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श्री कृष्ण काव्य-कथा - 2

श्री कृष्ण काव्य-कथा

जन्म-खंड

भाग – २

श्री कृष्ण ऐसा व्यक्तित्व है जिसे जानना और समझना तो हर कोई चाहता है, पर इतिहास से लेकर आज तक, पूर्ण रूप से न तो कोई इसे जान पाया है और शायद ही कोई इसे भविष्य में भी समझ पाए | श्री कृष्ण के व्यक्तित्व से, जन्म के पूर्व की परीस्थितियों से लेकर, जन्म होने तक एवं, उसके उपरांत सम्पूर्ण जीवनकाल में घटित विभिन्न परीस्थितियां में विभिन्न लीलाओं के माध्यम से कई सन्देश एवं उपदेश मिलते है | जो की उनके व्यक्तित्व को रोचक बनाने के साथ, अदिव्तीय भी बनाते है | इन्ही लीलाओ के माध्यम से दिए गए विभिन्न संदेशो को इस ‘कृष्ण काव्य कथा’ में उनके जीवन काल की कहानी को काव्य रूप में दिखाने का प्रयास किया गया है |

‘विजय’ कुमार शर्मा

प्रथम भाग से निरंतर .....

अट्टाहास करता हुआ ‘कंश’ देता है आदेश,

‘बंदी’ उन्हें बनाने का |

‘पिता’ की तरह ही ‘बहन-बहनोई’ को रस्ता दिखाया ‘उसने’,

‘काल-कोठरी’ का || ५४ ||

सुनते ही आदेश सेनिको ने,

उन्हें बंदी बना ‘नजर-बंद’ किया |

‘कारागृह’ की निगरानी में,

अनेकानेक सैनिको को जिम्मा सोंप दिया || ५५ ||

‘कारागृह’ में ‘देवकी-वसुदेव’,

दुखी मन से बतियाने लगे |

देख पानी फिरता सपनो पर,

दुःख आपस में जताने लगे || ५६ ||

लाचार माँ के आँखों से संतान-हत्या की,

‘कल्पना’ मात्र से आंसू आने लगे |

खुद विचलित होते हुए भी,

‘वसुदेव’, ‘देवकी’ को सँभालने लगे || ५७ ||

फिर मुनि की बाते स्मरण करके ‘दोनों’,

सब कुछ ‘समय’ पर छोड़ने को मजबूर हुए |

‘श्रीहरी’ के पुत्र रूप में अवतरित होने की,

‘कल्पना’ मात्र से ही एकाएक अभिभूत हुए || ५८ ||

कारागृह में भी ‘दोनों’ को साथ,

जैसे भाने लगा |

प्रेम से ‘समय’ गुजरने का ‘उन्हें’,

जैसे पता भी नहीं लगा || ५९ ||

सच्चे प्रेम में महल का सुख भी,

कारागृह के क्षणों से कम लगने लगा |

घबराहट में भी ‘हरी विश्वास’ उन्हें,

जैसे ताकत देने लगा || ६० ||

समय का पता भी नहीं चला,

कब? ‘दर्द’ प्रथम संतान का ‘देवकी’ को उठने लगा |

माँ का मन ‘जनने की ख़ुशी’ भूलकर,

‘नियति’ को फिर से कोसने लगा || ६१ ||

शिशु के जन्म लेते ही,

खुद वसुदेव ने ‘कंश’ तक खबर यह पहुचाई |

‘निष्ठुर’ होकर किया ‘पिता’ ने वो काम,

जो शायद नहीं करता कोई भी ‘कसाई’ || ६२ ||

जानते थे ‘वसुदेव’ वादा निभाना था

जैसे ये जरुरी |

‘हरी जन्म’ के लिए ‘इसका’ मरना भी था

वैसे ही जरुरी || ६३ ||

तभी तो एक पिता कलेजे पर,

‘पत्थर’ रख पाया |

तभी यह समाचार ‘वह’ खुद ‘कंश’ तक,

पंहुचा पाया || ६४ ||

समाचार सुनते ही ‘कंश’ ने,

‘कारागार’ पहुँच हुंकार भरी |

वहां ‘कंश’ की नजर ‘देवकी’ की गोद में सो रहे,

नवजात पर पड़ी || ६५ ||

कंश ने झपट कर,

‘नवजात’ को उठाया |

‘माँ देवकी’ ने उसे बचाने का,

‘असफल बीड़ा’ उठाया || ६६||

असफल होते ही ‘वह’,

हो मुर्छित ‘फर्श’ पर गिरी |

उधर ‘हैवानियत’ मानो,

‘कंश’ के सिर पर चढ़ी || ६७ ||

उठा कर ‘कंश’ ने ‘नवजात’ को,

दिवार पर दे मारा |

अगले ही क्षण फर्श पर पड़े ख़ून-चिथड़ो ने,

समझा दिया माजरा सारा || ६८ ||

खुद की मौत से भयभीत मामा ‘कंश’ का,

‘हाथ’ क्षणिक भी नहीं था कांपा |

नवजात ‘भांजे’ के लिए दिल में,

‘प्रेम’ भी, तनिक नहीं था जागा || ६९ ||

एक निर्दोष को मारकर भी,

उसे नहीं मिली थी शांति |

सात और संतानों के ‘भावी’ जन्म ने,

उसके मन में फैला दी हो जैसे अशांति || ७० ||

क्षणिक आनंद पाकर ‘कंश’,

‘अट्टाहास’ करता हुआ चला गया |

‘श्रीहरी’ को ललकार कर,

आगे वो चलता गया || ७१ ||

देवकी-वसुदेव एक-दूसरे की,

बैचैनी से बैचैन थे |

दिलासा देने को दोनों ही,

आपस में मशगूल थे || ७२ ||

एक थी माँ ‘उसकी’ ,

तो एक थे ‘पिता’ |

आखिर ‘पुत्र’ तो ‘वह’ ,

‘दोनों’ का ही था || ७३ ||

दिलाशा देने को ‘दम्पति’ के,

अतिरिक्त, वहां ‘न’ कोई और था |

तीसरे के नाम पर बस,

‘श्रीहरी’ के आगमन का ही ‘हर्ष’ था || ७४ ||

समय अपनी गती से,

जब लगा चलने |

हर वर्ष वहीँ खोफनाक मंजर,

फिर आने लगा सामने || ७५ ||

जब पुत्र होने की सूचना देने,

जाना होता ‘वसुदेव’ को |

‘दम्पति’ को देखना होता ‘कंश’ के हाथो,

मरते अपनी ही ‘अबोध संतान’ को || ७६ ||

मंजर याद करते-करते,

‘आँखे’ ‘दम्पति’ की पथरा गयी |

पर पापी कंश को,

‘दया’ थी जो कभी आयी नहीं || ७७ ||

वह खुद मारकर निर्दोष अबोध,

हर बालक को |

करना चाह रहा था ‘स्वयं’ को ‘अमर’,

हरा ’मृत्यु-भय’ को || ७८ ||

उसी चाह में उसने ‘कोख’ उजाड़,

असहनीय दर्द दिया ‘भगिनी’ को |

जोश में होश खो कर,

ललकारता हर बार ‘मुर्ख’ ‘श्रीहरी’ को || ७९ ||

मंजर देख कर ‘देवकी’ अब,

संतान जनने से ही डरने लगी थी |

पर शायद ‘डर’ से ज्यादा उसको,

‘श्रीहरी’ को ‘जनने की लगन’ लगी थी || ८० ||

तभी ‘भक्ति की लगन’ में हर संतान को,

‘ममता सहित भेट’ चढ़ाती गयी |

चढाते- चढाते ‘कंश’ के पापो की ‘मटकी’ भरने तक,

‘देवकी’ भक्ति की सीमा भी लांघती गयी || ८१ ||

भक्ति का ही था प्रभाव जो ,

वो ‘हरी’ तेज को कोख में सह सकी |

‘ममत्व’ की हत्या को भी,

‘सहज’ ही वह भोग सकी || ८२ ||

‘कंश’ ने लगातार ‘तीन पुत्रो’ का,

निर्दयता से ‘कत्ल’ किया |

‘माँ’ ने हर बालक के मरने पर ,

न जाने कैसे? गला ममता का घोट दिया || ८३ ||

रमता जोगी ‘नारद मुनि’ ने इधर ,

फिर से ‘मथुरा’ में प्रवेश किया,

हो उत्सुक जानने को ‘कंश’ प्रतिक्रिया,

मुनि ने ‘कंश’ से फिर प्रश्न किया || ८४ ||

अरे कंश ! मेरी वाणी याद है,

अथवा है ‘तू’ भूल गया |

अब भी अपने वचनों पर है कायम,

अथवा उन्हें भी है भूल गया || ८५ ||

(सुन कर कंश उपहास में कहता है,)

मुनि तैयार रहो,

अपने शब्द वापस लेने को |

‘तीन देवकी-पुत्रो’ को यमद्वार पंहुचा चूका हूँ,

बस ‘आठवा’ बाकि है पहुचाने को || ८६ ||

बस ‘आठवां’ बाकि है !,

सुनते ही ‘मुनि’ सहसा चौंक गए |

‘कंश’ की मनोदशा को जैसे,

थे वो भांप गए || ८७||

( फिर उत्सुकता में मुनि आगे कहते है )

लगता है ‘कंश’ तू,

‘गणना’ भूल गया |

तभी ‘तीसरे’ के उपरांत,

सीधे ‘आठवे’ तक पहुच गया || ८८ ||

है मुनि ! ‘न’ तो ‘मैं’ भुला हूँ ‘गणना’ ,

‘न’ ही भुला हूँ तुम्हारी ‘वाणी’ |

बस ‘ध्यान’ आज आपके उन ‘शब्दों’ पे आया,

जिनसे हुई है सारी खिचातानी || ८९ ||

जब खतरा है मेरे प्राणों को,

‘आठवे’ देवकी पुत्र से |

तो क्यों? छीनू ‘मैं’ आनायास ही ‘जीवन ज्योति’,

बाकि सभी ‘देवकी पुत्रो’ से || ९० ||

सुनकर ‘देवर्षि नारद’,

दुविधा में पड़ गए |

अपने ही शब्दों की ‘काट’,

खोजने ‘वो’ लग गए || ९१ ||

सोच कर कहते है नारद ‘कंश’ को,

मेरे शब्द पकड़ने से ‘प्राण’ तुम्हारे नहीं बचेंगे |

‘श्रीहरी’ की ‘गणना’, ‘न’ तो आप,

‘न’ कोई और, कभी भी जान सकेंगे || ९२ ||

‘वो’ कब? अपनी ‘गणना’,

‘आदि’ से ‘अंनत’ कर दे |

अथवा कब? ‘मध्य’ से,

प्राम्भ कर दे || ९३ ||

उनकी ‘लीला’ कोई आज तक,

जान न सका |

मेरे जैसा भी जब उनको कभी,

‘भांप’ न सका || ९४ ||

‘राजन’ आपको चलाना चाह रहे ‘वो’,

अपने ‘मोहरे’ की तरह |

ताकि जन्म होना उनका निश्चित हो,

‘सूर्योदय’ की तरह || ९५ ||

जन्म के बाद निश्चित न हो उनकी मृत्यु ,

बाकि ‘तीन’ की तरह |

इसी कारण आप ‘मोहरा’ बनकर,

‘वचनों’ से फिर रहे है ‘कायर’ की तरह || ९६ ||

अपने लिए ‘मोहरा’ और ‘कायर’ ,

शब्द सुनकर ‘कंश’ बोखला उठा |

पर दुसरे ही क्षण अपना हितेषी जानकर,

‘मुनि’ से बोल उठा || ९७ ||

‘मुनि’ हुआ आज ‘कंश’ ऋणी आपका,

‘सत्य’ मुझे बताने से |

‘हरी’ की चाल से मुझे,

समयपूर्व अवगत कराने से || ९८ ||

आपने सही समय पर,

आकर मुझे चेताया है |

जो गलती करने चला था,

उसे होने से बचाया है || ९९ ||

अब नहीं छोडूंगा जीवित,

‘देवकी’ के किसी भी ‘पुत्र’ को |

खुद करूँगा ‘अस्त’ उस ‘हरी’ की,

‘जीने’ की चाहत को || १०० ||

( इतना सुनते ही ‘नारद मुनि’ ने प्रस्थान किया,

जाते हुए नारद का ‘कंश’ ने फिर से धन्यवाद किया | )

वहीँ ‘खुद’ सुचना देने से ‘वसुदेव’ को,

‘कंश’ ने ‘विश्वासपात्र’ था मान लिया |

तभी ‘उन्हें’ कहीं भी विचरण करने का,

‘कंश’ ने था इनाम दिया || १०१ ||

तब ‘वसुदेव’, ‘गोकुल’ में सहचरी ‘रोहिणी’ से,

मिलने जाते है |

उन्हें ‘मित्र नन्द’ व् भावज ‘यसोदा’ का,

आश्रय दिलाकर ‘मथुरा’ वापस आते है || १०२ ||

‘समय-चक्र’ चल रहा था,

अपनी अविरल गती से |

‘चोथे’, ‘पांचवे’ के बाद ‘छठे’ का भी,

हुआ ‘जन्म’ उसी ‘क्रमगती’ से || १०३ ||

‘जन्म’ के बाद ‘मृत्यु’ भी दि गयी ‘उन्हें’.

उसी निर्दयता से |

‘अबोध शिशु’ पूछ नहीं पाए अपना ‘दोष’,

‘कंश’ मामा से || १०४ ||

‘देवकी’ के सातवें गर्भ को बदलवाया ‘श्रीहरी’ ने,

‘रोहिणी’ के गर्भ से |

लिया जन्म ‘बलराम’ ने गोकुल में,

‘योगमाया’ के प्रताप से || १०५ ||

कारागार में ‘देवकी’ ने जन्म दिया,

‘रोहिणी’ के अंश को |

हुआ वही उसके साथ भी,

जब सूचना मिली ‘कंश’ को || १०६ ||

देवकी-वसुदेव सहित समस्त, अनभिज्ञ रहते है,

‘श्रीहरी’ की लीला से |

सात संतान खोकर ‘वसुदेव’ विचलित होते है,

अपनी नपुंशकता से || १०७ ||

विचरण की ‘छुट’ स्मरण आने से

‘वसुदेव’ अब चिंतित थे |

खुद को मान ‘हत्यारा’ विगत सातों का,

अब वे लज्जित थे || १०८ ||

लज्जित होना था ‘लाजमी’ आखिर सुचना जाकर,

‘वो’ ही तो ‘कंश’ को देते थे |

लज्जा के प्रभाव से वसुदेव कुंठित मन से,

अब खुद को कोसते थे || १०९ ||

या यु कहें ये ‘लज्जा’ थी परिणाम,

‘आठवे’ के भावी जन्म का |

जिसे ‘नारद मुनि’ ने था बताया,

‘अंश’ स्वयं ‘श्रीनारायण’ का || ११० ||

आखिर ‘देवकी-वसुदेव’ को भी तो था अब तक,

‘इंतजार’ इस शुभ घडी का |

जब ‘श्रीहरी’ खुद ‘जन्म’ लेकर करेंगे,

‘वध’ दुष्ट दानव ‘कंश’ का || १११ ||

‘हरी’ प्रभाव से एकाएक ‘वसुदेव’ की ‘लज्जा’,

रूप लेती है ‘चिंतन’ का |

‘इसको’ बचाकर ही होगा अब ‘पश्चायाताप’,

विगत ‘सात हत्याओ’ का || ११२ ||

‘चिंतन’ में ‘वो’ अब सोचने लगते है ‘उपाय’,

‘आठवे’ को बचाने का |

तभी उन्हें ख्याल आता है,

‘गर्गाचार्य’ और ‘अर्नत’ का || ११३ ||

जब ‘भोर’ की भेंट में दोनों के ‘ललाट’ पर,

‘सलवटे’ ‘वसुदेव’ को दिखी थी |

जो आज से पहले ‘वसुदेव’ ने,

‘उनके’ ललाट पर कभी नहीं देखी थी || ११४ ||

‘सलवटे’ स्मरण आते ही ‘वसुदेव’ ने,

दोनों के घायल ‘मन’ को जैसे था पढ़ लिया |

‘कंश’ के अत्याचारों से ‘घायल’ उनके ‘मन’ का,

‘करुण क्रंदन’ भी जैसे था सुन लिया || ११५ ||

‘वसुदेव’ चले अब सीधे ‘उन्ही’ के पास,

‘लिए’ मन में ‘हरी’ को बचाने की आस |

बिन ‘हरी’ इच्छा तो नहीं मिले,

किसी को एक भी ‘ग्रास’ || ११६ ||

हरी इच्छा से ही ‘पिता’ ने अबोध होने का,

मन में लगाया कयास |

तभी वह पिता करता है ‘श्रीहरी’ को,

बचाने के हरसंभव प्रयास || ११७ ||

‘हरी’ इच्छा से ही ‘पिता’ ने रखी ‘आस’

‘उसे’ बचाने को |

‘जो’ स्वयं ‘जन्म’ ले रहा था अनाचारो से,

‘धर्म व् सृष्टि’ बचाने को || ११८ ||

‘लीलाधर’ स्वयं बन रहे ‘अबोध’ पिता मन में,

सिर्फ यही बताने को |

मात-पिता को ‘श्रीहरी’ भी लगते ‘अबोध’,

‘लीला’ दिखाई सिर्फ यही समझाने को || ११९ ||

पहुँचकर वसुदेव ‘उन्हें’ अवगत अपनी,

‘मंशा’ से कराते है |

सुनकर ‘पूण्य कर्म’ वें भी,

सहमत हो जाते है || १२० ||

पाप बोध से ‘घायल मन’ अब,

सबका चंगा होता है |

जुडती देख ‘कड़ी’ प्रयास की,

‘पिता’ बहुत हरसाता है || १२१ ||

इस प्रयास में ‘पच्याताप’ का ‘स्वार्थ’,

साथ में जुड़ता है |

‘स्वार्थ’ के चलते ‘गर्गाचय’ व् ‘अर्नत’ को,

‘राज-द्रोह’ नहीं दिखता है || १२२ ||

दे मूर्त रूप योजना को,

‘वसुदेव’ अब ‘गोकुल’ को जाते है |

जहाँ सहचरी ‘रोहिणी’ पुत्र ‘बलराम’ संग,

मित्र ‘नन्द’ के आश्रय में रह रहे होते है || १२३ ||

‘गोकुल’ जाते ही ‘वसुदेव’ को,

शुभ संकेत दिखता है |

भावज ‘यशोदा’ के चार माह के,

गर्भ का जब पता उन्हें चलता है || १२४ ||

वसुदेव कोई मायावी तो थे नहीं,

श्रीहरी की तरह |

तभी तो गर्भ बदलने की सोच भी,

नहीं सकते थे बलराम की तरह || १२५ ||

‘युक्ति’ तो सूझी उन्हें,

पर कहें कैसे? उसे मित्र नन्द से |

बदलना जो चाहते थे ‘वो’,

‘अपने पुत्र को’ ‘उन्ही के पुत्र से’ || १२६ ||

दिन पूरा निकल गया,

रात भी बाकि थी निकलने को सिर्फ एक पहर |

सोच कर दुखी थे ‘वसुदेव’,

कल की ‘भोर’ ढाएगी कौनसा? कहर || १२७ ||

भोर होते ही ‘वसुदेव’ में ,

जैसे नयी सांसे भरती है |

‘श्रीहरी’ को बचाने की फ़िक्र ही,

अब उनके ‘मन’ में रहती है || १२८||

‘वसुदेव’ अब मित्र ‘नन्द’ को,

‘मुनि’ की भविष्यवाणी से अवगत कराते है |

‘श्रीहरी’ के जन्म का स्मरण कराकर,

‘कंश’ के अत्याचारों से मुक्ति की आस दिलाते है || १२९ ||

‘श्रीहरी’ जन्म हेतु ‘सात संतानों’ के बलिदान का,

स्मरण अब कराते है |

साथ ही ‘पुत्रो’ की अदला-बदली में,

‘नन्द’ से मदद भी मांग लेते है || १३० ||

सुनते ही इतना ‘नन्द’,

असहज हो जाते है |

बड़ी क्रोधी नजरों से,

वसुदेव को ताकते रहते है || १३१ ||

वसुदेव मित्रता का यह,

कैसा? आडम्बर तुम्हारा है |

स्वार्थ से भरा हुआ लग रहा,

आज ‘मन’ तुम्हरा है || १३२ ||

मित्र ‘नन्द’ आपने उचित ही जाना मुझे,

है स्वार्थ ‘मुझे’ हरी को बचाने का |

पापी ‘कंश’ के अत्याचारों से,

प्रजा को मुक्ति दिलाने का || १३३ ||

‘जन्म खंड’ की इसी कड़ी में अगले भाग आगामी दिनों में शीघ्र ही प्रकाशित किये जाएँगे...