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अज्ञेय

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अज्ञेय सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

अज्ञेय का जन्म 7 मार्च, 1911 को कसया में हुआ। बचपन 1911 से '15 तक लखनऊ में बिता। शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत—मौखिक परम्परा से हुआ 1915 से '19 तक श्रीनगर और जम्मू में। यहीं पर संस्कृत पंडित से रघुवंश रामायण, हितोपदेश, फारसी मौलवी से शेख सादी और अमेरिकी पादरी से अंग्रेजी की शिक्षा घर पर शुरू हुई। शास्त्री जी को स्कूल शिक्षा में विश्वास नहीं था। बचपन में व्याकरण के पण्डित से मेल नहीं हुआ। घर पर धार्मिक अनुष्ठान स्मार्त ढंग से होते थे। बड़ी बहन जो लगभग आठ की थीं, जितना अधिक स्नेह करती थीं। उतना ही दोनों बड़े भाई (ब्रह्मानन्द और जीवानन्द जो' 34 में दिवंगत हो गए) प्रतिस्पर्धा रखते थे। छोटे भाई वत्सराज के प्रति सच्चिदानन्द का स्नेह बचपन से ही था, 1919 में पिता के साथ नालन्दा आए, इसके बाद' 25 तक पिता के ही साथ रहे, पिता जी ने हिन्दी सिखाना शुरू किया। वे सहज और संस्कारी भाषा के पक्ष में थे। हिन्दुस्तानी के सख़्‌त खि़लाफ थे। नालन्दा से शास्त्री जी पटना आए और वहीं स्व— काशी प्रसाद जायसवाल और स्व. राखालदास वन्द्योपाध्याय से इस परिवार का सम्बन्ध हुआ, पटना में ही अंग्रेजी से विद्रोह का बीज सच्चिदानन्द के मन में अंकुरित हुआ।

शास्त्रीजी के पुराने मित्र रायबहादुर हीरालाल ही उनकी हिन्दी भाषा की लिखाई की जाँच करते। राखालदास के सम्पर्क में आने से बंग्ला की लिखाई की जाँच करते। राखालदास के संपर्क में आने से बंग्ला सीखी और इसी अवधि में इण्डियन प्रेस से छपी बाल रामायण बाल महाभारत, बालभोज इन्दिरा (बकिमचन्द्र) जैसी पुस्तकें पढ़ने को मिलीं और हरिनारायण आप्टे और राखालदास वन्द्योपाध्याय के ऐतिहासिक उपन्यास इसी अवधि में पढ़े गए। 1921—'25 तक ऊटकमंड में रहे यहां नीलिगिरि की श्यामल उपत्यका ने बहुत अधिक प्रभाव डाला। 1921 में उडिपी के मध्याचार्य के द्वारा इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। इसी मठ के पण्डित ने छः महीने तक संस्कृत और तमिल की शिक्षा दी। इस समय ‘भड़ोत' से ‘वात्स्यायन' में परिवर्तन भी हुआ, जो प्राचीनतम संस्कार के नये उत्साह से जीने का एक संकल्प था। पिता ने संकीर्ण प्रदेशिका से ऊपर उठकर गोत्रनाम का प्रचलन कराया। इसी समय पहली बार गीता पढ़ी।

पिताजी के आग्रह से अन्य धमोर्ं के ग्रन्थ भी पढ़े और घर पर ही पिताजी के पुस्तकालयों का सदुपयोग शुरू किया। वर्ड्‌सवर्थ, टेनिसन, लांगफेलो और व्हिटमैन की कविताएं इस अवधि में पढ़ीं। शेक्सियर, मारलो, वेब्स्टर के नाटक तथा लिटन, जार्ज एलियट, थैकरे, गोल्डस्मिथ, तोल्स्तोय, तुर्गनेव, गोगोल, विक्टर ह्यूगो तथा मेलविल के उपन्यास भी पढ़े गये। लयबद्ध भाषा के कारण टेनिसन का प्रभाव बड़ा गहरा पड़ा। टेनिसन के अनुकरण में, अंग्रेजी में ढेरों कविताएं भी लिखीं। उपन्यासकारों में ह्यूगो का प्रभाव, विशेषकर उनकी रचना टॉयलर अॉफ द सी का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। इसी अवधि में विश्वेश्वर नाथ रेऊ तथा गौरीचन्द हीराचन्द ओझा की हिन्दी में लिखी इतिहास की रचनाएं पढ़ने को मिलीं तथा मीरा, तुलसी के साहित्य का अध्ययन भी इन्होंने किया। साहित्यिक कृतित्व के नाम पर इस अवधि की देन है आनन्द बन्धु जो इस परिवार की निजी पत्रिका थी। इस पत्रिका के समीक्षक थे हीरालाल जी और डॉ.. मौदि्‌गल। इस अवधि में एक छोटा उपन्यास भी लिखा और इसी अवधि में जब मैट्रिक की तैयारी ये कर रहे थे, मां के साथ इन्होंने जलियावाला बाग—काण्ड की घटना के आसपास पंजाब की यात्रा की थी और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोह की भावना ने जन्म लिया था। इनके पिताजी स्वयं अंग्रेजी की अधीनता की चुभन कभी—कभी व्यक्त करते थे।

एक घटना भी ब्लैकस्टोन नामक अंग्रेजी अधिकारी के साथ घट चुकी थी। वह शास्त्रीजी और राखालदास के साथ यात्रा कर रहा था। डिब्बे में राखालदास की पत्नी भी थीं। वह स्नानकक्ष से अर्धनग्न डिब्बे के भीतर आया। शास्त्रीजी ने उस से पूछा, ‘‘क्या इस रूप में तुम किसी अंग्रेज महिला के सामने आ सकते थे ?' उत्तर में वह कुछ बोला नहीं, हंसता रहा। शास्त्रीजी ने उसे उठाकर डिब्बे से बाहर फेंक दिया। उसने आजीवन शत्रुता निभाई, यहां तक कि पिता द्वारा किए गए इस अपमान का बदला पुत्र से चुकाया, जब वे लाहौर किले में नजरबन्द हुए। दूसरी घटना ऊटी में स्वंय सच्चिदानन्द के साथ घटी थी, जब वे दो—तीन महीने अंग्रेजों के साथ स्कूल में पढ़ने गए। वहां अंग्रेज लड़कों की मरम्मत करके ही इन्हें स्कूल में कार्ड मिला, जिसे फेंक कर ये घर चले आए। 1925 में पंजाब से मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा दी और उसी वर्ष इण्टरमीडिएट साइंस पढ़ने मद्रास क्रिश्चियन कालेज में दाखिल हुए। यहाँ उन्होंने गणित, भौतिकशास्त्र और संस्कृत विषय लिए थे। यहां इनके अंग्रेजी प्रोफेसर हेण्डरसन ने (जिन्हें त्रिशंकु समर्पित की गई) साहित्य के अध्ययन की प्रेरणा दी।

ये स्वयं भारत के भक्त थे। इन्हीं के साथ टैगोर अध्ययन—मण्डल की स्थापना की और रस्किन के सौन्दर्यशास्त्र तथा आचरणशास्त्र का अध्ययन किया। कला—क्षेत्रों के बीच घूमते—घूमते स्थाप्तय और शिल्प दोनों का राग—बोध परिपक्व होता गया। दक्षिण के मन्दिर और नीलगिरि के दृश्य ने उनके व्यक्तित्व में प्रकृति—प्रेम और कलाप्रेम को निखार दिया। मद्रास में सामाजिक विषमता की चेतना जगने लगी थी और जाति के विरुद्ध विद्रोह मन में इसी अवधि में उमड़ना शुरू हुआ। शास्त्रीजी स्वयं जाति में विश्वास न कर के वर्ण में विश्वास करते थे और पुत्रों से आशा करते थे कि ब्राह्मणवर्ण का स्वभावकृत्याग, अभय और सत्यकृउन्हें कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

बचपन से किशोरावस्था तक की यह अवधि उलझन और आकुलता के बीच कठिन अध्यवसाय की अवधि है। एक ओर परिवार के और बाहर के अनेक प्रकार के प्रिय—अप्रिय प्रभावों ने उनके चित्त को उद्वेलित किया, तो दूसरी ओर पिता के कठिन अनुशासन ने परिश्रम में लगातार लगाए रख कर मन और शरीर को संयम में ढाला। बचपन में इन्हें ‘सच्चा' के नाम से पुकारा जाता था और जब—जब इनकी सच्चाई पर विश्वास नहीं किया गया, इन्होंने मौन विद्रोह किया। एक बार की घटना ऐसी है कि बड़े भाई और इनमें होड़ लगी कि चौदह रोटी कौन खा सकता है ? बड़े भाई ने कहा कि तुम खाओ तो तुम्हें मैं इनाम दूँगा। ये खाने बैठे, पिता जी को इसकी सूचना मिली, उन्होंने बड़े भाई को डांटा और इनसे कहा कि तुम न खाओ, उठ जा। ये चौदह के आस—पास तक पहुंच रहे थे, अपने मन से उठे नहीं, इसलिए उन्होंने भाई से इनाम मांगा। उन्होंने देने से इन्कार किया तो मौन विरोध में इन्होंने खाना ही कम कर दिया इस प्रकार का आत्मपीड़क क्रोध इनमें बहुत दिनों तक रहा है। और अब भी किसी न किसी रूप में कभी न कभी उभर आता है। इसी क्रोध में आकर इन्होंने अपनी आर्थिक बर्बादी भी कम नहीं की।

1927 में लाहौर फॉरमन कॉलेज में ये बी. एस—सी. में भर्ती हुए। इसी कालेज में नवजवान भारत—सभा के सम्पर्क में आए और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के प्रमुख सदस्य आजाद, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा से परिचय हुआ। इस कालेज में बी.एस—सी. तक तो ये सक्रिय रूप से कान्तिकारी आन्दोलन में प्रविष्ट नहीं हुए थे, यद्यपि 1929 में पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का जो अधिवेशन लाहौर में हुआ, उस में ये स्वयं सेवक अफसर के रूप में मौजूद थे। यहीं इन्हीं के स्वयं सेवक दल ने उन लोगों को जबरदस्ती स्वयंसेवक कैम्प में बन्द रखा था, जो गांधीजी के उस प्रस्ताव का अप्रिय रूप में विरोध करने वाले थे, जो उन्होंने इरविन को बधाई देने के लिए रखा था। इसी स्वयंसेवक शिविर में कदाचित पहली बार कांग्रेस के मंच से ‘इन्कलाब जिन्दाबाद' का नारा लगाया गया था।

1929 में बी.एस—सी. करके अंग्रेजी एम.ए. में दाखिल हुए। इसी साल से ये क्रान्तिकारी दल में भी प्रविष्ट हुए इनके साथ थे देवराज, कमलकृष्ण और वेदप्रकाश नन्दा। कालेज में जिन दो अध्यापकों ने सबसे अधिक इन्हें प्रभावित किया, वे थे, जे.एम. बनेड और डेनियल। जे.एम.बनेड ने तो इनके जेल जाने पर भी अपना स्नेह सम्बन्ध बनाए रखा। बनेड ने ही (यद्यपि वे भौतिकशास्त्र के अध्यापक थे) विभिन्न धमोर्ं के तुलनात्मक अध्ययन की प्रेरणा दी। प्रो. डेनियल ने इन्हें ब्राउनिंग की ओर उन्मुख किया। इनके क्रान्तिकारी जीवन की अवधि 1929 से आरम्भ होकर 1936 तक है। इस अवधि का अधिकांशतः इतिहास देश के इतिहास से सम्बद्ध है। उसमें कहने की इतनी बातें हैं कि यहां उन पर विस्तार से विचार करना अनावश्यक है। घटनाक्रम कुल यह है कि पहला क्रर्यक्रम इन का और इनके साथियों का भगतसिंह को छुड़ाने का हुआ। इस बीच में भगवती चरण वोहरा एक दुर्घटना में शहीद हुए और यह कार्यक्रम स्थगित हो गया।

दूसरा कार्यक्रम दिल्ली—हिमालयन—टॉयलेट्‌स फैक्ट्री के बहाने बम बनाने का कारखाना कायम करने का था। उस फैक्ट्री में अज्ञेय वैज्ञानिक के रूप में सलाहकार थे। तीसरा कार्यक्रम अमृतसर में पिस्तौल की मरम्मत और कारतूस भरने का कारखाना कायम करने का शुरू हुआ और यहीं देवराज और कमलकृष्ण के साथ 15 नवम्बर, 1930 को गिरफ्तार हुए। गिरफ्तारी के बाद एक महीने लाहौर किले में, फिर अमृतसर की हवालात में। यहीं से यातना शुरू हुई। आर्म्‌स ऐक्ट वाले मुकदमें में ये छूटे, पर दिल्ली में 1931 में नया मुकदमा शुरू किया गया। यह मुकदमा 1933 तक चलता रहा। दिल्ली जेल में ही काल—कोठरी में बन्द रहे और यहीं रह कर छायावाद से मनोविज्ञान, राजनीति अर्थशास्त्र और कानूनकृये सारे विषय पढ़े। यहीं रहकर चिन्ता, विपथगा की अनेक कहानियां और शेखर लिखाय पर यह पूरी अवधि कुल ले—देकर घोर आत्ममन्थन, शारीरिक यातना और स्वप्नभंग की पीड़ा की अवधि रही।

1934 की फरवरी में छूटे, फिर लाहौर में दूसरे कानून के अन्तर्गत नजरबन्द किये गये। यहीं रह कर कोठरी की बात और चिन्ता की रचना की और इसी अवधि में कहानियों का छपना शुरू हुआ। 1934 के मध्य में घर के अन्दर नजरबन्द हो गई और घर आने पर एक साथ छोटे भाई और माता की मृत्यु और पिता जी की नौकरी से निवृत्तिकृइन सभी घटनाओं ने रोते चित्त में नये उद्वेलन पैदा किए नजरबन्दी हटने तक ये डलहौजी़ और लाहौर रहे। सात साल के इस अर्से ने कई छाप छोड़ी हैं। रावी के पुल से छलांग मारने पर घुटने की टोपी उतरी और वह दर्द मौका पाते ही आज भी लौट आता है। क्रान्तिकारी जीवन के साथियों में जो लोग आदर्शच्युत हुए या जो टूटने लगे उनके कारण घोर आत्मपीड़न का भाव जाग गया और एकाकीपन का अभ्यास जो बढ़ा, वह अभी भी नहीं छूटा। अज्ञेय को अत्यधिक सामाजिकता इतनी असह्य है, इसका प्रमाण मैं स्वयं दे सकता हूं। कभी—कभी वे स्वागत—समारोहों के बाद लौटने पर ऐसा अनुभव करते हैं कि किसी यन्त्रणा से गुजर कर आए हैं। पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण छाप इस जीवन की उनकी राग अनुभूति को सघन बनाने में है। इस जीवन में प्रखर शक्ति और ताप जिस स्रोत से मिला था, उसके आकस्मिक निधन की चोट बड़ी गहरी पड़ी है।

यह वियोग उन्हीं के शब्दों में ‘स्थायी वियोग' है। उस ‘अत्यन्तगता' की स्मृति एक अमूल्य थाती है। इसी के सहारे हारिल का धर्म निभाना सबसे बड़ा पार्थिव धर्म उन्होंने जाना है। यह उन्होंने जाना और अपनी ‘मांग को स्वंय अपना खंडन' माना। ‘आहुति बनकर' ही उन्होंने प्रेम को ‘यज्ञ की ज्वाला' के रूप में देखा। ‘वंचनाओं के दुर्ग के रुद्ध सिंहद्वार खोल कर मुक्त आकाश' के लिए जो अदम्य आशा उनके चित्त में हमेशा भरती रहती है अपने को तटस्थ और एकाकी रख सकने का वह लम्बा अभ्यास। यह सही है कि शिल्प की दृष्टि से और भाषा की दृष्टि से इस अवधि की कविताओं पर छायावाद का गहरा प्रभाव है, पर साथ ही यह भी निर्विवाद है कि कथ्य छायावाद की भूमिका से बिलकुल अलग है। उसका आधार अरूप प्रेम नहीं, न मिटने वाली प्यास नहीं, रहस्य—अन्वेषण नहीं, है ऊर्जस्वी और मांसल प्रेम, प्रत्यंचा तोड़ धनुष का सन्धान (शक्ति के परे आत्मोत्सर्ग) और एक दुर्निवार ऊर्ध्‌वग ज्वाल। इस दृष्टि से इस अवधि को भट्ठी में गलाई की अवधि कहा जा सकता है।

गदहपचीसी पार करके 1936 में जब जीविका के लिए कर्मक्षेत्र में उतरे तो पहले एक आश्रम खोलने की बात सोची। पर पिता की एक डांट ने इस भिखमंगी से इन्हें विरत कर दिया। फिर सैनिक के सम्पादन—मण्डल में आए और वहां साल—भर रहे। इसी समय मेरठ के किसान आन्दोलन में भी काम किया और इस अवधि में रामविलास शर्मा, प्रकाश चन्द्र गुप्त, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन से परिचय हुआ। राजनैतिक विचारों में भी उथल—पुथल शुरू हुई। गांधीजी के प्रति जहां श्रद्धा बिलकुल नहीं थी, वहां आदर—भाव जगा, पर कांग्रेस के मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित न होने के पक्ष में न होते हुए भी, और सुभाष चन्द्र बसु के साथ त्रिपुरी में न्याय नहीं हुआ यह मानते हुए भी, सुभाष बाबू के लिए श्रद्धा न कर सके। जवाहरलाल नेहरू के खतरनाक विचार और खतरनाक जीवन के नारे ने पहले बहुत प्रभावित किया था, बाद में उनकी बौद्धिक सच्चाई की ही छाप मन में अधिक गहरी पड़ी।

1937 के अन्त में बनारसीदास चतुर्वेदी के आग्रह से विशाल भारत में गये। लगभग डेढ़ वर्ष कलकत्ता रहे। यहां सुधीन्द्र दत्त, बुद्धदेव बसु, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बलराज साहनी और पुलिन सेन परिचय की परिधि में आए। कलकत्ता के महानगर का पहला अनुभव बहुत तीखा रहा। इसके विमानवीकृत पहलू ने इनके संवेदनशील चित्त को बहुत व्यथित किया। विशाल भारत को व्यक्तिगत कारणों से इन्होंने छोड़ा और 1939 में पिताजी के पास बड़ौदा गये। पिताजी ने विदेश जाकर अध्ययन पूरा करने के लिए कहा। इतने में ही महायुद्ध छिड़ गया और दिल्ली आल इण्डिया रेडियो में नौकरी करने चले आये। इसी अन्तराल में हिन्दी साहित्य के अनेकानेक आयामों और चक्रों से तो परिचित हुए ही, पत्रकारिता के आदर्श और व्यवहार के वैषम्य का भी साक्षात्‌ अनुभव प्राप्त किया। इन आकाशवृत्तियों के लाभ मुख्यतः दो हुए। एक तो हिन्दी की साहित्यिक परिधि के भीतर पैठ और दूसरा—अपना जीवन—पथ निर्माण करने का एक विश्वास। यह विश्वास कुछ आवश्यकता से अधिक ही हुआ और इसी के कारण 1940 में एक बहुत बड़ी गलती सिविल मैरेज करके इन्होंने की। यह शादी बहुत बड़ी चुभन बनी। इस चुभन के कारण, कुछ अपने फासिस्ट—विरोधी विश्वास के उफान में इन्होंने 1942 के आन्दोलन को उपयोगी न समझा और उसी साल दिल्ली में अखिल भारतीय फासिस्ट—विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन के बाद में प्रगतिशील लेखक संघ का एक अलग गुट बन गया।

पर उससे इनका सम्बन्ध नहीं था। शाहिद और ये एक साथ थे और कृश्नचन्दर, रामविलास और शिवदानसिंह दूसरी ओर। दोनों विचारधाराओं के लोग अलग—अलग उद्देश्यों से फासिस्ट—विरोधी युद्ध में शरीक हो रहे थे। युद्ध को गलत मानते हुए सुरक्षात्मक युद्ध की अनिवार्यता ये मानते थे। इसीलिए अपने विश्वास को मात्र प्रमाणित करने के लिए युद्ध में 1943 में सम्मिलित हुए। युद्ध के पहले इनका समय अपनी पूर्वपत्नी से अलग मेरठ और दिल्ली में अधिक बीता था। युद्ध में जिस यूनिट में ये सम्मिलित हुए, उसका कार्य प्रतिरोध अभियान (रेजिस्टेंस मूवमेंट) की तैयारी करना था।

साँप!

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया।

एक बात पूछूँ— (उत्तर दोगे?)

तब कैसे सीखा डँसना—

विष कहाँ पाया?

जो पुल बनाएँगें

जो पुल बनाएँगें

वे अनिवार्यतरू

पीछे रह जाएँगे

सेनाएँ हो जाएगी पार

मारे जाएँगे रावण

जयी होंगें राम ,

जो निर्माता रहे

इतिहास में

बंदर कहलाएँगे

मेजर चौधरी की वापसी

किसी की टाँग टूट जाती है, तो साधारणतया उसे बधाई का पात्र नहीं माना जाता। लेकिन मेजर चौधरी जब छह सप्ताह अस्पताल में काटकर बैसाखियों के सहारे लडखड़ाते हुए बाहर निकले, तो बाहर निकलकर उन्होंने मिजाजपुर्सी के लिए आए अफसरों को बताया कि उनकी चार सप्ताह की श्वारलीवश् के साथ उन्हें छह सप्ताह की श्कम्पैशनेट लीवश् भी मिली है, और उसके बाद ही शायद कुछ और छुट्टी के अनंतर उन्हें सैनिक नौकरी से छुटकारा मिल जाएगा, तब सुननेवालों के मन में अवश्य ही ईर्ष्या की लहर दौड़ गई थी क्योंकि मोकोक्चङ्‌ यों सब—डिवीजन का केन्द्र क्यों न हो, वैसे वह नगा पार्वत्य जंगलों का ही एक हिस्सा था, और जोंक, दलदल, मच्छर, चूती छतें, कीचड़ फर्श, पीने को उबाला जाने पर भी गँदला पानी और खाने को पानी में भिगोकर ताजा किये गए सूखे आलू—प्याज— ये सब चीजें ऐसी नहीं हैं कि दूसरों के सुख—दुरूख के प्रति सहज औदार्य की भावना को जागृत करें!

मैं स्वयं मोकोक्चङ्‌ में नहीं, वहाँ से तीस मील नीचे मरियानी में रहता था, जोकि रेल की पक्की सड़क द्वारा सेवित छावनी थी। मोकोक्चङ्‌ अपनी सामग्री और उपकरणों के लिए मरियानी पर निर्भर था इसलिए मैं जब—तब एक दिन के लिए मोकोक्चङ्‌ जाकर वहाँ की अवस्था देख आया करता था। नाकाचारी चार—आली 2 से आगे रास्ता बहुत ही खराब है और गाड़ी कीच—काँदों में फँस—फँस जाती है, किन्तु उस प्रदेश की आवनगा जाति के हँसमुख चेहरों और साहाय्य—तत्पर व्यवहार के कारण वह जोखिम बुरी नहीं लगती।

मुझे तो मरियानी लौटना था ही, मेजर चौधरी भी मेरे साथ ही चले—मरियानी से रेल—द्वारा वह गौहाटी होते हुए कलकत्ते जाएँगे और वहाँ से अपने घर पश्चिम को...

स्टेशन—वैगन चलाते—चलाते मैंने पूछा, श्श्मेजर साहब, घर लौटते हुए कैसा लगता है?श्श् और फिर इस डर से कि कहीं मेरा प्रश्न उन्हें कष्ट ही न दे, श्श्आपके एक्सिडेंट से अवश्य ही इस प्रत्यागमन पर एक छाया पड़ गई है, पर फिर भी घर तो घर है...श्श्

अस्पताल के छह हफ्ते मनुष्य के मन में गहरा परिवर्तन कर देते हैं, यह अचानक तब जाना जब मेजर चौधरी ने कुछ सोचते—से उत्तर दिया, श्श्हाँ, घर तो घर ही है। पर जो एक बार घर से जाता है, वह लौटकर भी घर लौटता ही है, इसका क्या ठिकाना?श्श्

मैंने तीखी दृष्टि से उनकी ओर देखा। कौन—सा गोपन दुरूख उन्हें खा रहा है— श्घरश् की स्मृति को लेकर कौन—सा वेदना का ठूँठ इनकी विचारधारा में अवरोध पैदा कर रहा है? पर मैंने कुछ कहा नहीं, प्रतीक्षा में रहा कि कुछ और कहेंगे। देर तक मौन रहा, गाड़ी नाकाचारी की लीक में उचकती—धचकती चलती रही।

थोड़ी देर बाद मेजर चौधरी फिर धीरे—धीरे कहने लगे, श्ष्देखो, प्रधान, फौज में जो भरती होते हैं, न जाने क्या—क्या सोचकर, किस—किस आशा से। कोई—कोई अभागा आशा से नहीं निराशा से भी भरती होता है, और लौटने की कल्पना नहीं करता। लेकिन जो लौटने की बात सोचते हैं— और प्रायरू सभी सोचते हैं— वे मेरी तरह लौटने की बात नहीं सोचते...ष्

उनका स्वर मुझे चुभ गया। मैंने सांत्वना के स्वर में कहा, श्श्नहीं मेजर चौधरी, इतने हतधैर्य आपको नहीं...ष्

ष्मुझे कह लेने दो, प्रधान!श्श्

मैं रुक गया।

ष्मेरी जाँघ और कूल्हे में चोट लगी थी, अब मैं सेना के काम का न रहा पर आजीवन लँगड़ा रहकर भी वैसे चलने—फिरने लगूँगा, यह तुमने अस्पताल में सुना है। सिविल जीवन में कई पेशे हैं जो मैं कर सकता हूँ। इसलिए घबराने की कोई बात नहीं। ठीक है न? पर..श्श् मेजर चौधरी फिर रुक गए और मैंने लक्ष्य किया कि आगे की बात कहने में उन्हें कष्ट हो रहा है, श्श्पर चोटें ऐसी भी होती हैं—जिनका इलाज—नहीं होता...श्श्

मैं चुपचाप सुनता रहा।

ष्भरती होने से साल—भर पहले मेरी शादी हुई थी। तीन साल हो गए। हम लोग साथ लगभग नहीं रहे—वैसी सुविधाएँ नहीं हुईं। हमारी कोई संतान नहीं है।ष्

फिर मौन। क्या मेरी ओर से कुछ अपेक्षित है? किन्तु किसी आंतरिक व्यथा की बात अगर वह कहना चाहते हैं, तो मौन ही सहायक हो सकता है, वही प्रोत्साहन है।

ष्सोचता हूँ, दाम्पत्य—जीवन में शुरू में—इतनी—कोमलता न बरती होती! कहते हैं कि स्त्री—पुरुष में पहले सख्य आना चाहिए—मानसिक अनुकूलता...श्ष्

मैंने कनखियों ने उनकी तरफ देखा। सीधे देखने से स्वीकारी अन्तरात्मा की खुलती सीढ़ी खट्‌ से बन्द हो जाया करती है। उन्हें कहने दूँ।

पर उन्होंने जो कहा उसके लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं था और अगर उनके कहने के ढंग में ही इतनी गहरी वेदना न होती तो जो शब्द कहे गए थे उनसे पूरा व्यंजनार्थ भी मैं न पा सकता...

ष्हमारी कोई संतान नहीं है। और जब—जिससे आगे कुछ नहीं है वह सख्य भी कैसे हो सकता है? उसे—एक संतान का ही सहारा होता है... कुछ नहीं! प्रधान, यह श्कम्पैशनेट लीवश् अच्छा मजाक है—कम्पैशन भगवान को छोडकर और कौन दे सकता है और मृत्यु के अलावा होता कहाँ है? अब इति से आरम्भ है! घर!श्श् कुछ रुककर, श्श्वापसी! घर!श्श्

मैं सन्न रह गया! कुछ बोल न सका। थोड़ी देर बाद चौंककर देखा कि गाड़ी की चाल अपने—आप बहुत धीमी हो गई है, इतनी कि तीसरे गीयर पर वह झटके दे रही है। मैंने कुछ सँभलकर गीयर बदला, और फिर गाड़ी तेज करके एकाग्र होकर चलाने लगा—नहीं, एकाग्र होकर नहीं, एकाग्र दीखता हुआ।

तब मेजर चौधरी एक बार अपना सिर झटके से हिलाकर मानो उस विचार—शृंखला को तोड़ते हुए सीधे होकर बैठ गए। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, श्श्क्षमा करना, प्रधान, मैं शायद अनकहनी कह गया। तुम्हारे प्रश्नों के लिए तैयार नहीं था...श्श्

मैंने रुकते—रुकते कहा, श्श्मेजर, मेरे पास शब्द नहीं हैं कि कुछ कहूं...श्श्

ष्कहोगे क्या, प्रधान? कुछ बातें शब्द से परे होती हैं— शायद कल्पना से भी परे होती हैं। क्या मैं भी जानता हूँ कि— कि घर लौटकर मैं क्या अनुभव करुंगा? छोड़ो इसे। तुम्हें याद है, पिछले साल मैं कुछ महीने मिलिटरी पुलिस में चला गया था?श्श् मैंने जाना कि मेजर विषय बदलना चाह रहे हैं। पूरी दिलचस्पी के साथ बोला, श्श्हाँ—हाँ। वह अनुभव भी अजीब रहा होगा।श्श्

ष्हाँ। तभी की एक बात अचानक याद आई है। मैं शिलङ्‌ में प्रोवोस्ट मार्शल (सैनिक पुलिस का उच्चाधिकारी प्रोवोस्ट मार्शल कहलाता है।) के दफ्तर में था। तब — वें डिवीजन की कुछ गोरी पलटनें वहाँ विश्राम और नए सामान के लिए बर्मा से लौटकर आई थीं।ष्

ष्हाँ, मुझे याद है। उन लोगों ने कुछ उपद्रव भी वहाँ खड़ा किया था।ष्

ष्काफी! एक रात मैं जीप लिये गश्त पर जा रहा था। हैपी वैली की छावनी से जो सडक शिलङ्‌ बस्ती को आती है वह बड़ी टेढ़ी—मेढ़ी और उतार—चढ़ाव की है और चीड़ के झुरमुटों से छायी हुई, यह तो तुम जानते हो। मैं एक मोड़ से निकला ही था कि मुझे लगा, कुछ चीज रास्ते से उछलकर एक ओर को दुबक गई है। गीदड़—लोमड़ी उधर बहुत हैं, पर उनकी फलाँग ऐसी अनाड़ी नहीं होती, इसलिए मैं रुक गया। झुरमुटों के किनारे खोजते हुए मैंने देखाय एक गोरा फौजी छिपना चाह रहा है। छिपना चाहता है तो अवश्य अपराधी है, यह सोचकर मैंने उसे जरा धमकाया और नाम, नम्बर, पलटन आदि का पता लिख लिया। वह बिना पास के रात को बाहर तो था ही, पूछने पर उसने बताया कि वह एक मील और नीचे नाङि्‌मथ्—माई की बस्ती को जा रहा था। इससे आगे का प्रश्न मैंने नहीं पूछा, उन प्रश्नों का उत्तर जानते ही हो और पूछकर फिर कड़ा दंड देना पड़ता है जो कि अधिकारी नहीं चाहते—जब तक कि खुल्लम—खुल्ला कोई बड़ा स्कैंडल न हो।श्श्

ष्हूँ। मैंने तो सुना है कि यथासंभव अनदेखी की जाती है ऐसी बातों की। बल्कि कोई वेश्यालय में पकड़ा जाए और उसकी पेशी हो तो असली अपराध के लिए नहीं होती, वरदी ठीक न पहनने या अफसर की अवज्ञा या ऐसे ही किसी जुर्म के लिए होती है।ष्

ष्ठीक ही सुना है तुमने। असली अपराध के लिए ही हुआ करे तो अव्वल तो चालान इतने हों कि सेना बदनाम हो जाएय इससे इसका असर फौजियों पर भी तो उलटा पड़े— उनका दिमाग हर वक्त उधर ही जाया करे। खैर उस दिन तो मैंने उसे डाँट—डपटकर छोड़ दिया। पर दो दिन बाद फिर एक अजीब परिस्थिति में उसका सामना हुआ।ष्

ष्वह कैसे?ष्

ष्उस दिन मैं अधिक देर करके जा रहा था। आधी रात होगी, गश्त पर जाते हुए उसी जगह के आसपास मैंने एक चीख सुनी। गाड़ी रोककर मैंने बत्ती बुझा दी और टार्च लेकर एक पुलिया की ओर गया जिधर से आवाज आई थी। मेरा अनुमान ठीक ही थाय पुलिया के नीचे एक पहाड़ी औरत गुस्से से भरी खड़ी थी, और कुछ दूर पर एक अस्त—व्यस्त गोरा फौजी, जिसकी टोपी और पेटी जमीन पर पड़ी थी और बुश्शर्ट हाथ में। मैंने नीचे उतरकर डाँटकर पूछा, श्यह क्या है?श् पर तभी मैंने उस फौजी की आँखों में देखकर पहचाना कि एक तो वह परसोंवाला व्यक्ति है, दूसरे वह काफी नशे में है। मैंने और भी कड़े स्वर में पूछा, श्तुम्हें शरम नहीं आती? क्या कर रहे थे तुमश्?श्श्

वह बोला, श्श्यह मेरी है?श्श्

मैंने कहा, श्श्बको मत!श्श् और उस औरत से कहा कि वह चली जाए। पर वह ठिठकी रही। मैंने उससे पूछा, श्श्जाती क्यों नहीं?श्श् तब वह कुछ सहमी—सी बोली, श्श्मेरे रुपये ले दो।श्श्

ष्काफी बेशर्म रही होगी वह भी!श्ष्

ष्हाँ मामला अजीब ही था। दोनों को डाँटने पर दोनों ने जो टूटे—फूटे वाक्य कहे उससे यह समझ में आया कि दो—तीन घंटे पहले वह गोरा एक बार उस औरत के पास हो गया था और फिर आगे गाँव की तरफ चला गया था। लौटकर फिर उसे वह रास्ते में मिली तो गोरे ने उसे पकड़ लिया था। झगड़ा इसी बात का था कि गोरे का कहना था, वह रात के पैसे दे चुका है, और औरत का दावा था कि पिछला हिसाब चुकता था, और अब फौजी उसका देनदार है। मैंने उसे धमकाकर चलता किया। पहले तो वह गालियाँ देने लगी पर जब उसने देखा कि गोरा भी गिरफ्तार हो गया है तो बड़बड़ाती चली गई।ष्

ष्फिर गोरे का क्या हुआ? उसे तो कड़ी सजा मिलनी चाहिए थी?श्ष्

मेजर चौधरी थोड़ी देर तक चुप रहे। फिर बोले, श्श्नहीं प्रधान, उसे सजा नहीं मिली। मालूम नहीं वह मेरी भूल थी या नहीं, पर जीप में ले आने के घंटा भर बाद मैंने उसे छोड़ दिया।ष्

मैंने अचानक कहा, श्श्वाह, क्यों?श्श् फिर यह सोचकर कि यह प्रश्न कुछ अशिष्ट—सा हो गया है, मैंने फिर कहा, श्श्कुछ विशेष कारण रहा होगा...श्श्

ष्कारण? हाँ, कारण... था शायद। यह तो इस पर है कि कारण कहते किसे हैं। मैंने जैसे छोड़ा वह बताता हूँ।ष्

मैं प्रतीक्षा करता रहा। मेजर कहने लगे, श्श्उसे मैं जीप में ले आया। थोड़ी देर टॉर्च का प्रकाश उसके चेहरे पर डालकर घुमाता रहा कि वह और जरा सहम जाए। तब मैंने कड़ककर पूछा, ष्तुम्हें शरम नहीं आई अपनी फौज का और ब्रिटेन का नाम कलंकित करते? अभी परसों मैंने तुम्हें पकड़ा था और माफ कर दिया था।ष् मेरे स्वर का उसके नशे पर कुछ असर हुआ। जरा सँभलकर बोला, श्श्सर, मैं कुछ बुरा नहीं करना चाहता था।ष् मैंने फिर डाँटा, श्ष्सडक पर एक औरत को पकड़ते हो और कहते हो कि बुरा करना नहीं चाहते थे?श् वह बगलें झाँकने लगा, पर फिर भी सफाई देता हुआ—सा बोला, श्श्सर, वह अच्छी औरत नहीं है। वह रुपया लेती है—मैं तीन दिन से रोज उसके पास आता हूँ।ष् मैंने सोचा, बेहयाई इतनी हो तो कोई क्या करे! पर इस टामी जन्तु में जन्तु का—सा सीधापन भी है जो ऐसी बात कर रहा है। मैंने कहा, ष्और तुम तो अपने को बड़ा अच्छा आदमी समझते होगे न, एकदम स्वर्ग से झरा हुआ फरिश्ता?श्ष् वह वैसे ही बोला, श्श्नहीं सर, लेकिन—लेकिन...श्श्

ष्मैंने कहा, श्श्लेकिन क्या? तुमने अपनी पलटन का और अपना मुँह काला किया है, और कुछ नहीं।श्श् तभी मुझे उस औरत की बात याद आई कि वह कुछ घंटे पहले उसके पास हो गया था, और मेरा गुस्सा फिर भडक उठा। मैंने उससे कहा, श्श्थोड़ी देर पहले तुम एक बार बचकर चले भी गए थे, उससे तुम्हें सन्तोष नहीं हुआ? आगे गाँव में कहाँ गए थे? एक बार काफी नहीं था!श्श्

अब तक वह कुछ और सँभल गया था। बोला, ष्सर, गलती मैंने की है। लेकिन—लेकिन मैं अपने साथियों से बराबर होना चाहता हूँ।ष्

मैंने चौंककर कहा, श्श्क्या मतलब?श्श्

वह बोला, श्श्हमारा डिवीजन छह हफ्ते हुए यहाँ आ गया था, आप जानते हैं। डेढ़ साल से हम लोग फ्रंट पर थे जहाँ औरत का नाम नहीं, खाली मच्छर और कीचड़ और पेचिश होती है। वहाँ से मेरी पलटन छह हफ्ते पहले लौटी थी, पर मैं एक ब्रेकडाउन टुकड़ी के साथ पीछे रह गया था।ष्

ष्तो फिर?श्श् मैंने पूछा।

बोला, श्श्डिवीजन में मेरी पलटन सबसे पहली यहाँ आई थी, बाकी पलटनें पीछे आईं। छह हफ्ते से वे लोग यहाँ हैं, और मैं कुल परसों आया हूँ और दस दिन में हम लोग वापस चले जाएँगे।ष्

मैंने डाँटा, श्श्तुम्हारा मतलब क्या है?श्श् उसने फिर धीरे—धीरे जैसे मुझे समझाते हुए कहा, श्श्सारे शिलङ्‌ के गाँवों की, नेटिव बस्तियों की छाँट उन्होंने की है। मैं केवल परसों आया हूँ, किसी से पीछे मैं नहीं रहना चाहता।ष्

मेजर चौधरी चुप हो गए। मैं भी कुछ देर चुप रहा। फिर मैंने कहा, श्श्क्या दलील है! ऐसा विकृत तर्क वह कैसे कर सका—नशे का ही असर रहा होगा। फिर आपने क्या किया?श्श्

ष्मैं मानता हूँ कि तर्क विकृत है। पर इसे पेश कर सकने में मनुष्य से नीचे के निरे मानव—जन्तु का साहस है, बल्कि साहस भी नहीं, निरी जन्तु—बुद्धि हैं, और इसलिए उस पर विचार भी उसी तल पर होना चाहिए ऐसा मुझे लगा। समझ लो जन्तु ने जन्तु को माफ कर दिया। बल्कि यह कहना चाहिए कि जन्तु ने जन्तु को अपराधी ही नहीं पाया।ष् कुछ रुककर वह कहते गए, श्श्यह भी मुझे लगा कि व्यक्ति में ऐसी भावना पैदा करनेवाली सामूहिक मनरूस्थिति ही हो सकती है, और यदि ऐसा है तो समूह को ही उत्तरदायी मानना चाहिए।श्श्

स्टेशन—वैगन हचकोले खाता हुआ बढ़ता रहा। मैं कुछ बोला नहीं। मेजर चौधरी ने कहा, श्श्तुमने कुछ कहा नहीं। शायद तुम समझते हो कि मैंने भूल की, इसीलिए चुप हो। पर वैसा कह भी दो तो मैं बुरा न मानूँ— मेरा बिलकुल दावा नहीं है कि मैंने ठीक किया।ष्

मैंने कहा, श्श्नहीं, इतना आसान तो नहीं है कुछ कह देना।ष् और चुप लगा गया। अपने अनुभव की भी जो एक घटना मुझे याद आई, उसे मैं मन—ही—मन दोहराता रहा। फिर मैंने कहा, श्श्एक ऐसी ही घटना मुझे भी याद आती है—श्श्

श्ष्क्या?श्श्

ष्उसमें ऐसा तीखापन तो नहीं है, पर जन्तु—तर्क की बात वहाँ भी लागू होती। एक दिन जोरहाट में क्लब में एक भारतीय नृत्य—मंडली आई थी—हम लोग सब देखने गए थे। उस मंडली को और आगे लीडो रोड की तरफ जाना था, इसलिए उसे एक ट्रक में बिठाकर मरियानी स्टेशन भेजने की व्यवस्था हुई। मुझे उस ट्रक को स्टेशन तक सुरिक्षत पहुँचा देने का काम सौंपा गया।ष्

ष्ट्रक में मंडली की छहों लड़कियाँ और साजिन्दे वगैरह बैठ गए, तो मैंने ड्राइवर को चलने को कहा। गाड़ी से उड़ी हुई धूल को बैठ जाने के लिए कुछ समय देकर मैं भी जीप में क्लब से बाहर निकला। कुछ दूर तो बजरी की सडक थी, उसके बाद जब पक्की तारकोल की सडक आई और धूल बन्द हो गई तो मैंने तेज बढकर ट्रक को पकड़ लेने की सोची। कुछ देर बार सामने ट्रक की पीठ दीखी, पर उसकी ओर देखते ही मैं चौंक गया।ष्

ष्क्यों, क्या बात हुई?श्श्

ष्मैंने देखा, ट्रक की छत तक बाँहें फैलाए और पीठ की तख़्‌ती के ऊपरी सिरे को दाँतों से पकड़े हुए एक आदमी लटक रहा था। तनिक और पास आकर देखा, एक बाबर्दी गोरा था। उसके पैर किसी चीज पर टिके नहीं थे, बूट यों ही झूल रहे थे। क्षण—भर तो मैं चकित सोचता ही रहा कि क्या दाँतों और नाखूनों की पकड़ इतनी मजबूत हो सकती है! फिर मैंने लपककर जीप उस ट्रक के बराबर करके ड्राइवर को रुक जाने को कहा।श्श्

ष्फिर?श्श्

ष्ट्रक रुका तो हमने उस आदमी को नीचे उतारा। उसके हाथों की पकड़ इतनी सख़्‌त थी कि हमने उसे उतार लिया तब भी उसकी उँगलियाँ सीधी नहीं हुईं—वे जकड़ी—जकड़ी ही ऐंठ गई थीं! और गोरा नीचे उतरते ही जमीन पर ही ढेर हो गया।श्श्

ष्जरूर पिये हुए होगा...श्श्

ष्हाँ—एकदम धुत्! आँखों की पुतलियाँ बिलकुल विस्फारित हो रही थीं, वह भौंचक्का—सा बैठा था। मैंने डपटकर उठाया तो लडखड़ाकर खड़ा हो गया। मैंने पूछा, श्श्तुम ट्रक के पीछे क्यों लटके हुए थे?श्श् तो बोला, श्श्सर, मैं लिफ्ट चाहता हूँ।ष् मैंने कहा, श्श्लिफ्ट का वह कोई ढंग है? चलो, मेरी जीप में चलो, मैं पहुँचा दूँगा। कहाँ जाना है तुम्हें?श्श् इसका उसने कोई उत्तर नहीं दिया। हम लोग जीप में घुसे, वह लडखड़ाता हुआ चढ़ा और पीछे सीटों के बीच में फर्श पर धप्‌ से बैठ गया।

ष्हम चल पड़े। हठात्‌ उसने पूछा, श्श्सर, आप स्कॉच हैं?श्श् मैंने लक्ष्य किया, नशे में वह यह नहीं पहचान सकता कि मैं भारतीय हूँ या अँग्रेज, पर इतना पहचानता है कि मैं अफसर हूँ और श्सरश् कहना चाहिए। फौजी ट्रेनिंग भी बड़ी चीज है जो नशे की तह को भी भेद जाती है! खैर! मैंने कहा, श्श्नहीं, मैं स्कॉच नहीं हूँ।ष्

ष्वह जैसे अपने से ही बोला, श्श्डैम फाइन ह्विस्की।ष् और जबान चटखारने लगा। मैं पहले तो समझा नहीं, फिर अनुमान किया कि स्कॉच शब्द से उसका मदसिक्त मन केवल ह्विस्की का ही सम्बोधन जोड़ सकता है... तब मैंने कहा, श्श्हाँ। लेकिन तुम जाओगे कहाँ?श्श्

बोला, श्श्मुझे यही कहीं उतार दीजिए—जहाँ कहीं कोई नेटिव गाँव पास हो।ष् मैंने डपटकर कहा, श्श्क्यों, क्या मंशा है तुम्हारी?श्श् तब उसका स्वर अचानक रहस्य—भरा हो आया, और वह बोला, श्श्सच बताऊँ सर, मुझे औरत चाहिए।ष् मैंने कहा, श्श्यहाँ कहाँ है औरत?श्श् तो वह बोला, श्श्सर, मैं ढूँढ़ लूँगा, आप कहीं गाँव—वाँव के पास उतार दीजिए।श्श्

ष्फिर तुमने क्या किया?श्श्

ष्मेरे जी में तो आया कि दो थप्पड़ लगाऊँ। पर सच कहूँ तो उसके श्मुझे औरत चाहिएश् के निर्व्‌याज कथन ने ही मुझे निरस्त्र कर दिया—मुझे भी लगा कि इस जन्तुत्व के स्तर पर मानव ताडनीय नहीं, दयनीय है। मैंने तीन—चार मील आगे सडक पर उसे उतार दिया— जहाँ आस—पास कहीं गाँव का नाम—निशान न हो और लौट जाना भी जरा मेहनत का काम हो। अब तक कई बार सोचता हूँ कि मैंने उचित किया कि नहीं—श्श्

ष्ठीक ही किया—और क्या कर सकते थे? दंड देना कोई इलाज न होता। मैं तो मानता हूँ कि जन्तु के साथ जन्तुतर्क ही मानवता है, क्योंकि वही करुणा हैय और न्याय, अनुशासन, ये सब अन्याय हैं जो उस जन्तुत्व को पाशविकता ही बना देंगे।श्श्

हम लोग फिर बहुत देर तक चुप रहे। नाकाचारी चार—आली पार करके हमने मरियानी की सडक पकड़ ली थीय कच्ची यह भी थी पर उतनी खराब नहीं, और हम पीछे धूल के बादल उड़ाते हुए जरा तेज चल रहे थे। अचानक मेजर चौधरी मानो स्वगत कहने लगे, श्श्और मैं मनुष्य हूँ। मैं नहीं सोच सकता कि श्यह मेरी हैश् या कि श्मुझे औरत चाहिए!श् मैं छुट्टी पर जा रहा हूँ — कम्पैशनेटर छुट्टी पर। कम्पैशन यानी रहम—मुझ पर रहम किया गया है, क्योंकि मैं उस गोरे की तरह हिर्स नहीं कर सकता कि मैं किसी के बराबर होना चाहता हूँ। नहीं, हिर्स तो कर सकता हूँ, पर मनुष्य हूँ और मैं वापस जा रहा हूँ घर। घर!श्श्

मैं चुपचाप आँखें सामने गड़ाये स्टेशन—वैगन चलाता रहा और मानता रहा कि मेजर का वह अजीब स्वर में उच्चारित शब्द श्घर!श् गाड़ी की घर्र—घर्र में लीन हो जाएय उसे सुनने, सुनकर स्वीकारने की बाध्यता न हो।

उन्होंने फिर कहा, श्श्एक बार मैं ट्रेन से आ रहा था तो उसी कम्पार्टमेंट में छुट्टी से लौटता हुए एक पंजाबी सूबेदार—मेजर अपने एक साथी को अपनी छुट्टी का अनुभव सुना रहा था। मैं ध्यान तो नहीं दे रहा था, पर अचानक एक बात मेरी चेतना पर अँक गई और उसकी स्मृति बनी रह गई। सूबेदार मेजर कह रहा था, श्छुट्टी मिलती नहीं थी, कुल दस दिन की मंजूर हुई तो घरवाली को तारीख़ें लिखीं, पर उसका तार आया कि छुट्टी और पन्द्रह दिन बाद लेना। मुझे पहले तो सदमा पहुँचा पर उसने चिट्ठी में लिखा था कि दस दिन की छुट्टी में तीन तो आने—जाने के, बाकी छह दिन में से मैं नहीं चाहती कि तीन यों ही जाया हो जाएँ।श् और इस पर उसके साथी ने दबी ईर्ष्या के साथ कहा था, श्श्तकदीरवाले हो भाई...श्श्

मैंने कहा, श्श्युद्ध में इन्सान का गुण—दोष सब चरम रूप लेकर प्रकट होता है। मुश्किल यही है कि गुण प्रकट होते हैं तो मृत्यु के मुख में ले जाते हैं, दोष सुरक्षित लौटा लाते हैं। युद्ध के खिलाफ यह कदम बड़ी दलील नहीं है—प्रत्येक युद्ध के बाद इनसान चारित्रिक दृष्टि से और गरीब होकर लौटता है।श्श्

ष्यद्यपि कहते हैं कि तीखा अनुभव चरित्र को पुष्ट करता है।श्श्

ष्हाँ, लेकिन जो पुष्ट होते हैं वे लौटते कहाँ हैं?श्श् कहते—कहते मैंने जीभ काट ली, पर बात मुँह से निकल गई थी।

मेजर चौधरी की पलकें एक बार सकुचाकर फैल गयीं, जैसे नश्तर के नीचे कोई अंग होने पर। उन्होंने सम्भलकर बैठते हुए कहा, श्श्थैंक यू, कैप्टन प्रधान! हम लोग मरियानी के पास आ गए—मुझे स्टेशन उतारते जाना, तुम्हारे डिपो जाकर क्या करुंगा?श्श्

तिराहे से गाड़ी मैंने स्टेशन की ओर मोड़ दी।

— अज्ञेय

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