Domnik ki Vapsi - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 13

डॉमनिक की वापसी

(13)

बाज़ार कला पर चढ़ा जा रहा था, या कला बाज़ार में घुसकर ख़ुद अपनी बोली लगा रही थी, कहना मुश्किल था। लगता था दोनो एक दूसरे से उलझ रहे हैं और हारना कोई नहीं चाहता। पर इतना तो तय हो ही चुका था कि इस समय में, एक दूसरे के बिना, दोनों में से किसी का निर्वाह संभव नहीं है। और शायद इसीलिए...

ऑडिशन वाले दिन, ऑडीटोरियम के बाहर खासी चहल-पहल थी।

लॉबी में विश्वमोहन, रमाकान्त और दो नए चेहरे, एक स्त्री-एक पुरुष, टेबल को घेर कर बैठे थे। अब तक के ऑडिशन में जो भी अभिनय के नाम पर वहाँ अपना जौहर दिखा कर गए थे। वे उससे उबे हुए थे। जो लोग चुन लिए गए थे, वे अपने चेहरों पर सफलता का भाव लिए अलग पंक्ति में दाहिनी तरफ़ सीढ़ियों पे बैठे थे, उनमें अशोक और शिमोर्ग भी थे। इति टेबल के पास खड़ी, कोई नम्बर मिला रही थी। भूपेन्द्र ने कुछ दिनों तक किसी ऑडिशन में भाग न लेने का निर्णय किया था। इसलिए वह इस सबसे अलग आखिरी सीढ़ी पर बैठा था। बाईं तरफ़ अभी ऑडिशन के लिए बचे रह गए दो चार लोगों में दीपांश भी था।

टेबल पर बैठे दो नए लोगों में से पुरुष, जिसका नाम सेतिया था, जो अब तक सबको पता चला चुका था, बहुत बेचैन होकर, खड़ा हो गया। उसने स्त्री की ओर देखते हुए कहा, ‘बस अब ख़त्म करते हैं, मिसेज़ भसीन, नाउ सिम्पली, वी आर वेस्टिंग अवर टाइम।’

रमाकान्त ने विश्वमोहन की ओर देखते हुए कहा, ‘एक बार दीपांश से करा के देखते हैं। मैंने उसे लाइन्स दे दी थीं।’

विश्वमोहन ने गहरे आश्चर्य से देखा, ‘अभी उसे दो दिन भी नहीं हुए हैं।’

रमाकान्त ने इशारे से दीपांश को बुलाया। उन्होंने बिना विश्वमोहन की ओर देखे कहा, ‘दो मिनट की बात है, जैसे इतनों ने बोला है, इसे भी बोल लेने दो।’

तब तक सेतिया के इशारे पर मिसेज भसीन भी घड़ी देखती हुई खड़ी हो गईं। दीपांश उनको जाता देखकर अपनी जगह ठिठक गया। तभी रमाकान्त ने उसे शुरु करने का इशारा किया। उसके हाथों में और लोगों की तरह संवादों का पर्चा नहीं था। उसने बाईं तरफ़ ज़मीन पर बैठी एक लड़की के हाथ से ढपली ले ली।

अगले पल लगा, ढपली बजी नहीं, पहाड़ टूटा, बड़े-बड़े पत्थर भारी गर्जना के साथ लुड़कते हुए नीचे गिरने लगे। थाप थमी तो शब्द फूटने लगे। उसने क्या कहा-क्या नहीं, उसे पता नहीं चला। कनपटियाँ लाल हो गईं। कान के पीछे से गर्दन तक पसीना बह आया। लगा उसने किसी अदृश्य शत्रु से, किसी हारे हुए समूह का बदला ले लिया।

बतियाते हुए लोग चुप हो गए। उठ के जाते हुए रुक गए।

रमाकन्त और विश्वमोहन खड़े हो गए। सेतिया और मिसेज भसीन के चेहरों की सहमति की मुद्रा से पता चला कि दीपांश को चुन लिया गया है। पर जब घण्टे भर बाद सबको यह बताया गया कि किसको कौन सी भूमिका के लिए चुना गया है तो जैसे लोगों को विश्वास नहीं हुआ। सबसे ज्यादा अचरज़ शिमोर्ग को हुआ कि विश्वमोहन के नए नाटक ‘डॉमनिक की वापसी’ में उसके साथ डॉमनिक के मुख्य किरदार के लिए दीपांश को चुना गया है। वह इस बात से यकायक कुछ अन्यमनस्क हो उठी थी। उसे रह रहकर यही लग रहा था, ‘अभी कल-परसों ही तो आया था ये!’

दो दिन बाद रिहर्शल शुरु हुई।

इस बार ग्रुप को सेतिया और मिसेज भसीन के रूप में ऐसे कोर्डिनेटर मिल गए थे जिन्होंने प्ले को अच्छे खासे स्पॉन्सर्स दिला दिए थे। जिन लोगों को चुन लिया गया था वे खासे उत्साहित थे क्योंकि इस बार सबको शुरुआत में ही कम से कम इतने रुपए भी मिल गए थे जिससे नाटक के मंचन तक वे सब दिल्ली में बने रहें और समय से रिहर्शल्स में हिस्सा ले सकें। साथ ही रिहर्शल्स शुरू होते ही सेतिया ने यह भी घोषणा कर दी थी की जल्दी ही वह अपनी एक फिल्म भी लॉन्च करने वाला है और निश्चय ही उसके लिए कुछ आर्टिस्ट वह विश्वमोहन के इस ग्रुप से जरूर लेगा। हालाँकि मिसेज भसीन जो कई सौन्दर्य प्रसाधन कम्पनियों के विभिन्न उत्पादों की विज्ञापन फिल्मों के लिए मॉडल्स अरेन्ज करती थीं, ने इसे बेकार आइडिया बताया था। उनका मानना था कि फिल्म और थिएटर दोनो बिलकुल अलग तरह के माध्यम हैं और उन्हें इस तरह मिक्स नहीं करना चाहिए। उनका मानना था कि फिल्म, थिएटर और मॉडलिंग में जाने वाले लोगों की पर्स्नेलिटी में कुछ बेसिक डिफरेन्स होते हैं। इस ‘बेसिक डिफेरेन्स’ को उस दिन जब उन्होंने यह बात कही थी तब भूपेन्द्र ने अशोक की सुविधा के लिए उसे हिन्दी-उर्दू में अनुदित करके ‘मूलभूत अन्तर’ तथा ‘बुनियादी फ़र्क’ कहके समझा दिया था। मिसेज भसीन ने लोगों में इन गुणों की शिनाख़्त करने के लिए और साथ ही अपने अनुभव को सिद्ध करने के लिए, संजू यानी संजय कपूर को दूर से ही पहचान लिया था कि वह एक्टर नहीं मॉडल है और उस दिन के बाद संजू मिसेज भसीन के आगे-पीछे चक्कर काटने लगा था।

तीन महीनों की सभी की रात-दिन की मेहनत के बाद, वह दिन भी आया जब ‘डॉमनिक की वापसी’ का मंचन हुआ। विश्वमोहन के निर्देशन में दीपांश ने डॉमनिक की, शिमोर्ग ने एलिना की और रमाकान्त ने रॉबर्ट की प्रमुख भूमिकाएं निभाईं। अशोक को भी कॉन्स्टेबल का एक महत्वपूर्ण क़िरदार निभाने को मिला।

नाटक का पहला ही शो बहुत हिट हुआ। बहुत दिनों बाद किसी नाटक ने लोगों पर इतना असर छोड़ा था। दिल्ली में मिली सफलता के बाद इसे, कई और शहरों में भी ले जाया गया। विश्वमोहन की जगह-जगह तस्वीरें छपीं, साक्षात्कार आए। पर एक चीज़ जो धीरे-धीरे बिना किसी शोर-शराबे के दर्शकों के दिल-दिमाग में अपनी जगह बना रही थी, वह थी दीपांश की अदाकारी, उसका अभिनय। हालाँकि वह जो बोझ लिए पहाड़ से उतरा था, उसके साथ यह सब करना आसान नहीं लग रहा था। पर ढलान और फिसलन भरे रास्तों पे चलना उसे आता था। मेहनत से देह टूटती नहीं, खुलती थी। न दर्द उधार लेना था। न बेगाना होकर हँसने की अदा। अपने ही दर्द पर हँसता तो देखने वालों की आँख नम हो जाती। रुआँसा होकर रोशनी पर आँखें टिका देता तो चेहरा आइना हो उठता, लोग अपने दुख उसकी आँखों में देखने लगते। उनकी अपनी कहानी उनके सामने आ खड़ी होती। जिसने मुहब्बत न भी की होती उसमें भी ऐसी चाह उछाह लेने लगती की वह लम्बी साँस भरे बिना न रह पाता। वॉयलिन बजाता, अंधेरे में डूबता ‘डॉमनिक’ सबके मन में उतरता जाता। लोग पर्दा गिर जाने के बाद भी अपनी जगह पर खड़े तालियाँ बजाते रहते।

दिल्ली के बाद बाहर भी कई जगह मंचन हुआ। तीन हफ़्ते के लम्बे टूअर के बाद सभी को दो हफ़्ते का ब्रेक मिला था। सब नाटक की सफलता को लेके आशवस्त थे पर दीपांश रोज़ सुबह ऑडिटोरियम के खुलते ही वहाँ पहुँच जाता। इससे पहले की शाम के किसी अन्य कार्यक्रम के लिए वहाँ और लोगों की आवाजाही शुरू हो, वह अकेला ही कभी अपने डॉयलोग दोहराता, कभी मंच पर निशान लगाकर अपनी एन्ट्री करेक्ट करता। कभी खाली कुर्सियों के आगे बैठा वॉयलिन बजाता। और जब इस सबसे थक जाता तो सामने की सरकारी लाइब्रेरी में जाकर पुरानी किताबों की धूल झाड़कर उनमें से अपने लिए नाटक, संगीत या अभिनय से जुड़ी कोई किताब ढूँढ निकालता और लाइब्रेरी बंद होने तक उसमें सिर गड़ाए बैठा रहता।

वह रविवार की सुबह थी।

अगला शो दिल्ली में ही होनेवाला था। शिमोर्ग ने कॉस्टयूम में कुछ चेन्जस कराए थे जिन्हें लेके डिजायनर के साथ इति को ऑडिटोरियम के गेट पर ही मिलना था। इति के ऊपर और भी कई जिम्मेदारियाँ थीं। मसलन विश्वमोहन की पत्रकारों के साथ बातचीत की व्यवस्था करने आदि की, इसीलिए शायद उसे आने में थोड़ी देर हो गई थी। इति को बाहर गेट पर न पाकर, शिमोर्ग अकेली ही अंदर चली गई।

भीतर पहुँचकर शिमोर्ग को आश्चर्य हुआ कि सण्डे के दिन, सुबह-सुबह, यहाँ ये सब क्या हो रहा है? स्टेज पर मद्धिम प्रकाश था। कहीं हल्के से वॉयलिन बज रही थी। तभी दीपांश वॉयलिन के साथ मंच पर प्रकट हुआ। शिमोर्ग अंधेरे में हॉल के बीच बने एक गोल खंबे के पीछे खड़ी हो गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि बिना किसी शेड्यूल के दीपांश अकेला वहाँ कर क्या रहा है। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। दीपांश अकेला ही मंच पर ‘डॉमनिक की वापसी’ के सारे किरदार निभा रहा था। वह अपने ही नहीं सभी पात्रों के संवाद- उनके रिएक्शन्स के साथ डिलीवर कर रहा था। पहले शिमोर्ग को लगा वह इस सबकी शिक़ायत विश्वमोहन से जरूर करेगी। पर तभी उसे लगा जैसे उसके सामने मंच पर जो हो रहा है, वह किसी जादू से कम नहीं है। दीपांश शिमोर्ग द्वारा अभिनीत एलिना के किरदार को भी ऐसे निभा रहा था जैसे शायद ख़ुद शिमोर्ग भी आज तक नहीं निभा सकी थी। एक पल को उसे लगा, ये आदमी पागल है। उसने पहली बार अपने किरदार को मंच के नीचे से किसी और के द्वारा अभिनीत होते हुए देखा था। यह सब देखकर वह इस क़दर बेचैन थी कि उसने इति का इन्तज़ार भी नहीं किया और बिना किसी से कुछ कहे वहाँ से चली आई।

अगले दिन सुबह दीपांश कमरे पर अकेला ही था। रमाकान्त के उसी कमरे पर जो अब पहले से थोड़ा ज्यादा व्यवस्थित और लगभग पूरी तरह दीपांश का हो चुका था। कमरे के एक कोने में वॉयलिन टिकी थी। सामने की दीवार पर ठुकी कील से ढपली टंगी थी। बगल के कमरों में सन्नाटा था। संजू और अशोक अपने किसी काम से निकल चुके थे। भूपेन्द्र साथ के कमरे में अभी सो ही रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। दीपांश को आश्चर्य हुआ! क्योंकि वहाँ किसी के कमरे में खटखटाकर आने का चलन नहीं था। सब एक दूसरे के कमरे में बेरोक टोक, बिना किसी आहट के सीधे घुस आया करते थे।

दीपांश ने सिर उठाके देखा तो सामने गुलाबी टॉप और नीले रंग की जीन्स में शिमोर्ग खड़ी थी। वह उस दिन और दिनों से ज्यादा सुंदर दिख रही थी। दीपांश ने उसे अचानक वहाँ देखा तो समझ नहीं सका कि क्या कहे। वह बिस्तर झाड़ता हुआ, बालों पर हाथ फेरता खड़ा हो गया। उसके एक हाथ में अभी भी कुछ क़ाग़ज़ थे।

शिमोर्ग ने अंदर आते हुए कहा, ‘सॉरी बिना पूछे ही आ धमकी, डिस्टर्ब तो नहीं किया’

‘नहीं, बिलकुल नहीं’ दीपांश ख़ुद को सहज करने की कोशिश करते हुए बोला।

शिमोर्ग ने उसकी असहजता भाँपते हुए कहा, ‘तुम्हारे चेहरे से तो ऐसे लग रहा है जैसे हम पहली बार मिल रहे हों। कोई दूसरा देखके कह नहीं सकता कि हम प्ले में एक दूसरे के प्रेमी-प्रेमिका की भूमिका निभा रहे हैं।’

‘नहीं ऐसा नहीं है, तुम्हें यहाँ यूँ अचानक देखा तो…’

‘क्यूँ! मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था, …क्या करती? तुमने तो कभी बुलाया नहीं, … सोचा मैं ही जाके मिल लूँ, खैर छोड़ो, ये बताओ अभी क्या कर रहे हो?’

‘इति के शोध के लिए, भारतीय लोक नाट्य से जुड़े कुछ नोट्स तैयार कर रहा हूँ।’

‘हम्म…, तो इति के एहसान का बदला चुकाया जा रहा है।’

‘वो कैसे? इति तो सबके लिए कुछ न कुछ करती ही रहती है। सोचा मैं भी उसकी थोड़ी मदद कर दूँ.’

‘राईट, पर तुम्हारे लिए तो वो कुछ एक्स्ट्रा ही करती है’

दीपांश को कोई जवाब न सूझा तो मुस्करा दिया।

दीपांश की मुस्कराहट ने जैसे अंजाने ही शिमोर्ग के चेहरे पर उभर आई हल्की-सी ईर्ष्या की लकीर को काट दिया। दीपांश ने उस लकीर को बनते और मिटते नहीं देखा पर वह लकीर शिमोर्ग के चेहरे पर उभरी थी, यह बात वह ख़ुद एक अभिनेत्री होने के नाते अच्छे से जानती थी। इसलिए उसने चेहरे के भावों को तेज़ी से बदलते हुए कहा, ‘इतने अच्छे मौसम में, ये क्या इतना बोरिंग काम लेके बैठे हो।’

‘नहीं इन्टेरेस्टिंग है, और वैसे भी पढ़ना मुझे पसंद है।’

शिमोर्ग ने बिस्तर पर बैठते हुए कहा, ‘पर फिर भी तुम इस सबके लिए नहीं बने हो।’

‘अच्छा! तो किस के लिए बना हूँ?’

‘ह्म्म्म्…, प्रेम के लिए।’

‘………’

‘मेरा मतलब है- प्रेम, उसका अभिनय, यही तुम्हारी पहचान है।’

‘सिर्फ़ प्रेम, या सिर्फ़ प्रेम के अभिनय से तो काम नहीं चलता।’

‘तो और क्या करने का इरादा है?’

‘कुछ लिखना चाहता हूँ।’

‘अच्छा! तो एक नाटक लिखो, इससे बेहतर, इससे आगे का, पर मैं दावे से कह सकती हूँ, होगा प्रेम पर ही।’

दीपांश चुप रहा।

‘यस, आइ केन बेट। क्योंकि तुम प्रेम और सिर्फ़ प्रेम के लिए बने हो,

दीपांश ने बात बदलने के लिए कहा, ‘मैं चाय बनाता हूँ।’

‘नहीं वो सब छोड़ो। मैं आज एक स्पेशियल काम से आई थी।’

‘वो क्या?’

‘तुम्हें तुम्हारे काम के लिए कॉम्पलीमेन्ट देने, वो भी तुम्हारे पास आकर।’

‘थैन्क्यू…, वैसे वह तो हम सबकी कोशिश का नतीजा है’

‘हाँ, फिर भी मैं तुम्हें बताना चाहती थी कि जब तुम अभिनय करते हो तो लगता है कि वह अभिनय नहीं है, तुम उसे जी रहे हो। इसीलिए उस क्षण में तुमसे प्रेम किए बगैर कोई रह ही नहीं सकता। जानते हो जब तुम अपने डॉयलॉग बोल रहे होते हो तो मैं बहुत डिस्टर्ब हो जाती हूँ। कई बार तो अपने डॉयलॉग्स भूल जाती हूँ।’ लगा जैसे कई दिनों से भीतर अटकी बात शिमोर्ग ने बड़ी कोशिश करके एक झटके में कह डाली हो।

दीपांश के चेहरे पर बिना कुछ कहे ही प्रश्न उभर आया, ‘क्यूँ?’

‘बिकॉस यू आर सो रियल। मैं ही नहीं दर्शक भी जब तुम्हें देख रहे होते हैं तो उन्हें कुछ और जैसे दिखता ही नहीं है और लड़कियां खास तौर से। उन्हें देखके तो लगता है वे उस समय सब कुछ भूलकर सिर्फ़ तुम्हारे बारे में सोच रही होती हैं।’

‘तुम कैसे जानती हो कि वे मेरे बारे में ही सोच रही होती हैं?’

‘मैं जानती हूँ, उस समय उनके मन में क्या चल रहा होता है।’

‘…और उस समय तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है?’

‘वो नहीं बताउंगी, तुम्हें गैस करना होगा।’

दीपांश ने मुस्करा कर बात से निकलने के लिए कुछ कहना चाहा पर उसमें कहीं टीस जैसा कुछ फूट ही पड़ा, ‘मैं तो एक पुरुष की तरह ही पढ़ सकूँगा, एक स्त्री की तरह तो नहीं, मैं अक्सर चीज़ों को गलत ही समझ बैठता हूँ, इसलिए तुम्हीं बता दो।’

‘हम्म…, सच कहूँ? उस समय मुझे तुम्हारे अभिनय और उस पर दर्शकों के रिएक्शनस देखके बहुत ईर्ष्या होती है।’

‘ईर्ष्या! वो तो मुझे होनी चाहिए। तुम लोगों का इतना अच्छा मेकअप! इतने सुंदर कॉस्ट्यूम! उन सबके सामने मैं कितना साधारण और दयनीय लगता हूँ। बाहर भी फटीचर, नाटक के भीतर भी फटीचर।’ दीपांश ने मुस्कराते हुए कहा।

‘नहीं ऐसा नहीं है। सच कहती हूँ। जिस दृश्य में तुम नहीं होते उसमें जैसे सब कुछ होते हुए भी किसी चीज की कमी होती है।’ अभिनय था, या सच्ची अभिव्यक्ति पर इस बार शिमोर्ग की बात ने दीपांश को छू लिया था।

शिमोर्ग ने पलंग पर बैठते हुए, सामने की दीवार पर टंगी एक ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीर देखकर पूछा, ‘ये तुम्हारे पेरेन्ट्स हैं?

दीपांश ने सिर्फ ‘हुम्म’ का हुँका भरते हुए एक लम्बी सांस छोड़ी.

शिमोर्ग ने तस्वीर को ध्यान से देखते हुए कहा, ‘तुम बिलकुल अपने फादर की तरह लगते हो। बस आँखें माँ के जैसी हैं। कहाँ हैं ये लोग?’

‘पिता जी अब नहीं हैं। माँ गाँव में हैं।’

‘फिर इस ब्रेक में गाँव क्यूँ नहीं गए?’

‘............’

शिमोर्ग को लगा उसके प्रश्न ने दीपांश को उदास कर दिया, इसलिए वह बात बदलते हुए बोली, ‘...और आगे के क्या प्लान्स हैं?’

दीपांश मुस्करा दिया।

‘अरे तुम हँस रहे हो? सीरियसली मैं जानना चाहती हूँ।’

दीपांश कुछ जवाब सोचता उससे पहले भूपेन्द्र कमरे में आ गया। वह जिस हाल में कमरे में आया था, उसपर दीपांश कुछ कहता कि उससे पहले ही वह बड़ी फुर्ती से कमरे से बाहर निकल गया। उसके बाद पेन्ट पहन कर फिर कमरे में नमूदार हुआ और आँखें मलते हुए बोला, ‘वो क्या है कि यहाँ ज्यादा कोई आता-जाता नहीं तो…’ उसकी शक्ल देखके दीपांश और शिमोर्ग दोनो हँस दिए और अपनी झेंप मिटाने के लिए वह चाय बनाने के बहाने वहाँ से खिसक गया।

उसके जाते ही शिमोर्ग ने ढपली कील से उतारकर अपनी गोद में रखते हुए कहा, ‘मैं हिमाचल की हूँ और दिल्ली के इस शो के बाद अगला शो हिमाचल में है, मेरे अपने शहर मंडी में। मैं चाहती हूँ, मण्डी में तुम मेरे घर रुको।’

‘पर…?’

‘पर-वर कुछ नहीं। मुझे मालूम है तुम्हें पहाड़ों से बहुत लगाव है। हिमाचल के पहाड़ देखोगे तो अपना गाँव भूल जाओगे। वैसे एक बात बताऊँ, यू आर क्वाइट सिमीलर टू माइ फादर।’

दीपांश कुछ कहता तब तक भूपेन्द्र अपनी काली चाय के साथ कमरे में आ गया। तीनों ने साथ बैठकर चाय पी और फिर दीपांश और भूपेन्द्र शिमोर्ग को छोड़ने गली के बाहर तक चले आए।

सड़क पर पहुँचकर भूपेन्द्र ने दीपांश को इशारे से दिखाया- दूसरी तरफ़ मिसेज भसीन की लम्बी गाड़ी संजू को उतार कर वापस मुड़ रही थी। गाड़ी में ड्राइवर के अलावा मिसेज भसीन भी थीं या नहीं। यह गाड़ी के शीशे काले होने के कारण बाहर से नहीं दिख रहा था। भूपेन्द्र ने संजू को देखते हुए कहा, ‘लगता है मिसेज भसीन ने मॉडल संजय कपूर के भीतर के मूल तत्व को पहचान लिया है।’

दीपांश ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी पर शिमोर्ग भूपेन्द्र की बात सुनकर, मिसेज भसीन की ऑडिशन के समय कही बात याद करके मुस्करा दी। उस दिन के बाद से शिमोर्ग को ऐसा लगा था जैसे दीपांश उसके साथ पहले से ज्यादा सहज हो गया था।

इसी बीच सुधीन्द्र गाँव से दिल्ली आया था. वह दीपांश को मुस्कराता देख जितना खुश था, गाँव के बदलते हालातों से उतना ही दुखी. पर उसने वहाँ के बारे में कुछ ख़ास बात नहीं की थी. पर जितना कुछ भी बताया था उसे कहते हुए उसका चेहरा बुझने लगता था. दीपांश ने जल्दी ही कुछ और पैसे का इन्त्जाम होते ही उसे माँ के साथ दिल्ली बुला लेने की बात कही थी. शिमोर्ग ने सुधीन्द्र को अपने साथ करोलबाग मार्केट ले जाकर उसके और दीपांश की माँ के लिए कुछ जरूरत के सामानों की खरीदारी करवाई थी. सुधीन्द्र जाते-जाते दीपांश से शिमोर्ग की बड़ी तारीफ़ करके गया था.

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