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विजय पथ के अनुभव

  • 1 - जब देखता हूँ ऐसा, सोचने पर मजबूर होता हूँ
  • जब देखता हूँ ऐसा, सोचने पर मजबूर होता हूँ,

    देख तमाशा बाबाओ का, मैं चुप, कैसे, रह सकता हूँ?,

    एक ही गुनाह के दो रूप, दोनों, अपने में बड़े संगीन दिखते है,

    आज मैं तुलना, निर्भया की, साध्वी के पत्र से करता हूँ,

    था निर्मम, असहनीय, अपराध दिल्ली का,

    वहीँ था, यह निर्मम अपराध, आस्था से खिलवाड़, गुरमीत का,

    चाहे हो अपराधी निर्भया के, चाहे हो साध्वी के,

    जिस पीड़ा को निर्भया ने, मरने तक भोगा है,

    उसी पीड़ा ने, न जाने कितनी साध्वियों को, मरणासन छोड़ा है,

    जिस जनता ने शांति से, समर्थन दिया निर्भया के सत्य को,

    उसी जनता ने आज, क्यों हिंसक समर्थन दिया असत्य को?,

    है जब अपराध वही, दोनों तुलना में संगीन भी,

    फिर इंसा-इंसा में इतना फरक क्यों दिखता है,

    एक के लिए जले मोमबत्तियां, फिर दुसरी पर क्यों शहर जलते है?,

    कोई समझाए मुझे आखिर,दिलो में, ये फरक कहाँ से आते है?,

    क्यों एक ही अपराध पर, अभिव्यक्ति में फरक दिखता है?,

    पंथ, स्वधर्म सिखाता है ! फिर ये अंधभक्ति दिलों में कौन भरता है?,

    है नहीं, दोष इन सबमे किसी बाबा का !, उन्हें तो सिर्फ अपना भला ही दिखता है,

    दोषी तो हम आम इंसा है, जिसे व्यभिचारी भी ईस्वर दिखता है,

    कैसे किसी माँ – बाप की मति, आस्था से मरती है?,

    जिनको बनाना चाहिए था “घर”, बेटी का,उसे वह,कैसे प्रसाद बाबा की दिखती है?,

    दिकखारता हूँ एसी धर्मं आस्था को,जिसमे नहीं सुनाई दे चीत्कार, किसी बेटी की,

    हिन्दू तो छोड़ो तुम, नहीं हो लायक इन्सान कहलाने के,

    ईस्वर से फिर हुआ गुनाह आज, ऐसे घरो में बेटियों को जन्म दे कर के,

    कैसे कोई माँ–बाप, पता होते हुए भी, पनाह अधर्म को देते है,

    जिसने उड़ाया मजाक, उन्ही के “विश्वास” का, वो कैसे साथ उसी का देते है?,

    इसलिए तो “विजय” सारा दोष, कथित माँ–बाप व् आम उपद्रवियों को देता है,

    हुआ सो बीत गया, अब अंधे नहीं, कन्धा बनो किसी की बेटी का,

    यही होगा पच्याताप, बनेगा यही आधार, उसके सर उठा कर चलने का |

  • 2 - सबक और सब्र
  • धोखा मिलता वहीँ, जहाँ विश्वास है,

    धोखे के आभास से, विश्वास न करना भी तो आघात है,

    धोखा भी “सबक” लेने की सीख देता है,

    “सबक” भी तो “सब्र” की, इसी लिए तो मांग करता है,

    जैसे जरुरत होती, विश्वास की रिश्तो में,

    वैसे जरुरत होती, विश्वास की जिन्दगी के रस्तो में,

    नहीं घबराना कभी मिले हुए “सबक” से

    उलट मजबूत करना, खुद को बड़े ही “सब्र” से

    “सबक” तो होते जरुरी, जीना सिखाने के लिए,

    “सब्र” की होती जरुरत, “सबक” पचाने के लिए,

    “सबक” से सिखने के लिए जरुरत है, “सब्र” की,

    जरुरत है हर वक्त “विजय”, बस “सिद्धान्त” पे, चलने की,

    कर मत फैसला तू कभी,

    छोड़ ये सब, वक्त पे, अभी के अभी,

  • 3 - सुख-दुःख
  • सुख- दुःख तो एक जोड़ा है

    तूने फिर, जीवन में हँसना, क्यों छोड़ा है?,

    क्या नहीं देखे तूने, कभी सुख के दिन ?,

    तो फिर दुःख आते ही, ठीकरा क्यों किस्मत पे फोड़ा है,

    ये तो अपने-पराये की पहचान कराने का अडंगा है,

    भला, आजतक किसी “अपने” ने,सुख में मुहँ मोड़ा है?,

    आते नहीं यदि, सुख के बाद दिन दुःखो के,

    कैसे जानता तू, ये बम, आखिर किसने फोड़ा है?,

    करे कुछ भी किस्मत,ये मान उसमे ही तेरा भला है,

    तुझे मजबूत करने का, बहाना भी तो हो सकता है,

    मान हर तकलीफ को सुनामी से पूर्व, अंधड़ सा,

    कर मजबूत खुद को, खड़ा रह, वट-वृक्ष सा,

    है भलाई तेरी, डटकर सामना करने में,

    देख यह! बुरा वक्त नहीं लगायेगा, तनिक देर भागने में,

    यह जान लें, किस वक्त में, किस-किस ने साथ छोड़ा है,

    कौन खड़ा,साथ विजय पथ पर, किसने वाक-युद्ध छेड़ा है,

    बुरे वक्त के नीम को, किस-किस ने सिचां है,

    कडवा होते हुए भी नीम, औषधि का काम करता है,

    यह मानकर, बुरे वक्त रूपी नीम को, जो कोई, सही अर्थ में लेता है,

    वो कभी बुरे वक्त के सामने, नतमस्तक नहीं होता है,

    जो लेता है सबक, धरता है सब्र,उसी का फल मीठा होता है,

  • 4 - सपने-अपने
  • “सपने” तो आखिर “सपने” होते है,

    कभी “पूरे” होने में,“तनिक समय” न लेते है,

    कभी “पूरे” करने में, “जिन्दगी” ही ले लेते है,

    कभी बाधा रहित ही, सच हो जाते है,

    कभी अपनों में भी, खाई पाट जाते है,

    कभी “अपने” भी “पूरे” करने में, साथ लग जाते है,

    कभी “अपने” ही, “बाधक” बन, खड़े हो जाते है,

    कभी “सपने” भी “अपनों” से, दूर ले जाते है,

    कभी “अपने” भी “सपनो” को चूर-चूर कर देते है,

    है जरुरत “सपने” पूरे करने की, साथ “अपनों” को लेकर चलने की,

    जब तक चले दोनों “सामानांतर”,तब तलक नहीं है जरुरत “बांधने” की,

    जब दोनों खड़े हो “सम्मुख”,तभी आती नोबत एक को “साधने” की,

    जरुरत है यहीं, “विजय”,

    “समझने” और “समझाने” की,

    एक-दुसरे को आज फिर,”अपनों” और “सपनो” की “अहमियत” बताने की,

    सभी इससे यही सीख लें (लेवें),जरुरत है कुछ, “झुकने” और “झुकाने” की,

    बताते चलो,निभाते चलो, ”अपनों” के साथ “सपनो” को भी सच करते चलो |

    “सपने”तो आखिर “सपने” होते है,“अपने”भी तो आखिर “अपने” होते है ||

  • 5 - व्यक्तित्व
  • मैंने यु हीं न किया, बदलाव मेरे व्यक्तित्व में,

    इसके पीछे छुपे राज, बन घाव, मोजूद है आज भी मेरे दिल में,

    किया बदलाव मैंने व्यक्तित्व में, हर बार कुछ सोच कर,

    पिया घूंट जहर-सा, हर “वार” और “चोट” पर || 1 ||

    हर “वार” मिला मुझे, उस शक्श से,जिससे,ऐसी उम्मीद भी न थी,

    “घाव” देकर भी, उसके, शांति दिल में, बिलकुल भी न थी,

    तभी तो हरे जख्मो पर, वो, “नमक” छिड़क रहे थे,

    जिनसे, जरुरत थी मलहम की, वे ही दिल के चीथड़े उडा रहे थे,

    किया बदलाव मैंने व्यक्तित्व में, हर बार कुछ सोच कर,

    पिया घूंट जहर-सा, हर “वार” और “चोट” पर || 2 ||

    किया है सिर्फ “बचाव” अभी भी, मैंने उन्हें नादान समझ कर,

    भले उन्होंने मुझे, मजबूर किया जहर-सा अपमान भूलने पर,

    फिर भी मैंने मजबूत रखा खुद को अपने सिद्धान्त पे बने रहने पर,

    जो रहता, भले “खाए” बिना, पर “कहे” बिना, न रह पाता था,

    वो भी आज गलत को गलत, कहने में, हिचकने लगा था,

    किया बदलाव मैंने व्यक्तित्व में, हर बार कुछ सोच कर,

    पिया घूंट जहर-सा, हर “वार” और “चोट” पर || 3 ||

    “क्रोध” पे तो बुद्ध सी “विजय”(जीत) पा लिया, “क्षमा” को तो जैसे मुफ्त ही समझ लिया,

    एक ही गलती बार-बार सहन करना, जैसे नियति ही मान लिया,

    बस एक आस जिन्दा थी जेहन में,”तू” सही रहेगा तो, दुनिया सुधर जाएगी,

    दुनिया के सुधरने के इंतजार में, पता नहीं मैंने, खुद को कितना बदल दिया

    किया बदलाव मैंने व्यक्तित्व में, हर बार कुछ सोच कर,

    पिया घूंट जहर-सा, हर “वार” और “चोट” पर || 4 ||

    विजय कुमार शर्मा “जयपुरिया”