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शांतनु - 1

शांतनु

लेखक: सिद्धार्थ छाया

(मातृभारती पर प्रकाशित सबसे लोकप्रिय गुजराती उपन्यासों में से एक ‘शांतनु’ का हिन्दी रूपांतरण)

एक

‘जागिये ऐ शांतनु महाराज बज गये साड़ेसात, ऑफ़िस आपको जाना है, ये तो है रोज़ की बात!’ ज्वलंत भाई अपने एक मात्र पुत्र शांतनु को, अहमदाबाद की मई के महीने की गर्म सुबह में, पिता पुत्र के बिच निश्चित किये गये एक नियमानुसार तुकबंदी लगा कर जगा रहे थे|

‘उठ रहा हूँ पिताश्री बस दो मिनिट के बाद, प्रोमिस करता हूँ आपको उसके बाद नहीं करूंगा कोई विवाद|’ शांतनु ने भी रोज़ का रट्टा लगाया|

‘इट्स ऑलरेडी सेवन थर्टी फाईव, नाऊ गीव मी अ हाई फाईव|’ ज्वलंत भाई के चहेरे पर एक मुस्कान आ गई|

‘थोड़ी सी नींद अभी बाकी है, घड़ी की सुई अभी अभी मैंने नांपी है|’ अपने चहेरे पर तकिया रखते हुए शांतनु बोला|

‘बिलकुल नहीं आप जल्दी से उठ जाइए तो मैं अपना काम करूं, सोई में जा कर, टमाटर ककड़ी काट कर सेंडविच में डाल कर उन्हें भी न्याय दिलाऊं|’

शांतनु को उठने की ज़रा भी इच्छा नहीं थी पर ज्वलंत भाई के अविरत दबाव के आगे उसकी एक भी न चली| वो बैड से उठा और अपने पिताको एक फीकी पर प्यार भरी मुस्कान दे कर बाथरूम की और चलने लगा और ज्वलंत भाई भी रसोई की और चल पड़े|

वैसे देखा जाए तो बाप बेटे के बीच यह रोज़ का संवाद था| ज्वलंतराय प्रखरराय बुच का एक मात्र पुत्र शांतनु नई नई शुरू हुई एक अंतर्राष्ट्रीय इंश्योरेंस कंपनीमें हाल ही में ‘इंश्योरेंस अड्वाईजर’ के रूप मै जुड़ा था| पच्चीस साल का शांतनु अपने पिता का बहुत ही लाड़ला था| दो साल पहेले ही ज्वलंत भाई अपनी पत्नी धरित्री को ब्रेस्ट कैंसर की वजह से खो चुके थे और तब से वे हरदम यही प्रयास करते थे की शांतनु को कभी भी अपनी माँ की कमी महेसूस ना हो| वैसे रसोई बनानेवाले महाराज तो धरित्री बेन की बीमारी के दिनों से ही थे, पर शांतनु के लिए सुबह की चाय और नाश्ता वे खुद बना कर उसे दे ऐसी धरित्री बेन की प्रथा ज्वलंत भाई ने आज तक बनाये रखी थी| जीवन की अंतिम क्षणों में वे सम्पूर्णत बिस्तर पकड़ चुकी होने से घर का सारा काम नौकरों के हाथ चला गया है उस हकीकत का धरित्री बेन को सदा अफ़सोस रहता था|

शायद ज्वलंत भाई शांतनु के लिए धरित्री बेन की अंतिम इच्छा को समझ गये थे और इसी लिए उन्होंने आज भी उस प्रथा को जारी रखी है| और वैसे भी ज्वलंत भाई ने धरित्री बेन के लिए अपनी सम्पूर्ण जिंदगी समर्पित कर दी थी| कुछ तीन साल पहेले गुजरात राज्य के एक कमाऊ निगम के डिरेक्टर के पद से उन्हों ने तब इस्तीफा दे दिया था जब वे कुछ ही दिनों पहेले उस जगह पर नियुक्त हुए थे| उसी समय डॉक्टरों ने धरित्री बेन को केन्सर होने की पुष्टि की थी और ज़्यादा आशा न रखने की सलाह भी दी थी, इसी लिए पांच साल की बाकी बची हुई नौकरी को उनहोंने तत्काल इस्तीफा दे कर वहीँ समाप्त कर दिया| लोगों ने बहोत समझाया, पर उनको तो धरित्री बेन की सेवा करनी थी और उनके जीवन के जो कुछ दिन भी बचें हो वे उन्हें उनके साथ ही गुज़ारना चाहते थे| धरित्री बेन के जाने के बाद अब वे पुत्र शांतनु को किसी भी चीज़ की कमी ना हो उसका वे भरपूर प्रयास करते थे|

देखने में शांतनु भी ज्वलंत भाई की कापी ही था| कम बोलता था, थोड़ा शर्मिला, चहेरे पर सदा एक स्मित भी रहता था और हास्यवृत्ति से भरपूर, पर उसका वो समय आने पर ही उपयोग करता था| दिखने में अच्छा ही था, पर अपने हम उम्र अन्य लडको की तरह बोडी बिल्डर नहीं था| खानपान का शौक़ीन और वो शौक भी शायद अपनी मम्मी की वजह से ही लगा था क्यूंकि वे लाजवाब खाना बनाती थी, और इसीलिए शांतनु का वज़न थोडा ज्यादा भी था| पिता के प्रति अदम्य प्रेम और माँ के जाने के बाद जीवन के हर सुख दुःख को वो एक खास दोस्त की तरह अपने पिता के साथ शेयर करता था| धरित्री बेन के जाने का दुःख तो दोनों को था पर ‘लाइफ गोज़ ओन’ के सिध्धांत का अनुसरण कर के दोनों ने रो रो कर ज़िंदगी न गुज़ारने का वचन एक दुसरे को बगैर कहे ही दे दिया था|

शांतनु अपने प्रातः कार्य समाप्त कर डाइनिंग टेबल पर आ गया जहां हर रोज़ की तरह ब्रेड, बटर और वेजिटेबल सेंडविच उसकी प्रतीक्षा कर रहीं थी| जिस घर में जब माँ, बहन या पत्नी नहीं होती तब यह तकलीफ ज़रूर होती है की आप को गरमागरम नाश्ता नहीं मिलता अगर आपको खाना पकाना न आता हो तो|

‘रोज़ रोज़ ये सब खा कर बोर हो गया हूं पापा, अब कब दोगे नया नाश्ता?’ टेबल के सामने बैठते ही शांतनुने शेर ठोका|

‘जल्द ले आओ एक बहु और रोज़ खाओ मैगी और पास्ता!’ ज्वलंत भाईने शांतनु के आउट स्विंगर पर चौका जड़ दिया|

‘टाइम प्लीज़ पप्पा, जब भी आप मुझे कोर्नर करना चाहते हो तब इस बहु नामक प्राणी बीच में मुझे डराने के लिये ले आते हो और मैं तुकबंदी भूल जाता हूँ|’ शांतनु ने फरियाद का सूर आलापा|

इन पिता पुत्र के बीच चोबीसो घंटे चलते इस प्रासानुप्रास के खेल का एक नियम यह भी था की ‘टाइम प्लीज़’ बोले बगैर अगर कोई प्रास तोड़ता है तो उसे दुसरे को एक चोकलेट देनी पड़ती थी| ज्वलंत भाई से शांतनु का स्कोर इस मामले में काफी ऊँचा था पर इस बार उसने बगैर गलती किये ‘टाइम प्लीज़’ कह दिया था| ज्वलंत भाई ने स्मित दे कर उसका जवाब दिया. ‘बहु’ नामक शस्त्र वो हरदम अपने पास रखते थे, उन्हें जब भी शांतनु को चिढ़ाने का मन होता था तब वे उसका उपयोग करते थे|

‘चलो शांतनु, जल्द खत्म करो यह सेंडविच और तुंरत पीओ पानी, क्यूंकि अगर पहोंचे ऑफिस देरी से तो बिगड़ेगा वो बंगाली|’ ज्वलंत भाई ने शांतनु के पीछे लटकी हुई घड़ी में पाने नौ बजे देख कर उसके एलर्ट कर दिया|

शांतनु को हर सुबह साड़े नौ बजे अपने ऑफ़िस में रिपोर्ट करना होता है. वैसे तो अहमदाबाद के सेटेलाइट एरिया से सी जी रोड जाते समय सुबह के उस वक्त पर ज्यादा ट्राफिक नहीं होता पर देरी से ज्यादा पहेले पहोंचना अच्छा ऐसी ज्वलंत भाई की अनुभवी सलाह शांतनु सालों से फोलो कर रहा था|

शांतनु का बोस शरदेन्दु मुखोपाध्याय उस से करीबन दस साल बड़ा था और शांतनु के हिसाब से एकदम ‘बोरिंग’ इंसान था| सुबह आठ बजे ऑफ़िस आ जाता और देर रात तक काम करता| जब देखो तब काम, काम और काम| शांतनु इससे पहेले भी एक इन्शोरन्स कंपनी में ही काम कर चूका था, पता नहीं पर उसको बीमा बेचने की कला कुछ ऐसी आत्मसात हो गई थी की वो हर महीने के पहले दस दिन बहुत मेहनत कर के अपना टार्गेट पूरा कर लेता और बाकी के बीस दिन मज़े करता| इन बचे हुए बीस दिनों में वो या तो मूवी देखने जाता और अगर कोई क्रिकेट मेच होता तो घर जा कर उसको देखता या फिर अपने भाई जितना खास दोस्त अक्षय के साथ पूरा दिन गप्पे लड़ाता| आज तो महीने की पांचवी तारीख थी और शांतनु को टार्गेट के चालीस प्रतिशत भी एचिव नहीं किया था इस लिये उसको भी ऑफ़िस जाने की जल्दी थी ही. दोपहर का खाना वो बहार फ़ील्ड पर या फिर ऑफ़िस की केन्टीनमें खा लेता, पर रात का खाना वो ज्वलंत भाई के साथ ही खाता|

फटाफट नाश्ता कर शांतनु ‘बाय पप्पा’ कह कर घर के बाहर निकला|

‘अरे शांतनु, आपकी बैग तो यहीं रह गई|’ ज्वलंत भाई ज़रा ज़ोर से बोले|

‘ओह सोरी पप्पा|’ शांतनु दरवाज़े से ही वापस आया| एक हाथ में अपना बैग और दुसरे हाथ से अपने जूते ठीक करते शांतनु अपने फ्लेट की सीड़ी उतर गया|

***

शांतनु को लग रहा था की आज वो ओफिस शायद देर से पहुंचेगा इस लिये उसने अपनी बाइक ज़रा तेज़ चलाई, और आख़िरकार वो सवा नौ बजे अपनी ऑफ़िस के बिल्डिंग की पार्किंगमें पहोंच चूका था| पर ये क्या? आज पार्किंग में उसकी फेवरिट जगह भर चुकी थी, वैसे तो सारा पार्किंग ही भरा पड़ा था| शांतनु के ऑफ़िस की बिल्डिंग की लगभग सभी ऑफिसों के कर्मचारी मुख्य मार्ग के पे एंड पार्क में ही अपने अपने वाहन पार्क कर मुंह फुलाये लिफ्ट की और जा रहे थे| शांतनुने भी अपनी बाइक अपने पैरों से चलाते चलाते पीछे की और मुड़ी और फिर फूटपाथ से सटी कोर्पोरेशन की पेइड पार्क में उसे पार्क कर दी| अभी तो उसने अपना हेल्मेट लोक भी नहीं किया था और ऑफ़िस पार्किंग में अपनी फेवरिट जगह पर पार्क करनेवाले को वो कौन सी गाली दे वो सोच ही रहा था की उसके कान पर एक आवाज़ आई...

“दो रूपये सर!” पीछे मुड़ कर देखा तो पार्किंग का एटेंन्डन्ट एक छोटी सी चिट जिस पर छोटे छोटे अक्षरोंमें पार्किंग के चार्जिस लिखे थे उसको शांतनु के सामने ले कर खड़ा था|

“अरे, यार अभी ले ही जा रहा हूँ| इसी बिल्डिंग में काम करता हूँ| सिर्फ उपर पूछने जा रहा हूँ की इतना सारा पार्किंग किसने किसकी इजाज़त से किया है?” शांतनु का मूड अभी भी खराब हो रख्खा था|

“ना साहब, हमारी तो ड्यूटी है, दो रूपये दीजिये|” वह बोला

“सवाल दो रूपये का नहीं है बेटा, तू समझा नहीं, ऐसे ही रख्खा है|” वो लड़का समझ नहीं रहा था और शांतनु की परेशानी बढ़ रही थी|

“हा साहब, में समझ सकता हूँ, पर फर्ज़ मतलब फर्ज़, अगर हमारे पटेल साहब कहीं से आ गए तो मेरी तो नौकरी चली जायेगी|”

“क्या यार तुम भी...” शांतनुने मुंह बिगाड़ कर उसके हाथ में दो रूपये का सिक्का थमाया और उस छोटे से कागज़ को अपनी शर्ट के पॉकेट में घुसा दिया|

घड़ी ऑलरेडी नौ बज कर बाईस दिखा रही थी| शांतनु का कभी भी ऑफिस लेट न होने का रिकोर्ड आज शायद टूट ही जायेगा, क्यूंकि उसका ऑफिस पांचवे तल पर था और आज दोनों लिफ्ट के सामने लंबी कतार लगी थी जिसको वो दूर से देख रहा था| शांतनु ने लिफ्ट की और दौड़ लगाई|

“अगर पहेली बार में मेरा टर्न नहीं आयेगा तो में सीढ़ियों से चढ़ कर पहोंच जाऊँगा” शांतनु ऐसा सोच कर आगे बढ़ ही रहा था की पीछे से एक आवाज़ आयी|

“का हो सांतनु बाबु| आज बगैर बीड़ी पिलाये ही जा रहे हो?”

यह आवाज़ मातादीन की थी| मातादीन यानि शांतनु के ऑफिस कोम्प्लेक्स का सिक्योरिटी गार्ड| हर सुबह उसको बीड़ी पिलाना शांतनु का रुल था| इस के बदले में मातादीन शांतनु को प्राण से भी प्यारी ऐसी उसकी बाइक का ‘पर्सनल’ ख्याल रखता| बारीश के मौसम में तो शांतनु उसको अपनी बाइक की एक्स्ट्रा चाबी ही दे देता, क्यूंकि कभी वो अक्षय के साथ उसकी बाइक पर काम पर गया और ज़ोरदार बारीश आ गई और शाम को वो ऑफिस नहीं पहुँच पाया तो मातादीन उसकी बाइक को बिल्डिंग के तहखाने में रख देता|

“मातादीन चाचा आज थोड़ी देरी हो गई है, और मेरी जगह किसी दुसरे को पार्क क्यों करने दिया?” शांतनु ने फरियाद की

“अरे उ पांचसो तीन में कौनो नवा औफ़िसवा खुला है, अब उ लोगन ने पांच पांचसो लोगन को इक साथ बुलावा भेजा लागत है और ससुरे सारे के सारे इक साथ ही आ धमके| अब हम अकेला आदमी कीस कीस पर नज़र रख्खें बचवा?” मातादीन ने भी अपना पक्ष रख्खा

“कोई बात नहीं. फ़िलहाल तो देरी हो रही है, एक घंटे बाद जब मैं फ़ील्ड पर जाऊँगा तो बीड़ी तो क्या आज चाय भी पिलाऊंगा|” शांतनु ने मातादीन को एक मुस्कान दी और लिफ्ट की और चल पड़ा|

बिल्डिंग की दोनों लिफ्ट के सामने लगी कतारों में दस-दस लोग खड़े थे| लगभग सभी के हाथ में बुके या गिफ्ट या दोनों थे| सारे उस नयी ऑफिस के उद्घाटन के लिये ही आये हों ऐसा लग रहा था| शांतनु की ऑफिस पांचसो पांच में और ये पांचसो तीन उसके बिलकुल सामने ही थी|

“महीने भर से उधर पेंटिंग और फर्नीचर का काम चल तो रहा था, पर आज ही उद्घाटन होगा उसका तो कुछ पता ही नहीं था| कल शाम को जब घर के लिये निकला तब वहां चिड़िया भी नहीं उड़ रही थी|” सीढ़िया चड़ते शांतनु के दिमाग में ख्याल आते गये|

थोडा भारी शरीर होने के कारण तीसरे तल तक पहोंचते शांतनु की साँस थोड़ी सी फूल गई, पर घड़ी नौ सत्ताईस दिखा रही थी इस लिये उसके लिये हर सेकेंड कीमती था| शरदेन्दु का चहेरा भी लगातार उसकी नज़रों के सामने आ रहा था| शांतनु अब दो सीढियां एक साथ चड़ने लगा और फिर सिर्फ एक ही मिनीट में पांचसो तीन के बहार लगी भीड़ को चीर कर वो अपने ऑफिस में घूस गया और अपने कार्ड को स्वैप कर लिया|

“फ़्यूऊऊउ...” शांतनु के मुंह से साँस निकल गई और रिसेप्शन के बगल में रख्खे वोटर कूलर में से एक ग्लास में पानी भर कर पूरा पी गया|

क्रमशः

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