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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 8

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(गांधार-नरेश का प्रकोष्ठ)

(चिन्तायुक्त प्रवेश करते हुए राजा)

राजाः बूढ़ा हो चला, परन्तु मन बूढ़ा न हुआ। बहुत दिनों तकतृष्णा को तृप्त करता रहा, पर तृप्त नहीं होती। आम्भीक तो अभी युवकहै, उसके मन में महप्वाकांक्षा का होना अनिवार्य है। उसका पथ कुटिलहै, गंधर्व-नगर की-सी सफलता उसे अफने पीछे दौड़ा रही है। (विचारकर) हाँ, ठीक तो नहीं है; पर उन्नति के शिखर पर नाक के सीधे चढानेमें बड़ी कठिनता है। (ठहरकर) रोक दूँ। अब से भी अच्छा है, जबवे घुस आवेंगे तब तो गांधार को भी वही कष्ट भोगना पड़ेगा, जो हमदूसरों को देना चाहते हैं।

(अलका के साथ यवन और रक्षकों का प्रवेश)

राजाः बेटी! अलका!

अलकाः हाँ महाराज, अलका।

राजाः नहीं, कहो - हाँ पिताजी। अलका, कब तक तुम्हें सिखातारहूँ।

अलकाः नहीं महाराज!

राजाः फिर महाराज! पागल लड़की। कह, पिताजी!

अलकाः वह कैसे महाराज! न्यायाधिकरण पिता - सम्बोधन सेपक्षपाती हो जायगा।

राजाः यह क्या?

यवनः महाराज! मुझे नहीं मालूम कि ये राजकुमारी है। अन्यथा,मैं इन्हें बन्दी न बनाता।

राजाः सिल्यूकस! तुम्हारा मुख कंधे पर से बोल रहा है। यवन!यह मेरी राजकुमारी अलका है। आ बेटी - (उसकी ओर हाथ बढ़ाताहै, वह अलग हट जाती है।)

अलकाः नहीं महाराज! पहले न्याय कीजिए।

यवनः उद्‌भाण्ड पर बँधनेवाले पुल का मानचित्र इन्होंने एक स्त्रीसे बनवाया है, और जब मैं उसे माँगने लगा, तो एक युवक को देकरइन्होंने उसे हटा दिया। मैंने यह समाचार आप तक निवेदन किया औरआज्ञा मिली कि वे लोग बन्दी किये जायँ; परन्तु वह युवक निकल गया।

राजाः क्यों बेटी! मानचित्र देखने की इच्छा हुई थी? (सिल्यूकससे) तो क्या चिन्ता है, जाने दो। मानचित्र तुम्हारा पुल बँधना रोक नहींसकता।

अलकाः नहीं महाराज! मानचित्र एक विशेष कार्य से बनवायागया है - वह गांधार की लगी हुई कालिख छुड़ाने के लिए...।

राजाः सो तो मैं जानता हूँ बेटी! तुम क्या कोई नासमझ हो!

(वेग से आम्भीक का प्रवेश)

आम्भीकः नहीं पिताजी, आपके राज्य में एक भयानक षड्‌यन्त्रचल रहा है और तक्षशिला का गुरुकुल उसका केन्द्र है। अलका उशरहस्यपूर्ण कुचक्र की कुंजी है।

राजाः क्यों अलका! यह बात सही है?

अलकाः सत्य है, महाराज! जिस उन्नति की आशा में आम्भीकने यह नीच कर्म किया है, उसका पहला फल यह है कि आज मैं बन्दिनीहूं, सम्भव है कल आप होंगे। और परसों गांधार की जनता बेगार करेगी।उनका मुखिया होगा आपका वंश - उज्जवलकारी आम्भीक!

यवनः सन्धि के अनुसार देवपुत्र का साम्राज्य और गांधार मित्र-राज्य हैं, व्यर्थ की बात है।

आम्भीकः सिल्यूकस! तुम विश्राम करो। हम इसको समझ करतुमसे मिलते हैं।

(यवन का प्रस्थान, रक्षकों का दूसरी ओर जाना)

राजाः परन्तु आम्भीक! राजकुमारी बन्दिनी बनायी जाय, वह भीमेरे ही सामने! उसके लिए एक यवन दण्ड की व्यवस्था करे, यही तोतुम्हारे उद्योगों का फल है।

अलकाः महाराज! मुझे दण्ड दीजिए, कारागार में भेजिए, नहींतो मैं मुक्त होने पर भी यही करूँगी। कुलपुत्रों के रक्त से आर्यावर्त कीभूमि सिंचेगी! दानवी बनकर जननी जन्म-भूमि अपनी सन्तान को खायगी।महाराज! आर्यावर्त के सब बच्चे आम्भीक जैसे नहीं होंगे। वे इसकी मानप्रतिष्ठा और रक्षा के लिए तिल-तिल कट जायँगे। स्मरण रहे, यवनों कीविजयवाहिनी के आक्रमण को प्रत्यावर्तन बनाने वाले यही भारत-सन्तानहोंगे। तब बचे हुए क्षतांग वीर, गांधार को - भारत के द्वाररक्षक को -विश्वासघाती के नाम से पुकारेंगे और उसमें नाम लिया जायगा मेरा पिताका! उसे सुनने के लिए मुझे जीवित न छोड़िए दण्ड दीजिए - मृत्युदण्ड!

आम्भीकः इसे उन सबों ने खूब बकराया है। राजनीति के खेलयह क्या जाने? पिताजी, पर्वतेश्वर-उद्दंड पर्वतेश्वर ने जो मेरा अपमानकिया है, उसका प्रतिशोध!

राजाः हाँ बेटी! उसने स्पष्ट कह दिया है कि, कायर आम्भीकसे अपने लोक-विश्रुत कुल की कुमारी का ब्याह न करूँगा। और भी,उसने वितस्ता के इस पार अपनी एक चौकी बना दी है, जो प्राचीनसन्धियों के विरुद्ध है।

अलकाः तब महाराज! उस प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जो लड़कर मर नहीं गया वह कायर नहीं तो और क्या है?

आम्भीकः चुप रहो अलका!

राजाः तुम दोनों ही ठीक बातें कर रहे हो, फिर मैं क्या करूँ?

अलकाः तो महाराज! मुझे दण्ड दिजीए, क्योंकि राज्य का

उपराधिकारी आम्भीक ही उसके शुभाशुभ की कसौटी है; मैं भ्रम में हूँ।

राजाः मैं यह कैसे कहूँ?

अलकाः तब मुझे आज्ञा दीजिए, मैं राजमन्दिर छोड़ कर चलीजाऊँ।

राजाः कहाँ जाओगी और क्या करोगी अलका?

अलकाः गांधार में विद्रोह मचाऊँगी।

राजाः नहीं अलका, तुम ऐसा नहीं करोगी।

अलकाः करूँगी महाराज, अवश्य करूँगी।

राजाः फिर मैं पागल हो जाऊँगा! मुझे तो विश्वास नहीं होता।

आम्भीकः और तब अलका, मैं अपने हाथों से तुम्हारी हत्याकरूँगा।

राजाः नहीं आम्भीक! तुम चुप रहो। सावधान! अलका के शरीरपर जो हाथ उठाना चाहता है, उसे मैं द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारता हूँ।

(आम्भीक सिर नीचा कर लेता है।)

अलकाः तो मैं जाती हूँ पिता जी!

राजाः (अन्यमनस्क भाव से सोचता हुआ) जाओ!

राजाः आम्भीक!

आम्भीकः पिता जी!

राजाः लौट आओ।

आम्भीकः इस अवस्था में तो लौट आता; परन्तु वे यवन-सैनिकछाती पर खड़े हैं। पुल बँध चुका है। नहीं तो पहले गांधार का ही नाशहोगा।

राजाः तब? (निःश्वास लेकर) जो होना हो सो हो। पर एकबात आम्भीक! आ से मुझसे कुछ न कहना। जो उचित समझो करो। मैंअलका को खोजने जाता हूँ। गांधार जाने और तुम जानो।

(वेग से प्रस्थान)