Pal jo yoon gujre - 22 books and stories free download online pdf in Hindi

पल जो यूँ गुज़रे - 22

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(22)

तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार निर्मल का परिवार, कुल सात लोग — परमानन्द, सावित्री, जितेन्द्र, सुनन्दा, कमला, बन्टु तथा निर्मल — रविवार शाम को शिमला पहुँच गये। अनुराग ने इनके रुकने तथा सगाई की रस्म के लिये मॉल रोड पर एक होटल में प्रबन्ध किया हुआ था। अनुराग श्रद्धा, जाह्नवी, मीनू तथा अपने एक सेवादार और पंडित जी के साथ पहले से ही उपस्थित था। अनुराग और श्रद्धा ने उनके आगमन पर यथोचित स्वागत—सत्कार किया। निर्मल ने सबका एक—दूसरे सेे परिचय करवाया। श्रद्धा सुनन्दा और कमला को जाह्नवी के कमरे में छोड़ आई।

होटल के मिनी हॉल में एक तरफ बारह कुर्सियाँ तथा टेबल लगे हुए थे। बाकी लोग वहीं बैठ गये। अनुराग ने चाय—नाश्ते के लिये पहले से ही ऑर्डर कर रखा था। जैसे ही वेटर नाश्ता लगाने लगे कि श्रद्धा सुनन्दा, कमला और जाह्नवी को बुला लाई। जाह्नवी ने उपस्थित सभी को आते ही नमस्ते की और परमानन्द और सावित्री की चरण—वन्दना की। सभी ने उसे बधाई दी और सावित्री ने उसे गले लगाकर उसका माथा चूमा।

नाश्ते—पानी के उपरान्त अनुराग ने परमानन्द से कहा — ‘अंकल जी, आप लोग दस—बीस मिनट में तैयार हो लें, फिर सगाई की रस्म निपटाकर हम सभी घर चलेंगे। डिनर घर पर ही करेंगे।'

जब सुनन्दा और कमला अपने—अपने कमरों में तैयार होने के लिये गर्इं तो निर्मल जाह्नवी के कमरे में गया। श्रद्धा वहाँ पहले से बैठी हुई थी। निर्मल को आया देखकर श्रद्धा उठकर जाने लगी तो निर्मल ने कहा — ‘बैठो भाभी जी, आप कहाँ चलीं?'

‘निर्मल जी, अब यह ऊपर की लीपापोती छोड़ो। कितने समय के बाद मिल रहे हो, आराम से बातें करो; मैं कबाब में हड्‌डी नहीं बनना चाहती।'

‘ओह्‌ह भाभी जी....' निर्मल अभी अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाया था कि श्रद्धा बाहर निकलती हुई कमरा बन्द कर गयी।

जाह्नवी और निर्मल चाहे नाश्ते की टेबल पर एक—दूसरे को देख चुके थे, किन्तु वह औपचारिक मिलन था। अब एकान्त में सजी—धजी बेड पर आलता—रंगे पाँव फैलाये बैठी जाह्नवी को देखने की बात ही और थी। उसने पारम्परिक लाल—गुलाबी साड़ी या लहंगा न पहनकर स्काई—ब्लू कलर की पोशाक धारण की हुई थी। दोनों ओर की सघन बरौनियों के बीचों—बीच ड्रैस के रंग से मेल खाते रंग की बदी, पुकारती—सी आँखों से बाहर तक खची काजल की रेख, लम्बी सुतवां नाक में नग—जड़ी नथनी, रक्ताभ कपोल, पतले—पतले होठों पर हल्की—सी लिपस्टिक की रंगत, सुराहीदार गर्दन को और सुन्दरता प्रदान करते कानों में लटकते बूँदे तथा गले में सफेद मोतियों की माला व सावित्री द्वारा भिजवाई गयी सोने की ‘लड़ी' के कारण जाह्नवी के समानुपातिक शरीर सौश्ठव का दृश्य देखते ही बनता था। निर्मल ने उसे निहारतेे हुए कहा — ‘अरे वाह! इस रूप में तो बहुत सुन्दर लग रही हो। जाह्नवी, प्रायः ऐसे अवसरों पर प्रेमी प्रेमिका की प्रशंसा करते समय ‘चाँद—सा मुखड़ा' जैसी किसी—न—किसी उपमा का प्रयोग करते हैं। शायद तुम्हारे मन में भी ऐसा कुछ सुनने की चाह हो, लेकिन मेरे लिये तुम बस तुम हो, किसी भी उपमा से परे। चाँद या चाँदनी से उपमा तो कतई बर्दाश्त नहीं। बृहस्पति की पत्नी तारा का जिस तरह से चाँद ने अपहरण किया था, उसे जानते हुए तो स्त्री के सौन्दर्य की तुलना चाँद से करना स्त्री का अपमान करना है।'

निर्मल के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर जाह्नवी मुग्ध हो उठी। उसने निर्मल की ओर नज़र उठाकर इतना ही कहा — ‘मैं तो पहले से ही तुम्हारी स्पष्टवादिता की कायल हूँ।.....आज पहली बार तुम्हें बेल—बॉटम में देख रही हूँ। तुम्हारी हाईट के अनुसार यह बड़ा अच्छा लग रहा है।......बण्टु डाक्टरी कर रहा है, फिर भी बड़ा शर्मीला है। मैंने एक—दो बार बात करने की कोशिश की, बस ‘हाँ—हूँ' करके इधर—उधर हो गया।......एक बात अभी बता दूँ कि डिनर के बाद तुम घर पर ही रुकना, बाकी लोग होटल आ जायेंगे। मैंने भाभी जी से बात कर ली है।'

‘जाह्नवी, यह अच्छा नहीं लगेगा।'

‘मेरी इतनी—सी बात नहीं मानोगे? कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ?'

‘चलो, देखता हूँ।.....विवाह का मुहूर्त अपने मसूरी जाने से पहले निकल जाये तो अच्छा रहेगा वरना इन्तज़ार की घड़ियाँ और लम्बी हो जायेंगी।'

‘भइया भी यही चाहते हैंं'

‘और तुम....?'

‘अकेले मेरे चाहने से क्या होता है!'

‘यह सब तुम्हारे चाहने से ही तो हो रहा है वरना इस बंदे की कहाँ हिम्मत थी तुम तक पहुँचने की?'

‘अब यह मक्खनबाज़ी बन्द करो, कोई काम की बात करो।'

निर्मल कुर्सी से उठा, जाह्नवी की तरफ बढ़ा। उसने उसे बाँहों के घेरे में लेने के लिये बाँहें फैलार्इं, किन्तु जाह्नवी ने उसे पीछे हटाते हुए कहा — ‘ना बाबा ना, मेरी ड्रैस क्रश हो जायेगी।'

निर्मल ने शरारती अन्दाज़ में कहा — ‘खुद ही तो कह रही थी, कोई काम की बात करो, और अब करने भी नहीं दे रही। ड्रैस मुझसे अधिक प्यारी है क्या?'

‘निर्मल, तुम्हारी आँखों के स्पर्श से ही मैं तो स्पन्दित हो उठी हूँ, लेकिन इस समय थोड़ा सब्र करना पड़ेगा जैसा अब तक करते आये हो। ड्रैस का ख्याल तो रखना ही पड़ेगा क्योंकि मुझे सबके सामने जाना है।'

निर्मल जाह्नवी के माथे पर झूलती एक विद्रोही लट को अपनी अँगुली से सँवारने के लिये उसके नज़दीक आया तो उसे निर्मल की निगाह की गर्मी अपने चेहरे पर महसूस हुई। उसका मन निर्मल को चूमने के लिये मचल उठा, किन्तु उसने मन को ज़ब्त करते हुए दायें हाथ को अपने होठों से छुआकर ‘फ्लार्इंग किस' निर्मल की तरफ उछाल दी। निर्मल ने उसके हाथ को पकड़ लिया। देखा, मेंहदी रची हुई थी। मेंहदी से बनाई फूल—पत्तियों के बीच लिखा अपना नाम देखकर उसने हथेली को चूम लिया।

जाह्नवी— ‘निर्मल, दिल में तो तुम्हारा नाम बहुत पहले से अंकित है, आज भाभी ने मेरी हथेली पर लिखकर उसे सामाजिक मान्यता दे दी है।'

‘अति सुन्दर।'

‘क्या अति सुन्दर?'

‘जितनी सुन्दरता तुम्हारी काया में है, उससे कहीं अधिक सुन्दर तुम्हारा मन है।'

‘वह कैसे?'

‘सामाजिक मान्यता मिलने से जो प्रसन्नता तुम्हारे मन को हुई है, वह तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलक रही है।'

‘कितनी प्रतीक्षा के पश्चात्‌ यह दिन आया है! है ना निर्मल?'

‘हाँ ऽ ऽ.....'

निर्मल को आँखें मूँदे हुए देखकर जाह्नवी ने पूछा — ‘क्या सोचने लग गये?'

‘यही कि मेरी प्रतीक्षा कब समाप्त होगी?'

‘होगी, बहुत ज़ल्द होगी।'

सगाई की रस्म के लिये सब तैयारी पहले से ही थी। अतः अधिक समय नहीं लगा। तदुपरान्त पंडित जी ने पंचाग निकाला, ग्रहों की चाल और तिथिओं के मिलान के पश्चात्‌ एक छोड़कर दूसरे रविवार का मुहूर्त विवाह के लिये शुभ बताया। सावित्री ने परमानन्द को कहा — ‘इतने कम समय में सारी तैयारियाँ कैसे होंगी?'

जवाब परमानन्द की बजाय अनुराग, जो उनके पास ही बैठा था, ने दिया — ‘आंटी जी, आजकल सब कुछ रेडीमेड मिल जाता है। आप फिक्र न करें, सब प्रबन्ध हो जायेगा। दूसरे, निर्मल और जाह्नवी की ट्रेनग भी तो आने वाली है और मसूरी ट्रेनग के चार महीने के कोर्स के दौरान विवाह सम्भव नहीं होगा, क्योंकि इतनी छुट्टी नहीं मिलती। अब और लेट करने का भी तो कोई औचित्य नहीं।'

परमानन्द — ‘अनुराग ठीक कह रहा है। इसी मुहूर्त पर विवाह पक्का।....अनुराग बेटे, विवाह में अधिक नहीं पन्द्रह से बीस लोग ही बारात के रूप में आयेंगे, यह मेरी और निर्मल दोनों की राय है।'

‘जैसे आप ठीक समझें। वैसे बारात में अधिक लोग भी हों तो भी हमें कोई दिक्कत नहीं।'

‘वह तो मैं देख ही रहा हूँ। बेटे, मैं ज्यादा तामझाम के हक में नहीं हूँ। दूर का सफर है, इसलिये रात को रुकना ही पड़ेगा वरना मैं तो दिन के विवाह के हक में हूँ। उससे बहुत—सी फिजूलखर्ची बचती है।'

इसके पश्चात्‌ अनुराग ने सभी से घर चलने का अनुरोध किया। वास्तव में, परमानन्द, सावित्री और कमला तो बिना देरी किये मशोवरा का ‘विला' देखने को उत्सुक थे। हाँ, जितेन्द्र और सुनन्दा का मन मॉल रोड पर घूमने—फिरने का था, लेकिन जब साथ आये थे तो उनको भी मन मारना पड़ा। जहाँ परमानन्द और सावित्री को निर्मल के ससुराल का घर बहुत अच्छा लगा और उसी के अनुसार उन्होंने तारीफ भी की, वहीं कमला तो जैसे इतनी आलीशान जगह को देखकर अभिभूत ही हो उठी थी और तारीफ करते ना अघाती थी।

होटल जाने से पूर्व श्रद्धा महाराज को अच्छी तरह समझा गयी थी कि क्या कुछ बनाना है और कैसे बनाना है। उसकी सहायता के लिये बहादुर भी घर पर था। इसलिये जब ये लोग होटल से घर पहुँचे तो खाना पूरी तरह से तैयार था। सभी ने खाने की बहुत तारीफ की।

खाने के उपरान्त अनुराग ने परमानन्द से कहा — ‘अंकल जी, कल सुबह आप लोग जल्दी आ जाना। नाश्ते से पहले आप हमारा एप्पल ऑर्चड भी देख लेना।'

श्रद्धा — ‘अंकल जी, निर्मल जी रात को यहीं हमारे पास रुक जायेंगे।'

‘अब मैं इस मामले में कुछ नहीं कह सकता। निर्मल जितना हमारा है, अब उतना ही आपका उसपर हक है।'

निर्मल मन—ही—मन प्रसन्न था कि जाह्नवी ने अपनी भाभी के साथ मिलकर कितनी आसानी से अपनी इच्छा पूरी करवा ली।

दूसरे दिन सुबह ऑर्चड देखने तथा नाश्ता आदि करने के पश्चात्‌ निर्मल के परिवार ने लगभग नौ बजे विदाई ली। सिरसा पहुँचते—पहुँचते साँझ गहराने लगी थी। अब दुकान पर जाने का तो समय था नहीं, अतः परमानन्द घर पर ही रुक गया और लम्बे सफर की थकावट दूर करने के लिये बैठक में दिवान पर लेट गया। सुनन्दा ने सावित्री से कहा — ‘ताई जी, आप आराम कर लें। मैं और दीदी मिलकर खाना बना लेती हैं।'

‘नहीं बहू, तुम लोग घर जाओ। दो दिन से बहिन जी अकेली हैं। तुम्हारा इस वक्त और देर करना ठीक नहीं। मैं और कमला खाना बना लेंगी।

रात को जब सुनन्दा घर के कामकाज निपटाकर बेडरूम में पहुँची तो जितेन्द्र उस दिन का अखबार पढ़ रहा था। सुनन्दा ने बेड पर लेटते हुए जितेन्द्र को सम्बोधित कर कहा — ‘क्यों जी, आपने नोट किया कि नहीं, निर्मल के ससुराल वाले इतने बड़े आदमी होते हुए भी उनमें रत्तीभर भी गुमान नहीं। ऐसे लोग विरले ही होते हैं.....एक बात और, वहाँ ताया जी कह रहे थे कि बारात में पन्द्रह—बीस से ज्यादा लोग नहीं होंगे। इस बार निर्मल के चाचा—चाची को छोड़कर हमें ले गये, मैं तो कहती हूँ, चाहे निर्मल कितना भी कहे, हमें बारात में नहीं जाना चाहिये ताकि उन्हें किसी करीबी रिश्तेदार को न छोड़ना पड़े।'

‘वैसे भी हम अब हो आये हैं। पन्द्रह दिन बाद हमारे दुबारा जाने की कोई तुक भी नहीं। मैं निर्मल को साफ—साफ कह दूँगा।.... जाह्नवी का परिवार वाकई बहुत बढ़िया है। खानदानी रईस हैं वे लोग।... निर्मल के इतना बड़ा अफसर बन जाने और इतने बड़े लोगों से नाता जुड़ने से अब कमला के लिये भी अच्छा रिश्ता मिल जायेगा। ताई उसके लिये काफी चतित रहती हैं।'

‘लड़की की विवाह योग्य उम्र होने पर माँ—बाप को चता तो होती ही है.....सो गये क्या?'

‘नींद आ रही है। तू भी सो जा।'

विवाह के उपरान्त जाह्नवी के लिये ससुराल में रहना एक नया अनुभव था। नये परिवार के सदस्यों के साथ तादत्म्य बिठाना और मौसम के लिहाज़ से शिमला से बिल्कुल विपरीत परिस्थितियों का सामना। कहाँ तो मई—जून—जुलाई के दिनों की मशोबरा की सेबों के बागों से आती महकभरी और तन को शीतलता से सराबोर करती हवाएँ और कहाँ सिरसा का 45—47 डिग्री तापमान, दिनभर की चिलचिलाती धूप और किसी भी समय चल पड़ने वाली धूल—भरी गर्म हवाएँ व आँधियाँ, ऊपर से बरसातों के साथ शुरू होते ही उमस भरे दिन। परमानन्द और सावित्री ने अपनी नई बहू की सुविधा के लिये भरसक प्रयास किये। घर में झाडू—पौंछा करने तथा बर्तनों के लिये कामवाली बाई रख ली। जाह्नवी ने भी स्वयं को परिवर्तित परिवेश के अनुसार ढालकर सबका मन मोह लिया। दसेक दिन बाद अनुराग उसे लेने के लिये आया। यद्यपि निर्मल और जाह्नवी मन से इतनी जल्दी एक—दूसरे से जुदा होने को तैयार नहीं थे, किन्तु परम्परा के निर्वाह के लिये जाह्नवी को पग—फेरा के लिये शिमला जाना ही था।

जाह्नवी पन्द्रह दिन शिमला रही। विवाह के उपरान्त लड़की जब पहली बार मायके आती है तो माता—पिता विशेषकर माता की जिज्ञासा होती है यह जानने की कि उसे ससुराल का परिवेश कैसा लगा, उसके प्रति ससुराल—वालों का व्यवहार कैसा है? क्योंकि जाह्नवी के माता—पिता दोनों ही स्वर्ग—सिधर चुके थे, इसलिये यह उत्तरदायित्व उसकी भाभी श्रद्धा को निभाना था। श्रद्धा ने जाह्नवी से कई तरह से जानने के प्रयास किये कि उसे अपनी ससुराल में किसी तरह की कोई तकलीफ तो नहीं, किन्तु जाह्नवी ने अपने सास—ससुर और ननद के सद्‌व्यवहार की ही बातें की। उसने श्रद्धा को बताया कि कैसे वहाँ घर का मुख्य—द्वार सुबह से लेकर रात तक खुला रहता है और आँगन या बरामदे में बैठे—बैठे ही धूप—छाँह और बरखा का आनन्द ले लेते हैं। अड़ोस—पड़ोस के लोग कितने मिलनसार हैं। कितने ही लड़के—लड़कियाँ मुझे भाभी जी कह कर बुलाते हैं। किसी औरत को चाची तो किसी दूसरी को ताई और बड़ी—बूढ़ियों को अम्मा—दादी कहकर बुलाना पड़ता है। इसमें बनावटीपन बिल्कुल नहीं, बल्कि अपनेपन का अहसास होता है। ऐसे लगता है, जैसे सभी लोग एक बड़े परिवार के सदस्य हों। मुझे किसी वक्त भी अकेलापन नहीं लगता था। पड़ोस में अधिकतर विभाजन के बाद आकर बसे लोग हैं। स्थानीय निवासी इन्हें अभी भी ‘रिफ्यूजी' कहते हैं, लेकिन इनमें पुरुषार्थ कूट—कूट कर भरा हुआ है। जीवन की मुश्किलों में भी हँसी—खुशी से कैसे रहा जा सकता है, उनसे सीखा जा सकता है। हम चार लोग इतने बड़े बँगले में रहते हैं। वहाँ एक घर में मैंने देखा कि एक ही कमरे में सात—आठ लोग रहते हैं। कमरे की एक दीवार के साथ ऊपर नीचे ट्रेन के थ्री—टायर कम्पार्टमेंट की तरह तीन चारपाइयाँ फिक्स की हुई हैं। वहाँ प्राइवेसी नाम की कोई चीज़ नहीं। लोग खुले में छतों पर सोते हैं।

श्रद्धा — ‘तो क्या तुम लोग भी खुले में छत पर सोते हो?'

‘हाँ भाभी जी। मैं और निर्मल चौबारों की छत पर सोते हैं, बाकी लोग निचली छत पर सोते हैं। पहली बार तो खुले में सोने में थोड़ा संकोच हुआ, लेकिन कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि कमरों में तो रात को गर्मी के मारे सोना दुभर होता है। किन्तु जब रात को असीम नीले गगन के तले तारों की छाँव में सोते हैं तो विचित्र—सी अनुभूति होती है। ऐसा लगता है जैसे मैं भी उन तारों में से ही एक हूँ। शुरुआती थोड़ी देर की उकताहट के बाद नींद आ जाती है और सुबह की ठंडी हवा में जब नींद खुलती है तो बदन एकदम तरो—ताज़ा होता है।'

श्रद्धा ने ठिठोली करते हुए कहा — ‘यह तरो—ताज़गी केवल खुली छत पर सोने और सुबह की ठण्डी हवा की वजह से ही नहीं होती, इसमें प्यार की मिठास घुली होती है।'

‘भाभी जी, आप भी ना.....'

‘मेरी लाडो रानी, अब भाभी से भी क्या शर्माना?....चलो, मुझे प्रसन्नता है कि तूने वहाँ के माहौल के अनुसार स्वयं को ढाल लिया है। तेरे भइया के मन में शंका थी कि कहीं तुझे नये परिवेश में दिक्कतों का सामना न करना पड़े।'

‘नहीं भाभी जी, ऐसा कुछ नहीं है। मैं बहुत खुश हूँ। वैसे भी एक ढर्रे की ज़िन्दगी जीने से हटकर जीने का भी अपना ही आनन्द होता है।'

‘सो तो है।'

निर्मल उसे लेने शिमला आया। श्रद्धा और अनुराग ने बहुत आदर—सत्कार किया। चाय—नाश्ता आदि के बाद श्रद्धा ने मज़ाक करते हुए कहा — ‘निर्मल जी, जब से जाह्नवी यहाँ आई है, आज पहली बार इसके होंठों पर मुस्कान आई है, इतने दिनों बाद इसने ढंग से नाश्ता किया है। क्या जादू कर दिया था आपने कि इसे यहाँ का कुछ भी अच्छा नहीं लगता था।......जाओ, कुछ देर आराम कर लो, लम्बे सफर से आये हो और इसका भी दिल बहल जायेगा। बाकी बातें डिनर के समय करेंगे, तब अनुराग भी होंगे।'

‘भाभी जी, मुझसे पूछने की बजाय इसी से पूछ लो।'

जाह्नवी नहीं चाहती थी कि बातों का सिलसिला आगे बढ़े, अतः उसने निर्मल का हाथ पकड़ा और अपने बेडरूम की ओर रुख किया। शुरू हो चुका था सँध्या का अभिसार। शरारती लहज़े में निर्मल ने पूछा — ‘डालग, भाभी जी जो कह रही थी, सच है क्या?'

जाह्नवी ने भी उसी अन्दाज़ में जवाब दिया — ‘और नहीं तो क्या?'

‘तो चलो अभी चलते हैं।'

‘कहाँ?'

‘जहाँ गर्म लू के झोंके तुम्हारे कोमल बदन से लिपटने का बेसर्बी से इन्तज़ार कर रहे हैं।'

‘निर्मल, जिस तरह नदी सागर में समा जाने के लिये बेताब होती है, उबड़—खाबड़ रास्ते, रास्ते के अनेकानेक अवरोध भी उसके प्रवाह को रोक नहीं पाते, उसी तरह मैं भी बेताब और बेचैन हूँ अपने आराध्य में समावेश के लिये। तुम यकीन नहीं करोगे, मैंने ये दिन कैसे गुज़ारे हैं? जैसे कटे पेड़ की फूल—पत्तियाँ मुरझा जाती हैं और टहनियों की हरियाली समाप्त होने लगती है, उसी तरह तुम्हारे बिन लगता था, जैसे मेरी समस्त ऊर्जा का स्रोत सूखने लगा है, कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। मन कहता था कि दो प्रेमियों को एक बार मिलाने के बाद उन्हें जुदा करने, चाहे कुछ दिनों के लिये ही सही, समाज ने यह रिवाज़ क्यों बनाया है। तुम्हारे साथ होने पर तो लू के झोंके भी मन को शीतलता ही प्रदान करते हैं। तुम्हारे संग सर्दी में चढ़ती धूप—सा आनन्द आता है। तुम्हारा प्रेम पाकर मुझमें नवजीवन की खुशबू महक उठती है। तुम मेरी आत्मा का कोटर बन गये हो। मेरे श्वासों पर बस तुम्हारा ही अधिकार है। अब तो तुमसे अलग रहकर एक पल भी गुज़ारना मेरे लिये दुश्वार है। मेरी जीवन—रागिनी का आदि और अन्त तुम ही हो।'

‘बड़ी रोमांटिक हो रही हो आज!'

‘अपने मन की भावनाएँ तुमसे न कहूँ तो किससे कहूँ। इसे चाहे तुम रोमांटिक होना कहो या कुछ भी।'

‘मेरी जान, मैं तुम्हारे प्यार की गहराई समझता हूँ। मैं भी तुमसे कम प्यार नहीं करता, लेकिन मैं अपने प्यार का इज़हार उस तरह से शब्दों में नहीं कर पाता, जिस तरह से तुम बड़े सहज ढंग से कर जाती हो।......पापा ने कहा है कि हम हफ्ते—दस दिन के लिये कहीं घूम—फिर आयें। मैंने सोचा है कि दो—चार दिन सिरसा रुककर हम प्रयाग, वाराणसी होते हुए काठमाण्डू देख आयें।'

इतना सुनते ही जाह्नवी ने निर्मल को बाँहों में भर लिया और कहा — ‘कितने अच्छे हो तुम! तुम शब्दों में बयां नहीं कर पाते तो कोई गम नहीं, तुम प्यार को व्यावहारिक रूप देना जानते हो।'

जब निर्मल और जाह्नवी सिरसा आये तो जितेन्द्र ने उन्हें खाने पर निमन्त्रित किया। सावित्री ने उन्हें शिमला से आई सेबों की एक पेटी जितेन्द्र के घर ले जाने को कहा। जितेन्द्र की माँ ने आरती करके जाह्नवी का स्वागत किया, जाह्नवी ने उनकी चरण—वन्दना कर आशीर्वाद लिया। सुनन्दा उससे गले लगकर मिली, जितेन्द्र को उसने हाथ जोड़कर नमस्ते की। खाना आदि से निवृत होकर जब सभी बैठक में बैठे हँसी—ठट्ठा कर रहे थे तो जाह्नवी ने सुनन्दा को सम्बोध्ति कर कहा — ‘भाभी जी, जब आप भाई साहब का जिक्र करती हैं तो ‘इन्हें', ‘इनको' आदि कहती हैं, सीधे—सीधे इनको नाम लेकर क्यों नहीं बुलातीं?'

‘मुझे ‘इनका' नाम लेने में शर्म आती है।'

‘शर्म कैसी? ‘जितेन्द्र' कितना सुन्दर नाम है। नाम लेकर बुलाया करो। पुरानी दकियानूसी बातें छोड़ो।'

जितेन्द्र — ‘मुझे भी अच्छा लगेगा भाभी जी, यदि सुनन्दा ने आपकी राय मान ली तो।'

सुनन्दा — ‘माँ जी और बड़ों के सामने नाम लेने में हिचकिचाहट होती है।'

जाह्नवी— ‘चाची जी तो इन्हें ‘जीतू' कहकर ही बुलाती हैं, कितना प्यार झलकता है। आप भी इनका नाम लेना शुरू कर दो।'

जितेन्द्र की माँ — ‘सुनन्दा, जाह्नवी बेटी ठीक कह रही है। बुलाने के ढंग से नहीं, इज्ज़त दिल से होती है।'

‘लो, अब तो चाची जी ने भी मोहर लगा दी। अब तो शर्म नहीं आयेगी?'

‘नहीं, शुक्रिया भाभी जी।'

समय जब अच्छा होता है, परिस्थितियाँ साथ देती हैं, प्रभु—कृपा बरसने लगती है तो व्यक्ति का परिश्रम भी फलीभूत होता है। वर्ष के प्रारम्भ में निर्मल द्वारा दी गई यूपीएससी की लिखित परीक्षा का परिणाम आया। निर्मल पास हुआ, सफलता की पहली सीढ़ी पार करने पर अगले पड़ाव की सफलता के लिये मन में आशा जगी। इन्टरव्यू होने के पश्चात्‌ अनुराग ने सिरसा आकर निर्मल और जाह्नवी के रिश्ते पर उसके माता—पिता की सहमति प्राप्त कर उनके भावी जीवन की राह प्रशस्त कर दी। फाइनल रिज़ल्ट में निर्मल आईपीएस में आ गया। जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि। निर्मल और जाह्नवी का विवाह हो गया। नरेन्द्र मैट्रिक में अच्छी फर्स्ट डिवीजन से पास हो गया और कमला की बी.एड. भी पूरी हो गयी। परमानन्द के सार्वजनिक सम्बन्धों, निर्मल के स्टेट्‌स तथा कमला की काबिलियत के कारण कमला को ‘विवेकानन्द पब्लिक स्कूल' में ग्रीष्म—अवकाश के उपरान्त स्कूल खुलने पर अध्यापिका की नौकरी मिल गयी।

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