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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 9

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(पर्वतेश्वर की राजसभा)

पर्वतेश्वरः आर्य चाणक्य! आपकी बातें ठीक-ठीक नहीं समझमें आतीं।

चाणक्यः कैसे आवेंगी, मेरे पास केवल बात ही है न, अभी कुछकर दिखाने में असमर्थ हूँ।

पर्वतेश्वरः परनतु इस समय मुझे यवनों से युद्ध करना है, मैंअपना एक भी सैनिक मगध नहीं भेज सकता।

चाणक्यः निरुपाय हूँ। लौट जाऊँगा। नहीं तो मगध की लक्षाधिकसेना आगामी यवन-युद्ध में पौरव पर्वतेश्वर की पताका के नीचे युद्ध करती।वही मगध, जिसने सहायता माँगने पर पञ्चनन्द का तिरस्कार किया था।

पर्वतेश्वरः हाँ, तो इस मगध-विद्रोह का केन्द्र कौन होगा? नन्दके विरुद्ध कौन खड़ा होता है?

चाणक्यः मौर्य-सेनानी का पुत्र चन्द्रगुप्त - जो मेरे साथ यहाँआया है।

पर्वतेश्वरः पिप्पली-कानन के मौर्य भी तो वैसे ही वृषल है;उसको राज्य सिंहासन दीजियेगा?

चाणक्यः आर्य-क्रियाओं का लोप हो जाने से इन लोगों कोवृषलत्व मिला; वस्तुतः ये क्षत्रिय हैं। बौद्धों के प्रभाव में आने से इनकेश्रौत-संस्कार छूट गये हैं अवश्य, परन्तु इनके क्षत्रिय होने में कोई सन्देहनहीं। और, महाराज! धर्म के नियाम ब्राह्मण हैं, मुझे पात्र देखकर; उसकासंस्कार करने का अधिकार है। ब्राह्मणत्व एक सार्वभौम शाश्वत बुद्धि-वैभवहै। वह अपनी रक्षा के लिए, पुष्टि के लिए और सेवा के लिए इतरवर्णों का संघटन कर लेगा। राजन्य-संस्कृति से पूर्ण मनुष्य को मूर्धाभिषिक्तबनाने में दोष ही क्या है!

पर्वतेश्वरः (हँसकर) यह आपका सुविचार नहीं है ब्रह्मन्‌!

चाणक्यः वसिष्ठ का ब्राह्मणत्व जब पीड़ित हुआ था, तब पल्लव,दरद, काम्बोज आदि क्षत्रिय बने थे। राजन्‌, यह कोई नयी बात नहीं है।

पर्वतेश्वरः वह समर्थ ऋषियों की बात है।

चाणक्यः भविष्य इसका विचार करता है कि ऋषि किन्हें कहतेहैं। क्षत्रियाभिमानी पौरव! तुम इसके निर्णायक नहीं हो सकते।

पर्वतेश्वरः शूद्र-शासित राष्ट्र में रहने वाले ब्राह्मण के मुख से यहबात शोभा नहीं देती।

चाणक्यः तभी तो ब्राह्मण मगध को क्षत्रिय-शासन में ले आनाचाहता है। पौरव! जिसके लिए कहा गया है, कि क्षत्रिय के शस्त्र धारणकरने पर आर्तवाणी नहीं सुनाई पड़नी चाहिए, मौर्य चन्द्रगुप्त वैसा हीक्षत्रिय प्रमाणित होगा।

पर्वतेश्वरः कल्पना है।

चाणक्यः प्रत्यक्ष होगा। और स्मरण रखना, आसन्न यवन-युद्ध मैं,शौर्य-गर्व से तुम पराभूत होगे। यवनों के द्वारा समग्र आर्यावर्त पादाक्रान्तहोगा। उस समय तुम मुझे स्मरण करोगे।

पर्वतेश्वरः केवल अभिशाप-अस्त्र लेकर ही तो ब्राह्मण लड़ते हैं।मैं इससे नहीं डरता। परन्तु डरनेवाले ब्राह्मण! तुम मेरी सीमा के बाहरहो जाओ!

चाणक्यः (ऊपर देखकर) रे पददलित ब्राह्मणत्व! देख, शूद्र नेनिगड़-बद्ध किया, क्षत्रिय निर्वासित करता है, तब जल - एक बार अपनीज्वाला से जल! उसकी चिनगारी स ेतेरे पोषक वैश्य, सेवक शूद्र औररक्षक क्षत्रिय उत्पन्न हों। जाता हूँ पौरव!

(प्रस्थान)