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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 7

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(मगध का बन्दीगृह)

चाणक्यः समीर की गति भी अवरुद्ध है, शरीर का फिर क्याकहना! परन्तु मन में इतने संकल्प और विकल्प? एक बार निकलने पातातो दिखा देता कि इन दुर्बल हाथों में साम्राज्य उलटने की शक्ति है औरब्राह्मण के कोमल हृदय में कर्तव्य के लिए प्रलय की आँधी चला देनेकी भी कठोरता है। जकड़ी हुई लौह-श्रंखले! एक बार तू फूलों की मालाबन जा और मैं मदोन्मप विलासी के समान तेरी सुन्दरता को भंग करदूँ! क्या रोने लगूँ? इश निष्ठुर यंत्रणा की कठोरता से बिलबिलाकर दयाकी भिक्षा माँगूँ! माँगूँ कि मुझे भोजन के लिए एक मुठी चने देते हो,न दो, एक बार स्वतंत्र कर दो। नहीं, चाणक्य! ऐसा न करना। नहीं तोतू भी साधारण-सी ठोकर खाकर चूर-चूर हो जाने वाली एक बामी होजायगा। तब मैं आज से प्रण करता हूँ कि दया किसी से न माँगूँगा औरअधिकार तथा अवसर मिलने पर किसी पर न करूँगा। (ऊपर देख कर)क्या कभी नहीं? हाँ, हाँ, कभी किसी पर नहीं। मैं प्रलय के समानअबाधगति और कर्तव्य में इन्द्र के वज्र के समान भयानक बनूँगा।

(किवाड़ खुलता है, वररुचि और राक्षस का प्रवेश)

राक्षसः स्नातक! अच्छे तो हो?

चाणक्यः बुरे कब थे बौद्ध अमात्य!

राक्षसः आज हम लोग एक काम से आये हैं। आशा है कि तुमअपनी हठवादिता से मेरा और अपना दोनों का अपकार न करोगे।

वररुचिः हाँ चाणक्य! अमात्य का कहना मान लो।

चाणक्यः भिक्षोपजीवी ब्राह्मण! क्या बौद्धों का संग करते-करतेतुम्हें अपनी गरिमा का सम्पूर्ण विस्मरण हो गया? चाटुकारों के सामने हाँमें हाँ मिलाकर, जीवन की कठिनाइयों से बचकर, मुझे भी कुपे का पाठपढ़ाना चाहते हो! भूलो मत, यदि राक्षस देवता हो जा तो उसका विरोधकरने के लिए मुझे ब्राह्मण से दैत्य बनना पड़ेगा।

वररुचिः ब्राह्मण हो भाई! त्याग और क्षमा के प्रमाण - तपोनिधिब्राह्मण हो। इतना -

चाणक्यः त्याग और क्षमा, तप और विद्या, तेज और सम्मान केलिए है - लोहे औ सोने के सामने सिर झुकाने के लिए हम लोग ब्राह्मणनहीं बने हैं। हमारी दी हुई विभूति से हमीं को अपमानित किया जाय,ऐसा नहीं हो सकता। कात्यायन! अब केवल पामिनि से काम न चलेगा।अर्थशास्त्र और दण्ड-नीति की आवश्यकता है।

वररुचिः मैं वार्तिक लिख रहा हूँ चाणक्य! उसी के लिए तुम्हेंसहकारी बनाना चाहता हूँ। तुम इस बन्दीगृह से निकलो।

चाणक्यः मैं लेखक नहीं हूँ कात्यायन! शास्त्र-प्रणेता हूँ,व्यवस्थापक हूँ।

राक्षकः अच्छा मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम विवाद न बढ़ाकर स्पष्टउपर दो। तुम तक्षशिला में मगध के गुप्त प्रणिधि बनकर जाना चाहतेहो या मृत्यु चाहते हो? तुम्हीं पर विश्वास करके क्यों भेजना चाहता हूँ,यह तुम्हारी स्वीकृति मिलने पर बताऊँगा।

चाणक्यः जाना तो चाहता हूँ तक्षशिला, पर तुम्हारी सेवा के लिएनहीं। और सुनो, पर्वतेश्वर का नाश करने के लिए तो कदापि नहीं।

राक्षसः यथेष्ठ है, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं।

वररुचिः विष्णुगुप्त! मेरा वार्तिक अधूरा रह जायगा। मान जाओ।तुमको पाणिनि के कुछ प्रयोगों का पता भी लगाना होगा जो उसशालातुरीय वैयाकरण ने लिखे हैं! फिर से एक बार तक्षशिला जाने परही उनका -

चाणक्यः मेरे पास पाणिनि में सिर खपाने का समय नहीं। भाषाठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ, समझे!

वररुचिः जिसने ‘श्वयुवमघोनामतद्धते’ सूत्र लिखा है, वह केवलवैयाकरण ही नहीं, दार्शनिक भी था। उसकी अवहेलना!

चाणक्यः यह मेरी समझ में नहीं आता, मैं कुपा; साधारण युवकऔर इन्द्र को कभी एक सूत्र में नहीं बाँध सकता। कुपा, कुपा ही रहेगा;इन्द्र, इन्द्र! सुनो वररुचि! मैं कुपे को कुपा ही बनाना चाहता हूँ। नीचोंके हाथ में इन्द्र का अधिकार चले जाने से जो सुख होता है, उसे मैंभोग रहा हूँ। तुम जाओ।

वररुचिः क्या मुक्ति भी नहीं चाहते?

चाणक्यः तुम लोगों के हाथ से वह भी नहीं।

राक्षसः अच्छा तो फिर तुम्हें अन्धकूप में जाना होगा।

(चन्द्रगुप्त का रक्तपूर्ण खड्‌ग लिये सहसा प्रवेश - चाणक्य काबन्धन काटता है, राक्षस प्रहरियों को बुलाना चाहता है।)

चन्द्रगुप्तः चुप रहो! अमात्य! शवों में बोलने की शक्ति नहीं,तुम्हारे प्रहरी जीवित नहीं रहे।

चाणक्यः मेरे शिष्य! वत्स चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः चलिए गुरुदेव! (खड्‌ग उठाकर राक्षस से) यदि तुमनेकुछ भी कोलाहल किया तो... (राक्षस बैठ जाता है; वररुचि गिर पड़ताहै। चन्द्रगुप्त चाणक्य को लिये निकलता हुआ किवाड़ बन्द कर देता है।)