Aaspas se gujarate hue - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

आसपास से गुजरते हुए - 6

आसपास से गुजरते हुए

(6)

बेमकसद रास्ते

यह अच्छा हुआ कि पुणे लौटने के बाद ना अप्पा ने मुझसे सफाई मांगी, ना आई ने। इन दो-तीन सालों में आई के सिर के लगभग सारे बाल सफेद हो गए थे। अप्पा का वजन बढ़ गया था। सुबह-शाम वे सैर पर जाने लगे थे। अप्पा के ममेरे भाई का बेटा अप्पू हमारे यहां रहकर पढ़ रहा था। अप्पा ने उसे रहने के लिए सुरेश भैया का कमरा दे दिया था। मैं कंप्यूटर क्लास से आने के बाद उसके कमरे में चली जाती। इन दिनों आई से भी बात करने का मन नहीं करता था। रसोई में खाना बनाने के लिए अप्पा ने केरल से शान्तम्मा को बुला लिया था। अब घर में सुबह-शाम अप्पम, दोशै, इडली, मछली का सार और कप्पै बना करता। मैं महाराष्ट्रीयन खाने के लिए तरस जाती। शान्तम्मा, अप्पू और अप्पा की खूब जमती थी। तीनों हर वक्त घर को अपनी हंसी से गुंजाए रखते।

मैं और आई अपने घर में अजनबियों की तरह रह रहे थे। मुझे अमरीश की यादों से उबरने में काफी वक्त लगा।

एक वक्त था, जब मैंने सोचा कि साहिल से शादी कर लूं। अमरीश की यादों और घर के तनाव से निकलने का वह अच्छा रास्ता था। पर मैं किसी भी तरह अपने मन को मना नहीं पाई। साहिल से सगाई करके तोड़ दी। अप्पा नाराज हुए कि मैं यह नाटक कर रही हूं। आई ने कुछ नहीं कहा। मुझे आई पर गुस्सा आने लगा। वे अपने घर को बचा क्यों नहीं रहीं? इतनी उदासीनता किस काम की? वे दिन-भर सिलाई मशीन पर पुराने कपड़ो से बच्चों के फ्रॉक, मेजपोश, पोतड़े सीतीं और झुग्गियों में जाकर बांट आतीं। मुझे उनकी इस किस्म की समाज-सेवा से भी कोफ्त होने लगी।

अप्पा जानते थे कि मेरे लिए वे केरल का लड़का नहीं तलाश सकते। मैं मना कर दूंगी। पर अप्पू को उन्होंने कह रखा था कि एक दिन अनु की शादी तुमसे ही होगी। वह मुझ पर रोब जमाने की कोशिश करता, मैं मिनटों में उस पर पानी डाल देती।

बड़े उदास दिन थे वे! घर का एक कोना ऐसा नहीं था जो मुझे अपना लगता। मैं कंप्यूटर क्लास से लौटते समय यूं ही कभी शिवाजी रोड तो किसी फिल्म इंस्टीट्यूट की तरफ निकल जाती। मेरा कोई दोस्त नहीं था, चाह भी नहीं थी। जिन्दगी बेमकसद लगने लगी थी।

साल-भर बाद एक दिन मैंने अपना सूटकेस बांध लिया। दो-चार कपड़े रखे और घोषणा कर दी,‘मैं मुम्बई जा रही हूं!’

आई ने रोका, ‘मुलगी, काय सांगते? तेरे बिना मैं क्या करूंगी?’

‘मेरे रहने पर भी तुम क्या कर लेती हो?’ मैंने दो-टूक पूछा।

आई का चेहरा सफेद पड़ गया। मैं चाहती थी कि वे मुझ पर गुस्सा हों, हक जताएं, जबर्दस्ती मुझे जाने से रोक लें, पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। मैं अकेली डेक्कन क्वीन ट्रेन से मुम्बई के लिए चल पड़ी।

तब तक सुरेश भैया की जिंदगी में शर्ली आ चुकी थी। शर्ली भैया के फ्लैट के सामने रहती थी। वह बच्चों के स्कूल में कराटे सिखाती थी। सुरेश भैया की जिंदगी में पहले भी दो-चार लड़कियां आई थीं, पर इस बार मुझे वे संजीदा लगे। मुझसे उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे शर्ली से ही शादी करेंगे।

मुझे अपने घर में उन्होंने एक कमरा दे दिया। महीने-भर बाद मुझे कांदिवली में एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी मिल गई। मैं सुबह आठ बजे की लोकल पकड़कर कांदिवली जाती और रात कभी नौ, तो कभी दस बजे घर लौटती। तनख्वाह कम थी, पर मेरे लिए काफी थी। सुरेश भैया मुझसे कुछ नहीं लेते थे। अपनी तनख्वाह से मैं कपड़े खरीदती, होटल ले जाती।

मैं एक ग्लोरिफाइड टाइपिस्ट की नौकरी कर रही थी। दिन-भर कंप्यूटर के सामने बैठकर मैं दफ्तर से जाने वाले लगभग अस्सी प्रतिशत टेंडर टाइप करती, फाइलिंग करती। मेरा बॉस एक अधेड़ उम्र का सज्जन-सा व्यक्ति था- धीरू बाटलीवाला। रंगीन शर्ट पर चौड़ी टाई पहनकर वह अच्छा-खासा कार्टून लगता था। उसकी पारसी बम्बइया हिन्दी मुझे बेहद लुभाती। जब वो बोलता, दांतों के बीच से हवा सर्र से पास होतीञ बाटलीवाला मेरे काम से खुश था। रोज सुबह की मीटिंग में वह एक बार जरूर कहता, ‘इधर एकीच काम करने वाला है, मिस अनु, बस बाकी सब खालीपीली टाइम पास करने को आता है।’

मुझे मुम्बई की मध्यम वर्ग की कामकाजी महिलाओं की भाग-दौड़ देखकर हैरत होती। स्टेशन पर सुबह दफ्तर के मस्टर पर समय पर साइन करने को दौड़ती औरतों को देखकर लगता, इन्होंने बचपन में हाई जम्प, रिले रेस वगैरह में जमकर भाग लिया होगा। ट्रेन से उतरते ही उनका दौड़ना शुरू हो जाता। कमर में खुंसा आंचल, टखनों तक उठी साड़ी, घिसी हुई कोल्हापुरी चप्पल, कंधे पर भारी हैंडबैग। उनका हैंडबैग कारूं के खजाने से कम नहीं होता। पानी की बोतल, दो-तीन संतरे, एकाध पैकेट चिकी, छाता, पाउडर, काजल, तीन-चार रूमाल, पॉलिथिन या कपड़े की थैली, जिसमें वे घर लौटते समय सब्जी वगैरह खरीदकर ले जाती थीं। स्टेशन के पुल पर वे बगटुट भागतीं, उनका काले मोती का मंगलसूत्र आगे-आगे झूलता हुआ उन्हें रास्ता दिखाता।

उनमें ऐसी महिलाएं भी थीं, जो दफ्तरों में अच्छे पदों पर होती थीं। मैं डरती थी कि कहीं एक दिन मैं भी इनमें शामिल ना हो जाऊं। एक फ्लैट खरीदने की चाह में कर्ज में डूबना, लोकल ट्रेन में आते-जाते सब्जी खरीदना, छीलना, काटना, ट्रेन में चौथी सीट पर बैठने के लिए झगड़ना, दफ्तर से लौटते समय स्टेशन के पास ठेले से बड़ा पाव की पोटली बंधवाकर ट्रेन में नीचे बैठकर खाना-मुझे अंदर तक हिला जाता था। उन औरतों को देखकर लगता नहीं था कि वे किसी किस्म का संघर्ष कर रही हैं। मैं उनकी जगह अपनी कल्पना कभी नहीं कर पाती थी!

रोज ट्रेन में आते-जाते मेरा भी एक ग्रुप बन गया था। श्रीमती अरुणा शिंदे, पारुल, नैना पुणतांबेकर, अश्विनी नाइक-इनके साथ मैं भी मराठी बोल लेती थी। सुबह-सुबह लोकल ट्रेन में खाने-पीने का दौर शुरू हो जाता। रोज किसी एक की ड्यूटी रहती कि वह कुछ नाश्ता बनाकर लाए। अरुणा आलू-बड़ी बनाने में माहिर थी। पारुल घसीटाराम हलवाई से समोसे खरीद लातीं या शिंदे की दुकान से खमण ढोकला। नैना थाली पीठ या पाव भाजी बनाकर लाती। उस ग्रुप में बस अश्विनी और मैं शादीशुदा नहीं थे, इसलिए हम दोनों को कुछ ना लाने की छूट थी। एक दिन अश्विनी ने भी घोषणा कर दी कि अगले सप्ताह उसकी सगाई है।

बच गई मैं। उन सबको पता था कि मेरी मां महाराष्ट्र की हैं। एक तरह से रोज ही वे सब मुझे दलील देतीं कि किस तरह मराठी लड़के अच्छे पति साबित होते हैं। अरुणा तो मेरे लिए एक रिश्ता भी ले आई, ‘खरच सांगते ग! लड़का लगता ही नहीं कि मराठी है, पूरा पंजाबी लगता है।’

अरुणा का यह कमेंट मुझे साहिल की याद दिला गया! बेचारा! मैंने जब उससे सगाई तोड़ी, तो वह बुरी तरह लि गया था। पता नहीं अब कहां होगा? मैंने पुणेवालों की कोई खबर ही नहीं रखी।

अरुणा एक दिन मेरे भाई से मिलने घर ही आ गई। सुरेश भैया शांत थे, ‘अनु को अगर लड़का पसंद आ जाए, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’

मैं शादी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी, पर सुरेश भैया के इसरार करने पर मैं अरुणा के कैंडिडेट यशवन्त से मिलने को तैयार हो गई। कांदिवली स्टेशन के पास सरोवर रेस्तरां में मैं भैया के साथ उससे मिलने गई। शर्ली भी हमारे साथ थी। अरुणा और उनके पति भालचन्द्र यशवन्त का परिचय देकर उठ गए। अरुणा ने भैया के कान के पास फुसफुसाते हुए कहा, ‘बोलू दे ग दोघाणा! यहां हमारा क्या काम?’

मैंने भैया का हाथ कसकर पकड़ लिया, ताकि वे मुझे छोड़कर ना जाएं। अरुणा और उनके पति पीछे मुड़-मुड़कर देखते हुए चले गए।

यशवन्त बालाराम शिंदे, पक्की नौकरी, डोंबिवली में दो कमरे का अपना फ्लैट, दिखने में बुरा नहीं था, पर उसे देखकर ना मस्तिष्क में घंटी बजी ना दिल के तार झनझनाए। इस व्यक्ति के साथ मैं पूरी जिन्दगी कैसे बिताऊंगी, जब दस मिनट बिताना असंभव लग रहा है। इस व्यक्ति के साथ ही नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति के साथ। अमरीश ने मेरे अंदर के भावों को कत्ल कर दिया था। मैं यशवंत से कुछ नहीं बोल पाई। मुझे लगा, बेकार में मैंने सबको परेशान कर दिया।

मैं उठ गई। सुरेष भैया चौंक गए। मैंने कहा, ‘पेट में गड़बड़ है, घर जाना है।’ बहाना बनाने के लिए और कुछ सूझा भी नहीं।

‘क्या हुआ? सोडा मंगाऊं?’ यशवन्त ने हड़बड़ाते हुए पूछा।

‘नहीं, घर जाऊंगी।’ मेरे उठते ही सब उठ गए। बाद में सुरेश भैया को गुस्सा आया कि मुझे और कोई बहाना नहीं मिला? सिरदर्द कह देती, पेटदर्द कहने की क्या जरूरत थी?

अरुणा ने अगले दिन ट्रेन में मिलते ही मुझसे यशवन्त के बारे में पूछा, मैंने कह दिया कि सोचकर बताऊंगी। अरुणा पीछे पड़ी रही, तो मैंने उस ट्रेन में जाना ही छोड़ दिया।

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