Hawao se aage - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

हवाओं से आगे - 16

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

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सूत का बंधन

(भाग 1)

सुरेखा ने खिड़की से बाहर झाँककर देखा, पिछली रात से झूमकर चढ़ी काली बदली लगातार बरस रही थी | यूँ लग रहा था जैसे एक ही रात में बरसकर पिछले सारे मौसमों की कसर पूरी कर लेना चाहती हो | ज़रा दूर निगाहें दौड़ाई तो मरीन ड्राइव पर लोगों का जमघट ज्यों का त्यों जुटा नज़र आया |छातों में दुबके एक-दूजे के काँधों पर सिर टिकाए अनेक प्रेमिल जोड़े बैठे दिखे | पता नहीं किस सुख की चाह में सुबह की पहली किरण उगते ही यहाँ अनेक लोग आ बैठते हैं | और फिर वेषभूषा का तो फर्क ही है वरना ये नज़ारे किसी विदेशी धरती से कम नहीं हैं अब |

पर्यटक तो यहाँ पूरे बरस आते-जाते रहते हैं किन्तु मुंबईकर भी ऐसे मौसम की फ़िराक़ में रहते हैं फिर चाहे देर रात तक लहरों देखना हो, या पर्यटकों की आवाजाही देखना हो या फिर अपने दोस्तों के साथ गपसप करना हो, लोकेलाइटस का भी मज़मा हर समय जमा रहता है | नगरपालिका की चेतावनी के बावजूद भी लोग हटने को तैयार नहीं होते | पिछली शाम ही अतिउत्साह में एक युवक-युवती ने सेल्फी के चक्कर में अपनी जान गवां दी थी | उनका कसूर यह था कि वे सीमेंट के लॉग्स को पार करते हुए लहरों के समीप जा पहुँचे ही थे कि उसी वक्त कुछ लहरों ने अपनी बाहें ज़रा ज्यादा फैला दी और काल के ग्रास में समा गए दोनों | बस एक हेडलाइन और अख़बार की रद्दी बन जाती हैं ऐसे ख़बरें |

“ऊँह... अजीब जुनून चढ़ा है नयी पीढ़ी को ?” सुरेखा मन ही मन बुदबुदाने लगती है | मौत तक से रिस्क खेल जाते हैं, जानते नहीं प्रकृति किसी की नहीं सुनती, उसके तो अपने नियम-कानून होते हैं जहाँ किसी की सुनवाई नहीं होती बस सीधा फैसला सुना दिया जाता है | इंसान को उसके फरमान के आगे सिर झुकाने की भी फुर्सत अता नहीं की जाती कई बार तो, ऐसे ही एडवेंचर्स में न जाने कितनी ही ज़िंदगियाँ तबाह हो जाती हैं, जैसा पिछली रात हुआ |

उसे अपने बढ़ते बच्चों की फिक्र होने लगती है किन्तु क्या करे जिस वातावरण में रहते हैं उसका असर रगों में उतरता ही है, भला कैसे अलहदा रखे अपने बच्चों को ? घोसलों से पंख पसारे बच्चे इस पूरे जहान में विचरण करते हैं, ऐसे में घर के संस्कारों में बाहरी संस्कृति का मेल होना लाज़िमी है | “फिर भी मैंने उन्हें आज़ादी दी है स्वछंदता कतई नहीं |” सुरेखा को अपने ही शब्दों पर विश्वास करने के लिए उन्हें ज़ोर-ज़ोर से बोलकर अपने कानों के भीतर समाहित करना पड़ा | ये उसका ही डर नहीं था, उसकी सोच और शब्दों में हर माँ की चिंता थी जिसके युवा होते बच्चे इस दुनिया के भावी नागरिक थे |

सुरेखा रिकॉर्ड प्लेयर पर डोरिस डे का गाया अपना पसंदीदा रिकॉर्ड चला देती है “के सेरा-सेरा व्हाटएवर विल बी, विल बी, द फ्युचर इस नोट आवर्स टू सी, के सेरा सेरा... व्हाट एवर विल बी विल बी...” सुरेखा बालकनी में रखी आरामकुर्सी पर धंस जाती है और देर तक घर में “विल बी...विल बी” की आवाज़ गूँजकर सकारात्मक तरंगे उत्पन्न करती रहती है |

ज़रा हिम्मत बटोरती है तो की सुरेखा नज़रें थककर पुनः अपनी कॉलोनी के गेट के भीतर लौट आती हैं | कॉमन-प्लॉट में रंग-बिरंगे फूलों को देखकर मन प्रसन्न हो गया, नहा-धो कर अच्छे बच्चे से सजे-धजे नन्हें पौधों को देखकर उसे सुकून मिला हालांकि बड़े और पुख्ता हो आए दरख़्त फिर भी लापरवाही से बाल बिखराए ढीठ खड़े थे |

बगीचे के मेन गेट पर जाकर उसकी नज़रें डटी रह गई थी, यूँ लग रहा था कमर तक झुक आई बोगनविला की बेल किसी भी क्षण धरती पर बिखर जाएगी | लेकिन जब-जब भी बोगनविला इस स्थिति में आती है तो दीवार के एक कोने में खड़ा बिजली का खंभा सीमेंट से बना अपना मजबूत कांधा लिए उसे संभालने के लिए उपस्थित रहता है | और जब भी नगरपालिका के लोग इस खंभे को थोड़ा दूर खिसकाने का मानस बनाकर आते हैं ठीक उसी सुबह बोगनविला हजारों-हज़ार फूलों से लदी खंभे पर वारी-न्यारी होकर छाई रहती है | कई बरसों से यही सिलसिला चल रहा है | अब तो सुरेखा भी आश्वस्त हो चली है इनके इस गिव एंड टेक रिलेशनशिप से कि इन दोनों का कोई बाल भी बाँका नहीं कर पाएगा | बड़ा मजबूत जोड़ है, कैसे उपजी होगी ये समझ इनमें ? एक सजीव तो दूसरा निर्जीव फिर भी कैसे ये नाता पनप आया इनमें ? शायद अपने-अपने वजूद को बचाए रखने की म्यूचुअल अंडरस्टेंडिंग होगी ? जो ये दोनों समझ बैठे हैं पर सीमेंट में दिल-औ’ दिमाग कहाँ होता है ? वह अपने ही तर्कों के जाल में फँसने लगती है... खैर शायद यह बोगनविला की एकतरफ़ा समझ रही होगी |

पता नहीं ये बारिश सुरेखा को सुहाती थी या उसने किन्हीं कमजोर क्षणों में खुद ही इसे रोने का मौसम बना लिया था | बाहर रिमझिम शुरू होते ही वह किसी और ही दुनिया में विचरण करने लगती है | उसे अपने-आपको लौटा लाने के लिए इरादतन कोशिशें करनी पड़ती हैं वरना गहन उदासियों के साये तले फिर कई-कई दिनों तक वह तकिए से लगी रोती ही रहती है | मौसम का क्या कसूर उसे तो अपनी मियाद पूरी करनी ही है, उसे ही जाने क्यों बारिशें बोझिल लगने लगती है जबकि इस मौसम का तो लोग इंतज़ार करते हैं | चारों ओर प्रकृति खुलकर अपने शबाब पर होती है, हरियाली का साम्राज्य होता है | बरस भर चुप करके किसी पेड़ की खोह में छिपी पड़ी कोयल भी बेतहाशा विलंबित लय में कूक उठती है किन्तु एक वह है कि जिसे आसमान में छाई काली बदली का रोना भर दिखाई देता है, न उसका आफ्टर इफ़ेक्ट न बिफ़ोर इफ़ेक्ट | विपिन कहा करता था “तुम भी न एक नमूना हो, बॉय गॉड ! कमाल का दिमाग पाया है तुमने, जब लोग खुश होतें हैं तब तुम रोती हो | काली बदली नहीं चढ़ेगी तो सावन कैसे आएगा पगली ?” पर सुरेखा अपने मन की उलझनें किसी को समझा नहीं पाती कि क्यों वह व्याकुल हो उठती है | दरअसल वह तो खुद ही बेज़ार है इस रोने-धोने से, देह पर नेह भारी पड़ता है और मन टूट-टूट जाता है | वह बस इतना ही जानती है कि सावन में एक त्योहार ऐसा भी आता है जब वह अपने-आपको बेहद एकाकी और तन्हा पाती है |

जब-जब विपिन उसे झिड़कते हैं वह बस अपनी प्रिय चुप्पी को शाल की मानिंद अपने से लपेटे सिमट जाती है | कुछ बातें न किसी को समझ आती है न चाहकर आप उन्हें समझा पाते हैं तो ऐसी कोशिशें ही क्यों की जाए जिसमें आपके हाथ नाकामयाबी ही आने वाली हो | वह कितनी मर्तबा बहस कर-करके थक गई कि लौट चलो यहाँ से, अपना कौन है यहाँ ? पर विपिन है कि अपनी दुकान समेटना ही नहीं चाहता, उसकी दलील रहती है -

“अब इस उम्र में फिर से धंधा जमाना मेरे बस की बात नहीं ? तुम सिर्फ भावनात्मक होकर एकतरफ़ा फैसला लेती हो जबकि मैं रोज़ी के साथ-साथ सबके लिए रोटी के बारे में भी सोचता हूँ |”

“सो तो है पर किसी दिन परेशानी आई तो भागम-भाग करते शहर में कौन हमारी मदद को आएगा ?”

“तुम ऐसा बुरा सोचती ही क्यों हो ?”

“मैं सोचती नहीं किन्तु उम्र के साथ-साथ ये सवालात मेरे ज़ेहन को मथने लगे हैं अब”

“सो तो है...पर वापसी मुमकिन भी नहीं है तो आसान भी नहीं है |”

“हम्म...” सुरेखा अक्सर इसी हम्म के साथ चुप हो जाया करती है -

“अपने छोटे से दिमाग से इतना मत सोचा करो मेरी प्यारी हमिंग बर्ड !” विपिन उसे हँसाने का भरसक प्रयास करता है किन्तु ऐसे मौकों पर अक्सर वह सुरेखा को समझाने के प्रयास में निष्फल हो जाया करता है |

“छोटा-सा दिमाग ? बस छोटा-सा ही दिमाग होता है हम औरतों का, है न ?”

“तुम तो दिक पर उतर आती हो, अच्छा चलता हूँ, शाम को जल्दी आता हूँ फिर घूमने चलेंगे |” इस आख़िरी पैंतरे पर भी सुरेखा पिघलती नहीं और पलंग पर और अधिक खुलकर पसर जाती है | बच्चे स्कूल से लौटेंगे तब तक उसे सुस्ता लेना चाहिए |

उस शाम जब वह सोकर उठी तो अंधेरा उतर कर उसके पैताने तक पसर चुका था | बेसमय का सोना और खाना दोनों ही उदासी लाता है, अब शाम का बचा-खुचा हिस्सा उसे फिर इस उदासी के साथ गुज़ारना होगा | बच्चे स्कूल से लौटकर खाने की टेबल पर ढँका रखा खाना खाकर खेलने भी जा चुके थे | इस घर में किसी को किसी की जरूरत न रहे ऐसी ट्रेनिंग उसकी अपनी ही दी हुई थी | वह चाहती थी सब आत्मनिर्भर हों, आख़िर बड़े शहरों की यही मांग होती है |

“कोई किसी के इंतज़ार में थमता नहीं वर्ना वक़्त के साथ ठहर जाना पड़ता है और आप पिछड़ते चले जाते हो |” यही सीख दी थी विपिन ने जब उसने पहली बार रेल्वे स्टेशन पर कदम रखा था | उसने विपिन के एक-एक शब्द को अपनी देहाती साड़ी के पल्लू में गांठ बांधकर रख छोड़ा था | फिर समय के साथ-साथ वह बदली तो साड़ी न जाने किस सन्दूक में दब गई | उसके नए पहनावे के बावजूद भी गांठ में बंधा हुआ हर शब्द उसके ज़ेहन में ज्यों का त्यों रच-बस गया था, तो अब क्या मलाल ? अच्छा है कल को उसे कुछ हो भी जाए तो कम-अज-कम उसकी कमी इस घर को नहीं खलेगी |

“ऐसा तुम्हारा विचार है, सुरेखा ! हम सभी अपनी ज़िंदगियों में व्यस्त हैं पर ऐसा नहीं की तुम्हारी ज़रूरत हमें या इस घर को नहीं है |”

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