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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 5

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(मगध में नन्द की राजसभा)

(राक्षस और सभासदों के साथ नन्द)

नन्दः तब?

राक्षसः दूत लौट आये और उन्होंने कहा कि पंचनंद-नरेश कोयह सम्बन्ध स्वीकार नहीं।

नन्दः क्यों?

राक्षसः प्राच्य - देश के बौद्ध और शूद्र राजा की कन्या से वेपरिणय नहीं कर सकते।

नन्दः इतना गर्व!

राक्षसः यह उसका गर्व नहीं, यह धर्म का दम्भ है, व्यंग है।मैं इसका फल दूँगा। मगध जैसे शक्तिशाली राष्ट्र का अपमान करके कोईयों ही नहीं बच जायेगा। ब्राह्मणों का यह...

(प्रतिहारी का प्रवेश)

प्रतिहारीः जय हो देव, मगध से शिक्षा के लिये गये हुए तक्षशिलाके स्नातक आये हैं।

नन्दः लिवा लाओ।

(दौवारिक का प्रस्थान; चन्द्रगुप्त के साथ कई स्नातकों का प्रवेश)

स्नातकः राजाधिराज की जय हो!

नन्दः स्वागत। अमात्य वररुचि अभी नहीं आये, देखो तो?

(प्रतिहारी का प्रस्थान और वररुचि के साथ प्रवेश)

वररुचिः जय हो देव, मैं स्वयं आ रहा था।

नन्दः तक्षशिला से लौटे हुए स्नातकों की परीक्षा लीजिए।

वररुचिः राजाधिराज, जिस गुरुकुल में मैं स्वयं परीक्षा देकरस्नातक हुआ हू, उसके प्रमाण की भी पुनः परीक्षा, अपने गुरुजनों के प्रतिअपमान करना है।

नन्दः किन्तु राजकोश का रुपया व्यर्थ ही स्नातकों को भेजने मेंलगता है या इसका सदुपयोग होता है, इसका निर्णय कैसे हो?

राक्षसः केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्यों के लिए पर्याप्त है!और वह तो मगध में ही मिल सकती है।

(चाणक्य का सहसा प्रवेश; त्रस्त दौवारिक पीछे-पीछे आता है।)

चाणक्यः परन्तु बौद्धधर्म की शिक्षा मानव-व्यवहार के लिए पूर्णनहीं हो सकती, भले ही संघ-विहार में रहनेवालों के लिए उपयुक्त हो।

नन्दः तुम अनधिकार चर्चा करनेवाले कौन हो जी?

चाणक्यः तक्षशिला से लौटा हुआ एक स्नातक ब्राह्मण!

नन्दः ब्राह्मण! ब्राह्मण!! जिधर देखो कृत्या के समान इनकी

शक्ति-ज्वाला धधक रही है।

चाणक्यः नहीं महाराज! ज्वाला कहाँ? भस्मावगुण्ठित अंगारे रहगये हैं!

राक्षसः तब भी इतना ताप!

चाणक्यः वह तो रहेगा ही! जिस दिन उसका अन्त होगा, उसीदिन आर्यावर्त का ध्वंस होगा। यदि अमात्य ने ब्राह्मण-नाश करने काविचार किया हो तो जन्मभूमि की भलाई के लिए उसका त्याग कर दें;क्योंकि राष्ट्र का शुभ-चिन्तन केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं। एक जीवकी हत्या से डरनेवाले तपस्वी बौद्ध, सिर पर मँडराने वाली विपपियों से,रक्त-समुद्र की आँधियों से, आर्यावर्त की रक्षा करने में असमर्थ प्रमाणिहोंगे।

नन्दः ब्राह्मण! तुम बोलना नहीं जानते हो तो चुप रहना सीखो।

चाणक्यः महाराज, उसे सीखने के लिए मैं तक्षशिला गया था औरमगध का सिर ऊँचा करके उसी गुरुकुल में मैंने अध्यापन का कार्य भीकिया है। इसलिए मेरा हृदय यह नहीं मान सकता कि मैं मूर्ख हूँ।

नन्दः तुम चूप रहो!

चाणक्यः एक बात कहकर महाराज!

राक्षसः क्या?

चाणक्यः यवनों की विकट वाहिनी निषध-पर्वतमाला तक पहुँचगयी है। तक्षशिलाधीश की भी उसमें अभिसंधि है। सम्भवतः समस्तआर्यावर्त पादाक्रान्त होगा। उपरापथ में बहुत-से छोटे-छोटे गणतंत्र हैं, वेउस सम्मिलित पारसीक यवन-बल को रोकने में असमर्थ होंगे। अकेलेपर्वतेश्वर न साहस किया है, इसलिए मगध को पर्वतेश्वर की सहायताकरनी चाहिए।

कल्याणीः (प्रवेश करके) पिताजी, मैं पर्वतेश्वर के गर्व कीपरीक्षा लूँगी। मैं वृषल-कन्या हूँ। उस क्षत्रिय को यह सिखा दूँगी किराजकन्या कल्याणी किसी क्षत्राणी से कम नहीं। सेनापति को आज्ञा दीजिएकि आसन्न गांधार-युद्ध में मगध की एक सेना अवश्य जाय और मैं स्वयंउसका संचालन करूँगी। पराजित पर्वतेश्वर को सहायता देकर उसे नीचादिखाऊँगी।

(नन्द हँसता है।)

राक्षसः राजकुमारी, राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगोंके लिए छोड़ देना चाहिए। उद्धत पर्वतेश्वर अपने गर्व का फल भोगे,और ब्राह्मण चाणक्य! परीक्षा देकर ही कोई साम्राज्य-नीति समझ लेने काअधिकारी नहीं हो जाता।

चाणक्यः सच है बौद्ध अमात्य, परन्तु यवन आक्रमणकारी बौद्धऔर ब्राह्मण का भेद न रक्खेंगे।

नन्दः वाचाल ब्राह्मण! तुम अभी चले जाओष नहीं तो प्रतिहारीतुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे।

चाणक्यः राजाधिराज! मैं जानता हूँ कि प्रमाद में मनुष्य कठोरसत्य का भी अनुभव नहीं करता, इसीलिए मैंने प्रार्थना नहीं की - अपनेअपहृत ब्राह्मणस्व के लिए मैंने भिक्षा नहीं माँगी? क्यों? जानता था किवह मुझे ब्राह्मण होने के कारण न मिलेगी! परन्तु जब राष्ट्र के लिए...

राक्षसः चुप रहो। तुम चणक के पुत्र हो न, तुम्हारे पिता भीऐसे ही हठी थे!

नन्दः क्या उसी विद्रोही ब्राह्मण की सन्तान? निकालो इसे अभीयहाँ से!

(प्रतिहारी आगे बढ़ता है, चन्द्रगुप्त सामने आकर रोकता है।)

चन्द्रगुप्तः सम्राट्‌, मैं प्रार्थना करता हूँ कि गुरुदेव का अपमान नकिया जाय। मैं भी उपरापथ से आ रहा हूँ। आर्य चाणक्य ने जो कुछकहा है, वह साम्राज्य के हित की बात है। उस पर विचार किया जाय।

नन्दः कौन? सेनापति मौर्य का कुमार चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः हाँ देव, मैं युद्ध-नीति सीखने के लिए ही तक्षशिलाभेजा गया था। मैंने अपनी आँखों गान्धार का उपप्लव देखा है, मुझे गुरुदेवके मत में पूर्ण विश्वास है। यह आगन्तुक आपपि पंचनंद-प्रदेश तक हीन रह जायगी।

नन्दः अबोध युवक, तो क्या इसीलिए अपमानित होने पर भीमैं पर्वतेश्वर की सहायता करूँ? असम्भव है। तुम राजाज्ञाओं में बाधा नदेकर शिष्टता सीखो। प्रतिहारी, निकालो इस ब्राह्मण को! यह बड़ा हीकुचक्री मालूम पड़ता है!

चन्द्रगुप्तः राजाधिराज, ऐसा करके आप एक भारी अन्याय करेंगेऔर मगध के शुभचिन्तकों को शत्रु बनाएँगे।

राजकुमारीः पिताजी, चन्द्रगुप्त पर ही दया कीजिए। एक बातउसकी भी मान लीजिए।

नन्दः चुप रहो, ऐसे उद्दण्ड को मैं कभी नहीं क्षमा करता; औरसुनो चन्द्रगुप्त, तुम भी यदि इच्छा हो तो इसी ब्राह्मण के साथ जा सकतेहो, अब कभी; मगध में मुँह न दिखाना ।

(प्रतिहारी दोनों को निकालना चाहता है, चाणक्य रुक कर कहताहै।)

चाणक्यः सावधान नन्द! तुम्हारी धर्मान्धता से प्रेरित राजनीतिआँधी की तरह चलेगी, उसमें नन्द-वंश समूल उखड़ेगा। नियति-सुन्दरीके भावों में बल पड़ने लगा है। समय आ गया है कि शूद्र राजसिंहासनके हटाये जायँ और सच्चे क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त हों।

नन्दः यह समझकर कि ब्राह्मण अवध्य है, तूम मुझे भय दिखलाताहै! प्रतिहारी, इसकी शिखा पकड़ कर इसे बाहर करो।

(प्रतिहारी उसकी शिखा पकड़कर घसीटता है, वह निश्शंक औरदृढ़ता से कहता है।)

चाणक्यः खींच ले ब्राह्मण की शिखा! शूद्र के अन्न से पले हुएकुपे! खींच ले! परन्तु यह शिखा नन्दकुल की काल-सर्पिणी है, वह तबतक न बन्धन में होगी, जब तक नन्द-कुल निःशेष न होगा।

नन्दः इसे बन्दी करो।

(चाणक्य बन्दी किया जाता है।)