामरी कातिल है।’ माँ ने कहा,‘अच्छा अब मैं खाना लगा रही हूँ, तू आकर खा ले।’ इतना कह कर जया रसोईघर में चली गई।

वसुधा सारा दिन कागज़ व फाईलें संजोती रही। वह अगली सुबह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसे भ्रामरी से मिलने की बहुत बेचैनी हो रही थी। देर रात उसने अपने पुराने सामान में से वह बालों में लगाने वाला क्लिप निकाला, जो भ्रामरी ने उसे जयपुर छोड़ते समय उस को दिया था।
वसुधा बहुत जल्दी उठ गई। वह नहा धेकर तैयार हो गई। जया ने नाश्ता तैयार कर दिया था। लेकिन वसुधा नाश्ता करने में भी समय व्यर्थ नहीं करना चाहती थी। उसने एक हाथ मैं पर्स लिया, पर्स में कार की चाबियाँ रखीं। दूसरे हाथ में वह सैंडविच लेकर सीढि़याँ उतरने लगी। अपनी कार तक पहुँचते-पहुँचते उसने सैंडविच समाप्त कर लिया और कार में बैठ गई। उसने कार का वह भ्रामरी के माता-पिता के घर की ओर कर दिया।
ऐसा प्राय होता है, कहीं यदि हम शीघ्र पहुँचना चाहते हैंु तो हमारे मार्ग में अनेक बाधऐं उत्पन्न हो जाती हैं। आज वसुधा के सामने भी ऐसी ही स्थिति थी। उसे ऐसा लग रहा था, कि सड़क पर हमेशा से अधिक यातायात है और भ्रामरी के घर पहुँचने में बहुत समय लग रहा है।
आज भ्रामरी के माता-पिता के घर के बाहर कल से अधिक जैसी भीड़-भाड़ लगी थी। उसने कार को किनारे पर लगाया। वह तेज कदमों से घर की ओर चली गई। वह भीड़ को तेज़ी से चिरती जा रही थी। अनेक अशंकाओं से उसका मन रहा था।

घर में घुसते ही उस को वही देखने को मिला जिसका उसको भय था. जमानत पर् रिहा हुई भ्रामरी , अब सारे बंधनों से मुक्त हो चुकी थी। वसुधा बिलख पड़ी , 'भ्रम' मे्रे अाने तक तो रुक जाती।
ओह! मैं कुछ घंटे पहले यहाँ पहुँच जाती तो तुम्हे इस तरह न जाने देती।"
अाशा ने कुछ कागज़ वसुधा को पकड़ाए ,शायद भ्रामरी ने अात्महत्या से कुछ घंटे पहले लिखे थे।
उस ने लिखा था ,

मेरी प्यारी मम्मी !
मुझे क्षमा करना। जतिन का कैंसर 'लास्ट स्टेज' पर सामने अाया था । डॉक्टरों ने उनकी लाइफ सीमित महीनों की बताई थी। लेकिन फि र भी हमने उन की ज़िंदगी बचाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। जहां कहीं किसी ने कोई ईलाज़ बताया हम वहाँ गए। एक दिन जतिन ने मुझे कहा , पाँच मिनिट मे्रे पास बैठो ,तुमसे कुछ बात करनी है। हम दोनों बाहर बरामदे में बैठ गए। जतिन बोले --,-हमारी सारी जमा पूँजी अब समाप्त हो चुकी है। केवल पांच लाख शेष रहे हैं ,ये रुपए मैं सुजान के लिए रखना चाहता हूँ। ये मेरी तरफ़ से उसको तब देना ,जब वो डोली में बैठकर ससुराल जा रही होगी। '

मैने कहा --'नहीं अाप को कुछ नही होगा , अभी एक होमियोपैथ है ,जिसका बहुत नाम है हम उसके पास जाएगें। '

वह बोले- "नहीं , अब कहीं जाने से कुछ फ़ायदा नहीं। मुझे अंदर से महसूस हो रहा है अब इस शरीर में कुछ शेष नहीं। तुम मुझे नींद की गोलियों की पूरी शीशी पानी में घोलकर देदो। '
मै ने कहा -'ये मुझ से नहीं होगा। '
जतिन बोले -'बहुत पछताओगी। मैं तो अाज रात को जा ही रहा हूँ। मेरी अाखिरी इच्छा पूरी न करने का अफ़सोस तुम्हें ज़िंदगीभर रहेगा। "
मैं कुछ निर्णय नहीं ले पा रही थी। अाखिर उनकी बारबार की ज़िद्द से मैं हार गई मैंने दिल को मजबूत कर नींद की गोलियांं उन्हें दे दी...

पड़ोस के चावला साहब के सी सी टी वी पर् ये रिकॉर्ड हो गया। जतिन के जाने के बाद , वो मुझे ब्लेक मेल करने लगे। मैं समाज में बेइज्जत होन के डर से उन्हें रुपये देती रही। जब मे्रे पास रुपये नहीं रहे ,तो मैंने उन्हें रुपये देने से इंकार करना शुरू कर दिया। गुस्से में तिलमिला कर चावला साहब ने वो रिकॉर्डिंग मे्रे सुसराल वालों को दिखा कर मे्रे विरुद्ध भड़का दिया।
क्या अाप की नज़रों में भी मैं अपराधी----
इसके बाद शायद भ्रामरी के हाथों से कलम छूट गई थी।
वसुधा के अश्रु आँखों से बहकर उसका पूरा चेहरा धो चुके थे। कितने ही सवाल उसके सामने तांडव कर रहे थे। लेकिन कागज़ पर बिखरे खामोश शब्द , किसी प्रश्न का उत्तर नहीँ दे सकते थे।
सुजान अभी भी परदे के पीछे से झाँक रही थी, उसकी मासूम आँखों से झलझलाते सवालों के जवाब कौन देगा।
वसुधा भारी मन से अपनी कार की ओर बढ़ रही थी।
वसुधा का दिल ओर दिमाग़ एक दूसरे से तर्क- वितर्क कर रहे थे। दिल कह रहा था ,पगली , बहुत ही सीधी थी।जैसे स्कूल में टीचर की कही हर बात को पत्थर की लकीर समझती थी, वैसे ही पति की हर आज्ञा का पालन करती थी।दिमाग कह रहा था , नींद की गोलियाँ देने से पहले इतना तो सोचा होता ,कि ये समाज की निगाह मैं अपराध है।
नहीं इसमें गलत क्या था ,जब डॉक्टर ये कह चुके थे, कि अब बचने की कोई उम्मीद नहीं तो क्या जतिन पर और रुपया बर्बाद करना उचित था? बेचारी किससे रुपया मांगने जाती।
लेकिन कौन समझेगा, कौन बताएगा--------- क्या वह अपराधी थी?