Domnik ki Vapsi - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 7

डॉमनिक की वापसी

(7)

उस दिन दीपांश से हुई मुलाक़ात और हरि नौटियाल की बातों से हमने जितना उसके बारे में जाना था उससे ज्यादा जानने की चाह हमारे मन में थी। उधर तब तक ‘डॉमनिक की वापसी’ का कई बार मंचन हो चुका था। दीपांश के अभिनय का जादू सबके सिर चढ़कर बोल रहा था। उसके अभिनय की तारीफ़ में अख़बारों में बहुत कुछ लिखा गया था। नाटक के दिल्ली से बाहर भी कई शो हो चुके थे। पच्चीसवाँ शो दिल्ली में ही होने वाला था जिससे पहले विश्वमोहन ने प्रेस के कुछ लोगों के साथ मुझे भी अपने ऑफिस जो कि क्नॉटप्लेस में एक आर्ट गैलरी के ऊपर था, बुलाया था। शायद उन्होंने अपने नाटक पर मेरा लेख पढ़ लिया था।

उस दिन चाय पर शो के बारे में कुछ औपचारिक बातें और आगे की योजना के बारे में बताकर विश्वमोहन जल्दी ही वहाँ से चले गए थे। हम सब भी निकल ही रहे थे कि विश्वमोहन की सहायक इति जो उनके थिएटर ग्रुप की कास्टिंग, कॉस्ट्यूम, एडवरटाइजिंग आदि से लेकर रिहर्शल तक का सारा काम देखती थी और साथ ही साथ हिंदी के लोकनाट्यों पर शोध कर रही थी, ने बताया था कि अभी कुछ देर में दीपांश भी वहाँ आने वाला है। उसने यह भी बताया कि नाटकों पर मेरी लिखी समीक्षाएं वह अक्सर पढ़ती है।

‘क्या दीपांश अपने नाटकों की समीक्षाएं पढ़ता है?’ जिज्ञासा वश मैंने पूछा।

उसने थोड़ा झिजकते हुए कहा, ‘शायद नहीं, पर आपके लिखे एक लेख की कटिंग जिसमें आपने कॉस्ट्यूमस की अलग से चर्चा की थी, उसी ने मुझे दी थी।’

फिर वह टेबल पर पड़े अपने बिखरे हुए पेपर समेटते हुए बोली, ‘उसके बारे में कुछ भी ठीक-ठीक कहना मुश्किल है। मेरा मतलब है- कई बार तो वह इतनी बारीक चीज़ें ऑबसर्ब कर लेता है जो हम से इतना अलर्ट रहने पर भी मिस हो जाती हैं।’

मुझे लगा इति भी दीपांश के काम से उतनी ही प्रभावित है जितना कि मैं। मैं उससे उसके शोध के विषय में कुछ पूछ ही रहा था कि तब तक दीपांश भी आ गया। वह आते ही बड़ी गर्मजोशी से मिला। लगा जैसे उसे मालूम था कि मैं उसका इन्तज़ार कर रहा हूँ। उसके साथ अंग्रेजी पत्रिका ‘द आर्ट’ में नाटकों पर स्तंभ लिखने वाले नामी पत्रकार सैम्युल भी थे. उनसे मेरा परिचय कराते हुए उसने कहा ‘आपकी तरह ये भी अभिनेताओं के ‘मेथड ऑफ एक्टिंग’ पर गहरे शोध के साथ नाटकों पर बहुत दिलचस्प ढंग से लिखते हैं.’

सैम्युल ने मेरी ओर देखते हुए, ‘चलिए कभी हिंदी नाटकों पर आपसे लम्बी बात करूंगा. वैसे और क्या लिखते हैं?’

मैंने भीतर दबे सपने को बाहर निकालते हुए कहा, ‘एक छोटी-सी कहानी ज़ेहन में है जिस पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ.. नाटकों पर लिखने के अलावा आजकल उसकी स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूँ.’

सैम्युल मुस्कराते हुए बोले, ‘ओह ये तो अच्छा है, पर कभी नाटक लिखने के बारे में भी सोचिए. हिंदी में नए नाटकों की कुछ कमी-सी दिखाई देती है.’

‘जी जरूर.., नाटक बहुत प्रभावित करते हैं, शायद आगे कभी कोई लिख भी सकूँ.’ मैंने सैम्युल से सहमत होते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद इति हम लोगों के लिए ऑफिस के किचिन में चाय बोलकर वहाँ से निकल गई थी.

पहले हम बड़ी देर तक हिन्दी नाटकों के इतिहास पर बात करते रहे। जहाँ तक मुझे पता था दीपांश ने नाट्य शास्त्र की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी पर उसकी जानकारी चौंकाने वाली थी। नाटकों पर तमाम दृष्टिकोणों से बात होते-होते अन्त में बात उसके नाटक की भी हुई। …फिर न जाने कैसे बात नाटकों से होती हुई प्रेम पर आ गई। सैम्युल ने प्रेम और जीवन को केंद्र में रखके दीपांश के नाटक की एक अलग ही समीक्षा प्रस्तुत की. उसके बाद वह भी चले गए. पर मेरी और दीपांश की चर्चा ज़ारी रही...

मैंने पाया कि प्रेम जैसे उसके जीवन का कोई अधूरा शब्द है जिसे वह बड़ी शिद्दत से पूरा करना चाहता है और इस कोशिश में वह और अधूरा, और खंडित होता जा रहा है। इस बारे में बात करते हुए उसके शब्दों से ज्यादा उसकी आँखें बोलती थीं। उस दिन उसकी आँखों में एक साफ़ आसमान वाली पहाड़ों की एक रात जिसमें पौ फटने को थी, दूर तक फैली थी…

पहाड़ों के ऊपर तने आसमान में सप्तॠषि देखते ही देखते कहीं बिला गए थे। भोर का तारा जो हिमानी की छत के ठीक ऊपर चमकता था। आज वह वहाँ नहीं दिख रहा था। खुले आसमान में एक बादल के टुकड़े ने उसे ढक लिया था। रात अपने नथुने फुलाती-पिचकाती धीरे-धीरे पीछे हट रही थी। पूरब की प्राची पूरी ताक़त से उसे परे धकेल रही थी। रात शायद भोर के तारे को देखे बिना जाना नहीं चाहती थी। तभी उस बादल ने खिसक कर भोर के तारे के आगे पड़े पर्दे को हटा दिया। तारा चमक उठा। उसे देखते ही रात पीछे हट गई। पहाड़ों, घाटियों और बुग्यालों में दूर-दूर तक फैले मालू, बेडू, तिमला, काफल, चीड़, बांज, बुरांश अलसाए हुए से जागने लगे...

दीपांश के कमरे की खिड़की पर सुबह हो रही थी।

एक पहाड़ी पर ढलवां छत वाले तीन मकान थे। उनमें सबसे नीचा, ढलान की तरफ़ छोटे-छोटे दरवाज़े और खिड़िकियों वाला घर दीपांश का था। उसके सामने से उतरती घुमावदार ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ सड़क पर पहुँचने के छोटे रास्ते के तौर पर इस्तेमाल होती थीं। उन सीढ़ियों के किनारे-किनारे पहाड़ के ऊपर से बहा आता पानी तेज़ी से नीचे उतर रहा था। कहते हैं- पानी का बहाव देखते चलो, पहाड़ से उतरने का रास्ता मिल जाएगा। पर दीपांश ने अपनी मंडली के लिए पहाड़ के ऊपर की जगह चुनी थी जहाँ पहुँचना सबके लिए सहज नहीं था। चोटी पर बनी झोपड़ी में शाम को मंडली बैठती थी। ढपली की थाप देर रात तक वादियों में तिरती रहती। एक लाल रंग की डायरी में लिखी कविताओं का सस्वर पाठ होता।

किसी गले से पंत की पंक्ति फूटती- ‘बुरांश के दिल में आग है’ कई स्वर मिलकर कहते- ‘उसमें जीवन की फाग है’

कई बार इन कविताओं को सुनकर पिताजी ऊपर चले आते। ऐसे में वह अक्सर अज्ञेय की वह कविता सुनाते, ‘नई धूप में चीड़ की हरियाली/ दुरंगी हो रही थी/ और बीच-बीच में बुराँश के गुच्छे/ गहरे लाल फूल मानो कह रहे थे/ ‘पहाड़ों के भी हृदय है, जंगलों के भी हृदय है’।

कभी-कभी कुछ महिलाएं भी घर का काम निपटा कर हाथ में लालटेन लिए ऊपर तक चढ़ आतीं। जिसमें बिमला मौसी, जिनके पति अलग राज्य की इस मांग के लिए कई साल पहले एक दिन प्रदर्शन करते हुए लखनऊ में पुलिस द्वारा धर लिए गए थे और किसी भी तरह अब तक जिनकी जमानत नहीं हो पाई थी, रोज़ ही आ जातीं। वे अपने पति की निशानी- एक चांदी का सरौंता हमेशा हाथ में दबाए रहतीं और नीली सांटन की छोटी-सी पोटली से सुपारी निकालकर किसी बहुत जरूरी काम की तरह उसे कुतरतीं और उसी नीले सांटन के थैले में वापस डाल देतीं। साथ की औरतें कहती, ‘बिमला सुपारी नहीं, अपने आगे खड़े पहाड़ से जीवन का एक-एक पल काटती है, सरौंते से’।

औरतें झोपड़ी के बाहर जलती आग तापतीं और झोपड़ी के भीतर की बातें इस उम्मीद में सुनती कि शायद भीतर जो कुछ भी हो रहा है वह किसी जन जागरण जैसा है जिससे पहाड़ पर अलसाया हुआ समय धीरे से करवट बदलेगा और उन्हें अपने दुखों की गुहार लगाने के लिए, न्याय मांगने के लिए घर-बाग-ज़मीन छोड़कर मैदानों में नहीं जाना पड़ेगा। जब वे झोपड़ी से आती आवाज़ों को सुनतीं तो उनकी पनीली आखों में उनके सामने जलती आग झिलमिलाती रहती। वे कई बार झोपड़ी के भीतर बैठे नौजवानों के भविष्य की चिन्ता में नम भी हो जातीं। वे बीतती रात और आसमान से उतरते कोहरे के बारे में झोपड़ी में बैठे लड़कों को चेतातीं।

दीपांश की अम्मा कभी ऊपर के कमरे में न आतीं वे नीचे अपने कमरे में बैठीं ऊपर उसके कमरे की चमकती रोशनी को ताकती रहतीं। बीच-बीच में रसोई में जाकर चूल्हे की राख इस आशा में कुरेद आतीं की उसमें बची आंच चूल्हे पर चढ़ी पतेली को उसके नीचे उतरने तक गर्माए रखेगी। पर रात कितनी भी बीत जाए ऊपर झोपड़ी के भीतर की सभा सुबह की योजना बना कर ही विसर्जित होती और उसके बाद ही दीपांश नीचे उतरकर घर में घुसता। कल रात जब उतरा तो सुबह की योजना तय थी उन्हें सुबह अपने गाँव से निकल कर जगह-जगह रुकते हुए पौड़ी तक की यात्रा करनी थी. पौड़ी उन दिनों अलग राज्य की मांग को लेके खासा सक्रिय था. पर दीपांश जैसे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहा था। बीती रात बहुत लम्बी थी…

सुधीन्द्र और महेन्द्र कुछ और साथियों को लेकर दीपांश के घर के सामने की ढलान पर खड़े थे। सुधीन्द्र ने वहीं खड़े-खड़े ही आवाज़ लगाई। उसके हाथ में ढपली थी और पहले ही प्रभात फेरी के लिए उन्हें देर हो चुकी थी। आज उन्हें ऊपर पौड़ी की ओर चढ़ते हुए दोपहर से पहले तीन गाँवों की फेरी कर लेनी थी। कुछ नए गीत गाने थे। कुछ सोए हुओं को जगाना था।

इन्हीं प्रभात फेरियों में गली-गली घूमते हुए ऐसा लगने लगा था पहाड़ का एक अलग नक्शा तैयार हो रहा है। इसकी सुगबुगाहट देश की राजनीति में भी होने लगी थी। ऐसी कई टोलियाँ कई गावों में सक्रिय थीं। कुछ राजनैतिक दलों ने बदलते समय को भाँपकर इन टोलियों को समर्थन देना भी शुरू कर दिया था। ऐसी ही एक फेरी में दीपांश की मुलाक़ात हिमानी से हुई थी। हिमानी ने जब अपने कॉलेज के रास्ते पर दीपांश को गाते सुना, तो उसे लगा कि दीपांश नहीं बल्कि पहाड़ ख़ुद अपनी दुर्दशा की कहानी करुण स्वर में गाकर सुना रहे हैं। पेड़, पहाड़, नदियाँ, घाटियाँ सब उनकी टोली के साथ चल कर अपना हक़ मांग रहे हैं। उसका भी मन किया था उनके सुर में सुर मिलाने का। पर उसने अपने पिता और ताऊजी को हमेशा ही कहते सुना था कि ये पहाड़ी जितना चाहे सिर पटक लें पर यह राज्य अलग नहीं हो सकता। ऐसे राज्य नहीं बना करते। जिस दिन पानी सिर से ऊपर होगा सरकार यहाँ ‘पीएसी’ लगा देगी जिसके जवान घर में घुस के एक-एक को तोड़ के रख देंगे. इसके लिए बहुत बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ती हैं। बहुत सारी क़ुर्बानियाँ देनी होती हैं। पर वे नहीं जानते थे कि लोग भीतर ही भीतर, बड़ी और आर-पार की लड़ाई का मन बना चुके थे।

सुधीन्द्र ने फिर आवाज़ लगाई। पर जवाब में आज दीपांश का कोई उत्तर नहीं आया। सुधीन्द्र को लगा वह अभी भी सो रहा है। अबकी बार उसने ढपली पर थाप देते हुए आवाज़ लगाई साथ ही महेन्द्र जिसकी आवाज़ सबसे बुलंद थी, ने भी साथ दिया। पर दूसरी तरफ़ ख़ामोशी ही रही।

दीपांश तो जैसे सारी रात सोया ही नहीं था। रात खिड़की से आसमान को ताकते और सन्नाटे में तेज़ी से पहाड़ से नीचे उतरते पानी की आवाज़ सुनते बीती थी। रातभर उसे यह आवाज़ सालती रही थी। उसे कई बार लगा कि वह संकरी नालियों में मिट्टी गिराकर नीचे बहते पानी को रोक ले। उसे पहली बार इस प्रवाह में ख़ुद के बह जाने का ख़तरा लग रहा था। बार-बार आँखों के आगे हिमानी मुस्करा रही थी। उसे लग रहा था जैसे हिमानी और उसने प्रेम को नहीं चुना बल्कि इस अकारथ समय में प्रेम ने उन्हें चुन लिया है। वह भी तब जब इसके लिए उनकी कोई तैयारी नहीं। वे किसी जंगली फूल से अभी-अभी अपनी डालियों पर खिले थे। बचपन से अब तक किसी ने भी इस तरह उन्हें कभी नहीं चुना था। बस वे अपने जीवन में ऐसे ही रहे आए थे और अपने इस तरह होने में वे कहीं न कहीं ख़ुश भी थे। पर अब जब अचानक वे प्रेम के लिए चुन लिए गए थे। प्रेम उन्हें नचा रहा था, सिखा रहा था, दिखा रहा था और वे नाच रहे थे, देख रहे थे, सीख रहे थे।

उस दिन सुधीन्द्र के लाख बुलाने पर भी दीपांश नीचे नहीं आया उसने माँ से कहलवा दिया था कि उसकी तबियत कुछ अच्छी नहीं है। हालाँकि सुधीन्द्र को उसकी इस तरह बदलती और बिगड़ती तबियत का कुछ अंदेशा हो गया था पर फिर भी वह रोज़ की तरह उसे साथ ले जाना चाहता था पर दीपांश उस रोज़ उसके साथ नहीं गया।

कॉलेज के बाद हिमानी उसे उसी चर्च के पीछे मिलने वाली थी।

वह समय से पहले ही वहाँ पहुँच गया था। आज चर्च की दीवारें जीवित जान पड़ती थीं। वे उसके पहले प्रेम के अनोखे स्पर्श की बिन मांगे ही गवाही दे रही थीं। धीरे-धीरे दीपांश को चर्च की इमारत अच्छी लगने लगी थी। वैसे पुरानी इमारतों, खंडहरों से उसका एक अजीब-सा रिश्ता था। उसके सपनों में अक्सर खाली इमारतें, खण्डहर और टूटे हुए घर आया करते थे। सपने में वह उनसे बोलता, बतियाता था। न जाने क्यूँ उसे लगता था कि एक दिन पहाड़ वीरान हो जाएंगे और फिर जब पहाड़ बर्फ़ की चादर ओढ़कर सोया करेंगे तो उन्हें जगाने वाला कोई नहीं होगा। वह पिघलती बर्फ़ के नीचे से निकलते बंजर पहाड़ों के सपने देखता था। पर आज उसे चर्च की दीवार के सहारे आसमान छूने को चढ़ती चली जाती बेल आश्वस्त कर रही थी कि सब कुछ कभी खत्म नहीं होता। सब कुछ मिटने के बाद भी कुछ न कुछ रहा आता है। आज आसमान जैसे उस बेल के सिरे पर फूटती कोंपल पर टिका था। न जाने क्यूँ आज हिमानी का इन्तज़ार अन्य दिनों के इन्तज़ार से अलग था। आज रह रहकर उसके विचारों की लय, उसकी धड़कनों की लय के साथ तेज़ धीमी हो रही थी। हिमानी को अब तक आ जाना था पर वह नहीं आई। कई घण्टों चर्च की दीवार से सटकर वह ऐसे खड़ा रहा जैसे वह अभी अपने ऊपर चढ़ी बेल को उतारकर उसके सिर पर रखेगी और अपने भीतर समेट लेगी पर ऐसा नहीं हुआ। दीवार ने कुछ नहीं किया। कुछ नहीं कहा। दीपांश का कहा कुछ नहीं सुना।

दिन ढ़लने से कुछ देर पहले सुधीन्द्र ही उसे ढूँढता हुआ वहाँ पहुँचा था। पहले तो उसने बिना भूमिका के प्रेम के विरोध में बीसियों बातें सुनाईं। बताया कि कैसे अब वह समय आ गया है जब हमारे सपनों का प्रदेश बनने ही वाला है। पौड़ी ही नहीं पहाड़ के गाँव-गाँव में सभाएं हो रही हैं. दो अक्टूबर को सब इकट्ठे होकर केंद्र सरकार के सामने अपनी मांग रखने के लिए दिल्ली पहुंचेगे. वहाँ बोट क्लब पे एक बहुत बड़ी रैली रखी गई है. इसके लिए अब हमें जी जान एक कर देना होगा। ऐसे में उसे इस तरह प्रेम में पड़ने का कोई हक़ नहीं। उसने उसे समझाया कि यह मौका उनके जीवन में फिर नहीं आएगा। पर दीपांश के कानों तक उसकी अधिकांश बातें नहीं पहुँच रही थीं।

दीपांश ने सुधीन्द्र को हिमानी के बारे में कुछ बताना चाहा, पर उसने उसे रोकते हुए कहा, ‘मैं जानता हूँ, हिमानी ने ही बताया कि तुम यहाँ उसका इन्तज़ार कर रहे हो।’ यह कहते हुए उसने एक चार बार घड़ी किया क़ाग़ज़ उसकी ओर बढ़ा दिया।

दीपांश ने बड़ी उत्सुकता से उस क़ाग़ज़ को खोला और पढ़ने लगा। वह क़ाग़ज़ जिसे वह अपने पहले प्रेम पत्र के रूप में पढ़ रहा था उसको बन्द करते हुए उसके होठों पे जो शब्द थे उनका प्रेम से सीधा कोई वास्ता नहीं था पर शायद उनके बिना उसके इस रिश्ते के कोई मायने नहीं थे। वह बुदबुदाया, ‘पाँच लाख! नौकरी के लिए!’

उस दिन अपने जाने की बिना कोई आहट दिए, …दिन चुपचाप चला गया।

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