Domnik ki Vapsi - 22 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 22

डॉमनिक की वापसी

(22)

विश्वमोहन दीपांश को उसकी गुस्ताखी पर डांटना चाहते थे.

पर उससे मिलने के लिए भीड़ उमड़ी पड़ रही थी. दर्शकों ने उसे घेर लिया था. वे उससे मिलने के लिए पागल हुए जा रहे थे. शिमोर्ग और रमाकांत भी भीड़ से घिरे मुस्करा रहे थे. दीपांश तक पहुँचना मुश्किल था इसलिए रेबेका दूर से ही हाथ हिलाकर उसे बधाई देकर चुपचाप थिएटर से बाहर आ गई थी.

बाहर निकलने पर विश्वमोहन को पत्रकारों ने घेर लिया था.

रेबेका थिएटर से बाहर आकार भी दीपांश के अभिनय के प्रभाव से बाहर नहीं आ पाई थी सो दीवार पर लगे बड़े से पोस्टर में दीपांश को देखके ठिठक गई. ‘इन बड़ी-सी उदास आँखों में कोई अदृश्य चुम्बक है बिलकुल पहाड़ों के जैसा जो बिना कुछ कहे अपनी ओर खींचता है.’ यह सोचते हुए वह अपने में ही मुस्कराई. यह नाटक वह पहले भी देख चुकी थी पर आज न जाने क्यूँ उसे दीपांश से मिलके उसे बधाई देना बेहद जरूरी लग रहा था और ऐसा न कर पाने से वह थोड़ी निराश हुई थी. एक झटके में थिएटर से निकलकर वह यहाँ से दूर चली जाना चाहती थी. सोचा था बाहर निकलते ही कोई ऑटो मिल जाएगा. पर आज सवारियाँ ज्यादा थीं या साधन कम, उसे चौराहे तक चले आने पर भी कोई ऑटो नहीं मिला था. इसलिए वह पैदल ही चौराहा पार करके एलटीजी की बगल की सुनसान पड़ी लेन से कस्तूरबा गांधी मार्ग की तरफ बढ़ने लगी थी.

तभी उसे स्ट्रीट लाईट की धुंधली रोशनी और पेड़ो के नीचे के सघन अँधेरे में एक परिचित-सी आकृति अपने आगे बड़े-बड़े डग भरके जाती दिखाई दी. उसे मानो कोई भ्रम हुआ हो. उसने लगभग भाग के उसकी गति पकड़ते हुए उसका चेहरा देखा.

दोनों ही एक दूसरे को देखके ठिठक गए.

रेबेका को विशवास नहीं हो रहा था कि जिसे वहाँ सैकड़ों लोगों की भीड़ घेरे खड़ी थी, वह यहाँ सुनसान रास्ते पर अकेला चला जा रहा है. क्यूँ और किससे भाग रहा है. आज तो उसका दिन था. कोई कलाकार इसी दिन, इसी सफलता के लिए मरा जाता है, फिर ये इस तरह कहाँ भागा जा रहा है!

दीपांश ने तो रोशनी और चकाचौंध से भाग के बिना कुछ सोचे ही इस सुनसान लेन की शरण ली थी. उसे लगा था यहाँ उसकी आँखों में झाँक के आपस में उलझती परछाइयों को देखने वाला कोई नहीं होगा. अब उसका तेज़ चलना कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं थी. यह जल्दी डॉमनिक को, उसकी छवि को पीछे छोड़ देने की जल्दी थी.

रेबेका ने मुस्कराते हुए हाथ बढ़ाया. दोनों ने हाथ मिलाया. रेबेका ने तेज़ हुई साँसों पे काबू पाते हुए कहा, ‘मुझे लगा था आज तो मैं आपसे मिल ही नहीं पाऊँगी..., आपकी परफोर्मेंस के बारे में क्या कहूँ!! ...शब्द नहीं हैं!’

दोनों एक साथ उसी दिशा में आगे बढ़ने लगे.

‘मैं भी कुछ कहना चाहता था. हम इति के मिलने की उम्मीद छोड़ चुके थे. पर आपकी वजह से..,’ कहते-कहते दीपांश के गले में कुछ अटक गया था.

‘कुछ मत कहिए. कहेंगे तो.. मुझे अच्छा नहीं लगेगा, बस ये समझ लीजिए कि कई बार लड़कियाँ मिलके भी नहीं मिला करतीं. इतने समय में ही इति ने जो वहां भोगा होगा वह उसे सालों नहीं भूल पाएगी.’ रेबेका के चेहरे पर पड़ती पेड़ की परछाँईं ने अँधेरा कर दिया था.

‘सचमुच कई बार शब्द.., आपके किसी काम नहीं आते, कई सवाल मन में थे पर एक नहीं पूछा. इति उस दलदल से निकल आई. यही बहुत है. इससे ज्यादा कुछ भी जानना मेरे लिए जरूरी नहीं. बस यही कहूँगा कि तुम्हारी बातों के रहस्य और अँधेरे में भी एक साफ़गोई और इमानदारी थी जिसकी वजह से जब किसी बात पर यक़ीन करना मुश्किल था तब तुम्हारी बात पे यकीन कर सका.’ दीपांश ने अपनी चाल कुछ धीमी करते हुए उसकी तरफ देखके कहा.

रेबेका ये सुनके जैसे वहाँ रुक जाना चाहती थी. उसे दीपांश का ‘आप’ से ‘तुम’ पर आना अच्छा लगा था. उसने भीतर की किसी बात को लगभग होंठों तक आ जाने के बाद जैसे यकायक बदल दिया और बोली, ‘आपके सारे सवालों के जवाब हैं मेरे पास, पर उसके लिए आपको एक कप कॉफ़ी पीनी होगी मेरे साथ और वो भी अभी. मेरा मतलब है अगर आपको कहीं पहुँचने की जल्दी न हो तो?’ रेबेका ने जैसे इसी बीच चेहरे पर घिर आए अँधेरे समेटकर कहीं छिपा दिए थे.

दीपांश के चेहरे पर कोई दुविधा नहीं थी. वह जहाँ से चला आया था, उसके बाद, अब कहीं भी जाने या न जाने में कोई फर्क न था. उसने कॉफ़ी के लिए हामी भरते हुए सिर हिलाया. दोनों ने साथ चलते हुए कस्तूरबा गांधी मार्ग पर आकर क्नॉट प्लेस के लिए ऑटो लिया. कुछ ही देर में दोनों युनीटेड कैफे में बैठे थे. कुछ देर तक चाह कर भी कोई बात नहीं निकली. फिर रेबेका ने जैसे कहीं से ढूँढ़ के बात का सिरा पकड़ा, ‘आज नाटक का अन्त पहले से अलग लगा. लगा कुछ है जो आपको परेशान कर रहा है.’

दीपांश जिस सवाल से भाग रहा था वही उसके सामने आके खड़ा हो गया. उसने जैसे रेबेका को नहीं अपने आपको उत्तर देते हुए कहा, ‘कई बार मन के भीतर की लड़ाइयाँ इतनी बड़ी हो जाती हैं कि बाहर की दुनिया की सारी बातें बिलकुल बेमायने लगने लगती हैं, आदमी अपनी ही बनाई दुनिया में घिर जाता है और जब कोई उन घेरों को तोड़ के निकलता है तो वो कोई और ही होता है.’

रेबेका उसे एकटक देखती रह गई.

फिर जैसे कुछ याद आया हो, ‘मैंने पहले भी कहा था, आपको देखके ऐसे लगता है जैसे आपका कुछ खो गया हो.’

‘हाँ, जो खो गया था, आज उसी को ढूँढ़ते हुए वापस वहीं आके खड़ा हो गया हूँ, जहाँ से चला था. इसीलिए आज ‘डॉमनिक की वापसी’ का अंत अलग था. उसमें उदासी से ज्यादा आक्रोश था. अपनी हार के प्रति. पर तब में और अब में इतना ही फर्क है कि अब उस खोए हुए की तलाश नहीं है.’ इतना कहकर दीपांश चुप हो गया था.

बातों के इन असंपृक्त सिरों ने भी दोनों के बीच एक पतला-सा तार खींच दिया था.

दोनों ने कॉफ़ी ख़त्म की. बाहर आके सी.पी. के इनर सर्किल से ही ऑटो लिया.

रेबेका ने आगे जाकर ऑटो के शाहजहाँ रोड पर मुड़ते ही रुकने का इशारा किया और विदा लेकर अँधेरे में खो गई. दीपांश उसके बाद बहुत देर तक तय नहीं कर सका कि उसे कहाँ जाना है. थककर ऑटो छोड़ दिया और रात में न जाने कितनी देर यूँ ही सड़कों पर भटकता रहा.

दीपांश उस शाम ग्रुप में किसी से बिना कुछ कहे ही चला आया था. पर नाटक के अंत में जो हुआ था उससे रमाकांत उसकी मन:स्थति समझ रहे थे. वह जानते थे दीपांश जैसा अभिनेता कभी इस तरह मंच पर अपने किरदार से बाहर नहीं जा सकता. उसका इस तरह अंत में बदलाव लाना उसका नाटक से निकल जाना ही था. अगले दो-तीन दिन अखबारों में नाटक की बहुत तारीफ़ छपी. इस सफलता को देखकर सेतिया ने कई और प्रायोजक अपने साथ जोड़कर प्रायोजित राशि दुगनी करने की घोषणा कर दी. उसे लगा था इससे सारे मसले हल हो जाएंगे. पर सबके लिए यह उतना बड़ा आकर्षण सिद्ध न हुआ. जब अगले शो की तैयारियाँ शुरू होने तक दीपांश का किसी से संपर्क नहीं हुआ. वह किसी से न मिला तब उसके नाटक से अलग होने के निर्णय के बारे में सबको पता चला.

दीपांश के इस निर्णय से विश्वमोहन का आगे का गणित गड़बड़ा गया था. शिमोर्ग भी समझ नहीं पा रही थी कि दीपांश इस मुकाम पे आकर कैसे नाटक छोड़ सकता है.

विश्वमोहन ने शिमोर्ग को दीपांश से बात करने को भी कहा. पर उनके बीच वह हवा शेष नहीं थी जिसपर संवाद तिरता है. इसलिए बात होकर भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँची. हारकर शिमोर्ग ने विश्वमोहन को डॉमनिक की भूमिका के लिए किसी और को लेने के लिए कहा. पर विश्वमोहन मानने को तैयार नहीं थे. उनका कहना था कि जिन कलाकारों के अभिनय को देखके इतने प्रायोजक तैयार हुए हैं, इसमें कुछ भी बदलाव करने से ग्रुप को नुकसान हो सकता है..

शिमोर्ग के भीतर जैसे कुछ उबल रहा था, वह दीपांश को लेके भरी बैठी थी और विश्वमोहन के इतना कहते ही फट पड़ी थी, ‘वो जानता है हमारे लिए ये नाटक क्या मायने रखता है. बात ही करने को तैयार नहीं. इतने दिनों में एक दिन मुलाक़ात हुई, इतने प्यार से बैठाकर पूछा- जो हुआ, वो बीत गया, अब क्या प्रॉब्लम है? बोला ‘इन दुनियादार आँखों से नहीं देखा जा सकता कि क्या प्रोब्लम है.’

वह जैसे आहत मन में अतीत का कोई कोना टटोलते हुए बोली, ‘यकीन नहीं होता ये वही आदमी है जो कभी इतना करीब था, हर समय मेरी परवाह करता था. आज वो मेरा फोन तक नहीं उठाता.’

विश्वमोहन शिमोर्ग के चेहरे की कुंठा और झुंझलाहट में दीपांश के लिए छुपी बेचैनी देखके असहज हो उठे थे. पर उन्होंने ख़ुद को कुछ भी कहने से रोक लिया. शिमोर्ग बोले जा रही थी, ‘समझ नहीं आता, किस मिटटी का बना है, क्या सिद्ध करना चाहता है. बस सब कुछ ख़ुद समझो, अंदाजा लगाते रहो. सच! जरा भी प्रेक्टीकल नहीं है, ये आदमी. मैं यहाँ तक आके सब कुछ बिखरने नहीं दे सकती. वो क्या समझता है? उसके बिना शो नहीं हो सकता, यहाँ और एक्टर नहीं हैं.’

फिर जैसे कुछ पीछे छूटा हुआ याद आया हो, ‘प्रेम-प्रेम-प्रेम. इसके अलावा भी इंसान की और जरूरतें हैं. कभी लगता है- ये आदमी समय से ग्रो नहीं किया- बच्चा है, एक छोटा-सा बच्चा. फिर कभी लगता है वो बहुत घाघ है- और जानकार हम सबको नीचा दिखाने के लिए ऐसा करता है. सफल होकर सफलता से दूर-अनछुआ रहने का ढोंग! मैं नहीं मानती किसी महत्वाकांक्षा के बिना ही वो यहाँ तक पहुँचा है, कई बार लगता है- लोगों कि सहानुभूति पाने के लिए ऐसा करता है और इसमें सफल भी हो जाता है क्योंकि वो एक अच्छा अभिनेता है- मंच पर भी और मंच से बाहर भी.’

इस बार विश्वमोहन ने शिमोर्ग की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘तुम उसका विकल्प ढूँढने की बात कर रही हो या उसके व्यवहार और मनोविज्ञान पर शोध कर रही हो?’

शिमोर्ग बिफरते हुए बोली ‘मैं क्यूँ शोध करूंगी उसपे, उसका विकल्प है मेरी नज़र में.’

विश्वमोहन ने आश्चर्य से शिमोर्ग की ओर देखा.

‘हाँ है- ऋषभ..’

विश्वमोहन, ‘वो कोरस वाला लड़का!’

‘हाँ वही.., अभी एक नए प्रोडक्शन के ऑडिशन में देखा उसका काम, थोड़ी मेहनत करने पर कर लेगा, इसमें आपको उसकी मदद करनी पड़ेगी.’

विश्वमोहन के सामने शिमोर्ग से सहमत होने के आलावा फिलहाल कोई चारा न था.

अगले ही दिन शिमोर्ग ऋषभ के सामने खड़ी थी. शिमोर्ग ने जो कुछ भी अभी कुछ देर पहले उससे कहा था, वह पूरी तरह समझ नहीं पाया था.

शिमोर्ग ने अबकी बार और स्पष्ट करते हुए कहा, ‘इन सबमें तुम सबसे बेहतर हो, ‘डॉमनिक की वापसी’ के अगले मंचन में तुम्हें लीड करनी है.’

ऋषभ जैसे मुँह खोले खड़ा था, फिर जैसे खुद को विशवास दिलाने के लिए बोला, ‘मैं समझा नहीं मेम.’

‘समझ जाओगे- वही लम्बाई, वैसी ही सूती हुई नाक, काले घुंघराले बाल, बड़ी हुई दाड़ी. ‘डॉमनिक’ की भूमिका तुम करोगे. मैंने विश्वमोहन जी से बात कर ली है.’

‘पर मेम इतने कम समय में..?’

‘मौका समय देखके नहीं आता, तुम चिंता मत करो, मैं जानती हूँ तुम कर सकते हो और एक बात... मैं मेम नहीं, ...शिमोर्ग हूँ.’

ऋषभ किसी सपने में खड़ा शिमोर्ग को जाते हुए देख रहा था.

‘कोरस गाते-गाते अचानक ‘डॉमनिक की वापसी’ का डॉमनिक बन गया! वह जब टी.वी., रेडियो, फ़िल्म, एडवरटाईजिंग की दुनिया में चक्कर काटते-काटते थक गया था तब यहाँ आया था. थिएटर ज्वाइन करने से पहले सबने यही कहा था ‘यहाँ बहुत समय खराब होता है. उम्र निकल जाती है- सीखते-सीखते पर कोई नोटिस नहीं लेता. थिएटर में कोई भविष्य नहीं बल्कि ये एक बार लग जाने के बाद कभी न छूटने वाली, एक बुरी लत है. कुछ कमाना है तो मॉडलिंग करो, टी.वी. सीरियल करो, फिल्मों में जाओ, यहाँ थिएटर में क्या रक्खा है? यहाँ छोटे-मोटे प्रोडक्शन में लीड करने वाले को भी थिएटर की दुनिया से बाहर कौन जानता है? और बड़े बैनर के मंचन में तो फिल्मों में नाम कमा चुके कलाकार ही लौट-लौट के मंच के प्रति अपना प्रेम दिखाने के लिए नमूदार होते रहते हैं. पर उसे तो अभी दो हफ्ते भी नहीं हुए थे ग्रुप ज्वाइन किए! और यहाँ उसका चुनाव तो उसकी भारी आवाज़ की वजह से कोरस के लिए हुआ था. ऐसी तमाम बातें ऋषभ के मन में एक साथ गड्डमड्ड हो रही थीं. सोच रहा था शायद इसी को कहते हैं- चांस मिलना. एक महीने में ही अगला शो है. उससे पन्द्रह दिन पहले फोटो सेशन होगा, उसकी तस्वीर के साथ पोस्टर छपेंगे. पहले ही मंचन से वह छा जाएगा. मुख्य भूमिका में दीपांश की जगह उसका होना नाटक की दुनिया के लिए बड़ी खबर होगी.’ यह सब सोचते हुए अचानक उसकी ज़िन्दगी जैसे किसी जागती आँखों से देखे जाने वाले सपने में बदल गई थी.

तीन दिन और दो रातों में ऋषभ ने संवाद रट डाले थे. उच्चारण की थोड़ी समस्या थी पर उसपर वह लगातार काम कर रहा था. शिमोर्ग की सलाह पर दाड़ी थोड़ी और बढ़ा ली थी. उसके पास दो दिन का समय और था, उसके बाद रविवार को अपनी प्रतिभा विश्वमोहन और रमाकांत सहित पूरे ग्रुप के सामने दिखानी थी. ....और फिर उसका नाम इस भूमिका के लिए पक्का हो जाना था.

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