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प्रकृति मैम - आलाप

आलाप
इसी गांव में एक वैद्य जी थे। छोटी जगह होने से उनसे जल्दी ही परिचय मित्रता में बदल गया। कई बार शाम के समय पोस्टमास्टर साहब के आवास के बाहर जमी बैठक में उनसे मुलाक़ात भी होती और बात भी। वे कहते थे कि उन्नीस- बीस साल का होते- होते लड़कों की शादी हो जानी चाहिए नहीं तो उन्हें चरित्र हनन या राजरोग के लिए तैयार रहना चाहिए।
वह गांव के प्रायः हर अविवाहित लड़के या पुरुष पर कोई न कोई कटाक्ष करते हुए चटपटे किस्से सुनाते रहते थे। गांव का एकमात्र चिकित्सक होने के नाते उनकी अंदरुनी जानकारी पर किसी को संदेह भी नहीं होता था। सब उनकी बात चाव से सुनते थे।
शायद यही कारण था कि वे बात को और भी मसालेदार बनाने में कोई कोताही नहीं करते थे।
एक दिन बैठक के बाद मुझसे अकेले में बोले- और कैसा चल रहा है, कब जा रहे हो मिलने?
मैंने सहज भाव से कहा, घर तो दीवाली पर ही जाना होगा। वे कुछ असमंजस से बोले- घर की बात नहीं पूछ रहा,घर तो सब ही होली दीवाली जाते हैं।
- तब? मैंने आश्चर्य से पूछा।
वे शायद मेरी रुखाई को भांप कर कुछ संकोच कर गए और बोले- कुछ नहीं,कुछ नहीं, मैं तो ऐसे ही मज़ाक कर रहा था।
मेरा माथा ठनका। पचपन साल के वैद्यराज जी मुझसे किससे मिलने जाने की बात पूछ रहे हैं, चाहे मज़ाक में ही सही?
ख़ैर,बात आयी गयी हो गई।
मैं शाम को घर आने के बाद भी रह रह कर इस बारे में सोचता रहा कि आख़िर वैद्य जी क्या कहना चाहते थे मुझसे।
मैं दिमाग़ दौड़ाने लगा तो एकाएक एक सूत्र मेरी पकड़ में आया। कुछ दिन पहले मैं विद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में जाकर बैंक के विषय में बता कर आया था। उसी दिन बाज़ार में लड़कियों के प्राइमरी स्कूल की एक टीचर भी मुझे मिल गई थीं और बैंक खाते के संबंध में कोई बात करने के लिए उन्होंने मुझे शाम को अपने मकान पर आने का आग्रह कर डाला। मैं सहज ही चला गया। उन्होंने ये जानकर कि मैं यहां अकेला रहता हूं, अपने आवास पर मेरे लिए खाना भी बनवा लिया और उस दिन कुछ देर रुक कर मैं रात को आठ बजे वापस आया।
मैं सोचने लगा कि हो न हो, वैद्य जी ने उसी दिन मुझे कहीं से आते जाते देख लिया हो, और अपनी आदत व छोटी जगह की संकुचित सोच और फितरत के चलते मुझ पर कोई कटाक्ष करना चाहते हों।
मैं मन ही मन हंस कर रह गया। मुझे वयोवृद्ध वैद्य जी भी उस समय स्कूल के छात्रों की तरह चंचल और बौने नज़र आने लगे।
उस गांव में वैद्य जी अकेले ही ऐसे हों,ऐसा नहीं था, अगले दिन शाम को बैंक से लौटते समय मैंने गौर किया कि जिस दुकान के ऊपर प्राथमिक विद्यालय की उस शिक्षिका का घर था, उसकी दीवार पर कोयले से बड़े - बड़े अक्षरों में मेरा नाम लिखा था और नीचे शिक्षिका का नाम था। कहने की ज़रूरत नहीं कि बीच में प्लस का चिन्ह किसी सतिए की तरह बनाया गया था।
मैं जिस माहौल में था, वहां ऐसी बातों को गंभीरता से लेने का अर्थ था अपने आपको अपराधबोध की किसी अदृश्य कम्यून में बंद कर लेना। मैंने ऐसा नहीं किया, सभी शिक्षक, शिक्षिकाएं और विद्यार्थी खुले मन से मेरे पास आते - जाते रहे।
अब मैंने कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं के फॉर्म भर दिए थे और मैं नियमित रूप से उनके लिए तैयारी करने लगा था।
गांव का माहौल यथावत था और हमारा खेलना, घूमना बदस्तूर चल रहा था।
कुछ दिन बाद मेरे पिता का पत्र आया कि उनके संस्थान के उपाध्यक्ष, जो कि राजस्थान सरकार के भूतपूर्व मंत्री भी थे, मूल रूप से इसी गांव के हैं, जिसमें मैं रहता हूं। अब भी उस गांव में उनकी एक पुश्तैनी हवेली है, जहां उनके कुछ बहुत दूर के रिश्तेदार रहते हैं।अगर मैं चाहूं तो उनकी हवेली में जाकर आऊं। खुद उन्होंने ही हवेली का पता दिया था और कहा था कि यदि मैं वहां जाकर आऊंगा और उनके खानदानी घर के समाचार दूंगा तो उन्हें बहुत खुशी होगी।
छोटा सा गांव था। पूछते ही पता चल गया। बाज़ार से एक ओर खेतों की तरफ़ निकलते कच्चे से रास्ते पर वो जर्जर हवेली थी, जिसके एक हिस्से को थोड़ा साफ़ सुथरा बना कर उनके परिजनों का परिवार रहता था,शेष हिस्सा किसी खंडहर की तरह पड़ा था।
मैं वहां जाकर मिला तो एक वृद्ध दंपति के साथ कुछ बच्चे भी दिखे। चाय पीकर आया। मैंने पिता को वहां का सब हाल लिख दिया।
बाद में पता चला कि बच्चे उन वृद्ध दंपति के पोते- पोतियां थे। और वो परिवार मंत्री महोदय के दूर के रिश्ते के चचेरे भाई का था। उनमें से एक लड़का कॉलेज में उदयपुर में रह कर पढ़ता था और एक छोटा गांव में ही स्कूल में पढ़ता था। पोती गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ती थी।
गांव में ही स्कूल की नवीं कक्षा में पढ़ने वाला वो लड़का मुझे पहचान कर घरवालों को बताने लगा कि मैं उनके स्कूल में आया था। वो बहुत खुश भी हुआ।
उसके बाद वो बाज़ार में आते जाते जब कभी मुझे दिखाई देता, हमेशा नमस्ते करता। उसके साथ स्कूल में ही पढ़ने वाले उसके दो तीन दोस्त भी होते।
मैं शिष्टाचार वश कभी कभी उससे घरवालों या उसकी पढ़ाई आदि के बारे में कुछ पूछ भी लेता था। वह गर्व से भर जाता। मुझे वह पहले बैंक वाले सर कहता था पर बाद में भैया कहने लगा ।
एक दिन मैं दोपहर के समय बैंक में अकेला बैठा हुआ था। उदयपुर से रोजाना आना जाना करने वाले मैनेजर उस दिन नहीं आए थे। अधीनस्थ कर्मचारी डाक लेने गया हुआ था।
स्कूल से लौटते हुए वो लड़का कुछ सकुचाता हुआ मेरे पास आया और बोला- भैया, मुझे पांच रुपए दे दो!
मैंने उससे कहा बैंक तो दो बजे बंद हो जाता है, और अब चार बज गए।
वह बोला- मैं मेरे खाते से पैसे नहीं मांग रहा, खाते में तो जमा हैं भी नहीं,आप देदो।
- क्या करेगा? मैंने उसे टालने की गरज से थोड़ा सख्ती से कहा।
वो पहले तो सकपकाया,फ़िर इधर उधर और बाहर के दरवाज़े की ओर देखता हुआ बोला- मेरे दोस्त कहते हैं कि समोसा खिला, तेरे भैया तो बैंक में हैं, तुझे आराम से पैसे दे देंगे।
मैंने पूछा, कहां हैं तेरे दोस्त? उन्हें अंदर बुला ले। मैं समोसे अभी यहीं मंगवा दूंगा।
वो बोला, बाहर ही खड़े हैं,आप पैसे दे दो, मैं ले आऊंगा।
मैं तत्काल उठकर उसके साथ आया और उसे भी साथ में आने के लिए कहा। वो एकदम से घबरा गया, और कहने लगा,वो अभी नहीं आए,शाम को आएंगे।
मुझे साथ में आता पाकर वो इतना घबरा गया कि एकदम से चला गया। जाते जाते बोला, अच्छा अच्छा रहने दो आप।
उसके जाने के बाद मैंने सारी बात अपने अधीनस्थ कर्मचारी को बताई तो उसने मुझे बताया कि ये लड़का छिप कर सिगरेट पीता है और सबसे पैसे मांगता रहता है। खुद उस पियोन से भी मांग चुका है और बाहर के और लोग भी शिकायत कर चुके हैं।शायद ये कोई नशा भी करता है।
उस दिन के बाद वो लड़का जब कभी दिख जाता, तो मेरी नज़र से बचने की कोशिश करता।
संयोग से एक दिन बस में उदयपुर जाते समय मुझे वो लड़का और उसका बड़ा भाई उदयपुर जाते हुए मिल गए। छोटा भाई पहले तो ये सोच कर कुछ बचता रहा कि मैं कहीं उसके भाई को उसकी शिकायत न कर दूं, कि वो मुझसे पैसे मांग रहा था, किन्तु बाद में ऐसा कुछ न होता देख वो भी मेरे पास ही आ बैठा,और उसका भाई भी। तीन की सीट पर हम तीनों ने एक साथ ही यात्रा की।
बातों बातों में जब दोनों भाइयों को पता चला कि मैं अगले दिन छुट्टी होने के कारण अपने मित्रों से मिलने के लिए ही उदयपुर जा रहा हूं तो वो आग्रह करके मुझे अपने साथ अपने कमरे पर ही ले गए। शाम का खाना दोनों भाई घर से टिफिन में साथ लेकर आए थे,जो हम तीनों ने मिल कर खाया।
देर हो जाने के कारण रात को उन्होंने मुझे उनके कमरे पर ही रोक लिया। वैसे भी, मुझे कोई काम तो था नहीं, मैं अपने पुराने मित्रों से मिलने और छुट्टी बिताने आया था। पुराने मित्रों की जगह नए मित्रों के साथ रुक गया।
रात को एक ही बिस्तर पर हम तीनों एक साथ सोए। बीच में मैं, और मेरे दोनों ओर वो दोनों भाई।
छोटे भाई की भी झिझक अब पूरी तरह खुल चुकी थी।
अगली सुबह मैं अपने पुराने मकान मालिक के घर चला गया और राजेन्द्र के साथ उसके दोनों भाइयों को भी लेकर हम चारों ने फ़िल्म देखी। रविवार शाम मैं वापस लौट आया।
कुछ दिन बाद मेरे पास एक प्रतियोगी परीक्षा का कॉल लेटर आया।परीक्षा का सेंटर जयपुर में था। वैसे भी जयपुर गए हुए मुझे काफी दिन हो गए थे। मैं रात की बस से जयपुर जाने के लिए उदयपुर आ गया।
लेकिन वहां आकर पता चला कि सभी बसों और ट्रेन में भी ज़बरदस्त भीड़ है। मुझे एक बस में टिकट तो मिल गया लेकिन उसमें बैठने की सीट ख़ाली नहीं थी।
जाना तो हर हाल में था। मैं भी कुछ अन्य सवारियों की तरह ही खड़े होकर यात्रा करने लगा। उम्मीद थी कि दो तीन घंटे बाद रास्ते में कहीं सीट मिल जाएगी। रात को दस बजे हमारी खचाखच भरी हुई बस जयपुर के लिए चल पड़ी।
उन दिनों सड़कें आज जैसी बेहतर नहीं थीं। टूटी, ऊबड़ खाबड़ सड़क पर पहाड़ी रास्ते से गुजरती हिचकोले खाती हुई बस चल पड़ी।
दरवाजे के पास खड़े खड़े यात्रा करते हुए आधे घंटे में ही ऊब और बेचैनी होने लगी। पूरी रात का सफर था। कुछ देर बाद बस के घुमावदार रास्तों से गुजरते ही मुझे चक्कर आने लगे। ऐसा लगा जैसे बचपन में बस यात्रा से जो तकलीफ और बेचैनी हुआ करती थी, वो ही समस्या फिर शुरू हो गई हो।
इस समय मेरे पास कोई दवा नहीं थी जो बचपन में मेरे माता पिता बस के सफर से पहले दिया करते थे। मुझे तो उसका नाम तक मालूम नहीं था।
लगभग पौन घंटे बाद एक छोटे से कस्बे में बस रुकी।लगभग रात के ग्यारह बजे थे। छोटे से बस स्टैंड की दुकानें बंद हो चुकी थीं।
बस रुकते ही मैंने सोचा,इस तरह जान का जोखिम लेकर सारी रात का सफर करने में कोई समझदारी नहीं है। परीक्षा छूटे तो छूट जाए। जान है तो जहान है।
मैं कंडक्टर से ये कह कर वहीं उतर गया कि मुझे नहीं जाना है। कंडक्टर कुछ परेशान सा होकर बोला- लेकिन यदि यहां से कोई सवारी चढ़ेगी तो ही आपको पैसे वापस मिलेंगे।
बस चल पड़ी, कोई सवारी आती नहीं दिखाई दी। मैंने फौरन कंडक्टर से कहा, मुझे तो उतार दो,पैसे वापस मत दो।
मैं झटपट उतर गया। मुझे ये देखकर थोड़ी सांत्वना मिली कि मेरे साथ ही साथ बस से एक लड़का और उतर गया।
बस चली गई।
बस जाते ही लड़का मेरे पास आ गया और हम बातें करने लगे। वह भी मेरी तरह खड़े होकर यात्रा करने में परेशान होकर उतरा था।लड़का पढ़ा लिखा और किसी संभ्रांत घर का दिखाई देता था। वह भी जयपुर ही जा रहा था।
सामान के नाम पर हम दोनों के कंधे पर एक छोटा सा बैग ही था। बसस्टेंड सूना देख कर हम जायज़ा लेने के लिए ज़रा आगे बढ़े। कुछ दूरी पर ही एक छोटा सा होटल दिखाई दिया। राहत मिली। हम दोनों साथ साथ उस ओर बढ़े।
दरवाज़े के पास ही होटल का एक कर्मचारी सो रहा था। हमने उसे जगाया और कोई कमरा देने के लिए कहा।
थोड़ी देर में ही कमरे के छोटे से तखतनुमा डबल बेड पर केवल चड्डी पहने हुए हम दोनों लेटे हुए थे।
अब अच्छी तरह परिचय हुआ। लड़का जयपुर का था और उसकी नौकरी कुछ ही महीने पहले उदयपुर के हिंदुस्तान ज़िंक में लगी थी।वह नौकरी लगने के बाद पहली बार ही घर जा रहा था।
कुछ देर की बातचीत के बाद हमने कमरे की बत्ती बुझा दी और सो गए।
सुबह पांच बजे मेरी आंख खुली। मैं जल्दी से शौच होकर आया तब तक वो भी उठ चुका था। दस मिनट उसने भी बाथरूम में लिए और लगभग छह बजे हम दोनों बस स्टैंड पर थे।
हमारी किस्मत अच्छी थी कि आते ही एक बस भी मिल गई और ख़ाली सीट भी।
मैं न केवल समय से जयपुर पहुंच गया, बल्कि दोपहर को होने वाली परीक्षा भी दे पाया।
इस बार घर गया तो कुछ बदला - बदला सा लगा।
मेरी एक चचेरी बहन और बड़े भाई मुझसे बोले कि मेरे पिता से मेरे रिश्ते के लिए कोई बात की गई है, और वो शायद मुझे इसे बारे में खुद ही बताएंगे।
मुझे बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि मैंने तो इस बारे में दूर दूर तक कुछ सोचा न था। मुझसे चार साल बड़े भाई की शादी अभी अभी होकर चुकी थी,इसलिए घर में भी ऐसा कोई माहौल न था कि किसी और शादी की बात चले।
लेकिन मैं मन ही मन जानता था कि एक न एक दिन ये बात आयेगी तो सही। मैं ऐसा क्यों सोचता था, ये भी आपको बता दूं।
मैं बचपन से जिस स्कूल में पढ़ कर आया था, वो लड़कियों का स्कूल था। लड़कों को वहां केवल पांचवीं कक्षा तक ही पढ़ने की अनुमति थी।
मैं तो बाद में लड़कों के विद्यालय में पढ़ने अा गया था किन्तु उसी विद्यालय में पढ़ने वाली एक लड़की थी, जिसके बारे में मैं अपने विचार आपको बताता हूं।
सबसे पहली बात तो ये थी कि वो लड़की बचपन से ही पढ़ने में बहुत तेज़ थी और हमेशा अपनी क्लास में फर्स्ट आती थी। वो मुझसे छोटी थी और एक क्लास मुझसे पीछे भी थी। वो भी विद्यालय की हर गतिविधि- डांस, डिबेट, भाषण आदि में हमेशा भाग लेती थी और अव्वल रहती थी।
उस लड़की ने विद्यालय में हायर सेकेण्डरी में आते- आते अपनी मेहनत से ऐसी काबिलियत हासिल कर ली कि उसने बोर्ड की परीक्षा में पूरे राजस्थान राज्य में पहला स्थान प्राप्त किया।
उस लड़की के माता पिता भी उसी संस्थान में नौकरी करते थे, जहां मेरे माता पिता थे।
उन लोगों की जाति भी वही थी जो हमारी।
दोनों परिवारों के बीच काफ़ी आत्मीयता और आना- जाना था। बल्कि मेरे पिता कहते थे कि बहुत दूर के किसी रिश्ते से उस लड़की की दादी मेरे पिता की बहन भी हुआ करती थीं। वे ये रिश्ता मानती भी थीं और हर साल मेरे पिता को रक्षाबंधन के दिन राखी भी बांधती थीं। इस नाते हम बच्चे उसकी दादी को बुआजी कहा करते थे।
लड़की के पिता और मां को इसी रिश्ते के कारण मैं और अन्य भाई बहन भाईसाहब और भाभी जी कहा करते थे।
इस तरह हम सभी भाई उस लड़की के चाचा होते थे।
इस लड़की से बचपन से ही एक खास तरह का लगाव मैं अनुभव करता था। ये लगाव वो नहीं था जिससे एक जवान लड़का और लड़की आपस में मिलते हैं,एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, अकेले में मिलने के बहाने ढूंढ़ते हैं और एक दूसरे के शरीर तक पहुंच बनाने की कोशिश करते हैं।
बल्कि मैं तो उसे देख कर सोचता था कि मैंने जो विज्ञान विषय स्कूल पूरा होते- होते कठिन या अरुचिकर समझ कर छोड़ दिए, उन्हीं में उसने पूरा राजस्थान राज्य टॉप किया है।
मेरे लिए कहा जाता था कि मैं सांस्कृतिक कार्यक्रम, भाषण,डिबेट आदि में अधिक कामयाब होने के कारण विज्ञान गणित जैसे विषयों में ध्यान नहीं दे पाया, वहीं उस लड़की ने अन्य सभी गतिविधियों में मेरी तरह ही भाग लेते और सफल रहते हुए भी शैक्षणिक रिकॉर्ड में भी ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की है।
वह लड़की बेहद साधारण,सरल,सहज दिखाई देते हुए भी उन सब विषयों में कमाल की दक्षता रखती है जो उसे भविष्य में आसानी से डॉक्टर, इंजिनियर, प्रशासनिक अधिकारी, प्रोफ़ेसर या वैज्ञानिक बना सकते हैं।
उस लड़की के पास विद्यालय से मिली वो सनद है जो उसे देश के किसी भी अच्छे से अच्छे कॉलेज में प्रवेश दिला सकती है।
मेरे पास जो स्वर्ण पदक चित्रकला के क्षेत्र में था, वैसे ही पदक उसे पढ़ाई के हर क्षेत्र में हासिल थे।
बाद में उस लड़की ने ग्रेजुएशन में भी विश्वविद्यालय स्तर पर सर्वोच्च स्थान पाया। इतना ही नहीं, पोस्ट ग्रेजुएशन लेवल तक वो लड़की गणित और फिजिक्स जैसे वही विषय लेकर अव्वल आई जो मेरी ज़िन्दगी में मेरे लिए दूर की कौड़ी बन गए थे और जिन्होंने मेरे सामने कठिन चुनौती रख कर, मेरे लिए मेरे घर वालों और मेरे शिक्षकों के सपने बेरहमी से दरका दिए थे।
यही सब बातें मैं सोचता था और मेरी ये सोच मेरे मन में उसका आदर- सम्मान दिनों दिन बढ़ाती जाती थी।
जब वो मेरे घर आती तो मैं देखता कि चाय- पानी से उसकी आवभगत हो, मैं उसे बाहर सड़क तक छोड़ने जाऊं। यदि मैं उसके घर जाता तो यही मान मेरा भी होता। संजीदगी के पर्दे चारों ओर लहराते। इन उड़ते पर्दों से किसी को किसी तांक झांक की ज़रूरत ही न पड़ती।
मेरा मन उससे मिलने और ज़्यादा से ज़्यादा बातें करने का होता।
मैं कभी इस तरह सोच ही नहीं पाता था कि एक लड़के और लड़की को एक साथ घूमते- फिरते, बातें करते देख कर लोग क्या सोचेंगे या कि उन दोनों के बीच शारीरिक संबंध बन जाने की बात को ही प्रामाणिक मान लिया जाएगा।
अतः जब मेरे भाई और चचेरी बहन ने ऐसा कहा कि मेरे पिता से मेरे रिश्ते की कोई बात की गई है, तो मैंने यकीन नहीं किया। सच कहूं तो पहले मैंने यही सोचा कि ये दोनों उस लड़की के साथ मेरे मिलने जुलने को लेकर वैसा ही सोच रहे हैं,जैसा दकियानूसी समाज सोचता है।
मैंने उनकी बात को एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल दिया।
मेरे पिता ने भी मुझसे ऐसा कुछ नहीं कहा।
मैं अपनी ड्यूटी पर लौट आया। लौटते समय यात्रा आराम दायक थी तो मन उद्विग्न! घर की चहल- पहल से वापस लौट कर जाना, जैसे किसी अजनबी गांव में वापस लौटना। जैसे शरीर को घसीट कर किसी ऐसी बस्ती में ले जाना, जहां मन साथ न जा रहा हो !