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यादों के झरोखे से

यादों के झरोखे से

डॉ संध्या तिवारी

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आज एक संस्मरण सुनाना चाहती हूँ । वैसे मैं उसे कहानी मे ढाल सकती थी लेकिन उसकी आत्मा यदि उस खोल में न समाती तो ----
इसलिये जस का तस रख रही हूँ।
डिग्री काॅलेज मे प्राध्यापको की भर्ती के लिये इलाहाबाद में परीक्षा आयोजित की गई थी ।
मै भी इस मे सम्मिलित होने के लिये घर से एकाकी निकली । चूंकि पीलीभीत में बड़ी रेलवे लाइन है नहीं, तो हम सब पीलीभीत वासियों को बरेली, शाहजहाँपुर या लखनऊ से बडी लाइन की गाडी पकडनी पडती है । हाँ, तो मै कह रही थी- कि मै लगभग चार बजे पीलीभीत से बस द्वारा बरेली के लिये निकली । शाम आठ बजे की ट्रेन थी, अगली सुबह उसे इलाहावाद पहुँचना था ।आरक्षण था, लेकिन एकाकी सफर महिलाऔं के लिये आज भी सुरक्षित नहीं माना जाता, सो भीतर ही भीतर धुकधुकी लगी थी, लेकिन "मरता क्या न करता ।" चल दी भगवान का नाम लेकर।
बरेली स्टेशन पर मेरे जैसे परीक्षार्थी काफी संख्या में थे । उन्हे देखकर जान मे जान आई । उन परीक्षार्थियों की भीड़ में मेरी चौथी कक्षा मे पढ़ती हुई बेटी के ट्यूशन मास्टर भी थे वह भी परीक्षा के निमित्त इलाहावाद जा रहे थे । उन्होने मुझे देखा तो पास आकर बातचीत करने लगे । उनका नाम संतोष था । जब मैंने उन्हे बताया कि मैं अकेले जा रही हूँ तो मेरे कहने पर उन्होने मेरे साथ उसी बोगी में किसी के साथ सीट अदला बदली कर ली अब संतोष सफर मे मेरे साथ थे। और मैं निश्चिन्त । मै ऊपर की बर्थ पर बैठी अपनी किताब तन्मयता से पढ़ रही थी । संतोष ने पूछा "भाभी आपको कुछ चाहिये ।" " हाँ हाँ चाहिये हो तो बताऔ ।" ये आवाज सामने की नीचे बाली बर्थ से आई । मैने अब तक उन लोगो की तरफ ज्यादा ध्यान नही दिया था, लेकिन इस आवाज ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा । एक पचपन साठ के आसपास के सज्जन थे । उनकी पत्नी । लगभग बाइस पच्चीस साल की उनकी बेटी थी । पहले तो जैसा कि आमतौर पर देखा जाता है, कि पुरूष महिलाऔ के साथ थोड़ी बहुत चंचलता दिखाते है सो उन्होने मुझसे भी दिखाई परन्तु उनकी प्रत्येक बात का संछिप्त उत्तर दे कर मैंने उनका हौसला पस्त कर दिया । मैं पढ़ने में पूरी तरह मगन थी। क्योकि गृहस्थी के चलते हम महिलाऔ को पढ़ाई का समय नही मिलता और सरकार भी जल्दीकहाँ मौका देती है सो सौ परसेन्ट मन लगा कर हम पढ़ रहे थे ।
समय करीब दस साढ़े दस का होगा । मैंने साइड बर्थ पर अधलेटी मुद्रा मे बैठे संतोष से कहा," संतोष अगर चाय बेचने वाला आये तो दो चाय ले लेना एक एक चाय पीकर हम दो घंटे और पढ़ सकते है ।"संतोष नीचे की बर्थ पर थे तो रोशनी की कमी की वजह से शायद पढ़ नही पा रहे थे, या उनकी तैयारी पूरी थी । जो भी हो उन्होने मुझसे कहा, " ठीक है भाभी, आपके लिये ले लूँगा मुझे नही चाहिये ।" हम दोनों की बात सुनकर सामने नीचे की बर्थ पर बैठी ऑन्टी जी बोल पडीं, "अरे बेटा तुम पढो, तुम्हे जिस चीज की जरूरत होगी वो हम देंगे ।" मैं उनकी कृपा की आकाँक्षी नही थी सो आभार प्रकट करते हुये मना कर दिया । लेकिन वो अपनी विबाहिता बेटी की याद में इतनी अभिभूत थीं कि उन्हें मेरी बात सुनाई ही नहीं दे रही थी। "बेटा चाय मै अपने साथ थरमस में लाई हूँ तुम ले लो । (रेलवे की तरफ से लिखी सावधानी याद आ गई, यात्री कृपया सावधान यात्रा के दौरान किसी भी यात्री के द्वारा दी गई चीजे न खाये पीये) एक तो मै वैसे भी अहसान लेने की मनःस्थिति में नही थी ऊपर से रेलवे की चेतावनी।"
गति भई सांप छछून्दरि केरी, उगिलत बनई न खात"
मैं बड़े पशोपेश मे थी क्या करूँ क्या न करूँ । उन महोदया का बेटी प्रेम ठाठें मार रहा था । चाय के साथ उन्होने पूडी सब्जी भी मेरे आगे रख दी । मैने संतोष की तरफ देखा बोगी की पीली मद्धिम रोशनी में संतोष की आँखे क्या कह रही हैं मैं समझ नहीं पाई।
खैर, , ,,,,,,,उनकी आत्मीयता ने मेरे शक और आत्मगुंठन पर विजय पाई ।
मैने आधे अधूरे मन से ही सही, चाय पी पूड़ी खाई । धन्यवाद प्रकट किया और फिर पढने बैठ गई। ग्यारह साढ़े ग्यारह का समय होगा । ले ले ले ले के कोहराम से मेरी तन्मयता टूटी। आन्टी जी का सोने का कुण्डल कोई उचक्का खींच कर भाग गया था । कौन कैसे क्या से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ थी । हुआ यों कि संतोष को नींद नहीं आ रही थी सो वो बोगी के दरवाजे पर खडे थे । आन्टी जी जिस खिडकी पर बैठी थी वह दरवाजे के पास थी । जैसा कि सन्तोष ने बताया कि एक लड़का दूसरी बोगी से भागता हुआ आया दरवाजे पर लटक कर कुण्डल खींचा और नौ दो ग्यारह हो गया । संतोष की बात असंतोष जनक नहीं थी । परन्तु अंकल जी मानने को तैयार नहीं थे । ( हाँ, मैं इस बीच ये बताना तो भूल ही गई थी, कि उस आत्मीय परिवार ने मुझ से पूछा था, कि ये (संतोष ) तुम्हारे सगे देवर हैं और मैने बात समाप्त करने की गरज से कह दिया था, हाँ, ये मेरे सगे देवर हैं ।)
अंकल जी ने पूरी बोगी छान मारी । आस पास लगी हुई सब बोगियाँ छान मारी लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी । इस काण्ड के बाद पढ़ना तो एक तरफ मैं अपनी बर्थ पे भी नहीं बैठ पाई ।चाय पूड़ी की आत्मीयता से उरिण होने का अवसर था, सो आन्टी जी की सीट पर बैठ कर उन्हे तरह तरह से ढ़ाढ़स बंधाने लगी । वो थी कि रोये जा रही थी, मेरे अथक प्रयासो से भी वह नहीं चुपीं । वो परिवार तीर्थाटन के निमित्त चित्रकूट जा रहा था । अंकल जी बार-बार चित्रकूट का नाम लेकर वहाँ के पंड़ितों की बड़ाई कर रहे थे । वे कह रहे थे कि बस वहाँ केवल घटना का समय बताना पड़ता है और वहाँ के ज्योतिषी सब कुछ सच-सच बता देते हैं । एक बार मुझे उस चोर का पता ठिकाना मालूम हो जाये तो मैं उसे घर से खींच कर मारूंगा और कुण्डल बसूल कर लूँगा । क्योंकि मेरे यहाँ सोना खोना बहुत बुरा माना जाता है। मै क्या बोलती केवल उनकी हाँ में हाँ मिलाती रही । एक घंटे के आसपास यह घटना क्रम चलता रहा लगभग साढ़े बारह बजे हम सब अपनी अपनी बर्थ पर सोने चले गये । सुबह छः बजे हमारा गन्तव्य स्थान इलाहाबाद आ चुका था।हम उतरने से पहले आन्टी जी अंकल जी को अभिवादन कर रहे थे । प्रति उत्तर मे बे बड़े अनमने प्रतीत हो रहे थे । मैने संज्ञान में तो लिया परन्तु रात की घटना से दुखी होगे ये सोचकर मन से इस विचार को झटक दिया ।
घर वापसी के महीना भर बाद मैने कुशल-क्षेम जानने के लिये उस आत्मीय परिवार को फोन किया । मेरी फोन काॅल का जबाब हूँ हाँ में देकर अंकल जी संतोष के बारे मे पूछने लगे । मैनें मन ही मन गणित लगाया शायद बेटी की शादी के इच्छुक होंगे इसी से संतोष के वारे में ज्यादा पूछ रहे हैं । बात आई गई हो गई ।मैं भी अपने कामो में व्यस्त हो गई । संतोष ने मेरे यहाँ की ट्यूशन छोड दी थी सो उनका आना जाना भी कम हो गया था । एक बार होली की शुभकामनायें देने के लिये मैनें उस आत्मीय परिवार को फोन किया । फोन उठाते ही वो संतोष के वारे में पूछने लगे । तब विवश होकर मैने बताया कि वह मेरे सगे देवर न होकर केवल ट्यूशन मास्टर है । उन्होने ओह करके लम्बी गहरी साँस भरी और फोन काट दिया । मैं कुछ क्षण असमंजस की स्थिति मे रही फिर सामान्य होकर अपने कामो में लग गयी । उसी साल मुझे कोटा ( राजस्थान )जाना पडा । मैं वहाँ लगभग एक साल के लिये थी । ऐसे में मैने वहाँ की एक सिम एलाट करबा ली थी । और यूपी बाली सिम बन्द कर दी थी। यू0पी0 लौटने पर मैने फिर पुरानी सिम इस्तेमाल करनी शुरू कर दी ।
कोटा से लौटने के दो तीन महीने बाद एक अन्जान नम्वर से फोन आया । मैने फोन रिसीव किया तो उधर से आवाज आई "
हाँ हम ट्रेन वाले अंकल जी बोल रहे हैं । मैने उत्साहित होकर पूछा - "कैसे हैं आप सब, कुण्डल के बारे में पड़ित जी ने कुछ बताया कि नहीं ।" मेरे उत्साह को किंकर्तव्य विमूढ़ता में बदलते हुये वे बोले -"चोर तो आपने छुपा रखा है इसीलिये साल भर से आपका फोन नहीं लग रहा । और न कभी संतोष ने मुझे फोन किया । मेरे चित्रकूट वाले पंडित जी ने बताया कि चोर अकेला नहीं था उसके साथ एक औरत भी थी,,,,,,,,,
मैं अवाक् ! सुनती रही आगे न जाने क्या क्या कहा गया मुझे कुछ समझ नहीं आया । मेरा सुन्न दिमाग बस इतना ही सोच रहा था ऊफ् दो पूड़ी की इतनी बड़ी देनदारी।

डॉ संध्या तिवारी

पीलीभीत