Antat in Hindi Short Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | अंततः

Featured Books
Categories
Share

अंततः

अन्ततः

प्रेम करना कोई अपराध नहीं है । मानव हृदय की भूख है प्रेम ! बचपन, यौवन और वृद्धावस्था सभी में मनुष्य को प्रेम की भूख लगती है ! योन में यह भूख अपने चरम पर होती है । अपने युवावस्था के पहले चरण में उसने भी कोई गुनाह नहीं किया था, प्रेम ही तो किया था ! लेकिन उसके प्रेम का परिणाम अंततः वही हुआ, जो नहीं होना चाहिए था और जिसकी किसी को आशंका भी नहीं थी | किसी ने नहीं सोचा था, ऐसा हो सकता है ! ऐसा नहीं होना चाहिए था ! कदापि नहीं होना चाहिए था !

चौदह जनवरी की कड़कड़ाती हुई ठंडी रात थी | मैं गहरी नींद में सो रही थी, अचानक मेरे मोबाइल की घंटी बजी | यद्यपि मैं कभी भी रात में अपने मोबाइल का स्विच ऑफ नहीं करके नहीं रखती हूँ, किंतु रात में जब कभी मेरे मोबाइल की घंटी बजती है, प्रायः नींद में मैं उसे सुबह का अलार्म समझकर बन्द कर देती हूँ | कई बार तो उठकर या हाथ बढ़ाकर मोबाइल का अलार्म बंद करने का भी कष्ट नहीं उठाती | किंतु उस रात दैवीय सहयोग ही था कि मोबाइल की पहली घंटी बजते ही मैंने मोबाइल उठाया और कॉल रिसीव करके कहा - " हैलो... !" मेरे हेलो बोलते ही दूसरी ओर से गहन पीड़ा में डूबा हुआ दीदी का स्वर दीदी का स्वर उभरा --

" कविता ! बहन ! मेरे प्रियंक ने जहर खा लिया !" प्रियंक के विष-भक्षण की सूचना सुनकर मेरे मुख से एक भी शब्द निसृत नहीं हो सका | उस एक क्षण ऐसा लगा कि मेरे हृदय की धड़कन बंद हो गई हैं ; मस्तिष्क ने काम करना बंद-सा कर दिया है ! उस क्षण ऐसा अनुभव हो रहा था कि प्रकृति का हर एक कण निष्क्रिय हो गया है ! सारा संसार रुक-सा गया था !

बहुत ही शीघ्र मेरी चेतना ने मेरे हृदय की दुर्बलता पर नियंत्रण पा लिया | एक क्षणोपरांत मैंने पुनः हैलो कहा, परन्तु दूसरी ओर से मुझे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली | शायद दीदी ने मोबाइल कान से हटा दिया था | लेकिन, मेरे कानों में उनका रूदन स्वर कानों को बेध रहा था | उनके करुण रुदन ने बिना कहे ही बहुत कुछ कह दिया था और मेरे दिल ने बहुत कुछ सुन लिया था | अब तक मेरी आँखों से नींद उड़ चुकी थी | दृष्टि दीवार पर टंगी हुई घड़ी पर जा टिकी | रात दो बजे थे | मैंने तत्क्षण रजाई छोड़कर पति और बच्चों को जगाया और दीदी द्वारा मोबाइल पर दी गयी सूचना के विषय में उन्हें बताया | सूचना सुनकर सभी की नींद गायब हो गई और सभी के होठों से समवेत एक ही प्रश्न निकला --"क्यों ?"

उनके 'क्यों' का उत्तर मैं नहीं दे सकी | यद्यपि दीदी की पारिवारिक स्थिति के संबंध मे पर्याप्त जानकारी होने के चलते इस विषय में मेरा अनुमान सत्य के अत्यधिक निकट था, लेकिन पता नहीं क्या कारण था कि मेरा अनुमान सत्य के अत्यन्त निकट होने के बावजूद भी उस समय मेरे होठों तक नहीं आ सका | शायद, मनःस्थिति उस कारण को प्रकट करने के अनुकूल नहीं थी | या शायद, उस कारण को प्रकट करने का वह समय उचित नहीं था | मैंने केवल इतना कहा, " मुझे मेरठ जाना है ! दीदी के पास ! अभी, इसी समय ! दीदी को मेरी आवश्यकता है !"

मन में आ रहा था, पलक झपकते ही अपनी बहन के पास पहुँच जाऊँ ! काश ऐसा हो सकता !"

"हम भी चलेंगे !" मेरे तीनों बच्चों ने समवेत स्वर में कहा |

" नहीं !" बहुत संयत शैली में मैने उत्तर दिया | मेरे निर्णायक उत्तर तथा मेरी मनःस्थिति से बच्चे सहमकर मेरी ओर देखने लगे | मैंने स्वयं को संभालते हुए उन्हें समझाया -

"यह समय वहाँ भीड़ बढ़ाने का नहीं, यथासंभव सहायता करने का है !" बच्चों ने कम शब्दों में अधिक समझ लिया और मैंने उसी समय घर से मेरठ जाने के लिए पति के साथ प्रस्थान कर दिया | घर से बाहर निकली, तो पूरा वातावरण कोहरे की चादर से ढका हुआ था | एक मीटर दूरी पर खड़ा हुआ आदमी दिखाई नहीं पड़ रहा था | फिर भी मेरी व्यग्रता का अनुभव करके पति ने गाड़ी स्टार्ट कर दी | हमारी गाड़ी अत्यन्त धीमी गति से सड़क पर रेंगने लगी | घर से निकलते हुए मैंने पुनः दीदी से संपर्क किया | उस समय उन्होंने बताया कि वे बेटे को लेकर अस्पताल पहुँच चुकी हैं | रास्ते में भी मैंने दीदी से कई बार संपर्क किया और उन्हें ढाँढस बंधाया कि अधिक चिंता ना करें, सब कुछ ठीक हो जाएगा ! किंतु, हर बार दीदी अधिक और अधिक अधीर हो उठती थी | अंतिम बार जब मैंने फोन किया, तब तक प्रियंक की दशा तीव्र गति से बिगड़ने के कारण दीदी की आशा, निराशा में बदलने लगी थी | मेरी आवाज सुनते ही वे चीत्कार उठी थी --

"कविता ...! मेरे बच्चे की पुतलियाँ च … ढ़ … ग… ई ...हैं ...!"

दीदी की चीख और उनके शब्द सुनकर मेरी साँसें थम गईं | मेरे हाथ से मेरा मोबाइल छूटकर नीचे गिर गया | मैं उनका पूरा वाक्य नहीं सुन सकी, लेकिन उनके हृदय की आवाज मैं सुन रही थी ; मैं उनकी अकथनीय वेदना को समझ रही थी, परन्तु मैं कुछ नहीं कर सकती थी | दिल्ली से मेरठ तक एक घंटे की यात्रा कोहरे के कारण तीन घंटे में पूरी करके जब हम अस्पताल पहुँचे, दीदी मुझे देखते ही फफक पड़ी - "अपने बच्चे को इस दशा में देखने की मुझमें हिम्मत नहीं है ! ...तू मेरे बच्चे को अकेला मत छोड़ना ! "

आइ. सी. यू. में प्रियंक बिस्तर पर लेटा हुआ जीवन और मृत्यु के बीच की सूक्ष्म रेखा को अनुभव करता हुआ अदृश्य शक्ति के अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा था | उपचार के लिए डॉक्टर्स की पूरी टीम उसको चारों ओर से घेरे हुए थी | उस समय वह पूर्ण चेतन अवस्था में था | मुझे देखते ही वह अपने पेट और छाती पर हाथ रखकर संकेत करते हुए शिकायती मुद्रा में बोला - "मौसी जी, बहुत जलन हो रही है ! ये लोग मुझे पानी नहीं पिला रहे हैं ! कोई भी पानी नहीं दे रहा है ! प्लीज !!! तू मुझे एक गिलास पानी पिला दे !" अत्यन्त दयनीय वाणी में की गयी प्रार्थना और उसकी मर्मान्तक पीड़ा को अनुभव करते हुए पानी मैंने सिस्टर से पानी देने का निवेदन किया, परंतु डॉक्टर्स ने पानी के लिए मना कर दिया | उन्होंने कहा,

" यह जलन पॉइजन की है, पानी से कम नहीं होगी | इसके लिए पेशेन्ट को इंजेक्शन दिये जा रहे हैं !" अपने बच्चे को पानी पिलाने में स्वयं को असमर्थ पाकर मैं मर्माहत हो गयी और किंकर्तव्यविमूढ़-सी वहीं चुप खड़ी हो गयी |

प्रियंक ने दीदी के गर्भ से जन्म अवश्य लिया था, किन्तु उसने कभी मुझे माँ से कम नहीं समझा था ! उसी पुत्र-भाव से उसने मेरा हाथ पकड़कर अपने सीने तथा पेट पर फिराते हुए कहा - "मौसी अपना हाथ फेर दे, बहुत जलन हो रही है ! पहले पता होता, इतनी जलन होगी, तो मैं कभी सल्फास न खाता !" मैं उसके पेट, छाती, ललाट तथा सिर पर इसमें स्नेहपूर्वक हाथ फेरने लगी, तो उसके चेहरे पर शांति का भाव आ गया | उसको शांत चित्त देखकर मेरे हृदय में कुछ आशा जागृत हुई, लेकिन अगले ही क्षण उसके चेहरे पर वही बेचैनी और वही प्रार्थना - "मौसी, बस एक गिलास पानी दे दो, प्लीज ! आज के बाद कभी कुछ नहीं मांगूगा, बस, आज आखिरी बार एक गिलास पानी मांग रहा हूँ ! प्लीज ! एक गिलास पानी पिला दो ! "

मैंने पानी के जग की ओर हाथ बढ़ाया, परन्तु वहाँ पर उपस्थित वरिष्ठ चिकित्सक ने मेरा हाथ रोकते हुए कहा - "पानी देने से मरीज की नियंत्रण में होती हुई स्थिति और अधिक बिगड़ सकती है | एक बार ठीक हो जाए तब जितना चाहे पानी पिलाना ; दूध पिलाना ! अभी आप बाहर जाइए, हमें हमारा काम ठीक से करने दीजिए !"

चिकित्सक का निर्देश सुनते ही प्रियंक ने मेरी कलाई कसकर पकड़ ली और आवेशित स्वर में चीखा - "मुझे यहाँ नहीं रहना है ! मुझे घर जाना है !" उसकी मनोदशा को अनुभव करते हुए मैंने चिकित्सक से विनती करके वहीं रुक गयी और प्रियंक के होठों को गीला करने की अनुमति मांगी | तत्पश्चात मैं हर दो-दो मिनट में पानी की दो-दो बूंद डालकर उसके होंठ गीले करते रही | दो तीन बार उसने अत्यंत दयनीय मुद्रा ने गिड़गिड़ाते हुए गिलास भर पानी पीने की इच्छा प्रकट की, परंतु मैं विवश थी | चाहकर भी पानी नहीं पिला सकी | मेरा अबोध-सा मासूम-सा बच्चा होंठों पर जिह्वा फिराकर अपनी आंतरिक जलन को शांत करने का प्रयास करता रहा | बीच-बीच में बार-बार "माँ ! माँ ! माँ !" पुकारने लगता | मैंने उसके ललाट तथा सिर पर हाथ फेरते हुए कई बार कहा, "बेटा ! माँ को भेज दूँ ? मैं चली जाऊँ ? दो लोगों को यहाँ रहने की अनुमति नहीं है |"

"मौसी, तू कहीं मत जाना, मुझे छोड़कर ! तू क्या माँ से कम है !" शायद वह जानता था, दीदी उसको इस दशा में देखकर धीरज खो बैठेंगी और स्वयं को संभाल नहीं पाएँगी | दीदी ने पहले ही मुझे यह कह कर भेजा था, "कविता, अपने बच्चे को इस हालत में देखने की हिम्मत मुझमें नहीं है ! तुझे उसकी ममता भी है और हिम्मत भी ! तू प्रियंक के साथ ही रहना, जब तक वह ठीक नहीं हो जाता | " यह कहते हुए दीदी की आँखों से अश्रु-धारा बह चली थी और गला रुंध गया था |

प्रियंक की इच्छा और आग्रह को महत्त्व देते हुए मैं वहीं रुक गई | उसके माथे को अपने हाथ से सहलाते हुए मैं बोली -

"बेटा, डॉक्टर्स ने जो इंजेक्शन दिए हैं, उनसे तेरी जलन जल्दी ही दूर हो जाएगी और तू बिल्कुल ठीक हो जाएगा !" मेरे शब्द सुनकर एकाएक प्रियंक के चेहरे पर असह्य पीड़ा मिश्रित चिंता का भाव उभर आया | कुछ क्षणों तक वह मेरी ओर भावशून्य दृष्टि से देखता रहा | फिर मुझसे अत्यंत मासूमियत से बोला - मौसी, क्या मैं मरूँगा नहीं ?"

"घबरा मत, मेरे बच्चे ! तू बिल्कुल ठीक हो जाएगा !" उसके प्रश्न के उत्तर स्वरूप मैं उसको ममता के प्रवाह में सांत्वना दे रही थी, किंतु मैंने अनुभव किया कि उसके प्रश्न में जीवन के प्रति किंचित मोह नहीं था | उसके प्रश्न पूछने के ढंग से मैं आश्चर्य में पड़ गई कि मात्र बीस वर्ष की आयु में जीवन के प्रति इतना अधिक विकर्षण क्यों हो गया है ? बार-बार मेरे मस्तिष्क में प्रश्न उठने लगा, "अपने परिवार के साथ रहते हुए भी कोई इतना अकेला कैसे हो सकता है कि उसके लिए अपने आस्तित्व ; अपने जीवन का कोई महत्व ही न रह जाए | उसी समय मुझे स्मरण हो आया कि कुछ माह पूर्व दीदी ने मुझे बताया था कि प्रियंक किसी लड़की के प्रेम में फँस गया है | आज भी अस्पताल में आते ही उन्होंने मुझे बताया था - " उसी लड़की के प्यार में पागल होकर मेरा बच्चा डिप्रेशन में चला गया | प्यार का नाटक करके पहले मेरे भोले भाले बच्चे को अपने जाल में फँसा लिया, जब मेरा बच्चा प्यार में पड़ गया, तो ...!"

दीदी की बातों से मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि प्रियंक की इस दशा की उत्तरदायी वही लड़की है, किंतु मैं यह देखकर आश्चर्यचकित थी कि प्रियंक के होठों पर एक बार भी उस लड़की का नाम या किसी अन्य प्रकार से कोई जिक्र नहीं आया | उस लड़की के प्रति इतनी उदासीनता के पीछे प्रियंक की दृढ़ता थी, निराशा थी, अथवा उस लड़की के प्रति घृणा थी, मैं यह नहीं समझ पा रही थी | उस समय प्रियंक से उसके विषय में कुछ भी कहने-पूछने का अर्थ था, उसके उस यथेष्ट में व्यवधान डालना, जिससे मैं लगभग नितान्त अपरिचित थी | दीदी से सुनी हुई बातों के आधार पर केवल अस्पष्ट-सा अनुमान ही कर सकती थी |

प्रियंक की आहों-कराहों से उसकी मर्मांतक पीड़ा और बेचैनी का अनुभव करके मेरा धैर्य छूटता जा रहा था | उसके बिस्तर के निकट खड़े होकर उसका एक हाथ अपने हाथ में लेकर तथा दूसरा हाथ स्नेह पूर्वक उसके सिर-ललाट, छाती और पेट पर फेरते हुए दोपहर के दो बज गए थे | अभी तक वह पूर्ण चेतनामय अवस्था में बातें कर रहा था, इसलिए मैं यह नहीं समझ पा रही थी कि उसके स्वास्थ्य में सुधार है अथवा नहीं | मैं कई बार वरिष्ठ चिकित्सक से भी यह ज्ञात करने का प्रयास कर चुकी थी, किंतु उनसे कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल रहा था, इससे मेरी चिंता बढ़ने लगी थी | तभी मेरे कानों में प्रियंक का बहका-बहका-सा स्वर पड़ा -

"मौसी, मेरे दिमाग पर से मेरा कंट्रोल छूटता जा रहा है ! मौसी ! मुझे.. कुछ .. हो.. रहा.. है !..कुछ ..हो रहा.. है ..!..तू ..मेरे ..पा..स.. ही..ई.. र..ह..ना... !" कहते-कहते उसकी चेतना लुप्त हो गई और मेरा हाथ उसके हाथ से छूट गया |

प्रियंक के अचेत होते ही डॉक्टर्स की टीम ने मुझे एक ओर हटाकर उसको चारों ओर से घेर लिया | स्क्रीन पर प्रियंक के हृदय की धड़कन देखकर मेरे मन में अभी भी आशा की किरण शेष थी | स्वयं को आश्वस्त करते हुए मैंने पुनः एक डॉक्टर से प्रियंक की दशा के विषय में पूछा | उसने मुझे बताया - "सल्फास के पॉइजन ने इसके दिमाग को अरेस्ट कर लिया है, इसलिए अब इसको बचा पाना कठिन है | "

"मेरे बच्चे के दिमाग को सल्फास के जहर ने अरेस्ट नहीं किया है ! कविता, उस लड़की के विश्वासघात ने नष्ट कर दिया है !" मेरे पीछे खड़ी दीदी पथराई हुई आँखो से अपने बच्चे की ओर देखकर विलाप करते हुए कह रही थी | उनकी भाव-भंगिमा से प्रतीत हो रहा था कि उनके हृदय की आशा को धीरे-धीरे निराशा का गहन अंधकार निगलता जा रहा था | दूसरी ओर उनके प्राणों से प्रिय पुत्र की साँसों का सूत्र धीरे-धीरे क्षीणतर होता जा रहा था |

शाम छः बजे डॉक्टर ने अपनी सीमाओं को स्वीकारते हुए दृष्टि झुका कर बताया - " बहुत प्रयास किया, पर हम उसको बचा नहीं सके ! सब कुछ ईश्वर के अधीन है, उसके आगे किसी का वश नहीं चलता !"

प्रियंक के प्राणांत के साथ ही उन आशाओं-अपेक्षाओं का भी अंत हो गया, जो अपने लाड़ले बेटे को लेकर दीदी ने हृदय में संचित की होंगी | उसके प्राणांत के साथ ही मेरे मस्तिष्क में अनेक प्रश्नों का उदय भी हुआ था - आखिर क्यों प्रियंक अपने जीवन का अंत करने के लिए विवश हो गया ? आखिर कौन-सी चीज उसके लिए प्राणों से भी अधिक महत्वपूर्ण हो गई थी ? जिसने प्रियंक के मन-मस्तिष्क में अपने स्वयं के अनमोल जीवन का महत्व शून्य कर दिया था | वास्तव में वह लड़की ही प्रियंक की असमय मृत्यु की उत्तरदायी है अथवा कोई और ? क्या प्रेम मनुष्य को इतना दुर्बल ; इतना कायर बना देता है कि प्रेम करने वाला मनुष्य अपने प्राणों को वहन करने की शक्ति ही खो दे !

प्रियंक के चिर वियोग की गहन वेदना के में डूबे हुए जब हम घर लौटे, द्वार पर विशाल जनसमूह एकत्र था | उस समय वहाँ पर उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में संवेदना, आँखों में सहानुभूति-आँसू और होठों पर एक ही वाक्य था -

"लड़की के चक्कर में अपनी जान गँवा बैठा, नादान ! बेचारा !"

अधिकांश लोग किशोरवय वर्तमान पीढ़ी की विवेकहीनता, भावुकता और धैर्य के अभाव को केंद्र में रखकर चर्चा में तल्लीन थे | उसी समय कुछ लोगों ने हवा में सुझाव फेंकने आरंभ कर दिए थे -

"पुलिस केस बनेगा ! इससे पहले कि पुलिस यहाँ आकर इन्हें परेशान करे, उस लड़की के खिलाफ एफ.आइ.आर. लिखा देनी चाहिए !"

"किस लड़की के खिलाफ ? मैंने अनजान बनते हुए पूछा |

"आपको नहीं पता ? यहाँ तो बच्चे-बच्चे को पता है, लड़की के चक्कर में फँसकर ...! वहाँ पर उपस्थित एक पड़ोसी ने बताया | क्षणभर रुक कर वह पुनः बोली - "फेसबुक पर प्रियंक के साथ उस लड़की के ढेरों फोटो पड़े हैं | फोटो देखकर लगता है, दोनों में काफी गहरा प्यार था | पर आजकल की लड़कियों पर भरोसा करना ठीक नहीं है | उस स्त्री की बातें सुनकर मेरे मनःमस्तिष्क में पुनः प्रश्नों का तूफान उठने लगा था - "बिना भरोसा किए प्रेम कैसे संभव है ? प्रेम करने वाले लोग संवेदनशील होते हैं, वे किसी को धोखा दे सकते हैं क्या ? जिसके प्रेम के समक्ष प्रियंक को अपने प्राण भी तुच्छ प्रतीत होने लगे, उस लड़की ने प्रियंक को धोखा क्यों दिया ? ऐसे ही अनगिनत प्रश्न मस्तिष्क में उठते रहे, जिनके उत्तरस्वरूप किसी सूत्र की तलाश में मैंने दीदी से प्रश्नात्मक शैली में कहा था -

" उस लड़की के विरुद्ध एफ.आइ.आर लिखा देनी चाहिए ?"

" नहीं ! उस लड़की को और उसके परिवार वालों को पुलिस परेशान करे, इससे मुझे क्या मिलेगा ? मेरा बच्चा लौट कर तो नहीं आएगा !"

अगले दिन प्रियंक का अंतिम संस्कार होने के पश्चात भी मित्रों-रिश्तेदारों की सहानुभूति के साथ भिन्न-भिन्न सुझाव मिलते रहे, पर दीदी के बुत की भाँति भाव-शून्य चेहरे पर न स्वीकार्य भाव था, न हीं अस्वीकार भाव दिखता था | इसी बीच प्रियंक की नोटबुक से हमें एक पत्र प्राप्त हुआ, जो उसने विष-भक्षण से पूर्व लिखा था | पत्र में उसने स्पष्ट शब्दों में लिखा था -

"मेरी आत्महत्या के जिम्मेदार नीशु धारीवाल के परिवार वाले हैं ! नीशु और मैं एक दूसरे से प्रेम करते हैं ! हम दोनों जीवन-भर साथ रहना चाहते थे ! कोई भी हमें अलग ना कर सके, इसलिए आज से चार महीने पहले हमने कोर्ट में विवाह भी किया था | किंतु, जब नीशु के परिवार वालों को हमारे प्रेम और विवाह के बारे में पता चला, उन्होंने उसको घर में बंदी बना लिया | उसका विवाह उन्होंने किसी अन्य लड़के के साथ निश्चित कर दिया है और मुझे तलाक देने के लिए विवश कर रहे हैं | मैं नीशू को तलाक नहीं दूँगा, भले ही मुझे अपने प्राण देने पड़े !"प्रियंक त्यागी

प्रियंक का पत्र पढ़कर मुझे वह क्षण स्मरण हो आया, जब दीदी ने मुझे फोन पर उसके अंतरजातीय प्रेम-विवाह की सूचना दी थी | मैं सोचने लगी, जो लड़की इतनी साहसी है कि पहले सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर प्रेम कर सकती है और तत्पश्चात जातीय बंधनों को तोड़कर अपने प्रेमी पुरुष के साथ विवाह संपन्न कर सकती है, उस लड़की का प्रेम प्रवंचना मात्र कैसे हो सकता है ? परन्तु, यदि उस लड़की का प्रेम प्रवंचना नहीं था, तो प्रियंक आत्महंता क्यों बन गया ? संवेदना प्रकट करने के लिए आने वाले सभी मित्र-परिचित प्रियंक की आत्महत्या का दोषी उस लड़की अर्थात नीशू धारीवाल को ठहरा रहे थे | किसी हद तक दीदी स्वयं भी ऐसा ही सोचती थी, परंतु पुलिस के समक्ष उसके विरुद्ध कुछ भी कहने के लिए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इनकार कर दिया था | उनकी विरोधाभासी मनःस्थिति के विषय में जानने के लिए मैंने उनसे पूछा, तो उन्होंने मुझे बताया -

" सारी गलतियाँ दूसरों के बच्चों पर डालना बहुत सरल है, पर मेरे बच्चे की बिल्कुल भी गलती नहीं है, मैं ऐसा नहीं मान सकती ! प्रियंक ने जहर खुद अपने हाथों से खाया था ! आखिर क्यों ? उसने एक बार भी अपनी माँ के विषय में नहीं सोचा, उसकी माँ उसके बिना कैसे जियेगी ?" कहते-कहते दीदी की आंखों से आँसू झरने लगे | कुछ क्षणों के पश्चात् उन्होंने बताया - "चार महीने पहले मुझे ज्ञात हुआ था कि प्रियंक किसी लड़की से प्रेम करता है | पूछताछ करने पर पता चला, जिस लड़की से वह प्रेम करता है, पाँच महीने पहले वह उसके साथ कोर्ट में जाकर विवाह संपन्न कर चुका है | घर में बिना बताए, बिना पूछे, विवाह कर लिया है, यह सुनकर एक बार हृदय को झटका लगा, परंतु शीघ्र ही मैंने स्वयं को संभाल लिया | सोचा, जो होना था, हो चुका है | अब बात बिगाड़ने से कोई लाभ नहीं है | इसलिए बेटे से आग्रह किया कि सामाजिक रीति-रिवाज से बहू को घर ले आए ! इसके लिए मैंने लड़की के माता-पिता से भेंट की | लेकिन, उन्होंने अपनी बेटी के प्रेम और निर्णय को महत्त्वहीन घोषित कर दिया और अपनी जाति का नहीं होने के कारण उन्होंने प्रियंक को अपने दामाद के रूप में स्वीकार करने से मना कर दिया | मैंने उनसे बहुत बहुत अनुनय-विनय की, कि दोनों बच्चे आपस में प्रेम करते हैं, इनके बीच में धर्म-जाति की दीवार खड़ी ना करें ! मैंने उन्हें समझाया कि दोनों बच्चे वयस्क हैं और कानून हर वयस्क को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार देता है, हमें भी देना चाहिए ! अब जबकि इन दोनों ने अपने अपने अभिभावको को बिना पूछे-बताए एक दूसरे के साथ जीवन बिताने का निर्णय लिया है, हमें भी इनका साथ देना चाहिए ! इनके बीच में अवरोध डालना उचित नहीं है ! लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी | वह यह कह कर अपनी जिद्द पर अड़े रहे कि बेटी का विवाह अपनी जाति के बाहर करने पर उनका बिरादरी समाज ना केवल उनका बहिष्कार कर देगा, बल्कि उनकी बेटी और होने वाले दामाद को जीवित नहीं छोड़ेगा ! इतना ही नहीं, उन्होंने तलाक देने के लिए प्रियंक को मानसिक रुप से प्रताड़ित करना भी आरंभ कर दिया था | प्रियंक ने अपने प्रेम और दाम्पत्य संबंधों का वास्ता देकर नीशू से अपने साथ चलने का आग्रह किया, परंतु अपने माता पिता की अनुमति के बिना वह प्रियंक के साथ चलने के लिए तैयार नहीं हुई | उसने प्रियंक से कहा - "मम्मी पापा ने चेतावनी दी है, यदि मैं तुम्हारे साथ गई तो वे प्राण त्याग देंगे | मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकती !" चूँकि नीशू के साथ प्रियंका एक वैध रिश्ता था ; वह उसकी पत्नी थी, इसलिए आत्मविश्वास से परिपूर्ण प्रियंक ने अपने प्रेम और वैवाहिक संबंध की रक्षा के लिए कानून और पुलिस का सहयोग लेने की चेतावनी दी | नीशू ने उसमें भी सहयोग नहीं किया | उसने कहा - "मेरे घर पर पुलिस आएगी, तो मेरे परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी ! पापा यह सहन नहीं कर सकेंगे ! जीवन में पहली बार उस समय प्रियंक ने स्वयं को असह्य अनुभव किया था | उस समय वह अत्यंत क्रोधावेश में था, फिर भी स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए उसने मात्र इतना ही कहा - "जब प्यार किया था ; विवाह किया था, तब पापा का और उनकी मान-प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं आया था ? अब तुम इनके आँसू पोंछने वाली हो गई हो ! अब इनकी इतनी चिंता क्यों ?" बताते-बताते दीदी फिर रोने लगी | कुछ क्षणोपरांत उन्होंने पुनः बताना आरंभ किया - "उस दिन प्रियंक ने मुझे बताया था, माँ, मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने की पहल उसने स्वयं की थी | हमारी मित्रता जब घनिष्ठ से घनिष्टतर होती गई, तब एक दिन उसी ने मुझे प्रपोज किया और फिर उसने मुझसे कहा था - "मेरे पापा मेरा विवाह करने के लिए वर की तलाश कर रहे हैं | मैं नहीं चाहती, मेरी बड़ी बहनों की तरह मैं भी बिरादरी के नाम पर किसी अयोग्य युवक को मेरे पल्ले से बंध जाऊँ और उसके साथ जीवन-भर विवाह के बंधन बंधी रहूँ ! मैं तुम से प्रेम करती हूँ, तुम्हारे साथ जीवन व्यतीत करना चाहती हूँ ! यदि हम दोनों परिवार वालों को बताए बिना कोर्ट में विवाह कर लें और चार पाँच महीने बाद विवाह पक्का हो जाने पर उन्हें बताएँगे, तब वे हमें अलग नहीं कर सकेंगे !" हम दोनों वयस्क थे ; दोनों एक-दूसरे को प्रेम करते थे, इसलिए कोर्ट में जाकर जज के सामने विवाह करने में कुछ भी अवैध अनैतिक नहीं था | नीशू ने जो कुछ कहा, मैंने यह सोचकर उस पर विश्वास किया कि अपने मम्मी-पापा को वह बेहतर समझती है ! उसके हित और भविष्य को ध्यान में रखते हुए मैंने वही किया, जो वह चाहती थी ! माँ मैंने कुछ भी गलत नहीं किया था !कुछ भी गलत नहीं किया था !"

प्रियंक के आत्मकथन को दोहराते हुए उसको याद करके पुत्र-वियोग में दीदी पुनः फफक-फफककर रोने लगी - " वह अपने माँ-बाप को समझती थी, इसलिए उनके पास वापस लौट गई | पर मेरा बच्चा उसके प्यार में पड़कर अपनी माँ को भी भूल गया और मौत को गले लगा बैठा !"

दीदी के मुख से प्रियंक की प्रेम कहानी सुनकर मेरे मनःमस्तिष्क में पुनः उसी प्रश्न का तूफान उठने लगा - "आखिर प्रियंक की असमय मृत्यु के लिए उत्तरदायी कौन है ? प्रेम ? नीशू धारीवाल ? नीशू के परिवार वाले ? अथवा हमारा यह समाज ? जो आज इक्कीसवीं शताब्दी के डिजिटल युग में भी वयस्कों को उनकी मनपसंद जीवनसाथी का चुनाव करने की स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता !"