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विजय पथ के अनुभव

“विजय पथ के अनुभव”

भाग २

क्रम

1 - “चिन्ता” और “चिता”

2 - “परिवार” अब ‘आधुनिक’ हो गए

  • 3 - “चाँद” का सन्देश
  • 1 - “चिन्ता” और “चिता”
  • “चिन्ता”, “चिता” तक है पहुँचाती ,

    ‘मन’ खुद और ‘तन’ “चिता” से जलवाती,

    ‘मन’ रहित ‘तन’ जलने से, ‘मोक्ष’, कहाँ मिल पाती?,

    “चिन्ता” क्यों करते हम,

    जानते हुए भी, ये भली भांति,

    यही सोचकर सोया, “विजय”, हर रोज की तरह,

    तभी स्वप्न में सुनाई दी, अजीब बहस “न्यूज़ रूम” की तरह,

    अचंभित होकर ध्यान लगाकर, “मैं” लगा सुनने,

    जबाब भी मिले मुझे उस रोज , वो भी स्वप्न लोक में,

    सपने में भी समझने में, तनिक देर न लगी,

    एक बतलाती खुद को “चिन्ता”,

    दूसरी खुद को “चिता” बतलाने लगी,

    अब दोनों आपस में,

    क्या फर्क है बतलाती?

    फर्क बतलाते बतलाते,

    दोनों आपस में है, भिड़ जाती,

    अंत में दोनों को ही,

    एक दुसरे की बात, ‘समझ’ में भी आ जाती,

    “चिन्ता” कहती “चिता” से,

    “मै” ‘जिन्दो’ को और “तू” ‘मुर्दों’ को है जलाती,

    “मैं” खुद की ‘तपन’ से,

    और “तू” ‘अग्नि’ के सहारे से जलाती,

    यह सुनकर “चिता” कहाँ चुप बैठती,

    वो “चिन्ता” को ‘धर्म’ की याद है दिलाती,

    “चिन्ता” तेरा ‘धर्म’ “चिंतन” से है होता,

    वही मेरा ‘धर्म’ “पञ्च तत्वों” में

    मिलाने से है होता,

    “मै” मुर्दों को ‘अग्नि’ से जलाकर भी, ’धर्म’ ही कमाती,

    “चिंतन” छुडवा कर “तू” इन्सान से, “स्वधर्म” भी गंवाती,

    कहती “चिन्ता” “चिता” से, जब इन्सान की ही,

    “चिंतन” से नहीं है बनती,

    तो भला इसमें मेरी, क्या है गलती?,

    नहीं पड़ता, कोई भी प्रभाव, मेरे ‘स्वधर्म’ पे,

    मै कभी नहीं हमला करती , “चिंतन” शरणार्थी पे,

    “चिंतन” से गुजरता हुआ इन्सान, मुझ (चिन्ता) तक आता है,

    पता नहीं क्यों, साथ उसे, मेरा ही भाता है,

    मेरी शरण में आने के बाद,

    ‘कर्म’ मुझे, मेरा करना पड़ता है,

    मेरे पास आने पर ही तो, “मैं”, उसे हूँ जलाती,

    “तू” भी तो “चिता”, है, ऐसा ही करती,

    जैसे तेरे पास आये हुए को ही,

    ‘तू’ अग्नि से है जलाती,

    क्यों, “तू” ‘मुर्दाघरो’ में पड़े हुए लावारिश शवो को है, फिर सडाती?,

    क्यों ‘न’ फिर “तू” , उनको भी, “पञ्च तत्व” में मिलाती?,

    सुनकर बोली “चिता”, “चिन्ता” से,

    भूल रहा इन्सान अपनी “इंसानियत”,

    तभी तो “लावारिश”, कोई “देह” कहलाती, तभी ये नोबत है आती,

    सुनकर दोनों, एक दुसरे को, आपसी मजबूरी भी, है ‘समझ’ जाती,

    ‘खुद’ समझ और ‘मुझे’ समझाकर, दोनों आपस में, विदा है ले लेती,

    ***

    निष्कर्ष:- ”चिता” तो पूर्ण सत्य है, “चिंतन” जरुरी सत्य है,

    वही “चिन्ता” दुस्वप्न है, “विजय”, यही जीवन का निष्कर्ष है |

    “चिन्ता” छोड़, “चिंतन” को बनाओ जरुरी,

    “चिंतन” की गहराई में, सीमाए बांधना भी है जरुरी,

    “चिंतन” के सीमाए बंधी है “चिन्ता” से,

    और “चिन्ता” जुडी हुई है सीधे “चिता” से,

    “चिन्ता” ‘मन’ का भक्षण कर, ‘तन’ “चिता” को है सोंपति,

    ‘मन’ रहित ‘तन’ के जलने से, आत्मा भी ‘मोक्ष’ को है तरसती,

    “चिन्ता” को अपनाकर, कम न करो “मोक्ष” से दुरी,

    “चिन्ता” से मिली “चिता” को, “मोक्ष” समझना भी है हमारी कमजोरी ||

    ***

  • 2 - “परिवार” अब “आधुनिक” हो गए”
  • “परिवार” अब कहाँ, वो तो कब के बिखर गए,

    “परिवार” अब “आधुनिक” हो गए

    अब तो ‘सपने’ सबके निखर गए,

    अब सारे ‘अंग्रेजी’ जो पढ़ गए

    अंग्रेजी के आगे ‘संस्कृति’ भी भूल गए,

    “नाक” सबके, एक दुसरे से, ‘बड़े’ जो हो गए

    यहाँ आज “नाक” अपनी ‘छोटी’ रखता वही,

    जो हो खुद ‘समझदार’ या ‘नासमझ’ बालक कोई,

    ‘छोटी नाक’ के तो सिर्फ ‘मुखिया’ व् ‘बच्चे’ रह गए,

    सब बनकर “मुखिया”, ’मनमौजी’ हो गए

    तभी तो सबके ‘नाक’ बड़े और ‘परिवार’ छोटे हो गए

    “परिवार” अब “आधुनिक” हो गए

    जहाँ रहते थे कभी दादा, काका,

    बेटो पोतो समेत सभी, एक परिवार में,

    वहां रह गए सिर्फ मियां बीबी,

    और बच्चे आधुनिक परिवार में,

    जहाँ ‘परिवार’ में ‘नाक’ बड़ा,

    सिर्फ ‘मुखिया’ का होता था,

    बाकि कोई अपना सर भी,

    ऊपर नहीं उठाता था,

    तभी तो वह बरगद सा,

    सभी ‘शाखाओं’ को संभाल पाता था,

    वहीँ ‘आज’ खुद की नाक छोटी करके, ‘पिता’ कमजोर हुआ,

    ‘पिता’ को कमजोर करके,

    ‘बेटा’ अपने में ही ‘मशगूल’ हुआ,

    ‘शादी’ करते ही, माँ-बाप का ‘वृद्धालय’ में प्रस्थान हुआ,

    ‘लक्षित शिक्षा’ हेतु बेटो को,

    ‘होस्टल’ में रखने का ही, ये परिणाम हुआ,

    ‘खून’ का रिश्ता होते हुए भी,

    ‘दिलो’ में जुडाव बिलकुल न रहा,

    ‘लक्ष्य’ तो मिला जरुर,

    पर मिलने का ‘आनंद’ किसी को प्राप्त न हुआ,

    ‘परिवार’ में संतान को ही,

    ‘सम्पति’ माना जाता था,

    छाती से लगाकर उसे,

    ‘संस्कारी’ बनाया जाता था,

    ‘आज’ उलट हुए सब के सब,

    ‘दूर’ रखकर जिसको ‘शिक्षा’ दिलवाई,

    ‘संस्कारो’ के अभाव में,

    उन्ही से ‘दिलों’ पे चोट खाई,

    है जरुरी, ‘आधुनिक’ भी हो, ‘शिक्षा’ पूरी की पूरी,

    साथ में है ये भी जरुरी,

    ‘नैतिक’ भी हो ‘शिक्षा’ ,

    चाहे मिली हो, आधी या पूरी,

    मिटटी से जुडाव के लिए,

    ‘संस्कार’ भी तो है जरुरी,

    “विजय” बस ये ही हमें अब समझना होगा,

    ‘संस्कार’ का ‘बीज’ अब दिलों में डालना होगा |

  • 3 - “चाँद” का सन्देश
  • “चाँद” तेरी महिमा भी है न्यारी,

    “चांदनी” देता है कितनी प्यारी,

    हर दिन तेरा ‘आकार’, होता कुछ अलग,

    “चांदनी” भी होती, अलग-अलग,

    ‘पूर्णिमा’ को पूरा दिखता है,

    “चांदनी” से जगमग *जहाँ को करता है,

    ‘पूर्णिमा’ के बाद ‘आकार’ #जहाँ तेरा, घटता ही जाता है

    ‘अमावश्या’ के दिन तो, पूरी रात गायब ही हो जाता है,

    पूछता हूँ मैं तुझे, ‘अमावश्या’ को, क्यों नहीं दिखाई देता है?,

    *जहाँ को क्यों *तम के हवाले ‘चंदा’ तू करता है?,

    ‘अमावश्या’ के बाद आकार तेरा बढ़ता ही जाता है,

    एक पखवाड़े में ही “पूर्णिमा” को,

    जगमग *जहाँ फिर से हो जाता है,

    इस ‘विचित्रता’ में, ‘सन्देश’ कोनसा छिपा रहता है?

    जो दिन प्रतिदिन नया रूप,

    “चाँद” तेरा हमें दिखता है,

    तू एक तरफ ‘हिन्दू देवता’ बन, पूजता है,

    वहीँ मुस्लिमो का तू , ‘त्यौहार का सूचक’ भी बनता है,

    १०

    जहाँ युवक तुझसे, ‘प्रेयसी’ की तुलना करता है,

    वहीँ युवतियों को तुझमे पति का अक्श नजर आता है,

    जहाँ तुम्हे भुजंगधारी ‘शिव’, अपनी जटा में धरते है,

    चंदा मामा कहते हुए बच्चे, फिर भी बिलकुल नहीं डरते है,

    बल्कि प्यार आप से, तारों से ज्यादा वो करते है,

    प्रतिदिन असंख्य तारे होकर भी,

    सब को आप ही क्यों दीखते है,

    क्यों एक होकर भी आप अनेको में न्यारे हो,

    ‘एक’ होकर भी ‘अनेकानेक’ में, कैसे तालमेल बिठाते हो?,

    बताओ मुझे इन सब के पीछे

    राज कोनसे छुपे रहते है,

    मानता “विजय” इसे आपका ‘सन्देश’ मिलजुल कर रहने का,

    ‘समय’ के अनुरूप ‘व्यवस्था’ में बदलाव करने का,

    रंग, जाति, धर्म, लिंग का भेद भूल जाने का,

    हर समय राष्ट्र के साथ खड़े रहने का,

    #तम समान ‘दर्पण’ ‘अभिव्यक्ति’ से दिखने का,

    एक नयी दिशा का, ‘पथ पदर्शक’ बनने का ||

    #जहाँ- जब , तब | *जहाँ – संसार | *तम – अन्धकार |

    ***