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अश्लील क्या है.. नज़रिया या कपड़े??


एक शब्द है जिस पर अक्सर ही बहुत सारे विचार पढ़ने या सुनने को मिलते हैं..
और वो शब्द है 'अश्लीलता'
अगर चर्चा अश्लीलता पर होगी तो महिलाओं का ज़िक्र होना स्वाभाविक है।

कुछ समय पहले मलयालम मैगज़ीन में कवर पेज पर एक मॉडल की तस्वीर छपी थी। जिसे अश्लील कहा गया। और इस मुद्दे ने काफी तूल भी पकड़ी थी। उस तस्वीर में मॉडल एक बच्चे को दूध पिला रही थी। हैरत की बात यह है कि सभ्य समाज ने इसे अश्लीलता के अंतर्गत रखा। इसमें अश्लील क्या था? महिला द्वारा दूध पिलाना या कवर पेज पर आना?

मैंने अक्सर ही लोगों को कहते सुना है कि वर्तमान समय में महिलाएं स्वयं को आधुनिक दिखाने के लिए अश्लीलता पर उतर आई हैं। वह कम कपड़े पहनकर अंग प्रदर्शन करती हैं। तो क्या कम कपड़े पहनना/छोटे कपड़े पहनना अश्लीलता है? या आधुनिक कपड़े पहनना अश्लीलता है?
नहीं! शायद कपड़े ना पहनना (महिलाओं द्वारा) अश्लीलता है।
यहाँ 'महिलाओं द्वारा' विशेष रूप से इसलिए लिखा गया, क्योंकि हमारा सभ्य समाज 'अश्लील' शब्द को केवल महिलाओं से ही जोड़ता है। पुरुषों का बिना कमीज़ पहने घूमना, शॉर्ट्स में घूमना, कहीं भी कभी भी कपड़े उतार के घूमना अश्लीलता में नहीं आता।

तो ये बात तो तय है कि अश्लीलता का पुरुषों से बिल्कुल भी संबंध नहीं है। इस शब्द का निर्माण केवल महिलाओं के लिए हुआ है। मगर एक बात मेरी समझ में नहीं आती की अश्लीलता शब्द का उद्भव कैसे हुआ..? क्योंकि ये ईश्वरीय रचना तो नहीं है। क्योंकि अगर अश्लीलता ईश्वर का रचा शब्द है, तो जब बच्चे का जन्म होता है, तब वह कपड़े पहनकर पैदा क्यों नहीं होता? मतलब इस शब्द को ईश्वर ने नहीं हम इंसानों ने बनाया है। और अपनी सहूलियत के लिए केवल महिलाओं के लिए प्रयोग करते हैं। मगर इसकी परिभाषा किसी को नहीं पता।

लोग अक्सर ही महिलाओं के कपड़ों पर तंज करते हुए कहते हैं कि अगर महिलाएं ढंग के कपड़े पहनें अर्थात सीधे तौर पर पूरी तरह से ढके हुए कपड़े पहनें तो महिलाओं की अस्मिता पर प्रहार नहीं होगा उनके साथ छेड़छाड़ जैसे घिनोने अपराध नहीं होंगे।
इस बात का अर्थ आप सभी समझ गए होंगे की इन अपराधों की वज़ह केवल महिला के द्वारा पहने हुए कपड़े हैं। पुरुष कैसे भी नंग-धड़ंग घूम सकते हैं। इससे महिलाओं को या सभ्य समाज को आपत्ति नहीं है। अर्थात यह सोच दोहरी मानसिकता का प्रमाण है।

लेकिन ऐसा भी नहीं है की केवल भारतीय समाज में ही यह दोहरी सोच देखने को मिलती है। बल्कि आधुनिक समझा जाने वाला पश्चिमी समाज भी इस सोच से, इस मानसिकता से, पूरी तरह मुक्त नहीं है। शायद इसलिए वहाँ भी 'गो टोपलेस' या 'स्लटवॉक' जैसे आंदोलन होते रहते हैं। लेकिन इतना ज़रूर है की पश्चिमी समाज हमारी तुलना में कपड़ों से हटकर दूसरे मुद्दों पर ज़्यादा सक्रिय है। वहां कपड़ों पर बहस नहीं होती। वहां के देशों में महिलाओं से छेड़छाड़, उनके कपड़ों पर तंज करना, उनको घूरना जैसे अपराध कम ही होते हैं, या ना के बराबर। और महिलाएं भी शायद उतना असहज महसूस नहीं करती, जितना हमारे यहाँ।

और उन देशों में महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए उनके कपड़ों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाता है। शायद इसका कारण यह है की, वहाँ पुरुष, महिलाओं को पहले से ही छोटे कपड़ों में घूमते, स्विमिंग पूल में नहाते और खुली जगह पर कम कपड़ों में धूप सेकते देखते आए हैं, इसलिए उनके लिए यह कोई कौतूहल का विषय नहीं है।

हमारे देश में भी अनेक आदिवासी महिलाएं नाम मात्र के कपड़े ही पहनती हैं, लेकिन वहां पुरुषों को महिलाओं के कपड़ों में या उनको घूरने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

ऐसी अनेक तथ्य पूर्ण बातें हैं।
यह बात कितनी सही है पता नहीं..लेकिन कई जगह पढ़ा है की अंग्रेजों के आने से कुछ समय पहले तक भारत में कई जगहों पर महिला और पुरुष ऊपर का वस्त्र पहनते ही नहीं थे।
यदि ऐसा है तो आज ये हालत कैसे हो गई की महिलाओं के कपड़े ही हमारे लिए उनके चरित्र का पैमाना बन गए..?

मगर क्या महिलाओं द्वारा घूँघट करने, या खुद को पूरी तरह से ढकने, बुर्का पहनने आदि से उनको पूरा सम्मान मिलता है? क्या तब वह सुरक्षित हैं? क्या यह सब करने से महिलाओं के प्रति पुरुषों में आसक्ति का भाव नहीं होता है, श्रद्धा का भाव होता है।

बिल्कुल भी नहीं..

क्योंकि कपड़ों का किसी भी छेड़छाड़, या अप्रिय घटना से कोई लेना देना नहीं है। यह 'मैं' नहीं कह रही, यह हर वह घटना कह रही है जिसमें लड़की के साथ होने वाला दुर्व्यवहार कपड़ों से संबंधित नहीं था। क्योंकी घटना किसी भी उम्र और किसी भी तरह के कपड़े पहनी हुई लड़की के साथ हुई है और कुछ समय पहले ही समाचार पत्रों में ऐसी ही खबर एक पुरुष से सम्बंधित थी। जिसमें पुरुष का अन्य पुरुषों ने शोषण किया था।
दरअसल किसी के भी साथ हुए अपराध का कपड़ों से सम्बंध नहीं होता। यह केवल खराब मानसिकता और घटिया सोच, नीचता का परिणाम है।

मगर सभ्य समाज हमेशा ही महिलाओं में कमियां निकाला करता है। अश्लीलता कपड़ों में नहीं, नज़र में है। वरना कम कपड़े तो पुरुष भी पहनते हैं। तो महिलाएं उनके साथ दुर्व्यवहार क्यों नहीं करतीं और अगर कपड़े अश्लीलता की वज़ह हैं तो उसमें पुरुष वर्ग शामिल क्यों नहीं है? यह पैमाना किस आधार पर है?

संस्कार, मर्यादा तो हर इंसान में होना चाहिए। इसका महिला या पुरुष में कोई भेदभाव नहीं है।
मगर कोई किसी के पहनावे पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता, जिसका शरीर है वही तय करेगा उसे क्या पहनना है। समय के साथ कई चीजों को लेकर सोच बदली है। जैसे कुछ साल पहले तक किसी महिला के स्लीवलेस कुर्ता या जींस आदि पहनने से ही दूसरों की नज़रें टेढ़ी हो जाती थीं। और खुद महिला भी भीड़ में असहज महसूस करती थी, पर अब ऐसा कम ही होता है, या शायद होता ही नहीं है। एक सोच और बदलनी बाकी है कि कपड़े किसी का चरित्र तय नहीं करते।

कपड़े किसी को उकसाते नहीं हैं, कपड़ों से चरित्र का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
क्या यह संभव है कि स्वयं के घर की महिलाओं के कपड़ों को अश्लीलता के पैमाने से मापा जाये। क्या घर की महिला के कपड़े उस घर के पुरुष को उकसा सकते हैं.. नहीं! मगर क्यों? क्योंकि हमारी मानसिकता केवल दूसरी महिलाओं के लिए ख़राब है। उनके कपड़े भड़काऊ लगते हैं।

सीधे तौर पर हमारी सोच ही ख़राब है। अपराध एक ग़लत सोच का परिणाम है। एक ओछी सोच/ मानसिकता का परिणाम है। कपड़ों का अपराध में कोई योगदान नहीं है।
हाँ, मैं मानती हूँ कि अनेक बार महिलाएं जगह के हिसाब से ग़लत कपड़े पहन लेती हैं, जो कि अच्छे नहीं लगते।
मगर कपड़ों से अश्लीलता का कोई संबंध नहीं है।
कपड़े भद्दे हो सकते हैं, अजीब हो सकते हैं, यहां तक कि कपड़े महिला पर गन्दे लग सकते हैं, मगर वह अश्लील कभी नहीं होते। और ना ही किसी अप्रिय घटना की वज़ह।