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पक्का गांधीवादी

पक्का गांधीवादी....


बड़ी पुरानी कथा है, एक बार गांधीजी ने अपने तीन प्रिय बंदरों को पास बुलाया.

एक बन्दर से कहा, 'आँखों पर हाथ रखो और बोलो, बुरा मत देखो'।

फिर दूसरे से कहा- 'चल, मुँह पर हाथ रख ताकि तू बुरा न बोल सके'।

तीसरे से कहा - 'कानों पर हाथ रख, ताकि तू बुरा न सुन सके'।
बंदरों ने बिल्कुल ऐसा ही किया, लेकिन अन्दर की बात यह है कि जब गांधी जी बंदरों को ट्रेंड कर ही रहे थे, तभी भेडिय़ों को इस बात की जानकारी मिल गई कि गांधी जी अपने बंदरों इंसान बनाने पर तुले हुए हैं।

भेडिये घबराए. वे सोचने लगे कि अगर बंदर आदमी बन गए, तो गुलाटी मारना छोड़कर सीधे-सीधे चलने लगेंगे और बंदरों को सुधरा देख आदमी भी ससुरा निर्लज्जता छोड़कर शरीफ बन जाएगा। तो भेडि़यों ने गुस्से में गांधी जी को ही गोली मार कर खल्लास कर दिया. लेकिन जो तीन बंदर ट्रेनिंग ले रहे थे, उन्होंने गांधी के इस उपदेश के प्रचार करने का संकल्प ले लिया।
वे तीनों बन्दर आँख, मुँह और कान पर हाथ धरे-धरे राजघाट पर जा कर बैठ गए. गांधी के इन बंदरों को देखकर एक सज्जन भावुक हो गए और वे अपने उल्टे संस्कारों को सीधा करने में भिड़ गए। एक दिन वे कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा, एक अबला की इज्ज़त लूटी जा रही है। उन्होंने फटाक् से अपनी आँखों पर हथेली रख दी और बुदबुदाते हुए ओ बढ़ गए कि गाँधी जी ने सिखाया था, बुरा मत देखो।

वे पक्के गांधीवादी बनकर आगे बढ़ गए थे। पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा कि क्या बुरा हो रहा है। आज वे बेहद खुश हैं कि उन्होंने गांधी जी के एक मंत्र को अपने जीवन में उतार लिया है। उन्होंने महात्मा गांधी जी की जय बोली। आज भी बोलते हैं।
कुछ और आगे बढ़े ही थे कि वे एक सज्जन से टकरा गए। भीड़-भाड़ में अक्सर हो जाता है। सामने वाला बॉडी बिल्डर टाइप का था। और थोड़ी-बहुत गालियाँ देने की महान् परम्परा का निर्वाह भी कर लेता था। सो, उसने बुरी-बुरी गालियाँ देनी शुरू कर दीं। सज्जन के मन में भी कुछ गालियाँ उभरीं। वे भी चाहते थे कि गालियों को लौटा दिया जाए ब्याज समेत, लेकिन उन्हें गांधी जी का वह बंदर याद आ गया, जिसे सिखाया गया था कि बेटे बुरा मत बोलो।

तीसरा बंदर भी याद आया कि बुरा मत सुनो वाला।

सज्जन ने फौरन गाँधीवाद को अपनाते हुए एक हाथ मुँह पर रखा और एक हाथ कान पर रखने के लिए तीसरा हाथ कहाँ से आता, सो उन्होंने ओठों को दाँत से दबाया और दोनों हथेलियाँ कानों पर धर लीं और आगे बढ़ गए।
वे अपनी इस सफलता पर बेहद खुश थे कि गांधीवाद के तीनों सूत्रों को अपने जीवन में ढाल लिया है और अब वे पक्के गांधीवादी बन गए हैं। छाती ठोंक-ठोंक कर सबसे कहते हैं, मैं सच्चा गांधीवादी हूँ।
एक दिन वे इसी तरह अपनी छाती ठोंककर अपनी तारीफ किए जा रहे थे, तभी दूसरे लोग नाराज़ हो गए और कहने लगे ''अगर यही गांधीवाद है, तो हम बाल्यकाल से ही गांधीवादी हैं। जब हम छोटे थे, तो अपने बाप को देखा करते थे। वह कहीं पर अत्याचार होते देखता था, तो वहाँ से फूट लिया करता था, कि बुरा नहीं देखना चाहिए। किसी को पीटना बुरी बात है। इसे देखना उससे भी बुरी बात। उन्होंने हमको यही सब सिखाया। यही कारण है, कि हम किसी लफड़े में नहीं पड़ते। आँखों के सामने मर्डर भी हो जाए तो हम यही बोलते हैं कि हमने कुछ नहीं देखा...हमने कुछ नहीं सुना।''
अरे, मतलब ये कि तुम लोग मुझसे भी पुराने गांधीवादी हो? बधाई हो, भाई। आओ, हम लोग गांधीवादी-संघ बनाएँ।''
लोग इस बात के लिए राजी हो गए। और एक संगठन बन गया। संगठन की बात सुनकर जिसे देखो, वही हँस रहा है।

एक ने कहा - ''पागल हैं साले (एक गंदी गाली) गांधी के तीनों बंदरों के तो हम खानदानी अनुयाई हैं।''

दूसरा बोला - ''हरामी हैं, श्वान हैं... (और भी कुछ गालियाँ यानी टीवी चैनलों वाली 'बीप-बीप'...) सालों ने गांधीवादी संगठन बना लिया और हम जैसे गांधीवादी को ही ख़बर नहीं की। ऐसे लोगों की तो खूब पिटाई करनी चाहिए। होश ठिकाने आ जाएंगे।''
तीसरा बोला - ''तुम तो हिंसा की बात कर रहे हो।'' दूसरा - ''अरे, ये आक्रोश है यार, हिंसा नहीं। गाँधीजी ने भी तो कहा था, 'करो या मरो।''
सब लोग लगभग जूतमपैजार की स्थिति में थे।

वो भी गंभीर गांधीवाद के वास्ते। उनकी हालत देखकर मैंने भी अपनी आँखों के सामने दोनों हथेलियाँ रख दीं और कहा,
बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो! महात्मा गांधी की.... जय!''