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दाम्पत्य

दाम्पत्य

बात २०१४ के प्रारंभ की है जब नायक की सगाई परिवार जनों की व्यवस्था पद्धति (अरेंज ) से सम्पन्न हो चुकी थी, जहाँ पहली ही मुलाकात में नायक-नायिका (भावी दम्पति) ने उस समय सूझी हुई सभी जरुरी बातें पूरी करने के बाद भी, यदि कुछ बाकि रखा तो सिर्फ एक दुसरे के मोबाइल नंबर साझा करना,जो कि इस समय तक किसी रश्म की भांति ही प्रचलन में आ चूका था, या यु कहूँ कि वही एक मात्र रिवाज था जिसे पूरा करने का दोनों में से किसी एक ने भी प्रयास भले न किया हो, पर मन ही मन दोनों ही इसके लिए कुंठित अवश्य हुए ।
नायक सभी परिवार जनों सहित घर पहुंचा ही था कि पता चला कि जिस रिवाज को वे भुला कर आये है उसे अंजाम तक पहुचाने का जिम्मा इधर नायक के भाई ने तो उधर नायक की सालियों ने उठा रखा था , दोनों पक्षों ने उस अनकही जिम्मेदारी को अपनी अपेक्षाओ के साथ उसके अंजाम तक बखूभी पहुचाया भी |
इस तरह शुरू हुई नायक के दाम्पत्य जीवन की भागदौड़ की संयमित पर संयोजित शुरुआत |
भले यह सब संयोजित हो पर परिणामस्वरूप अब दोनों की नियमित अंतहीन बातें शुरू हो चुकी थी ,जो कभी कभी दोनों से शुरू होकर पुरे परिवार का चक्कर लगाने के बाद, तो कभी कभी जहाँ से शुरू वहीँ पर ख़त्म होने लगी | समय के साथ बातें नाराजगी,प्रसन्नताओं जैसी भावनाओं का पर्याय भी बनने लगी | देखा जाता है कि इन्हीं भावनाओं के जुड़ने से ही तो रिश्तों में लगाव बढ़ता है या यूं कहें कि लगाव बढ़ने पर ये भावनाएं स्वतः स्फूर्त होने लगती है ।
ऐसे चलते चलते पता ही नहीं चला कि कब 5-6 महीने बीत गए । जैसे जैसे समय बीतता गया दोनों में ही मिलने की बेसब्री भी बढ़ती गयी ,बेसब्री का ही सबब था कि दोनों ही मिलने का कोई भी अवसर निकलने नहीं देना चाहते थे । इसी अवसर की तलाश में बैठे एक दिन नायक को पता चला कि नायिका आज परिवार सहित खाटू गयी हुई है सवामणी में, बस फिर क्या था पूरी कहानी गढ़ ली गयी अपनी बेसब्री को नाक की सीध में रखकर नायक शिघ्र ही खाटू पहुँच गया । जहाँ नायिका अपनी बहन के साथ पहले से ही पलक लगाए राह निहारती हुई इंतजार के पलों को मानो माला के मानकों की भांति गिन रही थी। जैसे ही नायक पहुंचता है तो दोनों चले बाजार की रौनक देखने , वैसे ये वो समय होता है जहाँ बाजार की बड़ी से बड़ी रौनक भी दोनों को एक दूसरे के साथ से इतर फ़ीकी ही नजर आती है , तभी बाजार भ्रमण तो खाटू धर्मशाला में इंतजार कर रहे परिवार जनों से थोड़ी दूर एकांत में जाने भर का एक बहाना ही था।
नायक नायिका खाटू पहुँच कर बाजार का भ्रमण कर ही रहे होते है कि अचानक तभी उनके सामने एक विक्षिप्त वस्त्रों में एक याचिका आती है तथा बाबा की दुहाई देकर कुछ मांगने लगती है , नायिका ने कुछ देने के लिए अपना पर्स खंगालना शुरू किया ही था कि याचिका ने एक कदम आगे बढ़कर बाबा की दुहाई छोड़कर 'दूधो नहाओ पूतो फलो' का आशीष की दुहाई देने लगी।
उसका यह कहना हुआ था कि इधर नायिका ने पर्स खंगालना बंद किया, पहले तो वह कुछ समय के लिए विस्मृत हुई और फिर कहने लगी, पहले शादी तो होने दे करम जली, वहीं प्रतिक्रिया स्वरूप नायिका का हक्का बक्का चेहरा व प्रतिक्रिया देख कर नायक अपनी हंसी नहीं रोक पा रहा था। नायक को इस तरह हँसते हुए देख कर जहाँ नायिका को उस याचिका पर ओर भी गुस्सा आने लगा ,पर भला करती भी क्या? क्योंकि मुहँ से निकली वाणी और कमान से निकला तीर, अपने सामर्थ्य अनुरूप गंतव्य तक पहुंचने से पूर्व, न तो वापस लिया जा सकता है और न ही उसके प्रभाव को पूर्णतया नष्ट ही किया जा सकता है । पर ये क्या यहाँ तो नायिका जो कि, अभी तक नायक का हाथ पकड़े हुए कंधे से कंधा मिलाते हुए चल रही थी ,वह मानो अब याचिका की वाणी के प्रभाव को नष्ट करने के उद्देश्य से ही हाथ छिटक कर दूरी बना कर चलने का प्रयास करने लगी। तब नायक को लगा कि किसने कह दिया कि वाणी और तीर के प्रभाव को नहीं रोका जा सकता, यदि मनुष्य छोटा सा प्रयास करके अपनी इन्द्रियों को वश में रख कर भावनाओं से बाहर आ सकता है तो वह सब कुछ कर सकता है। अब नायक को याचिका का, वह आशीष भी अभी के लिए किसी दुराशीष से कम नहीं लग रहा था जिस पर कुछ समय पूर्व तक वह हंस रहा था। यही सोचते हुए नायक को उस तत्कालिक दुराशीष की काट खोजने में भी तनिक देर न लगी।
नायक ने देखा कि घूमते घूमते सुबह से दोपहर हो गयी पर एक ओर जहाँ नायक सगाई के बाद दूसरी बार नायिका से मिलकर अत्यंत प्रसन्न था । वहीं दूसरी ओर वह सुबह से लेकर अब तक परेशानी का ही सबब बनी सुमन के दुबारा कॉल आने का इंतजार करने लगा ताकि याचिका के आशीष के दुष्प्रभाव से दोनों (नायक-नायिका) के बीच हुई दूरी को पाटा जा सके क्योंकि नायक यह भली भांति समझ रहा था कि एक लोहे की रॉड पर कई चुम्बक तो चिपक सकती है पर कोई नायिका दूसरी चुम्बक रूपी खलनायिका की नायक से नजदीकी किसी भी कीमत पर नहीं सह सकती । भले ही उसे उसके लिए कुछ भी करना पड़े और यहाँ तो बात बस वापस कुछ नजदीकी लाने भर की थी।
दरअसल सुमन फोन करने वाली लड़की का नाम था जिससे नायक की मान न मान मै तेरी मेहमान जितनी ही पहचान थी। खाटू पहुंचने के बाद भी उसका कॉल आने के बाद नायक धीमी आवाज में किसी जरूरी कॉल की कहकर एकान्त में जा कर उसे समझा कर एवं दुबारा कॉल नहीं करने की हिदायत देकर कॉल काट देता। पर वह कहाँ मानने वाली थी।

वह तो नायक को अपनी मीठी मीठी बातों में फंसा कर पता नहीं क्या करने में थी, जिसका न तो आभास ही नायक को था और न ही ऐसे फिजूल के कामों के लिए समय ही नायक के पास था।
तभी तो सुबह से नायक उसे यह समझा समझा कर कई बार फोन काट चुका था कि मेडम या तो आपने गलत नंबर मिला दिया या फिर आप गलत आदमी पर अपना मोह का ब्रम्हास्त्र फेंक रही है क्योंकि मैं आपको विश्वास देता हूँ कि वह ब्रह्मास्त्र मेरे पर असरदार नही होगा। ।

अचानक नायक के फोन की घंटी बजती है नायक ने फोन निकाल कर देखा कि उसी (सुमन) का कॉल था वह उठाने वाला ही था कि यह देख कर सामने बैठी नायिका तंज कसती है जाओ किसी कोने में फिर कोई जरूरी कॉल ही होगी आपकी , सुबह से वो ही तो आ रही है।
इस पर नायक कहता है, नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, जो यहाँ नहीं हो सकती ,ठीक है तो इस बार यहीं कर लेते है ।
नायक कॉल उठाता है और बड़े ही प्यार से बोलता है हेल्लओ...
उधर सुमन भी इतनी प्यार भरी हेलो सुन कर चोंक जाती है आखिर चौंके भी क्यों नहीं, जो व्यक्ति सुबह से रूखे पन से बात करते हुए दुबारा कॉल नहीं करने की हिदायत दे रहा हो , और आकस्मात ऐसा व्यवहार करे तो चौकना लाजमी भी है।
खैर सुमन आगे कहती है , तो जनाब ने आखिर हमें स्वीकार ही लिया ।अब मैंने ऐसा कब कहा कि मैंने आपको स्वीकार लिया है मैडम । नायक ने मैडम शब्द पर जोर देते हुए कहा ताकि सामने बैठी नायिका के चेहरे पर उसका प्रभाव देखा जा सके।
स्वीकार करना तो दूर मैंने आपको अभी तक पहचाना तक नहीं, मैने सुबह भी आपको यही कहा था और अभी भी यही कहूँगा कि या तो आपने गलत व्यक्ति को फोन किया है या फिर गलती से गलत नंबर मिला दिया है ,इसलिए हे कलयुगी मेनका ,आप व्यर्थ ही अपना समय इस रावण पर व्यर्थ कर रही है या तो आप इस कलयुग में विश्वामित्र की खोज करें अथवा देवराज इंद्र की। क्योंकि एक तो मै रावण जो हजारों वर्ष पूर्व युद्ध हार कर आज देवी मंदोदरी के साथ खाटू नगरी आया हूँ क्योंकि सुना है कि पूरे ब्रह्माण्ड में यदि हारे का सहारा कोई है तो वह सिर्फ खाटू नरेश ही है।
नायिका अब तक इतना तो समझ ही चुकी थी कि सब बाते केवल उसे सुनाने के लिए ही बुनी जा रही है , नहीं इस कलयुग में राम ,रावण का मिलना जितना असंभव है उससे भी कहीं ज्यादा मंदोदरी सरीखी सती का मिलना भी है । कहाँ आजकल राम जैसी मर्यादा पुरुषो में मिलती है तो कहाँ राक्षस कुल में जन्मे रावण जैसा संयम आज के पुरूषों में मिलता है जो अपनी राक्षस प्रवत्ति के चलते जहाँ एक और सीता का हरण तो करता है पर वहीं
सीता की मर्जी के खिलाफ उसे छूना भी अपनी कायरता समझता है तभी तो शत्रु की पत्नी से भी अपहरण के बावजूद संयमित व्यवहार करता है, क्या मिल सकते है इस युग मे ऐसे नायक और खलनायक । कहाँ उस युग मे मेनकाओ के, अनेको प्रयासों के बाद नायक रीझते थे ,कहाँ आज कुत्सित मानव बच्चीयों में भी मेनका को खोजते रहते है। यह सोचते सोचते नायिका को ध्यान में आता है कि ये तो सभी सतयुग के पात्र है जिनसे न तो मुझे कोई खतरा, और न ही उनकी अब इस कलयुग में कल्पना की जा सकती है ,पर कॉल पर सामने जो मेडम है वह भी इसी युग की है और वे भी। यह खयाल आते ही नायिका ठिठक कर तुरंत नायक के बगल में आ कर बैठ जाती है और दोनों की वार्ता पर पैनी नजर रखती है क्योंकि वह जानती है कि नजर ही है जो बात के वजन को वार्ताकारों के चेहरे के हाव भाव से तोल भी सकती है और आपस की खिंचड़ी को पकने अथवा जलने से रोक भी सकती है।
नायिका के बगल में बैठते ही नायक भाव बदलकर कहता है देखो मेडम सुमन जी,आप से मैं सुबह से कई बार कह चुका हूं कि आपने गलत व्यक्ति को या गलत नम्बर पर कॉल किया है,इसलिए फिर अनुरोध करता हूँ कि दोनों में से किसी एक को चेंज करके अपनी गलती सुधार करलें ।
‌इतना सुनते ही सुमन बोली कि सुनिए जी , न तो मैंने गलत नंबर मिलाया है और न ही गलत व्यक्ति को फोन मिलाया है । और जहाँ तक आपको मैं जानती हूँ आप अच्छे खासे जवान खूबसूरत और नवयुवक हो ,यदि अब भी मैं गलत हूँ, तो आप ही बताइए,**
‌नायक कहता है जी बिल्कुल आप मेरे मतानुसार गलत व्यक्ति को ही मुझमें खोज रही है क्योंकि न तो मैं कोई नवयुवक हूँ और न ही जवान और खूबसूरत। नायक नायिका के चिकोटी काटते हुए आगे कहता है ..पर हाँ यदि आप घोर श्यामवर्ण (गहरा काला रंग) को ही मेरी सुंदरता मानती है तो बेशक वह मैं ही हूँ क्योंकि सुर्यास्त और सूर्योदय के मध्य यदि मैं अपने कमरे से बाहर निकल जाऊं तो हजारों तारों की धीमी रोशनी को भी अंधेरे में बदलते तनिक देर नहीं लगती है। और हाँ, मैं आपको आश्वस्त कर दूं कि मेरे घोर श्यामवर्ण की भूमिका में, न तो मैने कोई अतिश्योक्ति का उपयोग किया है और न ही एक बार मुझे देखने के बाद किसी को भी सुर्यास्त औऱ सूर्योदय के मध्य घटित होने वाली स्थिति पर आश्चर्य ही होगा ,हर देखने वाला एक ही बात बोलेगा जिसे मैं भी मेरी नियति समझ कर बचपन से गुनगुनाता आ रहा हूँ 'ये तो होना ही था'।
और ‌यदि आप 50 साल की अधेड़ अवस्था को भी नवयुवक मानती है तो विश्वास कीजिए कि सलमान और राहुल गाँधी के बाद वह तीसरा सौभाग्यशाली युवा, मैं ही होऊंगा जिसे इस अवस्था मे भी युवा कहलाने का सौभाग्य केवल आपके पुण्य प्रताप से मिलेगा।
और हाँ अंतिम मुख्य बात यदि आप एक अधेड़ की जवानी को उसके बच्चों की संख्या से ही जांचना चाहती हैं तो भी अब मूझे लगता है कि आपने सही नंबर पर ही नहीं बल्कि सही व्यक्ति को भी फोन लगाया है क्योंकि इसका अंदाजा आपको यह सुनते ही लग जायेगा कि मैं अगले महीने में सचिन तेंदुलकर की 10 वे नंबर की जर्सी किसी भी कीमत पर केवल इसलिए खरीदना चाहता हूं ताकि उसे मेरे 10 वे नंबर के बच्चे को उसके जन्मदिन पर तोहफे में दे सकूं।
‌इतना कहने के बाद नायक ने फोन काट दिया । फोन काटते ही इस बार हंसने की बारी नायिका की थी, वह चाह कर भी अपनी हंसी नहीं रोक पा रही थी । नायक को नायिका की हंसी में जहाँ दूरी मिटती हुई दिखी ,वहीं नायिका को नायक में राम-कृष्ण की भांति मर्यादित और शरारती हरकतों की मिश्रित छवि दिखने के साथ ही
अपनी रिस्ट वाच में घंटे की सुई 6 पर दिखी। एकाएक नायिका अपने को संभालती है जल्दी से धर्मशाला की ओर चलने को कहती है, जहाँ सभी घरवाले दामात सहित बेटियों का चूरमा दाल बाटी की रसोई के लिए इंतजार में थे ,शायद नायिका ने अपने फोन में पापा का मिसकॉल देख कर ही घड़ी की सुई पर नजर फेरी थी , जी हां आप सही सोच रहे है कि जब मोबाइल हाथ में हो तो घड़ी में समय क्यों? , तो मैं बता देता हूँ क्योंकि नायिका मोबाइल को गेजेट की तरह नहीं, बल्कि फोन की तरह इस्तेमाल करना पसंद करती है , नहीं तो, आप ही बताओ आज कौनसी लडक़ी आज भी रिस्ट वाच पहनती है, अजी लड़की नहीं तो कोई लड़का ही बता दीजिए जो पहनता हो । अब आप यहाँ किसी पुरूष विशेष के रिस्ट वॉच पहनने का जिक्र ही न करो तो अच्छा है क्योंकि यह निश्चित है कि वह अपनी मर्जी से नहीं बल्कि शादी में मिली सोनाटा की घड़ी को हमेशा पहनने की पत्नी की हिदायत से ही पहनता होगा । पर यहाँ नायक तो शादी में दी हुई रिस्ट वॉच भी नहीं पहन कर अपवाद बनेगा ,अब ये मत पूछना की क्यों ? क्योंकि उसका जिक्र भी है परंतु पहले शादी तो होने दो । इतनी जल्दी क्यों है भाई।
तो आखिरकार सभी धर्मशाला में पहुँच जाते है जहाँ सभी इन्ही का इंतजार कर रहे होते है वहां जाकर पता चलता है कि यहाँ न केवल बाबा के भोग लग चुका है बल्कि खाना खाने के बाद नायक के ही किस्से,किसी चुटकुले की भांति आपस मे सुने और सुनाए जा रहे थे।
खैर नायक को अब भूख पेट मे ही चिकोटी काट रही थी इसलिए वह किस्से बाजो की तरफ नहीं जाकर सासु मां के पास जाना ही उचित समझता है क्योंकि वह जानता है कि अब मेरी हालत मेरी माँ के बाद यदि यहां कोई समझ सकेगा तो वह सासु मां ही समझेंगी । और हुआ भी ऐसे ही । जाते ही चूरमा दाल और बाटी की थाली लगा दी गयी । खाना खाते हुए नायक को माहौल कुछ अजीब सा महसूस होता है गौर करने पर दिख रहा है कि चाहे कोई भी कितनी ही दूर क्यों न बैठा हो, चाहे बच्चा हो या वृद्ध , पुरूष हो या महिला सभी मन ही मन नायक की तरफ देख कर मुस्करा रहे है । एकाएक उसकि नजर चूरमा डालने आयी सासु मां के चेहरे पर पड़ी तो उसे वही अनोखी हंसी दिखाई देती है। एक बार तो नायक यह देख कर सोच में पड़ गया फिर स्वत ही मन मे सोचा कि यहां कोई मातम में थोड़े ही आये है सब जो हंसना वर्जित हो । अब नायक खाने में ध्यान लगाने ही वाला था कि मोबाइल पर मैसेज की घंटी सुनाई देती है । फोन निकाल कर देखता है कि मैसेज सुमन के नम्बर से आया था जिसमें लिखा था कि अंकल आप सही थे कि मैंने गलत व्यक्ति को ही फोन मिलाया है । So Soory Uncle
मैसेज पढ़ते ही नायक की खुशी सातवें आसमान पर थी क्योंकि आज उसने अपनी कुशलता से न केवल मोहपाश से निर्मित ब्रह्मास्त्र को छेद दिया था बल्कि थोड़ी ही दूरी मोबाइल हाथ मे लिए बैठी साली के ही सुमन होने का आभाश होता है । इतना आभाश होना ही काफी था किस्सेबाजो की क़िस्सागोई का स्रोत पता होने के लिए और सभी की मन्द हंसी का कारण पता चलने के लिए।

निरंतर......
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आपका ही
विजय कुमार 'विजय'
जयपुर