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लोहमार्गी कथाएँ

मेरा नाम मोहनलाल, उम्र लगभग ५५ साल‍‍। कईं सालों से इस स्टेशन का कैंटीन चला रहा हूँ‍‍। इतने वर्षों में मैंने इस स्टेशन पर अनेक घटनाएँ देखी हैं उनमें से कुछ हमेशा के लिए याद रह गयीं‍‍। ऐसी ही एक कहानी आज आपको सुनाता हूँ‍‍।

कोई पाँच साल पहले की बात है‍‍।‍ एक दिन सुबह मैं अकेला ही कैंटीन में बैठा था‍‍।‍ किसी गाडी के आने का समय नहीं था तो कैंटीन में कोई नहीं था‍‍।‍ कुछ देर बाद स्टेशन मास्टर साहब आकर मेरे पास बैठ गए‍‍।‍ वे थोड़े बेचैन और परेशान लग रहे थे‍‍।‍ स्टेशन मास्टर साहब एकदम सीधे-सादे और ईमानदार थे‍‍।‍ ईमानदार लोगों के मुख्यतः दो प्रकार मैंने देखे हैं‍‍।‍ पहले वे जो कर्मठ, दबंग और थोड़े गुस्से वाले होते हैं‍‍।‍ ऐसे लोगों से सभी लोग थोड़ी दूरी बना के रखते हैं क्योंकि ना तो ये खुद बेईमानी करते हैं ना किसी और को करने देते हैं‍‍।‍ दूसरी तरह के ईमानदार लोग एकदम शांत, मिलनसार, थोड़े धार्मिक होते हैं और कभी-कभी डरपोक भी‍‍।‍ ये लोग अपने काम से काम रखने वाले होते हैं‍‍।‍ हमारे मास्टर जी दूसरी किस्म के ईमानदार थे‍‍।‍ अपना खाना खुद घर से लाकर खाने वाले और कैंटीन में एक चाय भी पी तो उसका बिल चुकाने वाले‍‍।

उन्हें परेशान देखकर मैंने चाय मंगवाई और कहा कि इस चाय के पैसे मैं नहीं लूंगा क्योंकि ये कैंटीन की चाय नहीं बल्कि मेरी तरफ से आपको पिलाये गयी चाय है‍‍।‍ आम तौर पर खिलखिलाकर हँसने वाले चेहरे पर सिर्फ थोड़ी सी मुस्कान आयी‍‍।‍ फिर मैंने सीधे-सीधे पूछा।

"क्या बात है साहब बड़े परेशान लग रहे हो?"

"मोहनलाल कभी तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है की किसी ने तुम्हें कोई चीज़ अपने पास रखने को दी हो और तुम्हें उसके कारण परेशानी का सामना करना पड़ा हो?" साहब ने उलटे मुझ ही से सवाल किया।

"मेरे साथ तो नहीं हुआ लेकिन आपके पहले जो स्टेशन मास्टर थे कुमार जी, उन्होंने मुझे एक किस्सा सुनाया था‍‍।"

"चलो बताओ तुम्हारा किस्सा, हो सकता है की मुझे उस किस्से से कुछ सीखने को मिले" मास्टर जी ने कहा‍‍।

"उस कहानी की सीख तो बस यही है, की किसी की कोई भी कीमती चीज़ जिसे तुम खुद खरीद नहीं सकते उसकी ज़िम्मेदारी कभी न लो‍‍।" मैंने कहा‍‍।

"पर हुआ क्या था ?"‍‍।

"कुमार जी ने मुझे ये घटना ४ साल पहले सुनाई थी यानी बात अब से कुछ दस साल पुरानी होगी" मैंने बताना शुरू किया।

"कुमार जी तब बिहार में रावलगढ़ गांव में स्टेशन मास्टर थे‍‍।‍ रावलगढ़ और उसके आस-पास के गांवों में डाकुओ का बड़ा प्रकोप था‍‍।‍ डाकुओं ने सारे गांव लूट लिए थे और जब गाँव में कुछ लूटने को बचा नहीं तो ट्रेनों को लूटना शुरू कर दिया था‍‍।‍ कानून व्यवस्था तो नहीं के बराबर ही थी‍‍।‍ डाकुओं और सरकारी कर्मचारी जिसमें रेलवे भी आता है उनके बीच एक बिना लिखा बिना बोला करार था‍‍।‍ डाकू कर्मचारी और उनके परिवार को हाथ नहीं लगाएंगे और कर्मचारी डाकुओं की तरफ ध्यान नहीं देंगे‍‍।‍ डाकू लोग ट्रेन लूटते समय भी बिहार के या आसपास के गाँवों के यात्रियों को छोड़ देते थे‍‍।

एक रात कुमार जी अपनी ड्यूटी खत्म करके घर जा रहे थे‍‍।‍ तभी किसी आदमी ने उन्हें रोका और कहा की वे उसकी बात २ मिनट सुन लें‍‍।‍ वह उत्तर प्रदेश के लखनऊ का रहने वाला था और पटना जा रहा था‍‍।‍ उसे ट्रेन बनारस में बदलनी थी लेकिन पहली ट्रेन लेट होने के कारण दूसरी ट्रेन छूट गयी थी‍‍।‍ वह किसी तरह बस से रावलगढ़ आया था और उसे सुबह की पैसेंजर पकड़ कर पटना जाना था‍‍।

"तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ?" उसकी बात सुन कर कुमार जी ने पूछा।

"साहब सुना है यहाँ डाकुओं का बड़ा प्रकोप है, रात भर बाहर अकेले रहना खतरनाक है‍‍।‍ मेरे पास ये मालिक के दिए हुए दस हज़ार रुपये हैं‍‍‍ जो मुझे उनके बेटे को पटना में देने हैं‍‍।‍ मैं एक गरीब मुनीम हूँ‍‍। पैसे चले गए तो मालिक मुझे नौकरी से निकाल देंगे‍‍।‍ मेरी मदद कीजिये, रात भर के लिए ये पैसे आप अपने पास रख लीजिये। सुबह गाड़ी छूटने से पहले दे दीजियेगा‍‍।‍ "

कुमार जी सोच में पड़ गए‍‍।‍ ‘आदमी तो सच में सीधा-सादा गरीब लगता है, मेरे स्टेशन में आया है, मुझे इसकी मदद करनी चाहिए। लेकिन ऐसे कैसे मैं इसके पैसे अपने पास रख सकता हूँ?’

"तुम रेलवे पुलिस के पास क्यों नहीं जाते ?" कुमार जी ने कहा‍‍।

"साहब आप ही बताइये अगर पुलिस का कोई प्रभाव होता क्या इस तरह डाकू खुले आम डकैती करते। माफ़ कीजिये पर मुझे पुलिस पर विश्वास ही नहीं है, हो सकता है की मेरी बात सुन कर मेरी मदद करने की बजाये पुलिस खुद ही डाकुओं को खबर कर दे‍।‍ आप पर मुझे पूरा विश्वास है आप कृपया मेरी मदद करें " वह आदमी बड़ी विनम्रता से बोला‍‍।

कुमार जी के मन में विचारों ने तांडव शुरू कर दिया।

‘आधिकारिक तौर पर तो मैं इसकी मदद करने के लिए बाध्य नहीं हूँ‍‍।‍ इसकी ट्रेन सुबह की है और रात भर की जिम्मेदारी इसकी खुद की है‍‍।‍ और वैसे भी ये काम पुलिस का है। अगर मानवता के हिसाब से देखा जाये तो मुझे इसकी मदद करनी चाहिए, हमारी संस्कृति में शरणागत की रक्षा का बड़ा महत्व है‍‍।‍ लेकिन ये कोई रामराज्य नहीं और मुझे व्यवहारिक दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए। कहीं डाकुओं को पता चला गया तो? हमारा बिना लिखा बिना कहा क़रार मुझे नहीं तोडना चाहिए। मेरा भी परिवार है और उनकी रक्षा करना मेरा सबसे बड़ा कर्तव्य है‍‍।‍ इस आदमी ने दूसरे की अमानत अपने पास रखने की गलती की है‍‍।‍ मुझे वही गलती नहीं करनी चाहिए‍‍।‍ नहीं नहीं मैं ये ज़िम्मेदारी नहीं ले सकता‍‍।'

"देखो भाई मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है‍‍।‍ हो सकता है की कल मैं स्टेशन पर आ ही न पाऊं। फिर तुम्हारे पैसे अटक जायेंगे‍‍।‍ डरो नहीं हालात इतने बुरे भी नहीं है थोड़ी हिम्मत रखो कुछ नहीं होगा‍‍।‍ और कहीं कुछ गड़बड़ का शक़ हो तो यहीं कहीं छुप जाना जैसे की शौचालय में, इतने बड़े प्लेटफॉर्म में कहीं तो छुप ही सकते हो‍‍।" कुमार जी ने उस व्यक्ति को समझाया और अपने घर चले गए‍‍।

सुबह कुमार जी स्टेशन पर आये तो उन्हें पता चला की रात को ३ बजे डकैती हुई है‍‍।‍ डाकू प्लेटफॉर्म पर खड़ी ट्रेन को लूटने आये और प्लेटफॉर्म के और वेटिंगरूम के यात्रियों को भी लूटकर चले गए‍‍।‍ कुछ लोगों को चोटें भी आयी थी‍।

कुमार जी का दिल बैठ गया‍‍।‍ सोचने लगे ‘बेचारा आदमी!! मार भी खाई होगी और अब नौकरी से भी हाथ धोना पड़ेगा‍‍।'

कोई प्रत्यक्ष कारण ना होने पर भी कुमार जी को अपराधी भावना ने घेर लिया‍‍।‍ उन्होंने अनमने ही ड्यूटी सम्हाली, लेकिन काम में उनका मन नहीं लग रहा था‍‍।‍ बार-बार उस आदमी का चेहरा उनकी आँखों के सामने आ रहा था‍‍।‍ उन्हें 1754 डाउन छूटने से पहले गार्ड को कागज़ देने थे‍‍।‍ सो वे ट्रेन के आखिरी डब्बे की तरफ जाने लगे‍‍।‍ तभी उन्हें याद आया 1754 डाउन ही पटना जाती है और इसी गाड़ी में वह आदमी बैठा होगा‍‍।‍ उससे नज़र मिलाने की हिम्मत कुमार जी में नहीं थी, इसलिए वे ट्रेन की तरफ न देख कर तेज़ी से प्लेटफॉर्म पर चलने लगे‍‍।‍ लेकिन मन बड़ा चंचल भी होता है और शरारती भी‍‍।‍ न चाह के भी उनकी नज़र डब्बों की तरफ ही जा रही थी‍‍।

और अचानक उन्हें वही आदमी खिड़की पर बैठा दिखा‍‍।‍ अपनी नज़र फेर कर आगे जाने प्रयास कर ही रहे थे की उन्हें उसी आदमी की आवाज़ आये "नमस्ते साहब"‍‍।

कुछ संकोच से कुमार जी ने उस आदमी की तरफ देखा और उसे मुस्कुराता देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ‍‍।

"साहब मेरे पैसे बच गए"

"अरे वाह‍‍।‍ पर कैसे बचे? मैंने तो सुना की पूरा प्लेटफॉर्म लूट लिया गया?‍‍”

"हाँ मुझे भी लूटा और मारा भी लेकिन मेरे दस हज़ार बच गए‍‍।‍ हुआ यूँ की मैं प्लेटफॉर्म की बेंच पर सो रहा था‍‍।‍ तभी खड़ी हुए ट्रेन से चिल्लाने की आवाजें सुनायी देने लगीं‍‍।‍ मैं समझ गया की ये ट्रेन लूटी जा रही है और मैं स्टेशन के बाहर जाने वाले गेट की तरफ भागने के लिए उठा। लेकिन ऐसे मौकों पर डाकू चारों तरफ से घेरा डालते हैं और भागने वालों को सबसे पहले लूटा जाता है और मार भी पड़ती है इसलिए ऐसे किसी तरीके से जो कोई भी सोच सकता है काम नहीं चलने वाला था।‍‍।‍ जरूरत थी कुछ नया सोचने की। आपके कहे अनुसार मैं भाग कर शौचालय के अंदर चला गया‍‍।‍ वहां ३-४ लोग और छुपे हुए थे‍‍।‍ वहां मुझे प्लेटफॉर्म पर भी चीखने चिल्लाने की आवाज़ें सुनायी दे रही थी‍‍।‍ वहां पर छुप कर भी मैं बच तो नहीं सकता था क्योंकि डाकू अंदर भी ज़रूर आते‍‍।‍ बकरे की माँ कब तक खैर मनाती‍‍।‍ फिर मैंने सोचा भागते या छुपे हुए पकड़े गए तो डाकुओं का गुस्सा भी बढ़ेगा और उन्हें शक भी होगा की ज़रूर मेरे पास कोई कीमती चीज़ है‍‍।‍ इसलिए भागने से अच्छा है की मैं खुद ही उनके सामने जाऊं। फिर मुझे एक उपाय सूझा, और वहां दुबक कर बैठने से अच्छा मैंने हिम्मत दिखाने का निर्णय लिया। मेरे पास पानी भरने की चमड़े की थैली थी‍‍।‍ मैंने दस हज़ार रुपये नोटों का एक बण्डल बनाया, उस पर २-३ प्लास्टिक की थैलियों का कवर पहनाया और उसे रबर बैंड से बंद करके चमड़े की थैली में डाल दिया। फिर मैं शौचालय से बाहर निकला‍‍। तब तक डाकू वहां नहीं पहुंचे थे पर मुझे देख सकते थे‍‍।‍ मैंने डाकुओं की तरफ देखा ही नहीं और अलसाते हुए पानी के नल की तरफ जाने लगा जिससे डाकुओं को ये प्रतीत हो की मैं अभी-अभी नींद से उठा हूँ और मुझे डकैती के बारे में कुछ पता ही नहीं है‍‍।‍ मैं धीरे-धीरे पानी के नल की तरफ गया और अपनी पानी के थैली नल के नीचे लगा कर उसमें पानी भरने लगा‍‍।‍ तब तक डाकू मेरे पास आ गए थे‍‍।‍ उन्होंने मुझे पकड़ा और एक थप्पड़ मारा। थप्पड़ पड़ते ही मैंने पानी की थैली हाथ से छोड़ दी और अपना बैग सम्हालने लगा‍‍।‍ डाकुओं ने मेरी तलाशी ली तो मेरी पतलून की जेब में उन्हें २०-२५ रूपए मिले। फिर मेरे सामान में उन्हें ३०-४० रूपए और मिले। रूपए लेकर, मेरे कपडे फाड़ कर और मुझे थप्पड़ मार कर डाकू आगे चले गए‍‍।‍ और मैं वहीं बैठा उसी अवस्था में रोता रहा‍‍ ताकि दूसरे डाकू मेरी तरफ ध्यान नहीं दे‍‍।‍ फिर डाकू शौचालय की तरफ गए‍‍।‍ वहां पर छुपे लोगों की उन्होंने काफी धुलाई की‍‍।‍ शौचालय का चप्पा-चप्पा छान मारा। वहां लोगों ने छुपाये हुए पैसे घडी, अंगूठियां और चेन ले गए‍‍।‍ सब शांत होने के बाद मैंने अपने पैसे थैली से निकाल लिए‍‍।‍ एकदम सूखे और सुरक्षित थे‍‍।‍ "

"तुमने पानी की थैली छोड़ कर बैग सम्हाली ये तो तुमने बड़ी चालाकी का काम किया, इसलिए डाकुओं का सारा ध्यान बैग पर गया थैली पर नहीं‍‍।‍ पर तुमने अपने सारे पैसे थैली में क्यों नहीं डाले, फिर तुम्हारा कुछ भी नुकसान नहीं होता‍‍।" कुमार जी ने पूछा‍‍।

"अरे साहब आपको लगता है की अगर मेरे पास १ भी रूपया नहीं मिलता तो डाकू मुझे ऐसे ही छोड़ देते‍‍।‍ यात्रा पर निकले हुए आदमी के पास थोड़े रुपये तो होने ही चाहिए। अगर कुछ भी नहीं मिलता तो शायद उनका ध्यान थैली की तरफ जाता या फिर वे मुझे मार-मार के मुझसे ये बात उगलवा लेते की मैंने पैसे कहाँ छुपाये हैं‍‍।"

कुमार जी ये सुन कर मुस्कुराये और गार्ड के डब्बे की तरफ निकल पड़े‍‍। "

"बड़ी ज़बरदस्त कहानी है मोहन, हिम्मत दिखाओ तो काम बनते हैं" मास्टर जी बोले जो अभी तक बड़ा रस लेकर कहानी सुन रहे थे‍‍।

"अब आप बताइये आप क्यों परेशान हैं" मैंने पूछा।

"मोहन भाई किसी और की अमानत को सम्हालने में क्या मुसीबत आती है ये तो तुमने अभी बता ही दिया‍‍।‍ अगर किसी से कोई चीज़ उधार या सम्हालने के लिए ली हो और चीज़ इतनी कीमती हो कि तुम उसे खरीद कर या किसी और तरीके से वापस नहीं कर सकते तो सच में वो जी का जंजाल बन जाती है‍‍।‍ और ज़रूरी नहीं हर बार किसी अमानत की कीमत पैसे में की जा सके कभी किसी का कोई काम, कोई ज़िम्मेदारी या राज अपने पास रखना बड़ा मुश्किल काम होता है‍‍।‍ मेरी अभी की परेशानी भी किसी की अमानत को लेकर ही है, लेकिन इस बार मामला थोड़ा अलग है‍‍।

"बताइये, अगर ज़रूरत पड़ी मैं भी कुछ मदद कर सकता हूँ‍‍।" मैंने कहा‍‍।

"ठीक है तुम तो मेरे पुराने परिचय के आदमी हो तुम पर विश्वास किया जा सकता है‍‍।‍ तो सुनो।" मास्टरजी ने बताना शुरू किया।

"तीन दिन पहले मैं अपने ऑफिस में ६५७२ अप का इंतज़ार कर रहा था‍‍।‍ केबिन से क्लेअरेंस मिल चुका था और गाडी १ नंबर पर आने वाली थी‍‍।‍ ASM ड्यूटी पर थे तो वही चार्ट और एंट्रीज ले रहे थे‍‍।‍ तभी मेरे ऑफिस में १ सज्जन ने प्रवेश किया‍‍।‍ खादी कुरता जैकेट और पजामा पहने, गले में हार थे, चेहरा भी कहीं देखा लग रहा था‍‍।‍ जनाब कोई VIP लग रहे थे‍‍।‍ उनके पीछे २-३ लोग हाथ में सूटकेस और १ कार्डबोर्ड का बक्सा लेकर आये‍‍।‍ जिस रुबाब और हक से वे मेरे ऑफिस में घुसे मुझे लगा की शायद हमारे राज्य के कोई मंत्री हैं‍‍।‍ साथ आये लोग जल्दी ही मेरा ऑफिस छोड़ कर निकल गए शायद उन्हें मंत्री जी ने पहले ही ऐसा करने को कहा था‍‍।

"मैं उत्तरप्रदेश की रजतनगर सीट से MLA हूँ ललित चंद्र, यूपी में तो हमारी पार्टी सरकार को बाहर से समर्थन दे रही है लेकिन बिहार में तो हमारी पार्टी नयी ही है‍‍।" लोगो के जाने के बाद उस व्यक्ति ने अपना परिचय दिया।

उत्तर प्रदेश का MLA और बिहार में आकर ये रोब! मैंने सोचा उन्हें मेरे ऑफिस से जाने के लिए कहूं लेकिन रजतनगर का नाम सुन कर ठहर गया‍‍।‍ रजतनगर में मेरी बेटी रहती है‍‍।

मैंने उनसे मेरे ऑफिस में आने का प्रयोजन पूछा तो पता चला कि उनकी पार्टी का उँझाव में अधिवेशन है उन्हें यहाँ उँझाव जाने के गाड़ी बदलनी थी‍‍।‍ २-३ घंटे बीच में थे तो मेरे साथ गपशप के लिए मेरे ऑफिस में आये हैं‍‍।

मुझे तो कुछ गड़बड़ लगी‍‍।‍ नेता लोग इतने सामाजिक नहीं होते की सिर्फ गपशप करने के लिए आएं‍‍।‍ कुछ तो स्वार्थ ज़रूर होगा‍‍।‍ चलो देखते हैं क्या होता है ये सोच कर मैंने चाय मंगवाई और इधर उधर की गपशप करने लगा‍‍।‍ किसी भी राजनैतिक, धार्मिक या जातीय विषय को छोड़ कर हमारा वार्तालाप चलता रहा‍‍।‍ और फिर मैं एक गलती कर बैठा‍‍।‍ मैं उन्हें बातों-बातों में ये बता गया की मेरी बेटी रजतनगर में ही रहती हैं‍‍।‍ फिर क्या था उन्होंने मुझसे लड़की और जमाई का पता और सारी जानकारी पूछी जो मुझे बतानी ही पड़ी‍‍।‍ फिर उन्होंने मुझसे कहा

'आपकी बेटी की अब चिंता छोड़ दीजिये, आपकी बेटी मेरी बेटी। यूँ समझिये की उसका अब रजतनगर में ही मायका है‍‍।'

‍ अब मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ‍‍।‍ किसी साइड लाइन के स्टेशन मास्टर से २ घंटे के लिए गपशप करके उसकी बेटी को अपनी बेटी कोई नेता यूँ नहीं मानता‍‍।‍ ज़रूर बदले में कुछ उल्टा सीधा काम करवाएगा‍‍।‍ और मैं उनके सौजन्य का ऋणी उन्हें मना नहीं कर पाऊँगा‍‍।‍ आगे गपशप चलती रही‍‍। मैंने उनके लिए नाश्ता बुलाने को कहा तो उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया‍‍।‍ कुल मिला कर वे नेता है ये अगर मुझे नहीं मालूम होता उनके व्यवहार और वाणी से मैं उन्हें एकदम सज्जन ही कहता‍‍।

कुछ देर बाद ट्रेन जाने का टाइम हो गया‍‍।‍ वे खुद उठकर बाहर गए और अपने साथ के लोगों को इशारा किया‍‍।‍ लोगों ने सूटकेस उठाई और मुझ से विदा लेकर सभी लोग ट्रेन की तरफ जाने लगे‍‍।‍ मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा‍‍।‍ क्या नेता वास्तव में इतने सज्जन होते हैं ? ना तो मैं उनके मतदाता क्षेत्र का हूँ और ना ही अभी चुनाव आने वाले हैं फिर इतना सौजन्य क्यों? मैं उन्हें गाड़ी तक छोड़ने उनके पीछे-पीछे चलने लगा‍‍।‍ उनका फर्स्ट क्लास का डिब्बा आया और गाड़ी में बैठने के पहले‍ उन्होंने मुझे अपने साथ अपने डब्बे में बस १ मिनट के लिए आने को कहाँ। उस समय फिर मुझे चिंता होने लगी की ये अब मुझे कोई न कोई काम बताएँगे‍‍।

अंदर जाकर उन्होंने कहा

"अरे हाँ मैं बताना भूल गया परसों अधिवेशन खत्म होने के बाद इसी रास्ते से वापस रजतनगर जाऊंगा‍‍।‍ आपकी बेटी के लिए कुछ भिजवाना है तो संकोच ना कीजियेगा "

उनके इस व्यवहार से मुझे अपने आप पर बड़ा तरस आया, कैसे हम लोगों के प्रति पूर्वाग्रहित रहते हैं‍‍।

"लड़की अभी पिछले हफ्ते ही आयी थी, इसलिए कुछ भेजना नहीं है , लेकिन आपका बहुत धन्यवाद" मैंने विनम्रता से कहा‍‍।‍

"और एक बात, आपको थोड़ा कष्ट दे रहा हूँ‍‍।‍ बिहार में अभी शराबबंदी चल रही है‍‍।‍ मुझे आते आते ट्रैन में १ परिचित ने सर्वोत्तम विदेशी व्हिस्की का एक बड़ा बक्सा भेंट किया है‍‍। इंग्लैंड या अमरीका का है‍‍।‍ अब उसका दिल भी रखना पडा, वरना वैसे मुझे शराब का बिल्कुल शौक नहीं‍‍।‍ शराबबंदी में ऐसा सामान अपने साथ ले जाना खतरनाक है‍‍।‍ वैसे भी हमारी पार्टी की यहाँ कोई पहुँच नहीं है‍‍।‍ बक्सा मैंने आपके ऑफिस में ही रख छोड़ा है‍‍।‍ परसों इसी रास्ते से वापस जाऊंगा तो लेता जाऊंगा‍‍।‍ आपकी बेटी की बिलकुल चिंता न कीजियेगा। अच्छा शुभ दिन‍‍।"

महाशय ये कह कर उठे और डब्बे के बाहर खड़े अपने चमचों को सामान रखने को कहने लगे‍‍।

अपना काम खत्म करके अपने ऑफिस आया और उस बक्से को देखकर अपने आप पर हँसने लगा‍‍।‍ वैसे २ दिन तक बक्सा मेरे कमरे में पड़ा रहे तो कोई बड़ी समस्या नहीं लेकिन कहीं न कहीं मैं ठगा गया महसूस कर रहा था‍‍।

"हा हा हा देखिये हमारे के नेता कितने बुद्धिमान होते हैं" मैंने हँसते हुए कहा‍‍।‍

"हाँ सो तो है" सुबह से पहली बार मास्टर जी थोड़ा ठीक मुस्कुराये थे, शायद अपनी बात कहने के बाद थोड़ा हल्का महसूस कर रहे थे‍‍।

"और साहब बिहार में शराबबंदी के कारण बोतल अपने साथ न रख पाना भी बहाना होगा‍‍। असलियत में उनको ये चिंता होगी की अगर इतनी अच्छी व्हिस्की वे अधिवेशन में ले गए तो साथ के लोग उसे ख़त्म कर देंगे‍‍।"

"हाँ इस बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं‍‍। ये भी हो सकता है‍‍।"

"पर अब परेशानी की क्या बात है, श्रीमान आकर अपनी अमानत ले जायेंगे‍‍।" मैंने कहा‍‍।‍

"यही सोच कर मैं भी निश्चिंत था की इतनी कीमती चीज़ तो वे वापसी में ले ही जायेंगे। उन्होंने २ दिन बाद आने का कहा था और अब ४ दिन हो गए हैं‍‍।"

"अरे ठीक है आ जायेंगे आप नाहक ही परेशान हो रहे हैं‍‍।" मैंने दिलासा देते हुए कहा‍‍।

"ये देखो कल का अख़बार, इसे पढ़ कर ही मैं परेशान हूँ"‍‍।‍

अख़बार में खबर छपी थी की उत्तर प्रदेश के रजतनगर के MLA ललित चंद्र उँझाव में शराब पी कर हुड़दंग करते हुए पकडे गए‍‍।‍ उन्होंने शराब के नशे में महिलाओं के साथ बदतमीज़ी और पत्रकारों के साथ मारपीट की‍‍।‍ MLA साहब की नशे की हालात में मारपीट करते हुए फोटो भी छपी थी‍‍।‍ मैंने भी ये खबर कल ही पढ़ी थी पर उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था‍‍।

"अब देखो मोहन, सत्ताधारी पक्ष को शराबबंदी पर कड़ा रुख अपनाने का इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता‍‍।‍ पत्रकार भी साथ में हैं, जनता ने भी फोटो देखी है‍‍।‍ मुझे नहीं लगता की MLA साहब इस मुसीबत से जल्दी छूटेंगे‍‍।‍ और २-४ हफ़्तों में छूट भी गए तो फिर क्या ये शराब का बक्सा ले जाने की बेवकूफी करेंगे?"

"हाँ सो तो है"‍‍।

"तो अब मैं इस बक्से का क्या करूँ। रेलवे स्टेशन पर तो वैसे भी शराब मना होती है, ऊपर से बिहार में शराब बंदी कड़ी हो रही है‍‍।‍ क्या भरोसा उनके साथ में पकड़ा गया कोई आदमी पुलिस से इस बक्से का ज़िक्र कर दे‍‍।‍ मैं रिटायरमेंट के पास आया हुआ आदमी हूँ‍‍। मेरा इतना शानदार रिकॉर्ड है, शराब को मैं हाथ भी नहीं लगाता। कल से परेशान हूँ, हर यूनिफार्म वाला आदमी जो स्टेशन पर उतरता है मुझे शराबबंदी मुहिम का जाँच अधिकारी लगता है‍‍।‍ कल ASM पूछ रहा था की आपके कमरे ये बॉक्स कैसा है? रात भर नींद नहीं आयी‍‍।‍ बार-बार ऐसा लग रहा था की मेरे ऑफिस पर छापा पड़ने वाला है‍‍।‍ समाज में मेरी क्या इज्जत रह जाएगी‍‍।‍ आज सुबह जल्दी आया ये सोच कर की सारी बोतलें बाथरूम में खाली कर दूं , लेकिन शराब की तो गंध होती है जो सारे प्लेटफॉर्म पर फ़ैल जाएगी‍‍।‍ सोचा घर ले जाऊं, लेकिन इतना बड़ा बक्सा सब के सामने कैसे ले जाऊं। किसी पर विश्वास भी नहीं है‍‍।‍ तुम्हें बड़ा धीरज रख के ये बातें बताई है‍‍।‍ सच कहूँ तो इसलिए बताई कि कल मैं पकड़ा गया तो कम से काम तुम तो मेरे पक्ष में गवाही दोगे"‍‍।

मास्टर जी की बातें मैं सुनता ही रहा‍‍।‍ सभ्य समाज कितना दुर्बल होता है इसका मुझे पता चला‍‍।‍ ये बेचारे मास्टर जी ज़िन्दगी भर मेहनत और ईमानदारी से काम करके भी आज डरे हुए हैं‍‍। उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया लेकिन ज़िन्दगी भर कमाई गयी इज्ज़त ही उनकी कमजोरी बन गई है‍‍।

मैंने उन्हें धीरज देते हुए मुझे बक्सा दिखाने को कहा‍‍।‍ वे मुझे अपनी ऑफिस में लेकर गए‍‍।‍ बॉक्स बंद ही था‍‍।‍ मैंने उनके मेज से पेंसिल छीलने का चाकू उठाया और बक्सा खोलने लगा‍‍।‍ उन्होंने मुझे रोकने की कोशिश की लेकिन मैंने उनकी सुनी नहीं‍‍।‍ देखा तो १० बोतलें थी इम्पोर्टेड व्हिस्की की‍‍।

मैंने उन्हें कहा "अगर मैं इसी वक्त ये बॉक्स लेकर यहाँ से चला जाऊं तो?"

"क्या? तुम मेरा ये बोझ हल्का कर दोगे? मोहन मैं तुम्हें १०० रूपए दूंगा और तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगा"‍‍।‍ मास्टरजी के चेहरे का तनाव हर सेकंड से कम हो रहा था‍‍।

"साहब १०० रूपए की जरूरत नहीं आपके चेहरे पर मुस्कान फिर से आ गयी ये ही मेरे लिए काफी है‍‍।‍ भूल जाइये की ऐसा कोई बक्सा आपके ऑफिस में था या मैं उसे ले गया था"

ये कह कर मैं उनके ऑफिस से बॉक्स लेकर चलता बना‍‍।

२ बोतल दी पुलिस थाने में, और बची हुए ८ बेचकर ४००० रूपए कमाए‍‍।‍ शरीफ आदमी के पास खोने के लिए बहुत कुछ होता है, सबसे कीमती चीज़ होती है उनकी शराफत, उनकी समाज में इज्जत। हम भी शरीफ ही हैं लेकिन फिर भी हमें अपनी शराफत खोने की इतनी फिक्र नहीं होती‍‍।‍

दोनों ही कहानियों में अमानत को लेकर ही परेशानी थी लेकिन गरीब आदमी को अमानत खो जाने की चिंता थी और सभ्य आदमी को अमानत साथ रह जाने की‍‍।

और अब एक अंदर की बात‍‍।‍ आप लोग मुझे शायद बहुत ही सीधा सादा आदमी समझने लगे थे‍‍। ‍आमतौर कहानी जिसके दृष्टिकोण से सुनायी जाती है सुनने वाले उसमें अपने आप को देखते हैं और इसीलिए उसे अच्छा भोला, ईमानदार, सच्चाई की राह पर चलने वाला समझते हैं‍‍।‍ मैं बेईमान नहीं हूँ लेकिन इतना सीधा सादा भी नहीं‍‍।

इसीलिए कुमार जी की कहानी स्टेशन मास्टर को मैंने बदल के सुनायी थी। मैंने कुमार जी की मन जी दुविधा बताने वाले संवाद अपने मन से लगाए थे‍‍।‍ आखिर मैं इतने सीधे सादे मास्टरजी को ये कैसे बताता की उस रात डाकुओं को कुमार जी ने ही खबर दी थी की प्लेटफॉर्म पर एक आदमी है जिसके पास १०००० रूपए हैं और वह शौचालय में छुपा मिलेगा‍‍।