Domnik ki Vapsi - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 8

डॉमनिक की वापसी

(9)

दीपांश उस चट्टान पर कुछ देर और हिमानी के साथ बैठता तो उसे बताता कि आज उसे यहाँ नहीं होना चाहिए था। आज उसे अपनी मंडली और पन्द्रह और दूसरे गाँवों से इकट्ठे हुए लोगों के साथ वर्षों से चली आ रही लड़ाई के लिए, लाखों लोगों का अधूरा सपना पूरा करने के लिए, अपने माँ-बाप को दिया बचन निभाने के लिए, दिल्ली की संसद के भीतर बैठी गूँगी-बहरी सरकार के आगे अपने पहाड़ों की बात रखने के लिए जाना था। उसका वहाँ न होना उसे ऐसा गुनाह लग रहा था जिसके लिए वह अपने आपको कभी माफ़ नहीं कर सकेगा।

पर अब जैसे हर संवाद की संभावना समाप्त हो चुकी थी,... नदी के दोनों किनारे उससे दूर हो चुके थे। नदी और दूर गिरते झरने की आवाज़ें उसे सुनाई नहीं दे रही थीं।

दिल्ली जाने वाले दिन में ही निकल गए थे. बोट क्लब पर सचमुच ही एक बहुत बड़ी रैली की तैयारी थी. उसके इलाके के हर घर से एक-एक, दो-दो आदमी-औरतें रैली में हिस्सा लेने गए थे. इसीलिए आज वापस लौटते हुए हाट, बाज़ार, बस अड्डा सब बहुत सुनसान लग रहे थे. घर जाने का मन नहीं था सो बस अड्डे के पास बने छोटे से नाके के पास की गुमटी में ही बैठ गया था. आज गुमटी के आस-पास की चाय-चुहल बिलकुल शांत थी.

पता नहीं कब तक वहीं अकेला बैठा रहा. समय बीता, रात उतरी तो सन्नाटा और गहरा हो गया. हाथ-पाँव अपने में सिकुड़ के ठिठुरने लगे. कब समय इतना खिसक गया कि गुमटी के बंद होने और बत्ती बुझने का वक्त हो गया, उसे पता ही नहीं चला.

बेमन से वहाँ से भी उठना पड़ा.

अभी चढ़ाई की तरफ देखके क़दम बढाने शुरू भी नहीं किए थे कि तभी एक चीख उसके कानों में पड़ी।

यह सुधीन्द्र की आवाज़ थी!

वह तो सुबह ही पिताजी और गाँव के उन सभी लोगों के साथ जिन्हें दिल्ली जाना था, पौड़ी से दिल्ली के लिए रवाना हो चुका था.

उसने आवाज़ की तरफ़ भागते हुए गुमटी के ऊपर जलती बहुत हल्की रोशनी में देखा था, सुधीन्द्र ख़ून से लथपथ, हाँफ़ता हुआ उसकी ओर बढ़ रहा था। दीपाँश उसे थामने के लिए आगे बढ़ा। सुधीन्द्र टूटती-बिखरती आवाज़ में बोल रहा था, ‘उन्होंने हमें मुजफ्फरनगर से आगे जाने ही नहीं दिया. उन्होंने सारी गाड़ियों को रामपुर तिराहे पर ही रोक लिया.’

‘किसने?’

‘यू.पी. पुलिस ने’

‘बाकी लोग कहाँ हैं?’

सुधीन्द्र खड़ा नहीं रह सका, सड़क के किनारे एक चट्टान का सहारा लेके बैठने की कोशिश करते हुए ढह गया, ‘उन्होंने अपनी लाठी और जूतों से सबको कुचल डाला, औरतों के कपड़े फाड़ कर उन्हें घसीटते हुए गन्ने के खेतों और झाड़ियों में ले गए, बाद में गोली भी चलाई, दस-बारह लोग तो वहीं ढेर हो गए. दो-एक ने तो भागते हुए यहाँ-वहाँ कूदकर जान दे दी। कितने अभी भी झाड़ियों में फंसे आखिरी साँसें ले रहे होंगे।’

दीपांश का चेहरा काला पड़ने लगा। अंधेरा और गहरा हो गया। कहीं दूर झाड़ियों में दो-एक जुगनू चमक रहे थे। दीपांश ने काँपती आवाज़ में प्रश्न किया, ‘पिताजी कहाँ गए?’

सुधीन्द्र जो घुटनों में सिर छुपाए फूट-फूट कर रो रहा था, चीत्कार उठा। उसकी चीख बहुत देर तक घाटी में गूँजती रही।

दीपांश को लगा सब कुछ उसके सामने हो रहा है।

महेन्द्र अपनी दबंग आवाज़ में, ऊँचे स्वर में गा रहा था, ‘बुरांश के दिल में आग है/ उसमें जवानी की फाग है।’ चार पुलिसवाले मिलकर भी उसे काबू में नहीं कर पा रहे थे। आखिर में उसे खींच कर पेड़ से बाँध दिया गया। वे उसे रुई की तरह धुन रहे थे।

बिमला मौसी की साड़ी-पेटीकोट-ब्लाउज सब नोचकर झाड़ियों में फेंक दिया। दो पुलिस वाले उन्हें बालों से पकड़कर सड़क से नीचे गन्ने के खेत में लिए जा रहे थे। उनका थैला सड़क के बीचों-बीच पड़ा था जिससे उनका चाँदी का सरौंता बाहर झाँक रहा था।

कुछ लोग अभी भी बस से नहीं उतर पाए थे।

वे सीटों के बीच टाँगें फसाकर अड़ गए थे। उन्हें खींचकर नीचे उतारने की कोशिश में पुलिस वाले खीज रहे थे। पर वे जैसे बस की सीटों से चिपक गए थे। तभी उन्हें बस में छोड़कर नीचे उतरे पुलिस वालों ने बस के गेट पर डीज़ल छिड़ककर आग लगा दी। कुछ उतर पाए कुछ नहीं। जो बस में छूट गए, वे चीख-चिल्ला नहीं रहे थे। वे एक-दूसरे से चिपककर बैठ गए थे। उनमें से एक आदमी जरूरी क़ाग़ज़, फाइलें आदि आग से बचाने के लिए खिड़की से नीचे फेंक रहा था। आखिर में उसने एक लाल डायरी जो आग पकड़ चुकी थी बस से नीचे फेंकी। जलती हुई डायरी की रोशनी में चेहरा चमक उठा।

‘पिताजी!’

बस धूँ-धूँ करके जल रही थी। लोग एक-दूसरे से चिपटकर जल रहे थे। मर रहे थे।

दीपांश को लगा बुरूँश के फूल धधक कर शोले बन गए हैं। तेज़ होती हवा ने पहाड़ों में आग लगा दी है। उसी के बीच से दीपांश सुधीन्द्र को पीठ पर लादे अपने घर की ओर बढ़ रहा है। रह रहकर जलती हुई लाल डायरी कौंध रही थी, दीपांश की आँखों में।

एक-एक कर झर रही थीं, उसमें लिखी कविताएं……‘खून को अपना रंग दिया है बुरूँश ने/ उसने सिखाया है/ फेफड़ों में हवा भरकर/ कैसे हँसा जाता है…/ कैसे हँसा जाता है/ ऊँचाई की हदों पर/ ठण्डे मौसम के विरुद्ध’

(हरिश्चन्द्र पाण्डे)

आग की लपटों से फिर कुछ पंक्तियाँ झरीं……

‘हर प्रतिरोध, हर टकराहट की अलग आवाज़ है/ पहाड़ के पास/ पहाड़ आवाज़ की कीमत पहचानते हैं/ इसीलिए हमारी आवाज़ लौटा देते हैं- पहाड़/ और भी वज़नी और दबंग बनाकर/ वक़्त जरूरत के लिए।’

(हरिश्चन्द्र पाण्डे)

…… वह ज़ोर से चिल्लाया…

………पहाड़ों ने उसकी आवाज़ को दोगुना करके लौटा दिया…

दीपांश चिल्लाता हुआ आगे बढ़ रहा था। सुधीन्द्र उसकी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिला रहा था, ‘हम टूटेंगे नहीं, हम जुड़ेंगे, जुटेंगे और टूट पड़ेंगे।

हम वैसे नहीं टूटेंगे जैसे टूटती है- हिम्मत।

हम टूटेंगे ऐसे, जैसे टूटता है- पहाड़

…जैसे फटता है- बादल।

घर पहुँचा तो राह देखती माँ से कुछ कहते नहीं बना. शायद उन्होंने बहती हवा के बोझ से भांप लिया था, आने वाले दुख को. एक दम चुप हो गईं. किसी को पहाड़ से नीचे भेजते मन अनिष्ठ की आशंका से कांपने लगता था. मन का सालों पुराना भय आज सच में बदल गया था.

दूसरे दिन सुबह दो अक्टूबर था. ऐसी बोझिल और तनाव भरी सुबह पहाड़ ने पहले कभी नहीं देखी थी. जैसे-जैसे ख़बरें आ रही थीं, घरों में रोना, चीखना, बिलखना बढ़ता जा रहा था. मुट्ठियाँ कसने लगी थीं. लोग बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों, चौराहों पर इकट्ठे होने लगे थे. लोग रेडियो से कान जोड़े बैठे थे. दोपहर होते-होते पूरे पहाड़ों में एक आग-सी धधकने लगी थी. उसी समय गुस्से में लामबंद हुए कुछ लोग पुलिस की चौकियों और थानों पर हमले की योजनाएं बनाने लगे थे. पहले से पहाड़ों पर तैनात पुलिसवाले शुरू में इन ख़बरों को सुनके अपने जगह-ठिकाने छोड़ के भाग खड़े हुए थे. हमेशा शांत रहनेवाले पहाड़ों में पहली बार अलगाव के स्वर सुनाई दे रहे थे. जिन लोगों का चीन से कोई नाता नहीं था, जो ये भी नहीं जानते थे कि पेइचिंग दुनिया के नक़्शे में कहाँ है और उनके घर से कितनी दूरी पर है, वे ‘दिल्ली दूर-पेइचिंग पास’ के नारे लगा रहे थे. पुलिस के वायरलैस इसे देशद्रोह कहके प्रचारित कर रहे थे. वे चाहते थे इलाके में ‘पीएसी’ लगा दी जाए. आनन-फानन में प्रदेश सरकार ने कई गाँव, कस्बों पर कर्फ्यू थोप दिया था. दीपांश के गाँव ने पहली बार कर्फ्यू देखा था. उसके बाद ‘पीएसी’ के आने के पर चला दमनचक्र तो सीधे-साधे पहाड़ी अवाम के लिए दिलदहला देने वाला था. जिनके घरों में जवान लडके थे उनकी खासी मुसीबत आ गई थी, उन्हें घर में घुस-घुस के जबरन बिना किसी बात के धर लिया जा रहा था. पकड़ के उन्हें कहाँ भेजा जा रहा था इसकी ख़बर किसी को नहीं थी. लोगों ने अपने जवान लड़कों को रातों-रात घर से भगा दिया था. जिनके परिवार के सदस्य रैली में भाग लेने गए थे और बीच में ही लापता हो गए थे, वे कर्फ्यू के दिनों में भी जान पे खेलके उनके बारे में पता करने के लिए निकलते और पुलिस उन्हें बिना कुछ पूछे-बताए धर लेती. दुकानों, खेतों, बगीचों में खुलेआम पुलिस की लूट मची थी. घरों में बंद लोगों ने कई दिनों तक खाली पेट रहके समय काटा था. दीपांश के घर भी कई दिनों तक बस एक वक्त आलू उबाल के ही काम चलाया गया था.

कर्फ्यू हटने के बाद भी कितने ही दिनों मरघट सा सन्नाटा छाया रहा. अनायास कभी आधी रात के अँधेरे में किसी घर से कलेजा चीर देने वाली कोई चीख उठती और पहाड़ों से टकराकर बुग्यालों में पसरे अँधेरे में खो जाती. कितनों के तो शरीर भी नहीं मिले. जिनके मिले भी उनमें से कईयों की शिनाख्त भी न हो सकी. सुधीन्द्र दीपांश के पास ऊँचे पर बने कमरे में छुपा रहा. दीपांश रोज रात में उसके मुँह पे हाथ रखके उसके ज़ख्मों की मरहम-पट्टी करता था.

हालत सामान्य होने पर दीपांश की सीढियां चढ़के ऊपर के कमरे में जाने की हिम्मत नहीं होती थी, उस तरफ देखने तक का मन नहीं करता था. लगता था वहां से सपनों की चिताओं की राख उड़ती है...

सुधीन्द्र ने, जो अब स्वस्थ हो गया था और कभी-कभी सौदा लाने नीचे उतर जाया करता था, एक दिन शाम को हाट से लौटकर बताया कि हिमानी के ताऊजी अपना मकान खाली करके भोपाल चले गए हैं. लगा सामने दूर तक पसरी घाटी का सन्नाटा और गाढ़ा, और गहरा हो गया. कई बार किसी के न मिलने पर भी उसके आसपास होने का आभास भर किसी अदृश्य सहारे जैसा होता है. इस खबर से वह सहारा भी टूट गया था. पिताजी आंदोलन की लपटों में भस्म हो गए थे और माँ शून्य में टंगी एक टकटकी भर रह गई थीं जो पहाड़ पर चढ़ती-उतरती हर छाया को आँखों से ओझल होने तक देखती रहती थीं.

आँखों के आगे अँधेरा ही अँधेरा था, थोडी बहुत रोशनी थी तो अतीत में ही थी, पर जब भी वहाँ देखता भले दिन पलभर चमक के कहीं खो जाते. रह रहके बचपन में लौटता. कभी कोई बात, कोई सिरा हाथ आता तो उसे ही पकड़े बैठा रहता. दादी की कही बातें जो कभी माँ से सुनी थीं, किसी कोने में चमकतीं. वे कहती थीं, ‘प्रेम ज़मीन में फैला नमक है और इसे पलकों से समेटना है।’

माँ उनके बारे में बताते हुए रो दिया करती थीं, कहती थीं, ‘दादी जीवन भर घर, खेत, बच्चे रिश्तेदारी सब संभालती रहीं। पहाड़ के हाड़ तोड़ जीवन में भी हमेशा खिली-खिली रहती थीं। प्रेम की हौंसफूल में चकरी सी घूमतीं। दादा जी देहरादून में नौकरी करते थे। साल में दो एक बार ही गाँव आते। महीने दो महीने में आई चिट्ठी बच्चों से बार-बार पढ़वा कर सुनतीं। सुनके गहरे संतोष से भर जातीं और फिर आँखें पोछ के काम में लग जातीं। अपनी अक्सर नरम-गरम रहती तबियत की कभी परवाह नहीं करतीं। एक बार बुखार में ऐसी पड़ीं की एक पन्द्रहिया ठीक ही नहीं हुईं। पिता जी बहुत कम उम्र के थे और शहर जाने और पहाड़ से उतरने से हिचकते थे। सो गाँव के दो एक लोगों को साथ लेके दादी को इलाज के लिए दादा जी के पास देहरादून ले गए। शहर के इलाज से बुखार तो उतर गया पर वहाँ मन पे ऐसी बिजली गिरी कि उनकी प्रेम की संजीवनी हमेशा के लिए छिन गई। वहाँ दादा जी किसी और औरत के साथ घर बसाए बैठे थे। देहरादून से लौटकर ऐसी चारपाई पर पड़ीं कि फिर कभी नहीं उठ सकीं। बीमारी में अक्सर बड़बड़ाती, ‘हमें इस योग्य भी नहीं समझा कि बता देते। उनकी हर चीज हमेशा से सहेजी, उसे ले आते तो भी पूरे मन से रखती।’

…और यही कहते-कहते वह एक दिन मर गईं। माँ बताती थीं, दादा जी खूब रोए थे आकर। खूब माफ़ी मांगी थी आसमान की ओर देखकर पर मन में गहरी टीस लिए दादी तो चली गई थीं। शायद इसीलिए माँ ने पिता जी को कभी देहरादून, लखनऊ, दिल्ली कहीं नहीं जाने दिया। उन्हें हमेशा उकसाती रहीं। वहीं रहके अपने हक़ के लिए लड़ने को। पर पिता जी उतरे और कभी नहीं लौटे. अंतिम संस्कार के लिए देह तो क्या, विसर्जन के लिए राख भी नहीं मिली.

हालात दिन पे दिन बदतर होने लगे. जल्दी ही लगने लगा कि उसे भी एक दिन उतरना ही पड़ेगा। ऊपर से नीचे की तरफ बहना ही पड़ेगा।

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