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चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी


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हिंदी के प्रमुख रचनाकार पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म 7 जुलाई, 1883 को पुरानी बस्ती जयपुर में हुआ था

गुलेरी जी अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। आप संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिंदी, बांग्ला, अँग्रेजी, लैटिन और फ्रैंच आदि भाषाओं पर एकाधिकार रखते थे गुलेरी जी जब केवल दस वर्ष के थे तो एक बार आपने संस्कृत में भाषण देकर भारत धर्म महामंडल के विद्वानों को आश्चर्य चकित कर दिया था

आपने सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की बी.. की परीक्षा में भी सर्वप्रथम रहे

आपकी रुचि विज्ञान में थी, प्राचीन इतिहास और पुरातत्व आपका प्रिय विषय था

1904 से 1922 तक आपने अनेक महत्वपूर्ण संस्थानों में प्राध्यापक के पद पर कार्य किया

विधाएँ रू कहानी, निबंध, व्यंग्य, कविता, आलोचना, संस्मरण

प्रमुख कृतियाँ रू गुलेरी रचनावली (दो खंडों में)

संपादन रू समालोचक, नागरी प्रचारिणी पत्रिका (संपादक मंडल के सदस्य)

साहित्यिक विशेषताएँ — (पाठ के संदर्भ में विस्तार अपेक्षित है)

समाज का यथार्थ चित्रण

वर्जनात्मक, चित्रात्मक, विवरणात्मक शैलियों का प्रयोग

आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग, सजीव दृश्य चित्रण शैली।

निधनरू 12 सितंबर 1922 को बनारस में गुलेरी जी का निधन हो गया।

उसने कहा था (कथाकहानी)

(एक)

बडेबडे शहरों के इक्केगाड़ी वालों की जवान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़ बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकटसम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपनेही को सताया हुआ बताते हैं, और संसारभर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हरएक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, बचो खालसाजी। हटो भाईजी। ठहरना भाई जी। आने दो लाला जी। हटो बाछा।कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पडे़। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहींय पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बारबार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैंहट जा जीणे जोगिएय हट जा करमा वालिएय हट जा पुतां प्यारिएय बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दूकान पर मिले।

उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बडि़यां। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेरभर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता था।

तेरे घर कहाँ है?

मगरे मेंय और तेरे?

माँझे मेंय यहाँ कहाँ रहती है?

अतरसिंह की बैठक मेंय वे मेरे मामा होते हैं।

मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ , उनका घर गुरूबाजार में हैं।

इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथसाथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई?

इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत्कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।

दूसरेतीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीनाभर यही हाल रहा। दोतीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी कुडमाई हो गई? और उत्तर में वही धत्श् मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूध्द बोली, हाँ, हो गई।

कब?

कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।

लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिनभर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

(दो)

रामराम, यह भी कोई लड़ाई है। दिनरात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाडा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहींघंटेदोघंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौसौ गज धरती उछल पड़ती है।

इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।

लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेटभर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग मेंमखमल कासा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हो।

चार दिन तक पलक नहीं झपपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर लौटँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़ेसंगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीसतीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया थाचार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो...

नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों? सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कराकर कहालड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बडे अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?

सूबेदारजी, सच है, लहनसिंह बोलापर करें क्या? हड्डियों में तो जाड्डा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी जाए।

उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोलामैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण! इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहाअपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाबभर में नहीं मिलेगा।

हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।

लाडी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फरंगी मेम...

चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।

देशदेश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।

अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?

अच्छा है।

जैसे मैं जानता ही होऊँ! रातभर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम मंदे पड़ जाना। जाडा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।

मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहाक्या मरनेमारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?

दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,

कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िएय

कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए

(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।

कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,

हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।

कौन जानता था कि दाढ़ियां वाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!

(तीन)

रात हो गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।

क्यों बोधा भाई क्या है?

पानी पिला दो।

लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा —— कहो कैसे हो? पानी पी कर बोधा बोलाकँपनी छुट रही है। रोमरोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।

अच्छा मेरी जरसी पहन लो !

और तुम?

मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना रहा है।

ना मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए...

हाँ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुनबुनकर भेज रही हैं मेमें गुरू उनका भला करें। यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।

सच कहते हो?

और नहीं झूठ? यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहनकर पहरे पर खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा भर थी।

आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आईसूबेदार हजारासिंह।

कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर !— कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।

देखो इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचेनीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीनचार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं जब तक दूसरा हुक्म मिले डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।

जो हुक्म।

चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना चाहता था। समझाबुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहालो तुम भी पियो।

आँख मारतेमारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोलालाओ साहब।हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से गए?

शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया हैं! लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।

क्यों साहब हमलोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?

लड़ाई खत्म होने पर। क्यों क्या यह देश पसंद नहीं?

नहीं साहब शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे!

हाँहाँ, वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था!

बेशक पाजी कहीं का!

सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर गया था ? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगायेंगे।

हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।

ऐसे बड़ेबड़े सींग! दोदो फुट के तो होंगे?

हाँ लहनासिंह दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?

पीता हूँ। साहब दियासलाई ले आता हूँ। कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।

अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।

कौन? वजीरसिंह?

हां क्यों लहना? क्या कयामत गई? जरा तो आँख लगने दी होती?

(चार)

होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।

क्या?

लपटन साहब या तो मारे गये है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।

तो अब!

अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखतेदेखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर गए होंगे।

सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक खड़के। देर मत करो।

हुकुम तो यह है कि यहीं——

ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम —— जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।

पर यहाँ तो सिर्फ तुम आठ हो।

आठ नहीं दस लाख। एकएक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।

लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगहजगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बांध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने ही वाला था कि बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब आँख मीन गौट् कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीनचार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।

साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोलायों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिन डेमश्के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।

लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबों में डाले।

लहनासिंह कहता गयाचालाक तो बड़े हो पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाकबाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो...

साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपालक्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आये।

बोधा चिल्लायाक्या है?

लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था मार दिया और औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तकतक कर मार रहा थावह खड़ा था और और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे।

अचानक आवाज आई वाह गुरूजी का खालसा, वाह गुरूजी की फतह!! और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।

एक किलकारी औरअकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरूजी दी फतह! वाह गुरूजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरूख!!! और लड़ाई खत्म हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर हुई कि लहना को दूसरा घावभारी घाव लगा है।

लड़ाई के समय चाँद निकल आया था ऐसा चाँद जिसके प्रकाश से संस्कृतकवियों का दिया हुआ क्षयीनाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट् की भाषा में दन्तवीणोपदेशाचार्य कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मनमन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ादौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरतबुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू होता तो आज सब मारे जाते।

इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दरअन्दर पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होतेहोते वहाँ पहुँच जाएंगे इसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहातुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में चले जाओ।

और तुम?

मेरे लिये वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ, वजीरासिंह मेरे पास है ही।

अच्छा, पर..

बोधा गाड़ी पर लेट गया, भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।

गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़तेचढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहातैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा, साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?

अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।

गाड़ी के जाते लहना लेट गया।वजीरा पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।

मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनायें एकएक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।

लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत्कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहाष् हाँ, कल हो गईदेखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू! सुनते ही लहनासिंह को दुरूख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?

वजीरासिंह पानी पिला दे।

पचीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही रहा। मालूम वह कभी मिली थी या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।

जब चलने लगे तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोलालहना सूबेदारनी तुमको जानती हैं बुलाती हैं। जा मिल आ। लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। आसीस सुनी। लहनासिंह चुप।

मुझे पहचाना?

नहीं।

तेरी कुड़माई हो गईधत्कल हो गईदेखते नहीं रेशमी बूटोंवाला सालूअमृतसर में..

भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।

वजीरा पानी पिलाउसने कहा था।

स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही हैमैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है लायलपुर में जमीन दी है आज नमकहलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पल्टन क्यों बना दी जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए पर एक भी नहीं जीया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे आप घोड़े की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।

रोतीरोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।

वजीरासिंह पानी पिला देउसने कहा था।

लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा फिर बोलाकौन ! कीरतसिंह?

वजीरा ने कुछ समझकर कहाहाँ।

भइया मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले। वजीरा ने वैसे ही किया।

हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचाभतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।

वजीरासिंह के आँसू टपटप टपक रहे थे।

कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ाफ्रान्स और बेलजियम — 68 वीं सूचीमैदान में घावों से मरानं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।

पाठशाला

एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुंह पीला था, आँखें सफेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतलता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने, मानने का शास्त्रार्थ कर गया और इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया।

यह पूछा गया कि तू क्या करेगा? बालक ने सिखासिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा। सभा वाह वाह करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था।

एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे, वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें, यह पढ़ाई का पुतला कौनसी पुस्तक माँगता है।

बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ कर नकली परदे के हट जाने से स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, लड्डू।

पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरी साँस घुट रही थी। अब मैंने सुख की साँस भरी। उन सब ने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था, पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की आलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं।

कछुआधरम

मनुस्मृति में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निंदा या असत्कथा हो रही हो वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या कहीं उठकर चला जाए। यह हिंदुओं के या हिंदुस्तानी सभ्यता के कछुआ धरम का आदर्श है। ध्यान रहे कि मनु महाराज ने सुनने जोग गुरु की कलंककथा के सुनने के पाप से बचने के दो ही उपाय बताए हैं। या तो कान ढककर बैठ जाओ या दुम दबाकर चल दो। तीसरा उपाय, जो और देशों के सौ में नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर पहले सूझेगा, वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर, या मुक्का तानकर सामने खड़े हो जाओ और निंदा करने वाले का जबड़ा तोड़ दो या मुँह पिचका दो कि फिर ऐसी हरकत करे। यह हमारी सभ्यता के भाव के विरुद्ध है। कछुआ ढाल में घुस जाता है, आगे बढ़कर मार नहीं सकता। अवघोष महाकवि ने बुद्ध के साथसाथ चले जाते हुए साधु पुरुषों को यह उपमा दी है

देशादनार्यैरभिभूयमानान्महर्षयो धर्ममिवापयान्तम्।

अनार्य लोग देश पर चढ़ाई कर रहे हैं। धर्म भागा जा रहा है। महर्षि भी उसके पीछेपीछे चले जा रहे हैं। यह कर लेंगे कि दक्षिण के अप्रकाश देश को कोई अत्रि या अगस्त्य यज्ञों और वेदों के योग्य बना लें... तब तक ही जब तक कि दूसरे कोई राक्षस या अनार्य उसे भी रहने के अयोग्य कर दें... पर यह नहीं कि डटकर सामने खड़े हो जावें और अनायोर्ं की बाढ़ को रोकें। पुराने से पुराने आयोर्ं की अपने भाई असुरों से अनबन हुई। असुर असुरिया में रहना चाहते थे, आर्य सप्तसिंधुओं को आर्यावर्त बनाना चाहते थे। आगे चल दिए। पीछे वे दबाते आए। विष्णु ने अग्रि और यजपात्र और अरणि रखने के लिए तीन गाड़ियाँ बनाईं, उसकी पत्नी ने उनके पहियों की चूल को घर से आंज दिया। ऊखल, मूसल और सोम कूटने के पत्थरों तक को साथ लिए हुए यह कारवाँ मूजवत्हिंदुकुश के एकमात्र दर्रे खैबर में होकर सिंधु की घाटी में उतरा। पीछे से वान, भ्राज, अंभारि, बंभारि, हस्त, सुहस्त, कृशन, शंड, मर्क मारते चले आते थे, वज्र की मार से पिछली गाड़ी भी आधी टूट गई, पर तीन लंबी डग भरने वाले विष्णु ने पीछे फिर नहीं देखा और जमकर मैदान लिया। पितृभूमि अपने भ्रातृव्यों के पास छोड़ आए और यहाँ भ्रातृव्यस्य वधाय, सजातानां मध्यमेष्ठ्याय देवताओं को आहुति देने लगे। चलो, जम गए। जहाँजहाँ रास्ते में टिके थे वहाँवहाँ यूप खड़े हो गए। यहाँ की सुजला सुफला शस्यश्यामला भूमि में ये बुलबुलें चहकने लगीं। पर ईरान के अंगूरों और गुलों का, यानी मूजवत्पहाड़ की सोमलता का, चसका पड़ा हुआ था। लेने जाते तो वे पुराने गंधर्व मारने दौड़ते। हाँ, उनमें से कोईकोई उस समय का चिलकौआ नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाते थे। उस समय का सिक्का गौएँ थीं। जैसे आजकल लखपति, करोड़पति कहलाते हैं वैसे तब शतगु, सहस्रगु कहलाते थे। ये दमड़ीमल के पोते करोड़ीचंद अपने नवग्वाः, दशग्वाः पितरों से शरमाते थे, आदर से उन्हें याद करते थे। आजकल के मेवा बेचने वाले पेशावरियों की तरह कोईकोई सरहदी यहाँ पर भी सोम बेचने चले आते थे। कोई आर्य सीमा प्रांत पर जाकर भी ले आया करते थे। मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी जैसी कि तरकारियों का भाव करने में कुंजड़िनों से हुआ करती है। ये कहते कि गौ कि एक कला में सोम बेच दो। वह कहता कि वाह! सोमराजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर ये गौ के गुण बखानते। जैसे बुड्ढे चौबेजी ने अपने कंधे पर चढ़ी बालवधू के लिए कहा था कि याही में बेटी और याही में बेटा, ऐसे ये भी कहते कि इस गौ से दूध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, यह होता है, वह होता है। पर काबुली काहे को मानता, उसके पास सोम की मानोपली थी और इन्हें बिना लिए सरता नहीं। अंत को गौ का एक पाद, अर्ध, होतेहोते दाम तै हो जाते। भूरी आँखों वाली एक बरस की बछिया में सोमराजा खरीद लिए जाते। गाड़ी में रखकर शान से लाए जाते। जैसे मुसलमानों के यहाँ सूद लेना तो हराम है, पर हिंदी साहूकारों को सूद देना हराम होने पर भी देना ही पड़ता है वैसे यह फतवा दिया गया कि पापो हि सोमविक्रयी पर सोम क्रय करनाउन्हीं गंधवोर्ं के हाथ गौ बेचकर सोम लेनापाप नहीं कहला सका। तो भी सोम मिलने में कठिनाई होने लगी। गंधवोर्ं ने दाम बढ़ा दिए या सफर दूर का हो गया, या रास्ते में डाके मारने वाले वाहीक बसे, कुछ कुछ हुआ। तब यह तो हो गया कि सोम के बदले में पूतिक लकड़ी का ही रस निचोड़ लिया जाए, पर यह किसी को सूझी कि सब प्रकार के जलवायु की इस उर्वरा भूमि में कहीं सोम की खेती कर ली जाय जिससे जितना चाहे उतना सोम घर बैठे मिले। उपमन्यु को उसकी माँ ने और अश्वत्थामा को उसके बाप ने जैसे जल में आटा घोलकर दूध कहकर पतिया लिया था, वैसे पूतिक की सीखों से देवता पतियाए जाने लगे।

अच्छा, अब उसी पंचनद में वाहीक आकर बसे। अश्वघोष की फड़कती उपमा के अनुसार धर्म भागा और दंडकमंडल लेकर ऋषि भी भागे। अब ब्रह्मवर्त, ब्रह्मर्षिदेश और आर्यावर्त की महिमा हो गई और वह पुराना देश तत्र दिवसं वसेत्! युगंधरे पयः पीत्वा कथं स्वगर्ं गमिष्याति!!!

बहुत वर्ष पीछे की बात है। समुद्र पार के देशों में और धर्म पक्के हो चले। वे लूटतेमारते तो सही, बेधर्म भी कर देते। बस, समुद्रयात्रा बंद! कहाँ तो राम के बनाए सेतु का दर्शन करके ब्रह्महत्या मिटती थी और कहाँ नाव में जाने वाले द्विज का प्रायश्चित कराकर भी संग्रह बंद। वही कछुआ धर्म! ढाल के अंदर बैठे रहो।

पुर्तगाली यहाँ व्यापार करने आए। अपना धर्म फैलाने की भी सूझी। विवृतजघनां को विहातुं समर्थः ? कुएँ पर सैकड़ों नरनारी पानी भर रहे और नहा रहे थे। एक पादरी ने कह दिया कि मैंने इसमें तुम्हारा अभक्ष्य डाल दिया है। फिर क्या था? कछुए को ढाल बल उलट दिया गया। अब वह चल नहीं सकता। किसी ने यह नहीं सोच कि अज्ञात पाप, पाप नहीं होता। किसी ने यह नहीं सोचा कि कुल्ले कर लें, घड़ें फोड़ दें या कै ही कर डालें। गाँव के गाँव ईसाई हो गए। और दूरदूर के गाँवों के कछुओं को यह खबर लगी तो बंबई जाने में भी प्रायश्वित कर दिया गया।

हिंदू से कह दीजिए कि विलायती खांड खाने में अधर्म है। उसमें अभक्ष्य चीजें पड़ती हैं। चाहे आप वस्तुगति से कहें, चाहे राजनैतिक चालबाजी से कहें, चाहे अपने देश की आर्थिक अवस्था सुधारने के लिए उसकी सहानुभूति उपजाने को कहें। उसका उत्तर यह नहीं होगा कि राजनैतिक दशा सुधरनी चाहिए। उसका उत्तर यह नहीं होगा कि गन्ने की खेती बढ़े। उसका केवल एक ही कछुआ उत्तर होगावह खांड खाना छोड़ देगा, बनीबनाई मिठाई गौओं को डाल देगा, या बोरियाँ गंगाजी में बहा देगा। कुछ दिन पीछे कहिए कि देसी खांड के बेचने वाले भी सफेद बूरा बनाने के लिए वही उपाय करते हैं। वह मैली खांड खाने लगेगा। कुछ दिन ठहरकर कहिए कि सस्ती जावा या मोरस की खांड मैली करके बिक रही है। वह गुड़ पर उतर आवेगा। फिर कहिए कि गुड़ के शीरे में भी सस्ती मोरिस की मैल का मेल है। वह गुड़ छोड़कर पितरों की तरह शहद (मधु) खाने लगेगा, या मीठा ही खाना छोड़ देगा। वह सिर निकालकर यह देखेगा कि सात सेर की खांड छोड़कर डेढ़ सेर की कब तक खाई जाएगी, यह सोचेगा कि बिना मीठे कब तक रहा जाएगा। यह नहीं देखेगा कि उसकी सी मति वाले शरबत पीने वालों की संख्या घटतीघटती दहाइयों और इकाइयों पर जा रही है, वह यह नहीं विचारेगा कि बन्नू से कलकत्ते तक डाकगाड़ी में यात्रा करने वाला जून के महीने में झुलसते हुए कंठ को बरफ से ठंडा बिना किए नहीं रह सकता। उसका कछुआपन कछुआभगवान की तरह पीठ पर मंदराचल की मथनी चलाकर समुद्र से नएनए रत्न निकालने के लिए नहीं है। उसका कछुआपन ढाल के भीतर और भी सिकुड़कर घुस जाने के लिए है।

किसी बात का टोटा होने पर उसे पूरा करने की इच्छा होती है, दुख होने पर उसे मिटाना चाहते हैं। यह स्वभाव है। अपनीअपनी समझ है। संसार में त्रिविध दुख दिखाई पड़ने लगे। उन्हें मिटाने के लिए उपाय भी किए जाने लगे। दृष्ट उपाय हुए। उनसे संतोष हुआ तो सुने सुनाए (आनुश्रविक) उपाय किए। उनसे भी मन भरा। सांख्यों ने काठ कड़ी गिनगिनकर उपाय निकाला, बुद्ध ने योग में पककर उपाय खोजा, किसी ने कहा कि बहस, बकझक, वाक्छल, बोली की चूक पकड़ने और कच्ची दलीलों की सीवन उधेड़ने में ही परम पुरुषार्थ है। यही शगल सही। किसी किसी तरह कोई कोई उपाय मिलता गया। कछुओं ने सोचा, चोर को क्या मारें, चोर की माँ को ही मारें। रहे बाँस बजे बाँसुरी। यह जीवन ही तो सारे दुखों की जड़ है। लगीं प्रार्थनाएँ होने

मा देहि राम! जननीजठरे निवासम्श् ज्ञात्वेत्थं पुनः स्पृशन्ति जननीगर्भेर्भकत्वं जनाः और यह उस देश में जहाँ कि सूर्य का उदय होना इतना मनोहर था कि ऋषियों का यह कहते तालू सूखता था कि सौ बरस इसे हम उगता देखें, सौ बरस सुनें, सौ बरस से भी अधिक। भला जिस देश में बरस में दो ही महीने घूमफिर सकते हों और समुद्र की मछलियाँ मारकर नमक लगाकर सुखाकर रखना पड़े कि दस महीने के शीत और अंधियारे में क्या खाएँगे, वहाँ जीवन में इतनी ग्लानि हो तो समझ में सकती है पर जहाँ राम के राज में अकृष्टपच्या पृथिवी पुटके पुटके मधु बिना खेती के फसलें पक जाएँ और पत्तेपत्ते में शहद मिले, वहाँ इतना वैराग्य क्यों?

हयग्रीव या हिरण्याक्ष दोनों में से किसी एक दैत्य से देव बहुत तंग थे। कवि कहता है

विनिर्गतं मानदमात्ममंदिराद्भवत्युपश्रुत्य यदृच्छयापि यम्।

ससंभ्रमेन्द्रद्रुतपातितार्गला निमीलिताक्षीवभियामरावती

महाशय यों ही मौज से घूमने निकले हैं। सुरपुर में अफवाह पहुँची। बस, इंद्र ने झटपट किवाड़ बंद कर दिए, आगल डाल दी। मानो अमरावती ने आँखें बंद कर लीं।

यह कछुआधरम का भाई शुतुर्मुर्गधरम है। कहते हैं कि शुतुर्मुर्ग का पीछा कीजिए तो वह बालू में सिर छिपा लेता है। समझता है कि मेरी आँखों से पीछा करने वाला नहीं दीखता तो उसे भी मैं नहीं दीखता। लंबाचौड़ा शरीर चाहे बाहर रहे, आँखें और सिर तो छिपा लिया। कछुए ने हाथपाँवसिर भीतर डाल लिया।

इस लड़ाई में कमसेकम पाँच लाख हिंदू आगेपीछे समुद्र पर जा आए हैं। पर आज कोई पढ़ने के लिए विलायत जाने लगे तो हनोज रोज अव्वल अस्त! अभी पहिला ही दिन है! सिर रेत में छिपा है!!

सोऽहम

करके हम भी बी० ए० पास

हैं अब जिलाधीश के दास

पाते हैं दो बार पचास

बढ़ने की रखते हैं आस ।१।

खुश हैं मेरे साहिब मुझ पर

मैं जाता हूँ नित उनके घर

मुफ्त कई सरकारी नौकर

रहते हैं अपने घर हाजिर ।२।

पढ़कर गोरों के अखबार

हुए हमारे अटल विचार,

अँग्रेजी मे इनका सार,

करते हैं हम सदा प्रचार ।३।

वतन हमारा है दोआब,

जिसका जग मे नहीं जवाब

बनते बनते जहां अजाब,

बन जाता है असल सवाब ।४।

ऐसा ठाठ अजूबा पाकर,

करें किसी का क्यों मन में डर

खाते पीते हैं हम जी भर,

बिछा हुआ रखते हैं बिस्तर ।५।

हमें जाति की जरा चाह,

नहीं देश की भी परवाह

हो जावे सब भले तबाह,

हम जावेंगे अपनी राह ।६।

सरस्वती १९०७ में प्रकाशित गुलेरी जी की रचना,

सुनीति

निज गौरव को जान आत्मआदर का करना

निजता की की पहिचान, आत्मसंयम पर चलना

ये ही तीनो उच्च शक्ति, वैभव दिलवाते,

जीवन किन्तु डाल शक्ति वैभव के खाते

( जाते ये सदा आप ही बिना बुलाए )

चतुराई की परख यहाँपरिणाम गिनकर,

जीवन को निरूशक चलाना सत्य धर्म पर,

जो जीवन का मन्त्र उसी हर निर्भय चलना,

उचित उचित है यही मान कर समुचित ही करना,

यो ही परमानंद भले लोगों ने पाए ।।

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

पाटलीपुत्र रू ३१ अक्तूबर, १८ १४,