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बिरयानी

"मां आप बिरयानी कब बनाओगे"

हर रविवार की तरह इस रविवार को भी कुशल ने अपनी मां को वो ही सवाल पूछा।

"अभी रुको, शायद अगले रविवार को बनाएंगे"

उसे जवाब पता ही था।

उसे याद आया कुछ साल पहले तक जब उसने स्कूल जाना भी शुरू नहीं किया था, उसकी ज़िन्दगी में मजे ही मजे थे। हर रविवार को बिरयानी बनती थी। घर में मिठाईयां आती थी। पिताजी कभी कभी उसे खर्च करने के लिए रुपया दो रुपए भी दे देते थे मां बाप का अकेला लाडला लड़का जो था वो। फिर उसकी बहन आई और मां बाप का ध्यान उस पर से थोड़ा कम हो गया लेकिन फिर भी बिरयानी तो महीने में एक बार बन ही जाया करती थी।

फिर उसके २ छोटे भाई आए और तब से पता नहीं क्यों सारे मजे बंद हो गए। अब तो शायद साल भर से ज्यादा हो गया बिरयानी खाए हुए।

लेकिन अब वो बड़ा हो गया था, उसके काफी दोस्त हो गए थे, स्कूल भी उसे अच्छा लगने लगा था। स्कूल के शिक्षक भी उसे पसंद करते थे। पढ़ाई में अच्छा होने के साथ साथ वो खेल के मैदान में अपना कमाल दिखाता था। गांव की स्कूल की रखरखाव में भी वो बढ़ चढ़ के हिस्सा लेता था।

और आखिरकार उसका बिरयानी खाने का मौका भी बन आया, स्कूल की तरफ से दिन भर की सैर आयोजित हुई थी। पूरा दिन रविवार को स्कूल के दोस्तों के साथ खेलना कूदना और खाना। और खाना भी ऐसा वैसा नहीं बिरयानी वाला। कुशल की खुशी का ठिकाना ना रहा। घर जा कर मां और पिताजी को उसने सैर का कार्यक्रम बताया, और उन्होंने भी उसे अनुमति दे दी।

सैर के दिन सुबह सुबह सारे दोस्त और कुछ शिक्षक बस से सैर को निकल पड़े। बस में खाने के लिए केले और चना गुड लिया था। बस में गीत गाते और खाते हुए बस भूरागढ़ गांव के पास की एक पहाड़ी के पास रुकी।

सभी दोस्त बाहर उतरे और इधर उधर दौड़ने लगे। कुशल, उसके दोस्तों और शिक्षकों ने खाना बनाने के लिए लाया सामान बस से निकाला। फिर शिक्षकों ने छात्रों को तम्बू बांधना सिखाया। ३ तम्बू बांधे गए, एक खाना बनाने के लिए, एक शिक्षकों के लिए और एक छात्रों के लिए।

"जिन छात्रों को पहाड़ी चढ़ना है वो अभी जा सकता है लेकिन १ बजे के पहले वापस आना होगा तब तक खाना तैयार हो जाएगा। लेकिन 3 बड़े छात्रों को यहीं रुकना पड़ेगा, हमारी खाना बनाने में मदद करने के लिए" वर्मा सर ने घोषणा की।

कुशल, अशोक और रमेश खाना बनाने में मदद करने लिए रुक गए और बाकी सारे छात्र पहाड़ी की तरफ दौड़ पड़े।


कुछ शिक्षक रसोइयों को मदद करने गए, कुछ खाने की पंक्तिया बैठाने के लिए साफ सफाई की व्यवस्था करने लगे। कुछ शिक्षक पास के गांव से सामान खरीदने के लिए निकले। कुशल और रमेश भी ख़रीददारी में मदद करने के लिए शिक्षकों के साथ गांव की ओर निकल पड़े। गांव थोड़ा दूर होने के कारण उन्हें सरकारी बस लेनी पड़ी। आधे घंटे में सर, रमेश और कुशल गांव के बाज़ार पहुंच चुके थे।

सर ने रमेश और कुशल को पैसे दिए और आलू प्याज खरीदने को कहा और खुद दूसरी खरीदारी करने चले गए। १५ मिनट के बाद चौक पर मिलना तय हुआ था।

कुशल और रमेश एक बड़े थैले में आलू और प्याज लेकर पहुंचे तो वहां सर खड़े थे और उनके साथ में बकरे का छोटा मेमना भी था। सर ने रबड़ी का ऑर्डर दिया था और उसको बनाने में अभी एक घंटा और लगने वाला था।

"तुम में से कोई एक लड़का ये मेमना लेकर कैंप की जगह जा सकता है क्या"? सर ने पूछा।

रमेश और कुशल ने एक दूसरे की तरफ देखा।

"अरे डरो मत मेमना है कोई शेर नहीं को तुम्हे खा जाएगा, मै यहां बस में बिठा देता हूं, भूरागढ़ पर उतरना और मेमना वहां से कैंप तक ले के जाना बस"

कुशल तैयार हो गया।

सर उसे लेकर बस स्टॉप तक गए, बस तो खड़ी थी लेकिन उसमे जगह नहीं थी। ड्राइवर ने पूछा "छत पर बैठ सकते हो?"

कुशल को तो बड़े समय से बस की छत पर बैठने की इच्छा थी। वो तैयार हो गया। सर और रमेश ने मिल कर बकरा भी उसके पास बस की छत पर बिठा दिया।

बस चल पड़ी, आधे एक घंटे का ही सफर था।

कुशल बस की छत पर बैठा और बकरा उसके पास बैठ गया. कुछ देर बाद एक ओर से तेज़ धूप आने लगे, मेमने और कुशल दोनों को तकलीफ होने लगी, मेमना चुप चाप खिसकते खिसकते कुशल की छाँव में लेट गया. ये देख कर कुशल को बड़ा अच्छा लगा. उसकी जेब में सुबह बस में दिए गए कुछ चने थे उसने चने खाना शुरू किया और कुछ चने मेमने के सामने रखे तो मेमने ने उन्हें तुरंत खा लिया। कुशल ने उसे और चने दिए अब वो मेमना उसका दोस्त सा बन गया था. बस इधर उधर मुड़ती और मेमना उसके साथ कुशल की छाँव ढूंढ कर वहां सो जाता. कुशल को ये समझा की ये मेमना उसे अपना रक्षक अपना साथी समझ रहा है. उसे मेमना अच्छा लगने लगा था. कुशल सोचने लगा-


“पर मास्टरजी ने यहाँ मेमना क्यों खरीदा? पता नहीं शायद कहीं लावारिस पड़ा मिल गया होगा. या फिर सबसे अच्छे बच्चे को ये मेमना उपहार देने वाले हो. अगर किसी ने नहीं लिया तो मै ही शाम को घर जाते वक्त ये मेमना अपने साथ ले जाऊंगा”

मेमना कुशल के हाथ पर चाट कर अपना स्नेह प्रकट करने लगा कुशल ने भी उसे दिल से लगा कर अपना प्रेम प्रकट किया.


कुछ देर में कैंप की जगह आ गई, बस से उतर कर कुशल दौड़ते हुए टेंट के पास पहुंचा और जैसा मास्टरजी ने कहा था वहां मेमने को बाँध दिया। और फिर वो पहाड़ी की तरफ दौड़ पड़ा उसे १ बजे तक पहाड़ी चढ़ कर खाना खाने के पहले वापस जो आना था. कुशल जल्दी जल्दी लम्बे कदम डालते हुए पहाड़ी की चोटी तक पहुँचा, वहां उसके साथ पहले से खेल रहे थे. वहां एक मंदिर था, पानी का कुंड था, कईं छोटे बड़े पेड़ थे. सभी दोस्त अलग पेड़ो पर चढ़ कर अलग अलग आवाजे निकलने लगे. अलग अलग पक्षियों को देख कर उनकी आवाजे निकल कर उन्हें डराने लगे. कुछ लड़को ने पत्थर भी मारे।


धीरे धीरे सूरज सर के ठीक ऊपर आ गया था. ज़ोरों की प्यास भी लगी थी. लड़को ने कुंड का पानी पिया और फिर नीचे की और चल निकले। नीचे आते आते सभी लोग थक चुके थे और ज़ोरों की भूक भी लगी थी. नीचे आये तो देखा की टाट पट्टियां बिछी हैं और थालियां लगाई जा रही है. कुशल तो इस बिरयानी वाले खाने का कब से इंतज़ार कर रहा था. वो सीधे एक खाली जगह देखकर थाली के सामने बैठ गया.


बड़े छात्र थालियों में खाना परोस रहे थे. शाकाहारियों के लिए पुलाव था और मांसाहारियों के लिए बिरयानी।


“पुलाव वाले दाहिनी और बैठेंगे और बिरयानी वाले बायीं और” मास्टरजी ने कहा.


कुशल गलती से दायी और बैठ गया था इसलिए उठा लेकिन बायीं ओर की कोई भी जगह खाली नहीं थी. थालियों में बिरयानी देखकर उसके मुँह में पानी आ रहा था लेकिन शायद उसे अभी और रुकना पड़ेगा। तभी एक छात्र जो गलती से बायीं ओर बैठा था उठ कर दायीं और जाने लगा ये देख कर कुशल दौड़ा और बिरयानी की भरी थाली के सामने बैठ गया.


“कुशल तुम बड़े हो न, तुम बाद की पंगत में बैठना, अभी छोटे बच्चों को बैठने दो” एक मास्टर जी ने कहा.


“नहीं मास्टरजी प्लीज, मैं पहली पंगत में बैठ जाता हूँ फिर बाद में मै सबको परोसने में मदद करूँगा।”


“हाँ हाँ इसने गांव में जाकर सामान लाने में भी तो हमारी मदद की थी बैठ जाने दो इसे अभी” सुबह उसके साथ गए मास्टर जी ने स्वीकृति दे दी.


तभी कुशल को कुछ याद आया

“अरे मेरा नया दोस्त, वो मेमना, मेरी छाँव में बैठ कर जो यहाँ तक आया, मेरे साथ चने खाये, उसे शाम को घर भी तो ले जाना है. और हाँ उसने खाना खाया या नहीं ?”


“मास्टरजी मै अभी हाथ धो कर आया” कहकर कुशल टेंट के पास दौड़ पड़ा जहाँ उसने वो मेमना बाँधा था. लेकिन मेमना तो वहां नहीं था. उसने चारो तरफ ढूंढा लेकिन उसे वो मेमना नज़र नहीं आया. पंगत का खाना शुरू हो चूका था, लोग बिरयानी का मज़ा ले रहे थे.


कुशल सभी दूर ढूंढ कर वापस पंगत के पास आया और मास्टरजी से पुछा

“मास्टर जी वो सुबह हम जो मेमना लाये थे वो कहाँ है? उसे भी तो खाना देना है”


“अरे वो मेमना तो यहीं है सबकी थाली में, अरे बिरयानी तो उसी मेमने की बनाई है” मास्टर जी ने हंस कर कहा.


कुशल की आँखों के सामने अँधेरा आ गया. क्या उसे मासूम मेमने को काटकर ये बिरयानी बनाई जाती है. वो खरगोश जैसी आँखों वाला, निष्पाप जीव, मुझे अपना रक्षक समझ कर मेरी छाँव में लेटा था. मेरे साथ चने खाने वाला मेरा दोस्त, क्या उसी को काट कर ये बिरयानी बनी है”


“क्या हुआ कुशल, बैठो तुम्हारी बिरयानी ठंडी हो रही है” मास्टरजी ने कहा.


“नहीं मास्टरजी आप किसी छोटे बच्चे को बैठा दीजिये मैं परोसने का काम करूँगा”....

उस दिन कुशल बिना कुछ खाये ही घर लौटा और माँ को रो रो कर कहने लगा “माँ आज से इस घर में बिरयानी कभी मत बनाना”


अगर शहर के बूचड़खाने की दीवारें शीशे की हो तो उस शहर के कितने लोग मांसाहारी होंगे? हर ह्रदय में प्रेम और दया बसती है. प्राणियों को भी जीवन का अधिकार है.