Domnik ki Vapsi - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 4

डॉमनिक की वापसी

(4)

सुबह आँख खुली तो लगा की नींद तो पूरी हुई पर सफ़र की थकान से अभी भी देह टूट रही है। लॉज के जिस कमरे में, हम रात में आके सो गए थे वह उसके पहले माले पर था। उसमें कोई खिड़की नहीं थी और दीवारें सीली हुई थीं। शायद इसीलिए हम जागते ही ताज़ी हवा के लिए अपने कमरे से हॉल में आए और वहाँ से उससे जुड़ी बालकॉनी में।

सड़क के दोनों ओर दुकानें, दुकानों के माथे पर लटकते आढ़े-टेढ़े बोर्ड, बोर्डों पर दुनिया ज़हान के विज्ञापन, विज्ञापनों में आँखों में आश्चर्य और चेहरे पर चिर स्थाई मुस्कान लिए झांकती कुछ देश-विदेश की महिलाएं। उनके चेहरों पर सालों से न झाड़ी जा सकी धूल। उनमें से किसी-किसी के मुँह पर पुती कालिख। उनके अंग विशेष में किए गए छेदों से झांकती पुरानी बिना कलई की गई दीवारें। उनके सामने झोल खाए लटकते बिजली के तारों पर आ बैठे चिरई-चिरवा के चहचाते जोड़े। सड़क पर लगती झाड़ू से उठती गर्दा। सायकिल के कैरियर पर दोनों तरफ़ दूध के केन बाँधें एक के पीछे एक चले जाते कई दूधवाले। हमें एक साथ दिखाई दिए।

शहर धीरे-धीरे जाग रहा था।

तभी कहीं दूर से समूह गान का स्वर सुनाई दिया। बाबा नागार्जुन का गीत था। पहले एक ऊँची आवाज़ फिर उसे दोहराती कई आवाज़ें-

‘तुम खिलो रात की रानी!

हो म्लान भले यह जीवन और जवानी

तुम खिलो रात की रानी!

प्रहरी परिवेष्ठित इस बंदीशाला में

मैं सड़ूं सही, पर ताज़ी रहे कहानी

तुम खिलो रात की रानी!’

पास आती आवाज़ जैसे हमें चुनौती देती हमारे भीतर कुछ टटोल रही थी हम गीत गाने वालों को देखना चाहते थे। पर वे लॉज तक पहुँचने से पहले ही किसी और गली में मुड़ गए थे। यह गीत हमने दीपांश के मुँह से ही सुना था। मंच के बीचों-बीच खड़ा होकर किस जोश के साथ गाता था। लगा जैसे उसने जो कुछ भी सुना, सीखा सब आत्मसाध कर लिया। उसने हर विचार के लिए जैसे अपने जीवन को प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया था। शायद इन्हें यह गीत उसी ने सिखाया हो।

मैं और अजीत उसके बारे में कुछ बात करना चाहते थे पर जैसे लगातार उससे बच रहे थे। दिल्ली से उसके इस तरह अनायास चले जाने को, उसकी अनुपस्थिति को हमने भी तो मामूली से अफ़सोस के साथ स्वीकार कर लिया था। अपने रोज़मर्रा के कामों के बीच जैसे बिना कुछ कहे हमने उसे इस दुनिया से ही अनुपस्थित मान लिया था। हमारे मन में अपराधबोध जैसा कुछ गड़ रहा था पर हम उसे अपने-अपने भीतर दबाए, बिना पीछे देखे आगे बढ़ रहे थे। डॉमनिक के अतीत में लौटने के लिए हमें अपने अतीत में लौटना पड़ता, उस अतीत में जिससे बमुश्किल पीछा छुड़ाकर हम किसी तरह थोड़ा आगे बढ़ आए थे...

वे नब्बे के दशक की शुरुआत में, मुफ़लिसी और बेरोजग़ारी के दिन थे जब मैं काम की तलाश में झाँसी से दिल्ली आया था। एक तरफ़ पूरा देश मंदिर-मस्जिद विवाद की रस्साकसी में उलझा दिखाई देता था तो दूसरी तरफ़ ‘उदारीकरण से बाज़ार के नए रास्ते खुल रहे हैं’ यह बात रह रहकर सभी जगह किसी आकाशवाणी की तरह गूँज रही थी। एक तरफ़ धार्मिक उन्माद अपने चरम पर था तो दूसरी तरफ़ तेज़ी से बढ़ते सूचना प्रोद्योगिकी के प्रचार को देख के लगता था कि बड़े दिनों बाद जैसे पूरा देश उम्मीद से है। सूचनाओं के तेज़ी से यहाँ-वहाँ जाने के लिए देशभर में नई प्रोद्योगिकी ने एक बड़ा संजाल खड़ा कर दिया था। आने वाले समय के बारे में अख़बार अतिरिक्त उत्साह से उत्तेजक ख़बरें परोस रहे थे पर हमारे लिए यह सारी ख़बरें, बस ख़बरें ही थीं।

इन सूचनाओं से रोटी कैसे बनती है यह देश की जनता अभी नहीं सीख पाई थी। उसके लिए अधिसंख्य लोग अभी भी पुराने ढर्रों पर ही चलकर सेठों, साहूकारों, चिटफण्ड कंपनियों या हवाला और अण्डरवर्ड से पैसा उधार ले रहे थे। शहरों में कुछ पढ़े-लिखे, प्राइवेट कम्पनियों में काम करने वाले लोग प्लास्टिक का एक कार्ड बड़े दंभ के साथ अपनी जेबों में रखने लगे थे और उनका मानना था कि उससे कभी भी कहीं भी पैसे उगल देने वाली मशीन जिसे ‘एटीएम’ कहा जाता था, कर्ज़ लिया जा सकता था पर अभी ऐसी मशीनें केवल संसद से पांच-दस मील के घेरे से बाहर नहीं लग पाई थीं और जहाँ कहीं लगाने की कोशिश की गई थी वहाँ उन्हें रात के अंधेरे में जड़ से उखाड़ कर चोरी कर लिया गया था। जिनके पास पुराना पैसा था वे मोबाइल और पेजर जैसी चीज़ें लोगों को दिखाने के लिए अपनी कार की चाबियों के साथ हाथ में लिए घूमने लगे थे।

चारों तरफ़ रोशनी के तमाम दावों के बाद भी इसकी तनिक-सी भी चमक हमारी दुनिया तक नहीं आ रही थी। फिर भी हम सब शेखचिल्ली की तरह अपने सपनों में डूबे, समय को टकटकी लगाए देख रहे थे। हमने वाणिज्य या अर्थशास्त्र नहीं पढ़ा था। हमें हमारी भाषा ने जकड़ लिया था। हम बुरे से बुरे समय में भी उससे पीछा छुड़ाकर अंग्रेजी के जहाज पर सवार नहीं हो सके थे। हमें अपनी इसी भाषा में ही कुछ करना था, और साथ ही एक संकट और था कि हमें सपने देखने और किस्से सुनाने के अलावा कुछ और आता भी नहीं था। पर जाने अंजाने हमारे किस्से सुनने- सुनाने की इस लत या कहें कि सनक ने ही हमें डॉमनिक की दास्तान से भी जोड़ा था।

उन दिनों ज़िन्दगी फ्रीलॉन्स राइटिंग और इवनिंग कॉलेज से पढ़ाई करते हुए, हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ रही थी। हालात कुछ ऐसे थे कि सारी योजनाएं ठोकर खाकर, मुँह के बल गिर रही थीं। संभावनाओं के बीज अंकुरित होने से पहले ही पाँव सिकोड़ने लगते थे। …पर ऐसे समय में जो बात हमारे जीवन में संजीवनी की तरह काम कर रही थी वो थी हमारी किस्से-कहानियों से दोस्ती। यूँ कहें कि सपनों को बचाए रखने में इन किस्सों का बहुत बड़ा हाथ था। इसलिए उन दिनों देर रात तक हमारे कमरे पर किस्से ख़ूब सुने-सुनाए जाते थे। पर उस समय हम यह नहीं जान पाए थे कि यह समय भी बीतेगा और हम सबको भी एक दिन किस्सों में तब्दील कर देगा। नहीं पता था कि दरसल किस्से भूत की तरह होते हैं और कभी-कभी ये बड़ी मुशकिल से बुलाने पर भी नहीं आते और कभी बिन बुलाए ही आकर सिर पर सवार हो जाते हैं। यह दिन-रात, सुबह-शाम आपको पागल किए रहते हैं। इन्हें किसी से कह देने या लिख डालने के अलावा इनसे पीछा छुड़ाने का, इनसे निजात पाने का कोई तरीका नहीं। ये कई तरह से आपकी ज़िन्दगी में दखल देते हैं। आपको अपना गवाह बनाते हैं जैसे डॉमनिक की ज़िन्दगी ने भी तरह-तरह से, हमें अपना गवाह बनाया और अन्त में इस किस्से का छोटा और मामूली किरदार होते हुए भी मुझे इसे लिखना पड़ा।

उन दिनों मैं पूर्वी दिल्ली के गणेश नगर इलाक़े में दो और लोगों के साथ एक ही कमरे में रहता था और हम तीन लोग मिलकर भी समय से कमरे का किराया नहीं दे पाते थे। उसी समय मेरे साथ में ही इवनिंग कॉलेज से पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहे अजीत मिश्रा, जो उड़ीसा के फुलवानी जिले का रहने वाला था, से भी मुलाक़ात हुई। कुछ ही समय में मेरी और अजीत की अच्छी घुटने लगी। हम दोनों बहुत जल्दी ही इस बात को समझ गए थे कि हमारी जेबों की हालत के अलावा भी हमारी कई बातें एक जैसी हैं और उनमें से सबसे पहली बात जो हमने नोटिस की वो यह थी कि हम किसी भी समय किस्सा सुन और सुना सकते हैं। यह कभी भी, कहीं से भी शुरु हो सकता है। यह पूरी तरह सच्चा, या फिर पूरी तरह झूठा हो सकता है। दूसरी बात जो हममें एक जैसी थी वो ये कि हम दोनो को ही दिन में सपने देखने की आदत थी।…और तीसरी ये कि हम लम्बे समय तक बिना खाए-पिए और सोए रह सकते थे।

अजीत चिराग दिल्ली में तीन और लोगों के साथ कमरा लेकर रह रहा था। उसके साथ रहने वालों में सभी नाटक से जुड़े लोग थे जिनमें एक स्क्रिप्ट राइटर और दो मंच के अभिनेता थे। अजीत ख़ुद भी नाटकों से लम्बे समय से जुड़ा था और उड़िया थिएटर में पाँच-छ: साल काम कर चुकने के बाद नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में एडमिशन लेने का मन बनाकर दिल्ली आया था। वहाँ उसे दाखिला नहीं मिला पर वह वापस नहीं लौटा। वह हिन्दी रंगमंच से कुछ सीखने की मंशा से यहीं रुक गया और अपने फ़ौजी बाप की लताड़ से बचने के लिए इवनिंग कॉलेज से पत्रकारिता का कोर्स करने लगा।

हम अच्छी तरह जानते थे कि जिस तरह का कोर्स हम कर रहे हैं उससे हमारा कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है पर दूसरों के सामने यह हमें कुछ समय के लिए निरर्थकता के बोध से उबार देता था। इसकी आड़ में हमें किस्से गढ़ने का मौका मिल जाता था और हम लोगों के सीधे और चुभने वाले सवालों से साफ़ बच निकलते थे। उस समय हम सभी के चारों ओर ऐसे ही लोगों का जमाड़वा था जो ज़िन्दगी की गाड़ी में चढ़ने के लिए प्लेटफॉर्म पर बैठे इन्तज़ार कर रहे थे और हमें या तो गाड़ियों के रद्द होने की सूचना मिल रही थी या फिर वे अनंतकाल के लिए लेट होती जा रही थीं। दरसल हम सभी धीरे-धीरे टूट रहे थे, चुक रहे थे पर एक दूसरे से कह नहीं पा रहे थे।

अजीत जिन लोगों के साथ रहता था वे सब एक ग्रुप में नुक्कड़ नाटकों में काम करते थे पर न जाने क्या वजह थी कि अजीत का उनके साथ मन नहीं लगता था और वह गाहे-वगाहे हमारे कमरे पर आ धमकता था। हालाँकि इसके लिए उसे दो तीन बसें बदलनी पड़ती थीं पर वह इसकी ज़रा भी परवाह नहीं करता, जब भी वह कमरे पर आता हम समझ जाते कि आज देर रात तक कोई किस्सा चलने वाला है। हालाँकि अजीत की हिन्दी बहुत अच्छी नहीं थी और हमें उड़िया नहीं आती थी पर अजीत का एक अच्छा अभिनेता होना उसकी किस्सागोई को और पुख्ता करता था। वह बड़े मन से, पूरी नाटकीयता के साथ किस्सा सुनाता था। हमारे साथी राजवीर सिंह जो बनारस के रहने वाले थे, इन किस्सों में खासी रुचि लेते थे और बीच-बीच में अपनी तरफ़ से सूक्ति वाक्य जोड़ते चलते थे। बीच में बिना चीनी और दूध की चाय का दौर चलता, जब पेट भूख से एंठने लगता तो कोई एक आदमी उठकर कुकर में दाल-चावल डालकर गैस पर चड़ा देता, ऐसा करते हुए वह अपने कान यहीं किस्से पर ही लगाए रहता। मेरे साथ कमरे पर रहने वाले तीसरे साथी जो गड़वाल के थे और इन किस्सों से एक दूरी बनाए रखते थे। बाद में वे भी धीरे से सरक कर पास आ जाते और इन्हें ध्यान से सुनने लगते।

भाषाओं की सीमाएं तोड़कर ज़िन्दगी की कई अनसुनी कहानियाँ कमरे में तिरने लगतीं। हिन्दी, उड़िया, भोजपुरी, बुन्देली, गड़वाली, कुंमाउनी सब आपस में गड्डमड्ड होने लगतीं।

फिर सुबह उठकर हम इन किस्सों से पीछा छुड़ाकर, एक साथ भाविष्य की कई योजनाएं बनाते और चुपचाप बिना बताए एक दूसरे की आँखों में देखते कि कहीं हमारे भीतर की टूटन बाहर से दिख तो नहीं रही है। अलग-अलग अपने मन के अंधेरे कोनों में हम सभी जानते थे कि ज़िन्दगी का संघर्ष धीरे-धीरे गाड़ा हो रहा है और आगे का रास्ता केवल सपनो और किस्सों के सहारे नहीं चलेगा। पैसों की तंगी अब हमारे चेहरों पर दिखने लगी थी।

तभी अजीत ने मुझे एक अख़बार के लिए नाटकों के बारे में लिखने का काम दिला दिया और हफ़्ते में तीन-चार शामें नाटक देखते बीतने लगीं। दिल्ली में जहाँ भी नाटक के मंचन की सूचना मिलती, हम पहुँच जाते। अजीत अपने अभिनय के शौक़ की वजह से और मैं उसके बारे में लिखने के लिए। ज्यादातर अख़बारों में उस समय प्रति इन्च, प्रति कॉलम सौ रूपए के हिसाब से मिलता था पर जो कुछ भी हम लिखकर भेजते या तो अख़बारों में विज्ञापनों की भरमार के कारण साहित्य और संस्कृति के लगातार कम होते स्पेस में जगह नहीं बना पाता और अगर छपता भी तो बस इतना कि हमारे लिए पन्द्रह-बीस दिन में तीन-चार सौ की ही जुगाड़ हो पाती। जिस महीने नाटक नहीं होते वह महीना बड़ी मुश्किल से बीतता। कुछ दिनो तक यह काम करते-करते जैसे हमारे लिए ये एक रुटीन हो गया था। वहाँ बोल्डनेस और नएपन के नाम पे पुराने को ही घोंट-पीस के परोसा जा रहा था। ज्यादतर अभिनेता बहुत लाउड थे और थिएटर से निकलकर मुम्बईया फिल्मों में हिट हो चुके कलाकारों की फूहड़ नकल को ही अभिनय मान बैठे थे।

ऐसे में नाटकों की रिपोर्टिंग करते-करते हमें एक दिन जैसे बिजली का झटका लगा। हम जैसे एक लम्बी नींद से उठकर बैठ गए।

……और इसकी वजह बना- विश्वमोहन द्वारा निर्देशित नाटक ‘डॉमनिक की वापसी’ का मंचन। जब इसपर लिखने बैठा तो मुझे लगा ये सिंगल कॉलम-तीन इंच की रिपोर्टिंग का मामला नहीं है। नाटक ने हमारे भीतर कहीं कुछ बदल दिया था। वॉयलिन बजाते डॉमनिक की आँखों का खालीपन जैसे हमारे सीने में कहीं गड़ गया था।

मैंने अजीत से कहा, ‘मुझे इस आदमी से मिलना है.’

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