Domnik ki Vapsi - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 11

डॉमनिक की वापसी

(11)

चिराग दिल्ली की एक संकरी गली, पीले रंग का पुराना मकान, दूसरी मंज़िल पर एक छोटा-सा कमरा। यह रमाकान्त का अपने घर से दूर रिहर्शल करने का या कहें कि कुछ देर सुकून पाने का ठिकाना था। वैसे उनका परिवार यहाँ से चार छ: स्टैण्ड पार कर दक्षिण दिल्ली के लाजपत नगर इलाक़े की डबल स्टोरी कहे जाने वाले मकानों की कॉलोनी में, दूसरी मंजिल की छत पर बनी बरसाती में, पिछले बारह साल से किराए पर रहता था और उनके इन दोनों ठिकानों के बीच, रमाकान्त की ज़िन्दगी के बीते हुए वे तमाम साल थे, जिनमें अगले ही पल कुछ नया होने की उम्मीद भी साथ-साथ रही आती थी। उनके आस पास समय अभी भी यूँ बैठा था कि बस अभी अगले ही पल करवट लेगा और सब कुछ बदल जाएगा, पर समय को एकटक ताकते-ताकते रमाकान्त के दोनों ठिकानों का धीरज जैसे अब चुकने लगा था।

परिवार में पत्नी अभि, बेटा निलय और उनकी माँ थीं। माँ, जो उन्नाव और दिल्ली समय-समय पर आती-जाती रहती थीं। वह इस यात्रा में किसी अदृश्य से सपने को अपने सामान में बांधे रहती थीं। रमाकान्त के इस नाटक-नौटंकी वाले काम से उन्हें कोई परहेज नहीं था पर एक समय में अपने इलाक़े की सबसे नामी-गिरामी नौटंकी जिसे देखने बारह गाँव की जनता जुटती थी, के मालिक रुद्रप्रताप सिंह का बेटा यहाँ दिल्ली में सौ-सवा-सौ लोगों के सामने हिन्दी-अंग्रेज़ी की मिली-जुली गिटर-पिटर वाले थिएटर को ही नाटक समझ कर अपना जीवन गवां रहा था, बस यही सोच के कभी-कभी उनके सीने में गहरी टीस उठती थी। फिर भी उन्हें लगता कि उनके गाँव में आज भी रमाकान्त के पिता का नाम कोई भूला नहीं है और इसलिए कानपुर से उन्नाव तक पूरी बैसबाड़ी में लोग उनकी इज़्ज़त करते हैं। पर कभी-कभी लगता बेटे के पास कोई स्थाई नौकरी नहीं है, या इतना पैसा नहीं है जिसे वह बिरादरी में दिखा सकें इसलिए वहाँ लोग उनकी इज़्ज़त नहीं करते हैं। इलाक़े में बची रह गई इज़्ज़त का सारा श्रेय वह अपनी जाति, अपने स्वर्गीय पति और कभी-कभी स्वयं को देती थीं, पर वहाँ घटती साख का सारा दोष रमाकान्त के हिस्से आता था। उन दिनों वे दिल्ली आई हुई थीं और उनका मानना था कि दो-ढाई साल में राहू की महादशा समाप्त होते ही रमाकान्त को बड़ा ब्रेक मिलके ही रहेगा। पर दशा थी कि गहराती ही जाती थी। ऊपर से रमाकान्त की भलमनसाहत। जिसके चलते जबतब कोई न कोई उनके साथ कमरे पर चला ही आता था, जैसे आज दीपांश आया था। वह कहती भी थीं कि उसने रिहर्शल के नाम पे ये कमरा अपने लिए नहीं बल्कि उसी की तरह भटककर दिल्ली भाग आनेवालों के लिए ही ले रखा है। उनका मानना था कि वह बिलकुल अपने बाप पर गया है जो जब-तब किसी न किसी को अपने साथ घर लिए आते थे। वह जब भी उन्नाव से दिल्ली आतीं, रमाकान्त की सफलता के लिए कोई नया टोटका लेकर ही आती थीं। पर रमाकान्त जिस दुनिया में जी रहे थे, वहां ज़िन्दगी के सारे टोटकों का भेद खुल चुका था। उन दिनों चूकि माँ यहीं थीं सो रमाकान्त काम खत्म होने के बाद अपने इस अड्डे पर थोड़ा रुककर, कुछ देर से ही घर लौटते थे।

रमाकान्त ने कमरे का ताला खोलकर बत्ती जलाई।

दीपांश को कमरे में घुसते हुए लगा जैसे उसके अपने कमरे की तरह यहाँ भी एक ढफ़ली और कविताओं की कोई लाल डायरी जैसी चीज़ जरूर होगी। अभी रमाकान्त फोल्डिंग पलंग से, जिसपर मटमैले रंग की चादर बिछी थी, अखबार, किताबें, कुछ फटे लिफ़ाफ़ों से झांकती अपनी पुरानी तस्वीरें समेट कर बैठने की जगह बना ही रहे थे कि लगभग दीपांश की उम्र के ही तीन लड़के कमरे में बड़ी बेतक़लुफ़ी से दाखिल हुए।

तीनों ने लगभग एक साथ ही बहुत आत्मीय स्वर में कहा, ‘भैया नमस्ते’

रमाकान्त ने दीपांश का सभी से परिचय कराया-अशोक, भूपेन्द्र और संजू। फिर भूपेन्द्र की ओर देखते हुए बोले, ‘अरे चाय-वाय कुछ मिलेगी?’

भूपेन्द्र कुछ अटपटाते हुए बोला, ‘भईया बिना दूध की बना दें? चीनी-पत्ती तो है।’

रमाकान्त ने हाँ में सिर हिलाते हुए अगला सवाल किया ‘…और खाने की क्या व्यवस्था है?’

‘भईया, होटल वाले का पिछले महीने का बहुत बकाया था। इसलिए अशोक के घर से जो पैसा आया था, उससे पिछला सब चुका दिया, और आगे के एक हफ़्ते का एडवांस भी दे दिया।’ भूपेन्द्र बोलता हुआ बगल के कमरे में चाय बनाने चला गया।

‘और हीरो तुम्हारे फैशन शो का क्या हुआ, कुछ दिया की नहीं या ऐसे ही रेम्प पर दौड़ा रहा है’ रमाकान्त ने संजू याने संजय कपूर जो तीनो में सबसे लंबा, गोरा और तीखे नैन-नक्श वाला था, से पूछा।

संजू झेंप गया, ‘भैया कह तो रहा है कि अगले महीने देगा’

‘ले लेना साले से, ये सब ऐसे ही गोली देते रहते हैं। आजकल करते-करते उनका काम निकल जाएगा, फिर हाथ नही आएंगे’

संजू ने जवाब में कुछ नहीं कहा।

अशोक जो अब तक चुप बैठा था उसने लम्बे दो क़ागज़ जिनपर हाथ से कुछ लिखा हुआ था, रमाकान्त की ओर बढ़ा दिए फिर छत की तरफ़ देखते हुए बोला, ‘बहुत कोशिश की पर हो नहीं रहा है, आखिरी लाइनों तक आते-आते सब बिखर जाता है।’

रमाकान्त ने क़ाग़ज़ अशोक के हाथ से ले लिए और पढ़ने लगे।

दीपांश अपने में ही डूबा था, वह अभी वहाँ सहज नहीँ हो पाया था। अपना यूँ एक बिलकुल अपरिचित जगह पर चले आना, उसे अज़ीब लग रहा था पर इन दिनों जो कुछ भी उसके साथ हो रहा था, उसमें उसकी अपनी इच्छा बहुत कम शामिल थी। चीज़ें जैसे अपने आप ही बन-बिगड़ रही थीं। घर छोड़कर यूँ भटकते हुए हफ़्ते से ऊपर हो गया था। अपने चारों तरफ़ रास्ते ही रास्ते दिख रहे थे पर कोई ठौर, ठिकाना, कोई मंज़िल कहीं नहीं थी। या शायद उसका उचाट मन कुछ देख ही नहीं पा रहा था। बस थोड़ी-थोड़ी देर में पहाड़ किसी चुम्बक की तरह वापस खींचते थे। पर लौटने के बारे में सोचने पर वहाँ की भयावह तस्वीरें सामने घूम जातीं, पीछा करती पुलिस की गाड़ी के सायरन कानों में गूंजने लगते। दीपांश अभी कुछ और देर सिर झुकाए बैठा रहता कि उसके कानों में रमाकान्त की भारी और बंधी हुई आवाज़ पड़ी।

वह कमरे के बीच में खड़े होकर अशोक की ओर देखते हुए बोल रहे थे, ‘जीवन अपना रास्ता बनाता हुआ, कहीं से भी, कैसे भी बह निकलता है। इसका निरन्तर गतिशील होना ही, इसका सबसे बड़ा गुण है। ये समय की पगडण्डियों पर निशान छोड़ता, लगातार आगे बढ़ता है। कभी मुड़के पीछे देखो, तो कई किस्से, कई दास्तानें, बिखरी दिखाई देती हैं। ये दूर से भले ही बिलकुल अलग-अलग चमकती हों पर पास से देखने पर ये किसी न किसी समय में एक दूसरे को काटती हुई निकलती हैं और हमें उनके सिरे एक बड़ी दास्तान से जुड़ते और टूटते दिखाई देते हैं। आज हम आपको एक ऐसी दास्तान सुना रहे हैं जो कहीं न कहीं आपकी किसी पुरानी याद को छूती हुई गुज़रेगी। इसे सुनाने के बाद, यह हमारी नहीं, आपकी अपनी दास्तान बनकर, आपके साथ रही आएगी।’

दीपांश हतप्रभ! रमाकान्त की आवाज़ के आकर्षण से मुग्ध, बस देखता ही रह गया। अशोक ने रमाकान्त की अदायगी की लय पकड़ी और संवाद जस का तस दोहरा दिया।

दीपांश अभी भी रमाकान्त को देखे जा रहा था। उसे लगा उसके बारे में न कुछ पूछा, न अपने बारे में बताया और उसे यहाँ लाकर रुका दिया। समझ नहीं पा रहा था कि कलाकार बांध रहा है या इंसान। एक ही सिक्के के दो पहलू। दोनो खरे।

तभी रमाकान्त ने जैसे किसी दास्तान के भीतर से ही कहा, ‘दीपांश अभी कुछ दिन यहीं रहेगा।’ फिर जेब से एक सौ का नोट निकाकर अशोक की ओर देखते हुए बोले, ‘कुछ चावल-आवल ले आना, यहीं बना लेना।’ उसके बाद दीपांश की ओर मुड़े और बोले ‘कमरे की एक चाबी अशोक के पास रहती है।’ और फिर अंधेरे में डूबी सीढ़ियों से उतरते हुए चले गए।

कमरे के बाहर से कुकर की सीटी बजने से पहले ही चावल की महक आने लगी। भूख सबको लगी थी पर जो तीन-चार दिन से भूखा हो उसके लिए इसके कुछ और ही मायने थे।

कुछ ही देर में, भूपेन्द्र भाप छोड़ता हुआ कुकर और स्टील की प्लेटें लेकर वहीं आ गया। अशोक ने ज़मीन पर एक बासी अख़बार फैला दिया। भूपेन्द्र ने पेपर पर मुस्कराते शाहरुख़ खान को बचाते हुए कुकर और प्लेटों को रख दिया। संजू झुककर पेपर पढ़ने लगा। लेख था-‘थिएटर से फिल्मों तक का सफ़र’- शाहरुख़ की कही बात को हेडिंग बनाकर, लाल स्याही से छापा गया था- ‘थिएटर इस माई फ़र्स्ट लव।’

दीपांश खाली प्लेट पर उंगली रखे हुए था। भूपेन्द्र ने भात निकाला। तेज़ी से भाप उठी।

तभी दीपांश की भूख़ मिट गई। पेट गुम्म हो गया। लगा भात नहीं बर्फ़ का पहाड़ है, धुंध में डूबा। माँ क्या खाती-पकाती होंगी। नीचे उतरकर हाट-बज़ार कर भी पाएंगी कि नहीं। कभी दिनभर जिसके रख रखाव में लगी रहती थीं, पिताजी के उसी कमरे में सांकल चढ़ी रहती होगी । कभी ताकती होंगी पहाड़ी पर अकेले खड़े उसके कमरे को भी। क्या कोई बैठता होगा अब भी वहाँ, नीचे उतरते पानी की आवाज़ सुनने के लिए। माँ नहीं चाहती थीं- कोई नीचे जाए। किसी का गाँव छूटे। पहाड़ छूटे। पर समय कइयों को बहा ले गया। फिर अचानक सुधीन्द्र सामने आ गया। वह जरूर माँ की मदद कर दिया करता होगा। पर क्या पता, कल कोई उसका भी नाम लिखा दे किसी झूठे-सच्चे केस में, कहीं पुलिस उसे भी न धर ले?

भूपेन्द्र ने प्लेट में अरहर की पीली दाल डालते हुए कहा, ‘खाओ! क्या सोच रहे हो, सूख जाएगा।’

भीतर एक धिक्कार गूँजा।

‘क्यूँ चला आया! भय था या विरक्ति?’

‘…कहाँ जाएगा?’

‘क्या करेगा?’

‘…थिएटर?’

‘कितने लोग भटक रहे हैं, इस मरीचिका के मारे।’

दाल-चावल मिलाकर दो-एक कौर गले से उतारे।

तभी संजू ने दाल का भगोना अपनी ओर खींचा और अख़बार में शाहरुख़ खान की तस्वीर को देखते हुए कहा, ‘रमाकान्त भईया, बिलकुल भी प्रोफेशनल नहीं हैं, यहाँ थोड़ा-बहुत कमर्शियल भी होना चाहिए, केवल टेलेन्ट से यहाँ कुछ नहीं होता,…थिएटर बहुत तेज़ी से बदल रहा है, दर्शक यहाँ भी वही सब देखना चाहते हैं।’

भूपेन्द्र ने मुँह का कौर रोकते हुए पूछा, ‘वही सब क्या?’

संजू ने खाते-खाते ही जवाब दिया, ‘कुछ तीखा मसाला, फिल्मों की तरह। कोरी कला या सरोकारों का अब यहाँ कोई मतलब नहीं है।’

भूपेन्द्र ने अबकी बार थोड़े कमज़ोर स्वर में विरोध किया, ‘नहीं बे, अभी भी असली क़द्रदान हैं। सोशल इश्यूस के लिए आज भी लोग इसी मीडियम की ओर देखते हैं। फिर यहीं मंझके तो निकलता है-टेलेन्ट।’

संजू फिर बोला, ‘अब कोई यहाँ तपने, या मंझने-मांझने नहीं आता। जब तक कोई सही काम नहीं मिला, तभी तक है ये- थेटर-वेटर.’

अशोक ने संजू को घूरा। बोला कुछ नहीं। न बोलने से कमरे में जैसे एक खाली जगह बन गई। वैसी ही जैसी रमाकान्त के कमरे से जाने के बाद बनी थी।

उस जगह को देखकर संजू ने अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहा, ‘भाई मैं जो देख रहा हूँ, वही बता रहा हूँ। दिन में यहाँ ‘थिएटर इज़ माई फ़र्स्ट लव’ कहके रिहर्शल करने वाले लड़के-लड़कियाँ। शाम को फैशन शॉ के ऑडिशन में लाइन लगाए रहते हैं।’

‘उनमें और रमाकान्त भईया में फ़र्क है’ अशोक ने संक्षेप में बात का पटाक्षेप करना चाहा।

पर संजू चुप नहीं हुआ। पर जैसे ही उसने बोलना शुरू किया, अशोक बीच में बोल पड़ा, ‘हुनर ताक़त है, तो कमज़ोरी भी।’

भूपेन्द्र ने आगे बोलकर बात पूरी की, ‘कई बार हुनर बस वहीं नहीं चलता जहाँ उसकी बहुत जरूरत हो। इसे देखकर कितनी बार लोग बिना बात दुश्मन भी हो जाते हैं।’

भूपेन्द्र ने जैसे कमरे में रमाकान्त के जाने से खाली हो आई जगह को भरने की कोशिश की, ‘रमाकान्त भईया को सब मानते हैं, पर भय खाते हैं उनकी प्रतिभा से, मीडियोकर्स से भरे पड़े हैं ग्रुप्स।’

भूपेन्द्र को लगा उसने खाली जगह भर दी है।

खाने के बाद भूपेन्द्र और संजू बगल के कमरे में जाकर सो गए, पर अशोक उनके जाने के बाद भी दीपांश को बहुत देर तक रमाकान्त के बारे में बताता रहा। अशोक और दीपांश एक दूसरे की ओर बिना देखे हुए ही बात कर रहे थे।

अशोक ने रमाकान्त के बारे बताते हुए कुछ ऐसे बोलना ज़ारी रखा जैसे उसकी नियति भी रमाकान्त हो जाना ही हो, ‘लोग उनके लिए अक्सर ही कहा करते हैं कि वे अपने समय के एक बेहतरीन अभिनेता हैं। कितने लोग उनसे मंच के गुर सीख कर कहाँ से कहाँ पहुँच गए।’

उसने फोल्डिंग पलंग पर पड़ी रमाकान्त की तस्वीरों के लिफ़ाफ़े को कोने में स्टूल पर रखते हुए आगे कहा, ‘अब तो लगातार बीतता समय भी उन्हें ठहरा हुआ लगता है।’ अब उसकी आवाज़ में किसी अदृश्य चीज़ के लम्बे इन्तज़ार के बाद की ऊब भर गई थी।

दीपांश दीवार पर लगे एक पुराने पोस्टर को देख रहा था। जिसमें नदी पूरे प्रवाह से बही जा रही थी। ‘नदी के चित्र में प्रवाह का आभास मात्र होता है, पर चित्र तो सदा-सदा के लिए नदी की गति को कैद कर लेता है। नदी का चित्र, नदी के प्रवाह को मिली, आजीवन कैद ही तो है। देखने वाला कहेगा ‘वाह! यही प्रवाह, यही वेग तो, जीवन का वेग है।’, पर बहते पानी का चित्र स्थिर है। तटस्थ है।’ दीपांश ने मन ही मन सोचा पर कहा नहीं। उसे लगा शायद एक कलाकार का जीवन कुछ ऐसा ही होता हो।

अशोक अभी भी छत की तरफ़ देखते हुए बोले जा रहा था, ‘लोग उनके अभिनय को देखकर कह उठते हैं, ‘अरे इन्हें तो वहाँ होना चाहिए, यह तो फ़लां अभिनेता की छुट्टी कर देगें।’’

अशोक की बातों से एक ऐसे आदमी की धुंधली-सी तस्वीर दीपांश के सामने उभरने लगी जिसमें सचमुच ही तेज़ी से बदलते समय में उसके गुण ही, उसके दोष बनते चले जा रहे थे। उसका हुनर उसके घर की जरूरतों को खेने के लिए पतबार नहीं बन पा रहा था और उसे अभिनय के सिवा कुछ और आता भी नहीं था। वह जैसे एक पुल थे जो सबको पार ले जा सकता था, पर दोनो किनारों को छूते हुए मझधार के ऊपर अधर में टिके रहना उनकी नियति बन गई थी। वह इसी तरह सफलता-असफलता के बीच से बहती समय की नदी को देखते रहते थे। दीपांश को लगा वह अशोक को बीच में रोक कर कहे कि शायद रमाकान्त ये जानते हैं कि वह जिस बहते पानी की छवि हैं, वह लहर, वह पानी बहुत आगे निकल गया है। यह सब देखते हुए उनकी आँख़ों के सामने से उनकी एक उम्र गुज़र गई है। पर वह इस बार भी चुप ही रहा फिर सोचने लगा कि उस आदमी में कुछ तो है जो इस बदलते समय की आँधी में भी उसने अपने भीतर समेट कर नष्ट होने से बचा लिया है। उसने कुछ कहने के लिए अशोक की ओर देखा तो पाया कि वह सो चुका है। शायद तब तक रमाकान्त भी लाजपत नगर में अपने बरसाती वाले घर के आगे के कमरे में सो ही चुके होंगे।

पर दीपांश उस रात बड़ी देर तक जागता रहा। मन कर रहा था उठकर वहाँ से निकल भागे। किसी भी दिशा में चल दे और बिना मुड़े चलता चला जाए....

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