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पराभव - भाग 12

पराभव

मधुदीप

भाग - बारह

श्रद्धा बाबू घर में पहुँचा तो वहाँ एक कोहराम-सा मचा हुआ था | बर्तनों के इधर-उधर फेंके जाने, माँ के चिल्लाने और मनोरमा के सिसकने का मिश्रित स्वर सुनाई पड़ रहा था | वह स्वयं में ही बहुत अधिक दुखी था और घर लौटने पर इस क्लेश ने उसे बिलकुल ही खिन्न कर दिया | उसका दिल चाह रहा था कि वह इस समय घर न जाकर वापस कहीं लौट जाए मगर फिर भी वह शिथिल कदमों से चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट गया |

श्रद्धा बाबू की मानसिक शान्ति समाप्त हो चुकी थी | उसे लगा कि उसके जीवन का एक भाग बिना खुले ही समाप्त हो गया है | बेचैनी में वह चारपाई पर पड़ा करवट बदल रहा था | माँ या पत्नी दोनों में से किसी को भी उसके आने की खबर न थी | सन्ध्या के उपरान्त रात्रि के प्रथम पहर का अन्धकार फैल रहा था मगर श्रद्धा बाबू को बिजली जलाने की इच्छा भी न थी | उसका ध्यान तो चीखती-चिल्लाती माँ की आवाज और मनोरमा की सिसकियों पर लगा था |

"कलमुँही तेरा सत्यानाश हो! तूने हमारे वंश की बेल को बढ़ने से रोक लिया | न जाने किस घड़ी मेरे भाग्य फूटे थे जो मैंने इस रिश्ते की हाँ कर दी | तेरे बाप नपूते को भी हमारे ही घर में आग लगानी थी |" माँ की तेज आवाज श्रद्धा बाबू के कानों में पड़ रही थी |

"माँजी, उनको क्यों दोष देती हो | इसमें उनका तो कोई दोष नहीं है |" सिसकती आवाज में डरते-डरते मनोरमा कह रही थी |

"हाँ...हाँ तू तो अपने बाप का ही पक्ष लेगी | मैं भी कहूँगी कि उसने ही मेरे घर में आग लगाई है...देखती हूँ मुझे कौन रोकता है | खुद तो वह अपने गाँव चला गया, इस बाँझ को हमारे गले मढ़ गया |" माँ की आवाज और भी अधिक तेज हो गई थी |

मनोरमा कुछ न कह सकी | उसकी आँख से बहे दो आँसू राख में गिरकर सूख गए और उसके अभ्यस्त हाथ यूँ ही बर्तन माँजते रहे |

"कान खोलकर सुन ले, आज से तू मेरी बहू नहीं है | मैं एक बाँझ को अपनी बहू बनाकर अपने वंश की बेल को समाप्त नहीं कर सकती | मेरा एक ही तो बेटा है...में उसकी दूसरी शादी कर दूँगी |"

सुनकर मनोरमा सन्न रह गई | दुख और अपमान के कारण काँपते हाथों से सारे बर्तन जमीन पर गिर गए | बर्तनों के गिरकर टूटने से एक जोरदार धमाका हुआ |

मनोरमा वहा खड़ी तेज हवा में सूखे पत्ते की तरह काँपकर रह गई | अपने आँसुओं को रोकती वह तेजी से अपने कमरे की ओर चल दी |

भागकर भी बच नहीं पाई मनोरमा | बर्तन टूटने की आवाज सास ने अनसुनी नहीं रह गई थी | चूल्हे से जलती लकड़ी निकालकर वह भी उसके पीछे-पीछे भागी |

"चल कलमुँही जाती कहाँ है | मैं आज तुझे जिन्दा जलाकर छोड़ूँगी | सारे बर्तन तोड़ दिए...ये क्या तेरे बाप ने खरीद कर भिजवाए थे |"

श्रद्धा बाबू अब तक सब कुछ सहन कर रहा था मगर अब कुछ और सहन कर पाना उसके लिए सम्भव न रहा | वह आज तक माँ के सामने नहीं बोला था मगर आज वह स्वयं पर संयम न रख सका |

पलंग से उठकर उसने भागकर आती मनोरमा को अपनी बाँहों में ले लिया और माँ को जलती लकड़ी लिए खड़ा देखकर जोर से चीख उठ, "माँ...|"

एकाएक बेटे को सामने खड़ा देखकर माँ चौंक गई थी | उसने जलती हुई लकड़ी को एक ओर फेंक दिया |

"देख श्रद्धा, आज तेरी बहू ने घर के सारे बर्तन तोड़ दिए हैं | कल यह सारे घर में आग लगा देगी | मैं इसे फूटी आँख नहीं सुहाती | किसी दिन यह मुझे भी जान से मार डालेगी | इससे तो अच्छा है कि तू मुझे काशी भेज दे | इस घर में अब हम दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं | या तो मैं इस घर मैं रहूँगी या फिर यह रहेगी |" जोर-जोर से रोते हुए अपनी छाती पीटकर माँ कह रही थी |

"क्यों नहीं माँ...इस घर में अब तुम दोनों में से सिर्फ एक ही रहोगी | लो उठाओ लकड़ी और जला दो इसे |" कहते हुए उसने मनोरमा को माँ के सामने कर दिया |

मनोरमा दोनों के बिच मौन खड़ी काँप रही थी |

"मैं क्यों पाप करूँ | इसकी करनी का फल भगवान इसे देगा |"

"नहीं, मारो...आजे इसे मारो, कल मेरा दूसरा ब्याह करना | फिर उसके भी बच्चे नहीं होंगे तो उसे मारना...उसके बाद फिर मेरा ब्याह करना |" श्रद्धा बाबू उत्तेजनावश कहे जा रहा तह |

"श्रद्धा...|" माँ चीख उठी |

"हाँ माँ...तेरा बेटा ही सन्तान पैदा करने के लायक नहीं है | इसमें इस बेचारी का क्या दोष है | एक जीवन के लिए तुम इस निर्दोष के जीवन को मिटा देना चाहती हो, क्या यही न्याय है |" श्रद्धा बाबू क्रोध से उस रहस्य को कह गया, जिसे आज तक मनोरमा ने माँ से छिपा रखा था |

"बेशर्म, औरत के गुलाम! बहू के लिए माँ के सामने बोलता है | डूबकर मर जा चुल्लू भर पानी में | हे भगवान, क्या जमाना आ गया है |" कहते हुए माँ वहाँ से निकल गई | उसे श्रद्धा बाबू की कही बात पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ था | उसने तो यही समझा था कि बहू का पक्ष लेकर ही उसने सब कुछ कहा है |

माँ के बाहर जाते ही मनोरमा अपने पति से आकर चिपट गई | आँसुओं पर से बाँध हट गया था | वह पति की बाँहों में फूट-फूटकर रो रही थी | प्यार का आलम्बन पाकर हिचकियों का वेग बढ़ता ही जा रहा था | श्रद्धा बाबू जितने ही प्यार से उसे पुचकार रहा था, उसकी आँखों से उतनी ही तेजी से आँसू बहते जा रहे थे |

"इस सब के लिए मैं दोषी हूँ मनोरमा और मेरे अपराध की सजा तुम भुगत रही हो |"

"ऐसा न कहो स्वामी |" हिचकियों के मध्य मनोरमा ने कहा |

"तुम माँ को सब कुछ बता क्यों नहीं देतीं कि उसका बेटा ही अपूर्ण है |"

"नहीं...कोई पत्नी ऐसा नहीं कर सकती |" मनोरमा ने कहा तो श्रद्धा बाबू ने उसे अपनी बाँहों का सहारा देकर चारपाई पर बिठा दिया |

"डाक्टर ने क्या कहा है?" कुछ देर पश्चात् मनोरमा ने पूछा |

"कुछ नहीं हो सकता मनोरमा! डॉक्टर की पूरी कोशिश और इलाज के बाद भी मेरे वीर्य में कोई शुक्राणु नहीं पैदा हुआ | शायद हमारी किस्मत में ही सन्तान का सुख नहीं है |" कहते हुए श्रद्धा बाबू को अपार पीड़ा हुई तो भी किसी तरह वह कह ही गया |

"नहीं...नहीं...ऐसा नहीं हो सकता | तुम किसी और डॉक्टर से बात करो |" कहते हुए मनोरमा पुनः पति के ह्रदय से लगकर फूट पड़ी |

"सब्र करो मनोरमा | सब कुछ भाग्य से मिलता है | प्रभु की इच्छा के समक्ष हम कुछ नहीं कर सकते |" कुछ देर यूँ ही पत्नी को अपने ह्रदय से लगाए वह उसे सहलाता रहा | उसे भी इस सबसे अपार पीड़ा हो रही थी मगर वह पत्नी की पीठ पर हौले-हौले हाथ फिराकर उसे सान्तवना देते हुए स्वयं पर जबरन नियन्त्रण किए हुए था |

कितना ही समय इसी तरह बीत गया | माँ शायद घर से बाहर चली गई थी | मनोरमा धीरे-धीरे अपनी सुबकियों पर नियन्त्रण पाने की कोशिश कर रही थी |

"मैं तुम्हारे लिए खाना लेकर आती हूँ |" कुछ देर पश्चात् पति से अलग होते हुए मनोरमा न कहा |

"तुमने कब से खाना नहीं खाया?" हाथ पकड़कर उसे रोकते हुए श्रद्धा बाबू ने पूछा |

"मेरी चिन्ता आप न करो |" मनोरमा कहकर चलने लगी |

"तुम्हें मेरी सौगन्ध है मनोरमा, सब-सच बताओ तुमने कब से खाना नहीं खाया?"

"अपनी सौगन्ध न दिया करो स्वामी, फिर मुझसे झूठ नहीं बोला जाता |"

"सच-सच बता दो मनोरमा |"

"जब आप गए थे तब से...|" मुसकराकर मनोरमा ने कहा तो श्रद्धा बाबू आश्चर्य से उसके मुँह की तरफ देखता रह गया | वह विश्वास नहीं कर पा रहा था कि मनोरमा ने सच कहा है या झूठ | दो दिन पश्चात् वह घर लौटा था, इसका अर्थ था कि दो दिन से मनोरमा ने कुछ नहीं खाया था | उसका मन अपनी पत्नी की इस श्रद्धा से खुश भी हुआ और रो भी पड़ा | उसकी पत्नी कितनी महान् है | वह सोच उठा | उसका कोई दोष न होते हुए भी उसने कभी माँ के अत्याचारों के सामने मुँह नहीं खोला | कोई और स्त्री होती तो शायद पति को सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ जानकर उससे घृणा करने लग जाती मगर यह आज भी उससे प्यार नहीं बल्कि उसकी पूजा करती है | उसका मन अपनी पत्नी के प्रति कृतज्ञता से भर आया |

"अपना भी खाना ले आओ, आज दोनों साथ खाएँगे |" श्रद्धा बाबू सिर्फ इतना ही कह सका |

पति के प्यार ने मनोरमा के रिसते घावों पर जैसे मरहम का फोया रख दिया था | वह एक पल को अपना सारा दुख भूलकर खाना लाने के लिए चल दी |

खाने में दोनों ही रूचि नहीं थी तो भी दोनों खा रहे थे, सिर्फ एक-दुसरे का पेट भरने के लिए | दोनों में से कोई भी यह नहीं चाहता था कि उसके कारण दूसरा भूखा रहे |

खाना खाकर श्रद्धा बाबू बिस्तर पर लेट गया और मनोरमा जूठे बर्तन उठाकर उन्हें साफ करने के लिए चल दी | माँजी बाहर से आ गई थीं | आँगन में दोनों की आँखें मिलीं मगर दोनों ही आँखें बचाकर एक-दुसरे से कतरा गईं | माँजी अपने कमरे की तरफ बढ़ गईं और मनोरमा बर्तन साफ करना लगी |

रात्रि को दोनों पति-पत्नी एक ही बिस्तर पर लेते हुए भी अलग-अलग विचारों में खोए हुए थे |

‘हमारे जीवन में एक बच्चा कैसे आए?’ श्रद्धा बाबू के मस्तिष्क में यही एक गुत्थी उलझी हुई थी जिसे वह पिछली काफी देर से सुलझाने का प्रयास कर रहा था |

‘बिना एक बच्चे की तो उनका जीवन ही अधुरा है |’ वह सोचे जा रहा था-‘उसके कारण मनोरमा को भी समाज में अपमानित होना पड़ता है | उसकी पत्नी कितनी महान् है जो आज भी उसे पहले की तरह चाहती है प्यार करती है मगर वह उसे कुछ भी तो नहीं दे सकता | माँ बनना हर स्त्री का सपना होता है और उसकी अपनी कमी के कारण उसकी पत्नी का सपना कभी भी पूरा नहीं हो सकेगा | उसका क्या दोष है जो वह इस सजा को भुगत रही है | सब कुछ सहन करते हुए वह उससे कितना ऊँचा उठ गई है | वह कैसे उसकी समानता कर सकता है |’ श्रद्धा बाबू स्वयं को पत्नी की तुलना में बहुत ही छोटा महसूस कर रहा था | यदि उसकी पत्नी उसकी कमजोरी जानकर उससे लड़ाई-झगड़ा करती तो शायद उसे इतना दुख न होता मगर उसके मौन त्याग ने तो उसे बहुत ही अधिक प्रताड़ित कर दिया था |

कोई भी पुरुष अपनी पत्नी के समक्ष हीन बनकर चैन से जिन्दगी व्यतीत नहीं कर सकता | यही स्थिति श्रद्धा बाबू की भी थी | वह स्वयं को पत्नी के सामने हीन महसूस कर रहा था | उसकी कमजोरी उसकी पराजय थी, जिसे वह स्वीकार नहीं कर पा रहा था |

‘हमें एक बच्चा प्राप्त करना ही होगा |’ श्रद्धा बाबू दृढ़ता से सोच उठा |

‘मगर कैसे?’ आसानी से इसका उत्तर न मिल सका |

सामने दीवार पर स्वामी दयानन्द का चित्र लगा था | उसकी ओर देखते हुए श्रद्धा बाबू मन-ही-मन पुकार उठ-‘कोई उपाय बताओ भगवन्! मैं अन्धकार में भटक गया हूँ | ’

सामने ही अलमारी के ऊपर स्वामी दयानन्द द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ रखी थी | श्रद्धा बाबू की दृष्टि उस पर गई तो उसे लगा जैसे स्वामीजी ने उसे अन्धकार में भटकते हुए प्रकाश की एक किरण दिखा दी है |

‘नियोग...| ’ वह मन-ही-मन बुदबुदा उठा-‘हाँ, स्वामीजी ने अपनी पुस्तक में इस समस्या का यही ढंग सुझाया है | ’

‘हाँ...हाँ...नियोग विधि...| ’ वह सोचे जा रहा था-‘यही ठीक है | यह धर्म के अनुकूल है | हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका वर्णन हुआ है | अलग-अलग समय में समाज में किसी-न-किसी रूप में इस प्रथा को अपनाया गया है | महाभारत काल में पाण्डू राजा की स्त्री कुन्ती और माद्री आदि ने भी तो इसी प्रथा को अपनाया था | ’

‘लेकिन आज का समाज तो इसे स्वीकार नहीं करता | ’

‘समाज स्वीकार न करे मगर यह धर्म के विरुद्ध तो नहीं है | फिर हमें कौन-सा समाज के सामने ढिंढोरा पीटना है | ’

‘हाँ, यही उपयुक्त है | ’ श्रद्धा बाबू सोच उठा-‘इसी से हमारा वंश चल सकता है | मनोरमा को सन्तान सुख और मुझे बुढ़ापे का सहारा मिल सकता है | इसी तरह घर का विवाद शान्त हो सकता है और फिर सबसे बढ़कर यह त्याग करके पत्नी की दृष्टि में ऊँचा तो उठा ही जा सकता है | एक तरह से तो यह मेरा पत्नी को मातृत्व-सुख देने के लिए त्याग ही होगा | कौन पति सहज ही अपनी पत्नी को परपुरुष से सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति देता है | मगर मैं अपनी पत्नी की इच्छा के लिए सब-कुछ सहन करूँगा | यही तो एक राह है जिसके द्वारा पत्नी की निगाहों में ऊँचा उठा जा सकता है और फिर इस तरह पैदा हुए बच्चे में कम से कम हम दोनों में से एक का खून तो होगा ही | हाँ, मैं इस तरह समाज के सामने नया आदर्श प्रस्तुत करूँगा | इस सभी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मैं अपनी प्रत्येक विरोधी भावना का दमन कर दूँगा |’ श्रद्धा बाबू दृढ़ता से सोच रहा था |

‘लेकिन क्या मनोरमा इसे स्वीकार कर लेगी?’ उसके मस्तिष्क में एक प्रश्न उभरा |

‘शायद न करे! मगर कहने में क्या हानि है | इस तरह मैं तो कम से कम अपनी त्याग की भावना उस पर प्रदर्शित कर ही दूँगा | फिर अपनी पत्नी है, कहने में संकोच कैसा | अगर स्वीकार कर लेगी तो सभी उद्देश्यों की पूर्ति हो जाएगी, नहीं तो कम से कम पत्नी दे दिल में यह सुनकर यह भाव तो अवश्य उत्पन्न होगा कि उसका पति उसकी इच्छा-पूर्ति के लिए बड़े-से-बड़े त्याग करने को तैयार है |’

सोचते हुए एक निर्णय पर पहुँचकर श्रद्धा बाबू अपने पास लेटी पत्नी को पुकार उठा, "मनोरमा |"

"जी...|" अपने विचारों में घिरी मनोरमा भी अभी तक सो नहीं सकी थी |

उसने पत्नी को पुकार तो लिया था मगर मन की बात कहने का साहस वह नहीं जुटा पा रहा था | कुछ देर तक वह सोचता रहा कि बात को कैसे और कहाँ से प्रारम्भ करे |

मनोरमा का ध्यान अपने पति की ओर ही था | कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद भी जब वे कुछ न बोले तो वह पूछा बैठी, "आप कुछ कह रहे थे |"

"हाँ मनोरमा |"

"तो कहो |"

"नहीं, रहने दो |" श्रद्धा बाबू जानता था कि अब पत्नी बिना बात को जाने नहीं रहेगी फिर भी उसने टालते हुए कहा |

"मन में आई बात को रोकना ठीक नहीं होता और फिर ऐसी कौन-सी बात है, जिसे आप मुझसे भी कहने में हिचकिचा रहे हैं |" मनोरमा ने पति को चुप देखकर कहा |

कुछ देर विचारते हुए श्रद्धा बाबू बात को कहने का साहस जुटाता रहा |

"मनोरमा तुम्हारी भी इच्छा है कि हमारे पास एक बच्चा हो और मैं भी यही चाहता हूँ |" श्रद्धा बाबू साहस जुटाकर कह रहा था, "हमारा समाज भी हमसे एक बच्चे की अपेक्षा करता है | माँ के कटु व्यवहार का कारण भी यही है कि बच्चे के अभाव में हमारी वंशवृद्धि रुकी हुई है | यदि हमारे मध्य एक बच्चा हो तो सब-कुछ ठीक हो सकता है |"

"लैकिन कैसे?" मनोरमा ने जो अब तक मौन अपने पति की बात सुन रही थी, कह उठी |

"एक उपाय है...|"

"हम कोई बच्चा गोद ले लें |"

"नहीं मनोरमा, वह भी हमारे भाग्य में नहीं है | तुम्हारे पीछे से रंजन ने एक बालक को मेरे पास भेजा था | मैंने उसे अपनाने का निश्चय भी कर लिया था मगर एक दिन वह भी भाग गया |"

"ओह!" मनोरमा के मुँह से निकला |

"हाँ मनोरमा, मैंने उसे अपना बनाने के लिए कितना प्रयास किया मगर उसमें अपनत्व का भाव पैदा न कर सका | पराया आखिर पराया ही होता है |"

"तो फिर क्या उपाय है?" आश्चर्य से मनोरमा ने पूछा |

"एक उपाय है मगर तुम्हारा संस्कारों से बँधा मन शायद उसे स्वीकार नहीं कर सकेगा |"

"क्या...?"

"नियोग |" अपना सारा साहस जुटाकर वह सिर्फ एक शब्द कह पाया |

"नियोग...!" सुनकर मनोरमा के मुँह से भी वही एक शब्द निकला | आर्यसमाजी संस्कारों में पली मनोरमा ने भी सत्यार्थ प्रकाश में नियोग प्रथा का वर्णन पढ़ा था, मगर अपने पति के मुँह से इस प्रथा को अपने जीवन में अपनाने की सुनकर वह सन्न रह गई थी | एक पल को वह जड़ हो गई थी | वह नहीं सोच पा रही थी | वह हिन्दू समाज के अन्दर पली-बढ़ी थी, जहाँ कि पर-पुरुष का विचार भी पाप माना जाता है |

"बच्चा प्राप्त करने के लिए सिर्फ यही एक साधन है मनोरमा और फिर यह धर्म के अनुकूल भी है | इसमें कोई पाप नहीं है | स्वामीजी ने स्वयं अपनी पुस्तक में इस विधि को अपनाने की स्वीकृति दी है |" पत्नी को मौन देखकर श्रद्धा बाबू ने कहा |

मनोरमा अपने विचारों में खो गई थी | वह सोच रही थी-‘आज उसका पति उससे कह रहा है कि वह पर-पुरुष से बच्चा प्राप्त कल ले! उसके पति ने उससे यह कहा कैसे? क्या ये सोचते हैं कि बच्चा हमारे जीवन के लिए इतना आवश्यक है कि उसे प्राप्त करने के लिए हम अपना धर्म, अपनी मर्यादा सब कुछ त्याग दें | इनका मुझसे यह कहने का उद्देश्य क्या है? एक साधारण पुरुष अपनी पत्नी को यह सुझाव देने की कल्पना भी नहीं कर सकता | क्या त्याग की भावना ने इन्हें इतना महान् बना दिया है जो कि ये साधारण मनुष्य से ऊपर उठ गए हैं अथवा दुख ने इन्हें विचलित कर दिया है | ’

"क्या सोच रही हो मनोरमा?" पत्नी को मौन देखकर श्रद्धा बाबू ने पूछा |

मनोरमा फिर भी कुछ न बोली | शायद उसने अपने पति की यह आवाज सुनी ही न थी |

"मनोरमा...|" इस बार श्रद्धा बाबू ने उसे झिंझोड़ते कुए कहा |

"हूँ...|" मनोरमा चौंकते हुए सिर्फ इतना ही कह सकी |

"क्या सोच रही हो?"

"यही सोच रही थी कि शायद इस दुख ने आपको बहुत अधिक विचलित कर दिया है, नहीं तो आप मर्यादा के विरुद्ध ऐसी बात कभी नहीं कहते |"

"नहीं मनोरमा, जो कुछ मैंने कहा है, वह बहुत सोच-विचार करने के बाद ही कहा है | मेरी बात न तो धर्म और मर्यादा के विरुद्ध है और न ही मैं दुख से विचलित होकर असन्तुलन की स्थिति में तुम्हें यह सुझाव दे रहा हूँ | तुमने भी स्वामी दयानन्द की पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का अध्ययन किया है | ऐसी स्थिति में स्वामी जी ने स्वयं इस विधि को अपनाने का सुझाव दिया है |" श्रद्धा बाबू शान्त स्वर में कह रहा था | कुछ देर पहले बात को प्रारम्भ करते हुए जो झिझक उसमें थी, उसका अब कहीं नाम न था |

मनोरमा एक बार फिर अपने पति की बातों पर विचार कर रही थी | उसे विश्वास हो रहा था कि उसके पति त्याग की भावना के कारण ही उसे यह राह अपनाने को कर रहे हैं | यह ठीक है कि यह प्रथा धर्म और मर्यादा के प्रतिकूल नहीं है परन्तु अपनी पत्नी को दूसरे पुरुष को सौंप देने का विचार करना भी एक आम आदमी के लिए सम्भव नहीं है | उसके पति ने आज तक कोई भी बात बिना सोचे भावुकता में नहीं की थी | प्रत्येक कार्य का हर पहलू देखने के उपरान्त ही वे उसे कार्यरूप देते थे | इसका अर्थ है कि उनके इस विचार के पीछे भी उनकी भावुकता न होकर गहरी सोच है | शायद ये इस तरह उसे एक बार अपने से छोटा कर देना चाहते हैं | शायद ये यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि वे उसकी एक बच्चा प्राप्ति की इच्छा के लिए कितना बड़ा त्याग कर सकते हैं | एक बार उसने भी तो पति को दूसरे विवाह की सलाह देकर उनसे ऊँचा उठाना चाहा था |

‘लेकिन मैं इनकी बात का क्या उत्तर दूँ?’ मनोरमा सोच रही थी-‘मैं केसे इनकी बात को मान लूँ | ’ उसका मन इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो रहा था | मस्तिष्क विचारों के संधर्ष में पिस कर रह गया था |

"मनोरमा मुझे एक बच्चा चाहिए...मेरी बात मान लो |" अपने पति द्वारा कहे जा रहे शब्द उसके कानों में पड़े | कुछ विचार के बाद उसका नारी धर्म जाग्रत हो उठा |

‘मुझे पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए...| ’ वह सोच उठी | यह सोचकर उसका मन अपने पति की इच्छा पूर्ति के लिए तैयार हो गया |

"आज का समाज इसको स्वीकार नहीं कर सकेगा स्वामी |" मन में उठी शंका को वह पति से कह उठी |

"सम्माज के सामने प्रगट करने की आवश्यकता ही क्या है?"

"मुझे शंका है कि इस समाज में पला आपका मन भी इसे स्वीकार नहीं कर सकेगा |"

"कर लेगा मनोरमा! मैंने बहुत सोच कर ही तुम्हें इसके लिए कहा है | इस तरह पैदा हुए बच्चे में कम से कम हम दोनों में से एक का खून तो होगा | गोद लिए बच्चे में तो दोनों में से किसी का भी खून नहीं होता फिर भी लोग उसे अपना मानकर पालते और स्वीकार करते हैं |" श्रद्धा बाबू बहुत ही शान्त स्वर में गम्भीरता से कह रहा था, "हम उस स्टेज पर आ चुके हैं मनोरमा कि हमें इस समय एक बच्चे की बहुत ही आवश्यकता है | इस अभाव के कारण हमें मानसिक अशान्ति तो रहती ही है, साथ ही समाज में अपमानित भी होना पड़ता है | तुम शायद स्वयं इस बात को अनुभव करती होगी कि एक बच्चे के न होने के कारण लोग हमें कितनी हीन दृष्टि से देखते हैं | माँ का व्यवहार भी हमारे प्रति ठीक नहीं है | कितना प्रताड़ित करती है वह तुम्हें | वह तो मेरा दूसरा विवाह भी कर देना चाहती है...तुम महान् हो जो आज तक तुमने कभी माँ के सामने इस रहस्य को नहीं प्रगट किया कि उसका बेटा अपूर्ण है | तुमने इस घर और मेरी इज्जत के लिए बहुत कुछ किया है...इतना और कर दो |" कहते हुए वह चुप हो गया | उसकी बाँहों ने पत्नी को अपने समीप खींच लिया |

"यदि आपकी खुशी इसमें है तो मैं इसे भी आपकी आज्ञा मानकर स्वीकार कर लूँगी | मुझे तो आपकी खुशी चाहिए स्वामी | दोनों ही इसके विभिन्न पहलुओं पर विचार कर रहे थे |

"लैकिन यह सम्भव कैसे होगा?" बहुत सोच-विचार करने के बाद भी मनोरमा इस समस्या का समाधान नहीं सोच पाई थी |

श्रद्धा बाबू इस विषय में सोचता हुआ एक निर्णय पर पहुँच चुका था | उसने इस कार्य के लिए अपने धनिष्ठ और विश्वसनीय मित्र रंजन को चुना था | इस कार्य के लिए उसे इससे अधिक सुयोग्य एवं उपयुक्त पात्र और कोई नहीं सूझा था |

"हम शहर में रंजन के पास चलेंगे |" कहते हुए श्रद्धा बाबू पत्नी से दृष्टि मिलाने का साहस नहीं जुटा पाया और चुपचाप करवट बदलकर लेट गया |

मनोरमा काफी देर तक इसी पर सोचती रही |

"क्यों, ठीक नहीं है क्या?" पत्नी द्वारा कोई उत्तर न दिए जाने पर श्रद्धा बाबू ने पूछा |

"जैसी आपकी इच्छा |" इतना कहकर मनोरमा ने सब कुछ स्वीकार कर लिया |

इसके बाद दोनों में से कोई भी कुछ न बोला | शायद कहने को एक-दुसरे के पास कुछ रह ही नहीं गया था मगर अपने विचारों में खोए जागते रहे दोनों...रात्रि देर तक!