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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 3

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(पाटलिपुत्र मं एक भग्नकुटीर)

चाणक्यः (प्रवेश करके) झोंपड़ी ही तो थी, पिताजी यहीं मुझे

गोद में बिठाकर राज-मन्दिर का सुख अनुभव करते थे। ब्राह्मण थे, ऋतऔर अमृत जीविका से सन्तुष्ट थे, पर वे भी न रहे! कहाँ गये? कोईनहीं जानता। मुझे भी कोई नहीं पहचानता। यही तो मगध का राष्ट्र है।प्रजा की खोज है किसे? वृद्ध दरिद्र ब्राह्मण कहीं ठोकरें खाता होगा याकहीं मर गया होगा!

(एक प्रतिनिधि का प्रवेश)

प्रतिवेशीः (देखकर) कौन हो जी तुम? इधर के घरों को बड़ीदेर से क्या घूर रहे हो?

चाणक्यः ये घर हैं, जिन्हें पशु की खोह कहने में भी संकोचहोता है? यहाँ कोई स्वर्ण-रत्नों का ढ़ेर नहीं, जो लूटने का भय हो।

प्रतिवेशीः युवक, क्या तुम किसी को खोज रहे हो?

चाणक्यः हाँ, खोज रहा हूँ, यहीं झोंपड़ी में रहने वाले वृद्धब्राह्मण चणक को। आजकल वे कहाँ हैं, बता सकते हो?

प्रतिवेशीः (सोचकर) ओहो, कई बरस हुए, वह तो राजा की आज्ञासे निर्वासित कर दिया गया है। (हँसकर) वह ब्राह्मण भी बड़ा हठी था। उसनेराजा नन्द के विरुद्ध प्रचार करना आरम्भ किया था। सो भी क्यों, एक मन्त्रीशकटार के लिए। उसने सुना कि राजा ने शकटार को बन्दीगृह में बंध करवाड़ाला। ब्राह्मण ने नगर में इस अन्याय के विरुद्ध आतंक फैलाया। सबसे कहनेलगा कि - “यह महापद्म का जारज पुत्र नन्द महापद्म का हत्याकारी नन्द -मगध में राक्षसी राज्य कर रहा है। नागरिकों, सावधान!”

चाणक्यः अच्छा तब क्या हुआ!

प्रतिवेशीः वह पकड़ा गया। सो भी कब, जब एक दिन अहेर कीयात्रा करते हुए नन्द के लिए राजपथ में मुक्तकंठ से नागरिकों ने अनादरके वाक्य कहे। नन्द ने ब्राह्मण को समझाया। यह भी कहा कि तेरा मित्रशकटार बन्दी है, मारा नहीं गया। पर वह बड़ा हठी था; उसने न माना,न ही माना। नन्द ने भी चिढ़कर उसक ब्राह्मस्व बौद्ध-विहार में दे दिया औरउसे मगध से निर्वासित कर दिया। यही तो उसकी झोंपड़ी है।

(जाता है।)

चाणक्यः (उसे बुलाकर) अच्छा एक बात और बताओ।

प्रतिवेशीः क्या पूछते हो जी, तुम इतना जान लो कि नन्द कोब्राह्मणों से घोर शत्रुता है और वह बौद्ध धर्मानुयायी हो गया है।

चाणक्यः होने दो; परन्तु यह तो बताओ - शकटार का कुटुम्बकहाँ है?

प्रतिवेशीः कैसे मनुष्य हो? अरे राज-कोपानल में वे सब जलमरे इतनी-सी बात के लिए मुझे लौटाया था छि।

(जाना चाहता है।)

चाणक्यः हे भगवान्‌! एक बात दया करके और बता दो -शकटार की कन्या सुवासिनी कहाँ है?

प्रतिवेशीः (जोर से हँसता है।) युवक! वह बौद्ध-विहार में चलीगयी थी, परन्तु वहाँ भी न रह सकी। पहले तो अभिनय करती फिरतीथी, आजकल कहाँ है, नहीं जानता।

(जाता है।)

चाणक्यः पिता का पता नहीं, झोंपड़ी भी न रह गयी। सुवासिनीअभिनेत्री हो गयी - सम्भवतः पेट की ज्वाला से। एक साथ दो-दो कुटुम्बोंका सर्वनाश और कुसुमपुर फूलों की सेज से ऊँघ रहा है! क्या इसीलिए राष्ट्रकी शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था! मगध! मगध! सावधान! इतनाअत्याचार! सहना असम्भव है। तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा, नहीं तो नाशही करूँगा! (ठहरकर) एक बार चलूँ, नन्द से कहूँ। नहीं, परन्तु मेरी भूमि,मेरी वृपि, वही मिल जाय; मैं शास्त्र-व्यवसायी न रहूँगा, मैं कृषक बनूँगा। मुझएराष्ट्र की भलाई-बुराई से क्या तो चलूँ। (देखकर) यह एक लकड़ी का स्तम्भअभी उसी झोंपड़ी का खड़ा है, इसके साथ मेरे बाल्यकाल की सहस्रों भाँवरियाँलिपटी हुई हैं, जिन पर मेरी धवल मधुर हँसी का आवरण चढ़ा रहता था!

शैशव की स्निग्ध स्मृति! विलीन हो जा!

(खम्भा खींच कर गिराता हुआ चला जाता है।)