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कूड़ा

कूड़ा

प्रियंका गुप्ता

अयांश की मेज़ साफ़ करते हुए उसकी डायरी उठाई तो बीच में फँसा पेन खिसक कर नीचे गिर गया। उठा कर ऊपर रखा तो जैसे करंट दौड़ गया कोई...उँगलियों से होता हुआ पूरे शरीर में...। शायद मेज़ का कोना टकरा गया था कोहनी से...इस लिए झनझना गया हो इस तरह...। सब झाड़-पोंछ कर करीने से लगा कर मैंने पूरी मेज़ का सरसरी निगाहों से जायजा लिया और फिर एक चैन की साँस ली...। अयांश को हर चीज़ सही जगह पर, करीने से चाहिए...। घर तो तब भी वो मेरा अधिकार क्षेत्र समझ कर थोड़ा बिखरा बर्दाश्त कर लेता था...पर अपनी किताबों, कागज़-पत्तर, पेन-पेन्सिल से उसे कुछ ज़्यादा ही मोहब्बत थी...। स्टडी-टेबिल बिल्कुल साफ़-सुथरी और एकदम व्यवस्थित चाहिए होती थी...वरना अक्सर झल्ला जाता था...तुमसे न हो पाया करे तो मुझे बोल दिया करो दी...मैं साफ़ कर लिया करूँगा...। पर मैं कैसे उसे करने देती भला...? मेरे होते वो ये सब करेगा तो फिर फ़ायदा ही क्या...?

वैसे अपनी इस स्टडी-टेबिल से उसे इतना प्यार होता भी क्यों न...लिखाड़ी जो ठहरा...। आम भाषा में बोलूँ तो एक लेखक...और वो भी कोई ऐसा-वैसा नहीं...नामचीन...। इसी टेबिल पर बैठ कर तो उसने न जाने कितनी कहानियाँ रच डाली...कितनी किताबों की नींव पड़ी यहाँ...। ये पूजा-स्थल था उसका...और पूजा की जगह तो हर कोई साफ़-सुथरा रखता ही है न...।

इस ईमेल और मोबाइल के तमाम चैटिंग के साधनों के बावजूद उसके पास आज भी उसके प्रशंसकों के पत्र आते थे...। उसकी हर किताब में इस बात का जिक़्र करना वो कभी नहीं भूलता था कि अपने फ़ैन्स की ओर से उसे पत्रों का इंतज़ार रहेगा...मेल्स या कॉल्स का नहीं...। उसके प्रशंसक उसकी बात का मान रखते भी थे...। लेटर-बॉक्स से जब भी तमाम पत्र लाकर उसकी मेज़ पर रखती तो एक अजीब सी खुशी और गर्व का अहसास होता था...। अक्सर मैं उसे छेड़ती भी रहती थी...जानते हो, मैं अक्सर सोचती थी कि ये सलमान और शाहरुख की बहनों को कैसा लगता होगा...। पर अब पता चल गया है...मैं भी आखिर एक सेलिब्रिटी की बहन जो हूँ...। कहती हुई मैं तो हँस पड़ती पर वो झेंप जाता...क्या दी...तुम भी न...। ऐसा कुछ नहीं है...। कोई ऐसा सेलिब्रिटी नहीं हूँ...बस्स, लोग पसन्द करने लगे तो पत्र लिख देते हैं...और क्या...। फ़ालतू में मेरी टाँग-खिंचाई न किया करो...।

ऊपर से भले वो ऐसा कहता, पर उसकी आँखों की चमक और चेहरे की लाली उसके अन्दर की खुशी की चुगली कर ही देती थी। उसी एक चमक को देखने के लिए...उसकी आवाज़ की उस चहकन को सुनने-महसूसने के लिए मैं बीच-बीच में ऐसा कोई जुमला उछालती ही रहती थी...। ज़्यादा तंग हो जाता तो ‘हे भगवान...हद हो तुम भी...’ कहता हुआ वहाँ से उठ कर चल देता था...और मेरी हँसी दूर तक उसके पीछे चलती जाती थी...। मैं एक अनोखे सकून से भर उठती थी...। आखिर मेरी पूरी दुनिया अयांश में ही तो समाई हुई थी...।

इधर अयांश को कई सेमिनार में भी बुलावा आने लगा था। शहर में भी और शहर से बाहर भी...। जब अखबारों में उसकी तस्वीर छपती तो वो तो आराम से शान्त बैठा रहता, मैं ही जैसे नाचती फिरती...। जितनों को कर पाती, फोन कर के सूचित कर देती...यहाँ तक कि काम वाली को भी अख़बार खोल-खोल कर दिखाती रहती...देख तोऽऽऽ...ये भैया की तस्वीर...कितने लोगों के सामने बोल रहा है माइक पर...। मामूली बात थोड़े न है...बहुत दिमाग़ी काम है ये...। कामवाली टुकुर-टुकुर मेरा मुँह देखती, पर मैं सबसे बेपरवाह उससे सारा बखान कर के ही दम लेती...। अयांश तो कभी-कभी थोड़ा इरीटेट भी हो जाता...ऐसे पगलाया न करो दी...। मुझसे बड़े-बड़े लेखक हैं...मैं क्या हूँ उनके आगे...। मैं उसकी बात को अनसुनी कर मुँह बिचका देती...हुँह...होंगे...वो मेरे भाई थोड़े न हैं...। हार कर वो मुझे गले से लगा मेरा माथा चूम लेता...मेरी पगली दीऽऽऽ...।

ऐसा नहीं था कि सिर्फ़ मेरे लिए ही अयांश मेरी दुनिया था...उसके जीवन के भी एक बड़े से हिस्से पर सिर्फ़ मेरा राज़ था...। अपनी हर छोटी-बड़ी बात के लिए वो मेरा मुँह ताकता था...। अक्सर मैं उसे छेड़ती...बीवी आने दे ज़रा...फिर देखती हूँ कितना घूमता है मेरा पल्लू पकड़ के...। तब तो दीदी की याद भी नहीं आएगी...। मेरे इस मज़ाक से वो गम्भीर हो जाता...तुमको सच में ऐसा लगता है क्या...?

जाने क्यों अपने इसी एक मज़ाक पर अक्सर मेरी आँखें भर आती जिसे मैं बड़ी खूबसूरती से किसी काम में जुट कर पी जाती...। पर शायद वो समझ ही जाता था...इसी लिए पहले तो यक़ीन दिलाता...ऐसा कुछ नहीं होने वाला...। हर रिश्ते की अपनी जगह होती है दी...। फिर सहसा वो भी मज़ाक पर आ जाता...वैसे इरादा क्या है बहना...? सारी ज़िन्दगी मेरी छाती पर मूँग दलनी है क्या...? तुम्हें क्या लगता है, तुम्हें इस घर से भगाए बिना किसी और को लाऊँगा...? फिर देखा जाएगा, कौन किसको भूलता है...। तब तो जब अपनी बहन को मिस करूँगा तो साफ़ जवाब मिलेगा...क्या करूँ भैया...चुन्नू-मुन्नू के पापा को छोड़ के कैसे आऊँ...? मैं खिसिया कर उसे हल्के हाथों से धमाधम मारती रहती और वो बस हँसता रहता...।

इधर लगातार बढ़ती जा रही उसकी व्यस्तता से मेरा ज़्यादातर दिन बड़ा बेकार...मनहूस-सा लगने लगा था। ऐसे में उसी की लिखी कहानियों...उपन्यासों को ही बार-बार पढ़ते रहना मेरा प्रिय शगल बन गया था...। कई बार बाहर जाने से पहले अयांश मुझे दूसरे लेखकों की किताबें पकड़ा जाता था...जब तक मैं वापस आऊँ, पूरा पढ़ डालना...। फिर हम दोनो मिल कर इसकी समीक्षा करेंगे...। सामने तो मैं बड़ी मासूमियत से ‘हाँ...अच्छा...’ में गर्दन हिला देती पर उसके पीठ फेरते ही वही ढाक के तीन पात...। लौट के जब वो मुझसे अपनी दी हुई किताब के बारे में कुछ पूछ्ता, मैं कोई भी चलताऊ बहाना बना देती...। उसे कैसे समझाती कि उसकी अनुपस्थिति में उसकी रचनाएँ मुझे उसके साथ होने का अहसास कराती थी...। कहती भी तो मुझे इतने अच्छे से समझने वाला अयांश क्या उतनी शिद्दत से समझता इस बात को...? उल्टे लेक्चर और पिला देता...। लेखक होने से अपनी बुद्धि पर कुछ ज़्यादा घमण्ड नहीं है उसको...?

उसके सवालों से बचने का सबसे आसान रास्ता होता था, उसके आयोजन का ज़िक्र छेड़ देना...। फिर वो लगातार एक-दो दिन तक मुझे एक-एक बात...छोटी-से-छोटी...और बड़ी-से-बड़ी मुझे बताता जाता...। उसकी बातें ख़त्म होने तक मुझे लगता, वो वहाँ अकेला नहीं गया था, बल्कि मैं भी उसके साथ ही घूम कर आई हूँ...। उसकी आँखों से देखी दुनिया मुझे अपनी आँखों-देखी से ज़्यादा सच्ची लगती थी...।

इस बार करीब हफ़्ते भर के टूर से वापस आया तो बहुत खुश था...। हमेशा की तरह उसके सवालों से बचने के लिए इस बार मुझे कुछ पूछने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी...। इतना उत्साहित था कि अपने आप ही सब बताने लगा...। एक-एक जगह जहाँ वो गया, जो-जो लोग आए थे, सब के बारे में बताता जा रहा था...। इतने दिन बाद मुझे ये घर, घर जैसा लग रहा था...। वरना माँ-पापा के पर्मानेण्टली दुबई में रहने के कारण मुझे अक्सर परिवार की कमी का अहसास बड़ी शिद्दत से होता था...। न पापा अपना काम छोड़ कर भारत आ सकते थे, न उनकी तबियत की वजह से माँ उन्हें अकेला छोड़ सकती थी। अयांश को वो दोनो वहाँ बसने के लिए कभी नहीं मना पाए थे और इन सबके बीच मैने भाई के साथ रहना ज़्यादा बेहतर समझा...। अब जब वो भी कई-कई दिनों के लिए बाहर चला जाता था तो मैं एक अजीब-सा खालीपन महसूस करने लगती थी...। घर एक मकान में तब्दील हो जाता था...।

सहसा अपना बैग खाली करते हुए वो चहक उठा...अरे दीऽऽऽ...ये तो मैं बताना ही भूल गया, जाने कैसे...। देखोऽऽऽ...कहते हुए उसने एक खूबसूरत सी डायरी और उतना ही सुन्दर एक पेन मेरे हाथों में थमा दिया...। देखने से ही दोनो काफ़ी क़ीमती लग रहे थे। मैं उसके बचपने पर मुग्ध थी...पागल...लिखता तू है और इतनी सुन्दर डायरी और पेन मुझे दे रहा...।

वो खिलखिला कर हँस पड़ा...नहीं दीऽऽऽ, दे नहीं रहा, दिखा रहा...बताओ न, कैसा है...? एक बच्चे की सी उत्सुकता से मुझे निहारते हुए अयांश का चेहरा और भी खिल उठा जब मैने जीभर कर दोनो चीज़ों की तारीफ़ कर दी...। वो पीछे से आकर बिल्कुल बचपन की तरह मेरे गले से लग कर अपने साथ-साथ मुझे भी झुलाने लगा...जानती हो दीऽऽऽ, ये दोनो चीज़ें मुझे मेरी एक बहुत बड़ी वाली फ़ैन ने दी है...। भारत में भी कोई किसी लेखक का इतना प्रशंसक हो सकता है, देख कर बहुत खुशी हुई...। पता है, मैं तो एक दुकान में तुम्हारे लिए कुछ देखने गया था, वहीं ये लड़की मिल गई...अनीता नाम है इसका...। मुझे देख कर पास आ गई और बोली...आप अयांश जी हैं न...? मैं आपकी बहुत बड़ी फ़ैन हूँ...। ढूँढ-ढूँढ कर आपकी सारी कहानियाँ, सब किताबें अपने पास सहेज के रखी है...। जाने कितनी-कितनी बार पढ़ चुकी हूँ एक-एक चीज़...। और दीऽऽऽ, सिर्फ़ कहने को नहीं कहा उसने...सच में सुनाया भी कुछ अंश...अपनी याद‍दाश्त से...। मैं तो दंग रह गया दी...किसी लड़की की मेमोरी इतनी शार्प भी हो सकती है क्या...?

मैं उसे छेड़ने के मूड में आ गई...ओहहोऽऽऽ...ये राज़ है जनाब के चमकते चेहरे का...। तभी मैं कहूँ, आज तो आते ही टेपरिकॉर्डर की तरह बजने लगा भाई...मतलब, सारी भूमिका थी ये इस एक घटना की...।

अयांश फिर झेंप गया...तुम भी दीऽऽऽ, जब देखो तब मेरे पीछे पड़ जाती हो...। पूरी बात तो सुन लो, तब अपना दिमाग़ चलाना...। जैसा तुम समझ रही हो, वैसा बिल्कुल नहीं है...बल्कि जब तुम आगे सुनोगी न उस लड़की की बात, तो तुम मुझसे भी ज़्यादा आश्चर्यचकित हो जाओगी...। उसने न केवल मेरी एक किताब अपने बैग से निकाल के उस पर मेरे ऑटोग्राफ़ लिए बल्कि एक धागा लेकर वहीं मेरी कलाई में भी बाँध दिया, ये कहते हुए कि मेरी रचनाओं को पढ़ते हुए अक्सर उसे मुझमें अपने भाई का अहसास होता है...। बहुत अच्छा लगा दी...। अनीता उस दिन के बाद लगातार मेरे साथ घूमती रही...पूरे शहर को घुमा दिया उसने एक कुशल गाइड की तरह...। आइ रियली एन्जॉयड हर कम्पनी दी...। बहुत इंटेलीजेण्ट लड़की है...इतनी सुन्दर...फिर भी इतनी मासूम...। तुम मिलोगी न उससे तो तुम उसकी फ़ैन बन जाओगी...सच्ची...।

अयांश जाने और क्या-क्या बोलता जा रहा था, पर मैं सहसा थोड़ी असहज हो गई...तूने एक बार भी फोन पर तो ज़िक्र किया नहीं इस लड़की का...क्यों...?

तुम तो दीऽऽऽ...खाना खाया...आराम किया...कहाँ हो...इन सब बातों के अलावा कुछ और सुनती-पूछती ही कहाँ हो...? और फिर मैं फोन पर क्या बताता...सोचा, जब वापस आऊँगा तो सब डिटेल में बता दूँगा...। पता है दीऽऽऽ, ये डायरी और पेन उसने चलते समय मुझे दिया था, कहने लगी, भैया...अबकी अपनी नई रचना की शुरुआत इसी डायरी में, इसी पेन से कीजिएगा...। फिर देखिएगा, वो किताब सारे रिकॉर्ड तोड़ देगी...बेस्ट-सेलर का...। भाई के लिए पागल है दी...बिल्कुल तुम्हारी तरह...।

मेरे अन्दर गहरे कुछ चटक गया...अचानक...। अनमनेपन से मैं उसको रौ में बोलता छोड़ कर सहसा उठ खड़ी हुई तो गोद से डायरी और पेन भी नीचे गिर पड़े। उसने लपक कर दोनो को यूँ उठा लिया जैसे नीचे गिर कर उन्हें कोई चोट लग जाएगी...। कोई और मौका होता तो उससे पहले मैं लपक कर उनको सहेज लेती...पर इस बार दिल नहीं किया...। उन निर्जीव चीज़ों की चोट देखूँ या अपनी...?

अयांश मेरे इस तरह अचानक उठ कर आगे बढ़ जाने से थोड़ा हतप्रभ रह गया था...। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि वो अपनी बात कह रहा हो और मैं उठ कर इस तरह चल दूँ...। उसने पूछा भी...क्या हुआ दीऽऽऽ...कहाँ चल दी...? पर मैने बात टाल दी...कुछ नहीं हुआ...तुम्हारे खाने के लिए कुछ बना दूँ...। वहाँ तो इतने दिन तक बाहर का अंट-शंट ही खाते रहे होगे न...अब तो घर का खिला दूँ...। अयांश ने अचानक मेरा हाथ पकड़ कर वापस मुझे अपने पास बिठा लिया...नहीं दीऽऽऽ, तुम बिल्कुल चिन्ता न करो इस बात की...। अनीता रोज़ मुझे दोनो समय अपने हाथ का बना खाना खिलाती थी...। कुक भी लाजवाब है वो...अगर मास्टर शेफ़ में जाए न...तो पक्का जीतेगी...। तुम मानोगी नहीं दी...पर वो लड़की अगर आँख बन्द करके भी मसाले डाले न तो भी पर्फ़ेक्ट बनेगा खाना...। मैं तो मुरीद हो गया उसकी कुकिंग का...तुम मिलना तो कुछ रेसिपी सीख लेना उससे...।

जाने क्यों मैं थोड़ा इरीटेट हो गई थी...मुझे क्या ज़रूरत है मिलने की...? तुम्हारे बाकी लेखकों तक से नहीं मिलती कभी तो उससे मिल के क्या करूँगी...?

हाँ वही तो...तुमको भी मिलना चाहिए सबसे...। लेखकों से मिलने...उनसे बात करने के लिए तुम्हारा खुद लेखक होना ज़रूरी थोड़े न है...। अनीता तुमसे इतनी छोटी है पर लगता है तुमको उससे बहुत कुछ सिखवाना पड़ेगा...।

अचानक मुझे गुस्सा-सा आ गया...तो ठीक है न...। मैं माँ-पापा के पास चली जाती हूँ...तुम उसको ही अपने पास रख लो...। कम-से-कम जाहिल-गँवार बहन होने की शर्मिन्दगी तो नहीं होगी न तुम्हें...। कहते-कहते मैं रुआँसी हो गई थी...। अयांश भी अवाक हो गया था मेरे इस अजीब रवैये से...। पहले भी तो अक्सर वो मेरी तमाम बातों पर ऐसे ही बोलता आया था...फिर आज अचानक क्या हो गया...।

मैं जाकर अपने कमरे में लेट गई तो हल्की नाराज़गी में आ चुके अयांश ने भी मुझे मनाने की ज़रूरत नहीं समझी...। अच्छा-भला माहौल जाने कब-कैसे फिसलन भरा हो चुका था...। अब तो ज़रा भी सम्भले नहीं कि गिर के चोट खाने का ख़तरा था...। थोड़ी देर तक यूँ ही लेटे रह कर मैं वापस उठ गई थी...। थोड़ी शर्मिन्दगी भी हो रही थी अपने व्यवहार पर...। अयांश बेचारा तो कितने उत्साह से मुझसे हर बात बता रहा था, जाने क्या हो गया मुझे जो मैने उसके पूरे उत्साह पर ठण्डा पानी फेंक दिया...। अब तो शायद बाकी की बातें बताए भी न जल्दी...स्वभाव पता था मुझे उसका...। एक बार किसी बात के लिए मूड उखड़ गया तो फिर बहुत मुश्किल होती थी वापस उसी बिन्दु पर उसे लौटा कर लाने में...।

उस दिन के बिन-बात हुए तल्ख़ माहौल के बाद से अयांश ने अपनी ओर से उस सेमिनार का ज़िक्र करना बन्द कर दिया था। मुझे ही अक्सर कोई बात याद आती तो पूछने पर संतोषजनक उत्तर देकर वो शान्त हो जाता। अनीता का नाम मेरे सामने लेने से वो बचने लगा था...। सब कुछ सामान्य ही हो चला था कि सहसा एक दिन अयांश के पत्रों को उसकी मेज़ पर रखते समय गुलाबी रंग के एक लिफ़ाफ़े पर नज़र पड़ी...। ऐसे रंगीन लिफ़ाफ़े में कभी कोई पत्र नहीं आया था उसके लिए, इस लिए उसके पत्र न खोलने के अपने नियम को ताक पर रख मैने वो लिफ़ाफ़ा दुपट्टे में छिपाया और अपने कमरे में चिटकनी लगा एक साँस में पूरा पत्र पढ़ गई...।

अनीता का पत्र था...साथ में एक तस्वीर भी...। लड़की सचमुच खूबसूरत थी...पत्र से तहज़ीबदार भी लग रही थी...। यानि अयांश ने जितनी और जैसी तारीफ़ की थी उसकी, वो शायद सच में उसकी हक़दार थी...। स्नेह-शब्दों की चाशनी में पगा सामान्य-सा पत्र...पर लड़की की कुशाग्र-बुद्धि का पूरा खाका खींचता हुआ...। तस्वीर में अनीता उसी सूट को पहने खड़ी थी, जिसे चलते समय अयांश उस धागेनुमा राखी के बदले उसे देकर आया था...। साथ ही एक सूचना भी कि जल्दी ही वो हमारे शहर आ रही थी और वादे के मुताबिक उससे मिले बिना वापस नहीं जाएगी...।

कई दिन बीत गए, पर अयांश को उस पत्र या उस तस्वीर की कोई जानकारी नहीं हुई...। मैने देनी कोई ज़रूरी नहीं समझी...। ऐसे हर राह चलता कोई भी शहर आ-आकर उससे मिलता रहा तो फिर हो चुका उसका लिखना-पढ़ना...। जाने उस लड़की ने उस पत्र की बाबत उसे किसी और माध्यम से जानकारी दी या नहीं, मुझे नहीं मालूम...।

सुबह का वक़्त था...। मैं रसोई में नाश्ते-खाने की तैयारी में लगी थी और अयांश नहा-धोकर पूजा में बैठा था...। पूरे एक घण्टे की फ़ुर्सत...। सहसा दरवाज़े की घण्टी बजी। जाकर खोला तो जड़ रह गई...। सामने अनीता खड़ी थी...अपना सूटकेस लिए हुए...। मैं कुछ बोलती कि उससे पहले उसने ही नमस्ते में हाथ जोड़ दिए...आप साक्षी दी हैं न...अयांश भैया की दीदी...? मैं अनीता...भैया ने आपको बताया तो होगा न मेरे बारे में...?

मैं जड़ से चेतन अवस्था में आ चुकी थी...। वो अन्दर आने को हुई पर मैं रास्ता रोके वैसे ही खड़ी थी...अयांश शहर से बाहर है कुछ दिनो के लिए...और अकेले में मैं उसके गेस्ट्स को एन्टरटेन नहीं करती...। अनीता का मुँह उतर गया था, पर मुझपर जैसे कोई असर ही नहीं हुआ। मैं खुद नहीं जानती कि हमेशा मृदुभाषी रहने वाली मैं उस एक पल में कैसे इतनी रूखी हो गई थी...। उसे हाथ से दो पल वहीं रुकने का इशारा कर मैं तेज़ी से अयांश की स्टडी-टेबिल तक गई। डायरी उठाते-उठाते जाने क्या सोच कर खुद को रोक लिया, पर पेन लिए हुए मैं उससे भी दुगुनी तेज़ी से वापस आ गई। चोर नज़रों से पूजा-घर की ओर देख मैने वो पेन रुआँसी खड़ी अनीता के हाथों में थमा दिया...अयांश ने इस पेन को कूड़े में फेंक दिया था...। जाने क्या हुआ...जब से इस पेन का इस्तेमाल करना शुरू किया था उसने, कुछ लिख ही नहीं पा रहा था...। विद्या की चीज़ थी, सो मैने उठा कर अपने पास रख लिया था...। अब तुम्हें वापस दे रही...। तुम्हारी अमानत है, तुम सम्हालो...। मुझे इस बोझ से मुक्त करो...और हाँ, मेरे और अयांश, दोनो की ओर से...यहाँ तक आने के लिए बहुत धन्यवाद...।

उसकी स्टडी-टेबिल झाड़-पोंछ कर एक बार फिर व्यवस्थित करते देख पूजा से बाहर आते जितनी सहजता से अयांश ने पूछा...कौन था दी...? उतनी ही सहजता से मैने भी उत्तर दे दिया...कोई नहीं रे...कूड़े वाला था, दे दिया सारा कूड़ा...।

(प्रियंका गुप्ता)