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पराभव - भाग 19

पराभव

मधुदीप

भाग - उन्नीस

श्रद्धा बाबू रात को घर नहीं आया था | वह पहला अवसर था, जव वह गाँव में सारी रात घर से बाहर रहा था | रात को उसके घर आने में देर तो प्रायः हो ही जाया करती थी लेकिन किसी न किसी समय वह घर पहुँच अवश्य जाता था |

रात ग्यारह बजे तक मनोरमा पति के लौटने की प्रतीक्षा करती रही | सुबह से ही उसने खाना नहीं खाया था | दोपहर का बना खाना पड़ा-पड़ा बासी हो रहा था | शाम को तो वह चूल्हा जलाने के लिए उठ भी नहीं पाई थी |

रात देर तक पति नहीं लौटा तो प्रतीक्षा करते-करते मनोरमा की आँख लग गई | सुबह उठकर जब उसे पता चला कि वह रात को घर लौटे ही नहीं तो उसे बड़ी चिन्ता हुई | वह कुछ कर भी नहीं सकती थी | सोच में डूबे हुए उठकर वह घर के कार्य में लग गई |

मनोरमा कमरे में झाड़ू लगा रही थी कि किसी अनजान स्वर द्वारा पुकारे जाने पर उसके हाथ रुक गए | उसने झाड़ू को वहीँ रख बाहर जाकर देखा तो सन्न रह गई |

"क्या हुआ इनको?" अपने पति को दो व्यक्तियों के हाथ में देखकर उसके मुँह से निकल गया |

"सुबह-सुबह ये स्कूल के पास बेहोश पड़े थे |" उनमें से एक व्यक्ति ने कहा |

"अन्दर लिटा दो भाई साहब, बड़ी मेहरबानी होगी |"

दोनों व्यक्ति श्रद्धा बाबू को लिए हुए अन्दर आ गए | मनोरमा ने चारपाई बिछाई तो उन्होंने उसे उस पर लिटा दिया |

"शराब की आदत ही बुरी होती है भाई | कोई सुबह-सुबह भगवान का नाम लेता है और श्रद्धा बाबू शराब का नाम लेते हैं |" बाहर जाते हुए उन व्यक्तियों में से एक ने कहा तो सुनकर मनोरमा की आँखें झुक गईं |

मनोरमा पति के पास बैठकर उनके पाँवों से जूते निकालने लगी | जूते निकालकर उसने पति को कम्बल उढाया तो उसने करवट बदली | पति को होश में देखकर उसने चैन की साँस ली और दैनिक कार्यों में लग गई |

कृष्ण उठ गया था | मनोरमा उसके लिए दूध गर्म करने लगी | बच्चे को दूध पिलाकर उसने बाहर खेलने के लिए भेज दिया और स्वयं खाना बनाने लग गई |

लगभग बारह बजे वह खाना बनाकर कमरे में आई | श्रद्धा बाबू पूरी तरह होश में आ चुका था और दीवार से पीठ टिकाकर बैठा न जाने क्या सोच रहा था |

"खाना खा लो |" मनोरमा ने कहा |

"उसे खिला दिया?"

"वह तो कल ही चला गया था |"

"तुमने उसे यहाँ क्यों बुलाया था?"

पति के पूछने पर मनोरमा खामोश हो गई |

"तुम उसके द्वारा मेरा अपमान करवाना चाहती थीं ना! लेकिन मैं किसी से नहीं डरता | जाओ बता दो सबसे कि यह बच्चा श्रद्धा बाबू का नहीं है | यदि इससे तुम्हारी इज्जत बनती है तो जाकर सारे गाँव के सामने ढिंढोरा पिट दो |" गुस्से से तेज आवाज में श्रद्धा बाबू ने कहा |

"मुझे क्षमा कर दो...मुझसे भूल हो गई |" मनोरमा ने बात को समाप्त करने के लिए कहा |

"क्षमा कर दूँ, इस अपराध के लिए? क्या तुम्हारा यह अपराध क्षमा करने योग्य है और फिर मैं क्षमा करने वाला कौन हूँ | अब मेरा इस घर में क्या रह गया है | जब भी मैं इस घर में आता हूँ, मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं भूल से किसी और के घर में आ गया हूँ | मैंने निश्चय कर लिया है कि इस घर को ही छोड़ दूँ | इसी तरह मुझे चैन मिल सकता है |" कहते-कहते उसका स्वर शान्त और गम्भीर हो गया |

"नहीं आपको यह घर त्यागने की कोई आवश्यकता नहीं है | यदि मैं और मुन्ना आपसे सहन नहीं होते तो हम ही यह घर छोड़ देंगे |" मनोरमा ने कहा |

"नहीं, मैं जानता हूँ कि तुम इस घर से कभी नहीं जाओगी |"

"आप खाना खा लें, मैं आज ही इस घर से चली जाऊँगी |" कहती हुई मनोरमा अन्दर चली गई | उसने खाने की थाली लाकर पति के सामने रख दी तो श्रद्धा बाबू विचारों में खोया हुआ खाना खाने लगा |

मनोरमा अन्दर जाकर ट्रंक में अपने कपड़े रखने लगी | उसने गाँव में अपने पिता के पास जाने का निश्चय कर लिया था | वह सोच रही थी कि इस तरह वह रोजाना की कलह और मानसिक अशान्ति से तो बच जाएगी | पति भी उसे और मुन्ना को सहन नहीं कर सकता था | उनके जाने से उसे भी चैन मिल जाएगा | गाँव में वृद्ध पिता थे | जमीन अधिक नहीं थी तो भी किसी तरह प्राणियों का खर्च तो उससे निकल ही जाएगा | आवश्यकता होने पर वह नौकरी कर लेगी | अब वह अपने जीवन का ध्येय मुन्ने का विकास निश्चित कर चुकी थी | यहाँ रहकर न तो मुन्ने का विकास सम्भव था और न पति को और उसे शान्ति मिल सकती थी |

खाना खाकर श्रद्धा बाबू बाहर चौक में आ गया था | वह वहाँ खड़ा पत्नी को तैयार होते देख रहा था | कृष्ण बाहर से आकर चुपचाप अपनी माँ के पास खड़ा था |

"मैं जा रही हूँ |" एक हाथ में ट्रंक उठाए और दुसरे से कृष्ण को पकड़े मनोरमा चौक में आकर अपने पति से बोली |

"जाओ...|" श्रद्धा बाबू सिर्फ इतना ही कह सका |

"जाने से पहले एक बात पूछना चाहती हूँ |" ट्रंक को चौक में रखते हुए मनोरमा ने कहा |

"क्या?"

"मेरा दोष क्या है, आप द्वारा मुझे किस अपराध की सजा दी जा रही है?"

"क्या अभी तक इतना भी नहीं जान सकी हो?"

"नहीं...|"

"तुम्हें इस कलंक की सजा दी जा रही है |" कृष्ण की ओर उँगली उठाते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |

"क्या यह कलंक है?"

"यही नहीं, तुम भी कलंकिनी हो | तुम पर-पुरुष के साथ रह चुकी हो |"

"क्या अपने सुख के लिए?"

"और क्या...?"

"नहीं...|" मनोरमा अपनी पूरी शक्ति से विरोध में चीख उठी, "मैंने आपका वंश चलाने के लिए, आपकी इच्छा पूरी करने के लिए और आपकी आज्ञा से यह कलंक अपने सिर पर लिया था | मैंने केवल आपकी इच्छा के लिए अपने संस्कारों और मन को मारा था | सिर्फ आपके लिए ही मैंने सब-कुछ किया था |"

"क्या तुमने बच्चा नहीं चाहा था |"

"मैंने बच्चे की कामना अवश्य की थी लेकिन किसी पर-पुरुष से नहीं | यह सब-कुछ आपकी आज्ञा और इच्छा से हुआ था |"

"बकवास मत करो!" तर्क में हारते हुए श्रद्धा बाबू ने जोर से चीखकर पत्नी की आवाज बन्द करनी चाही |

मनोरमा पर अपने पति के चीखने का कोई प्रभाव नहीं हुआ | वह भी अपनी तेज आवाज में बोली, "आज आपको मेरी बकवास भी सुननी पड़ेगी | सच्चाई को आप दबा नहीं सकते | आप सिर्फ अपनी भावनाओं से कुण्ठित होकर हम पर जुल्म करते हो | यदि आपका ह्रदय इतना ही संकीर्ण था तो क्यों महानता का आडम्बर किया था?"

"तुम्हारे सुख के लिए |"

"मैं तो बहुत सुखी हो गई हूँ | बहुत बड़ा साम्राज्य मिल गया है मुझे |" मनोरमा व्यंग्य से कह रही थी, "जब से शादी होकर मैं इस घर आई हूँ, पहले माँ ने और अब आपने मुझे बहुत सुख दिया है |"

"चुप हो जाओ मनोरमा नहीं तो...|" श्रद्धा बाबू ने धमकी भरे स्वर में कहा |

"चिल्लाओ मत! इस तरह आप मुझे डरा नहीं सकते | आपका सम्मान करती थी, इसलिए चुप थी अन्यथा मुझे कमजोर न समझना |"

"क्या लड़ोगी मेरे साथ?" आश्चर्य से श्रद्धा बाबू ने कहा | सदा सहमी रहने वाली अपनी पत्नी का यह साहस देखकर वह चकित रह गया था | आज उसकी धमकियों का भी उस पर कोई असर नहीं हो रहा था |

"मुझे लड़ने की क्या आवश्यकता है! मैं जा रही हूँ...अपने गाँव | यदि कभी आपको अपने किए पर पश्चाताप हो तो लिवा लाना मगर स्वयं को आदमी बनाकर |" कहती हुई मनोरमा ट्रंक उठाकर कृष्ण को साथ लिए चल दी |

"मम्मी भूख लगी है |" कृष्ण रोने लगा था मगर मनोरमा का ध्यान इसकी ओर न था |

"खाना दो न मम्मी, भूख लगी है |" बालक ने सुबह दूध पीने के बाद कुछ भी तो नहीं खाया था |

"नहीं बेटे, इस घर में हमारे लिए खाना नहीं है |" पति को सुनाते हुए मनोरमा ने कहा |

"मम्मी मुझे भूख लगी है |" बच्चा रोने लगा |

"बच्चे को खाना क्यों नहीं दे देतीं?" उदास मन से श्रद्धा बाबू ने कहा | शराब का नशा उतर चुका था | मनोरमा की बातों ने उसे अन्दर तक व्यथित कर दिया था | उसे अपने व्यवहार पर कहीं पछतावा भी हो रहा था मगर मनोरमा को रोकने का साहस उसमें न था |

"नहीं, इस बच्चे को आपकी रोटियों की आवश्यकता नहीं है | मैं स्वयं इसके लिए रोटियाँ पैदा करूँगी...यह मेरा बच्चा है |" कहती हुई मनोरमा बाहर की ओर जाने लगी |

"मम्मी! पप्पा हमारे साथ नहीं जाएँगे |" रोते हुए बच्चे ने कहा |

"नहीं कृष्ण, ये तुम्हारे पापा नहीं है |" कहकर घर की दहलीज पार करते हुए मनोरमा की आँखों से दो आँसू चू पड़े |

"पापा...पापा...!" चिल्लाते हुए बच्चे को वह अपने साथ खींच ले गई |

श्रद्धा बाबू चौक में खड़ा उन्हें जाते हुए देखता रहा | उसका मन दुखी हो रहा था परन्तु वह मनोरमा को रोकता भी तो कैसे? मनोरमा के साथ ही तो बच्चा था, जिसे वह सहन नहीं कर सकता था | बच्चे को देखकर वह स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रख पाता था | उसे देखते ही उसके ह्रदय में अनचाही घृणा उत्पन्न हो जाती थी |

श्रद्धा बाबू अधिक देर तक वहाँ खड़ा न रह सका | उसे चक्कर-सा आ रहा था | यदि वह कमरे में जाकर लेट न जाता तो शायद वहीँ गिर जाता |