Raahbaaz - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

राहबाज - 2

मेरी राह्गिरी

(2)

मेरा फ्लिंग

उस दिन रोजी आधे घंटे बाद मेरे ऑफिस में थी. मैंने तब तक अपने क्लाइंट को निपटा दिया था. जल्दी में डील पूरी करने के चक्कर में उस दिन अपना थोडा सा नुक्सान भी कर लिया था. लेकिन दिल में मलाल नहीं हुआ था. ऐसा होता है मेरे साथ. बिज़नस में बहुत कम समझौता करता हूँ. दिल लगा कर अपनी सारी मेहनत और दिमाग झोंक कर सौदे करता हूँ. यानी बेच और खरीद का कारोबार.

लेकिन रोज़ी ने मुझ पर जादू सा कर दिया था. इसकी दो वजहें हो सकती हैं. एक तो ये कि काफी लम्बे समय से मुझे तफरीह करने का मौक़ा नहीं मिला था. पिछले कई बरसों से मैं सिर्फ काम और काम में ही उलझा हुआ था.

दुसरे रोज़ी से मिलते ही कुछ उस तरह की भावनाएं मेरे अन्दर उठने लगी थीं जैसी मेरी पत्नी निम्मी के लिए उठती थी जब हम दोनों कॉलेज में थे. निम्मी से तो शादी कर के मैंने जैसे एक फ़र्ज़ पूरा कर लिया था. कि अब शादी कर ली अब कोई टेंशन नहीं. निम्मी मेरी हो गयी. अब मुझे निम्मी को पाने के लिए कोई जोखिम नहीं उठाना था. उसके आगे पीछे नहीं घूमना था. उससे मिलने के लिए बहाने और चोर रास्ते नहीं खोजने थे.

इधर कुछ वक़्त से कई सालों की खामोशी के बाद मेरे मन में फिर से रोमांस के अंकुर फूटने लगे थे. जबकि निम्मी अब बच्चों में और घर में इतना रम गयी थी कि उसे मेरी तरफ देखने की इच्छा या फुर्सत ही नहीं होती थी.

मेरे सारे काम करती थी. मेरे कपडे भी मुझे निकाल कर देती. हर सुबह तय करती कि मैं क्या पहनूं. लेकिन पहन कर जब मैं तैयार हो कर खड़ा होता तो मेरी तरफ देखने वाला कोई नहीं होता था. मुझे वो दिन आते जब वो तारीफ और इंतजार भरी नज़रों से मेरी तरफ देखती थी जब मैं सुबह सज-धज कर घर से दफ्तर के लिए निकलता था.

मैं भी शाम होते ही बेताब हो कर घर भागता था. लेकिन अब शाम हो जाती और मैं ऑफिस में डूबा रहता या मीटिंग्स के लिए बाहर घूमता या फिर दोस्तों के साथ और कभी अकेला ही फिल्म देखने या कोई नाटक या स्टैंड अप कॉमेडी शो देखने बैठ जाता.

देर रात घर पहुँचता, दोस्तों के साथ होता तो खाना खा कर और अगर अकेला होता तो बिना खाए. निम्मी टीवी देख रही होती. एक नजर मेरी तरफ देखती और फिर सीरियल देखने लगती. मैं कपडे बदल कर टेबल पर लगा खाना खाता और अन्दर जा कर सोने के लिए लेट जाता. अपने स्मार्ट फ़ोन के साथ दुनिया भर को देखता निहारता, अजनबियों से बातें करता. और मेरी बीवी याने मेरे बच्चों की माँ सीरियल देख कर बचा हुआ खाना संभाल कर कमरे में आती और मेरी बगल में लेट जाती. दस मिनट के अंदर ही उसके हलके हलके खर्राटे मेरी नींद को कुछ और दूर भगा देते. मैं जागता हुआ देर तक अपने फ़ोन में डूबा रहता.

लेकिन अब रोज़ी मेरी ज़िन्दगी में आ गयी थी. ऐसे में मेरी ज़िंदगी और मेरे बर्ताव में बदलाव तो होने ही थे. सो हुए.

उस दिन के बाद हम फिल्म देखने गए. फिर एक दिन लंच पर मिले. उसके अगले हफ्ते डिनर पर मिले. उसके भी अगले हफ्ते नाटक देखने गए. नाटक देखने के बाद डिनर के दौरान उसी रात रोज़ी ने मुझे अगले सन्डे अपने घर डिनर के लिए न्यौता दे डाला था.

मैंने पूछा ,"और कौन कौन होगा?"

रोज़ी के होठों पर एक दबी सी मुस्कराहट खेल गयी, "तुम और मैं."

मैं खिल गया. मुझे सपने दिखाई देने लगे. यूँ इतनी मज़े-मज़े में ज़िंदगी नए रंग मुझे दिखा रही थी. मुझे खुद अपने आप से रश्क होने लगा था.

मैं उस सन्डे सुबह अपने हमेशा वाले पार्लर गया था. ये एक यूनिसेक्स पारलर है जहाँ मर्द और औरतें दोनों ही आते हैं. मैंने उस दिन सबसे पहले तो अपने बाल बनवाये थे. शाम को रोज़ी के घर जाने का ख्याल दिमाग में घूम रहा था और दिल को लगातार गुदगुदा रहा था. मैं उतावला भी था और ठहरा हुआ भी. मेरी तबीयत उलझी सी थी. जैसे पहली बार किसी औरत से मिल रहा होऊं.

पता नहीं मुझे ऐसा एहसास क्यूँ हो रहा था? निम्मी अब तक की मेरी ज़िन्दगी की अकेली औरत नहीं थी. मेरे छोटे-मोटे चार फ्लिंग्स तब तक हो चुके थे. उनमें कोई भी गंभीर मामला नहीं था इसलिए मुझे कभी पछतावा या ग्लानी का अनुभव नहीं हुआ था. मैं सौ प्रतिशत निम्मी का ही था.

लेकिन आज रोज़ी से मिलने की उतावली और ठहराव ने मेरे अंदर एक और नया भाव पैदा कर दिया था. मैं निम्मी को दुःख नहीं देना चाहता था. लेकिन साथ ही खुद भरपूर आनंद लेना चाहता था. अपनी ज़िन्दगी में इस नए अध्याय का स्वागत करना चाहता था. चाहता था कि रोज़ी को ये एहसास हो कि मैं एक बेहतरीन प्रेमी हूँ.

मैंने इन्हीं मानसिक और दिली उलझनों के बीच पेडीक्योर और मैनीक्योर करवाए. बालों में ब्राउन रंग करवाया, जिससे जो चांदी मेरे बालों में थी वो छिप गयी थी. शेव भी मैंने उस दिन पारलर में करवाया और बालों में शैम्पू भी. सज धज कर जब मैं घर पहुंचा तो मेरे हाथों में पेस्ट्रीज के दो डब्बे और निम्मी का मनपसंद एक्लैयर्स का एक डब्बा भी था.

निम्मी और बच्चे अपना लंच कर चुके थे मेरे लिए लंच टेबल पर रखा था हमेशा की तरह. मैंने खाया था और पूरी दोपहर लम्बी तान कर सोया रहा था. इतवार को यही मेरा रूटीन होता है. नवम्बर का खुशनुमा मौसम था और घर में शांति. जो अक्सर कम ही होती है.

उस दिन निम्मी बच्चों के साथ अपने माता-पिता के घर डिनर पर आमंत्रित थी. वे लोग मेरे घर आते ही चले गए थे. आमन्त्रण मेरे लिए भी था. लेकिन मैंने सुबह उठते ही अपने अलग डिनर की बात कह कर माफी मांग ली थी.

ज़ाहिर है डिनर मैंने अपने दोस्तों के साथ होना बताया था. निम्मी ने जैसे राहत की सांस ली थी. वैसे मैं जब भी उसके साथ उसके मायके जाता वो परेशान हो जाती है. उसे उस तरह की आज़ादी मेरे रहते नहीं मिलती जिसकी तलाश में शायद वो वहां जाती है. मैं बहुत पहले ही ये बात भांप गया था. इसलिए मैं भी अक्सर वहां जाना आख़िरी मौके पर टाल जाता हूँ और वो हर बार राहत की सांस लेती है. जो मुझसे छिपा नहीं है.

खैर !

जब मैं रोज़ी के घर पहुंचा तो शाम के सात बजने वाले थे. नवम्बर के आखिरी दिन. शाम बहुत पहले ढल कर थक भी चुकी थी. इस वक़्त बिसूरती हुयी ठंड के शुरुआती असर से घबराई मेरी गाडी से टकरा टकरा कर गहरा रही थी.

मैं उसके तेज़ी से रात में बदलते जाने से मुतमईन हो रहा था. जाने क्यूँ मेरे मन में एक चोर अहिस्ता-अहिस्ता दाखिल हो रहा था. चोर के पीछे लगा हुआ एक जासूस भी मेरी नजर से छिप नहीं सका था. ये चोर और उस के पीछे लगा हुया वो जासूस किसका भेजा हुआ था मैं समझ नहीं पाया.

निम्मी का तो नहीं हो सकता, वो मुझ पर भरोसा करती है. तो क्या रोज़ी के पति ने किसी बादल को मेरे पीछे हड़का दिया था? ये भी मेरी समझ से बाहर था. क्यूंकि मेरी जानकारी के मुताबिक रोज़ी का पति उस दिन बंगलोर में था. हम लोग बिज़नस में कुछ-कुछ प्रतिद्वंदी जैसे भी थे सो एक दूसरे के बारे में जानकारी न चाहते हुए भी रखते थे.

उसके अलावा आज मेरा जिस तरह का डिनर प्लान था रोज़ी के साथ, मैंने उसके पति कार्ल की जानकारी हासिल करना अपना फ़र्ज़ भी समझा था. मुझे पता लगा था कि वो कल ही एक हफ्ते के लिए बंगलोर गया था. यानी मैं जो सोच रहा था रोज़ी ने भी उसी तरह का इंतजाम किया था. मैं खुश था, उत्सुक, उत्तेजित, उतावला और न जाने क्या क्या.

रोज़ी मेरे इंतज़ार में ही बैठी थी. जब मैंने डोर बेल बजायी तो उसने तीन सेकंड के अन्दर दरवाज़ा खोल दिया. मेरे ख्याल से वो वहीं कहीं बैठी थी और लिफ्ट के खुलने से उसने अंदाज़ा लगा लिया था कि मैं आ गया हूँ. उसका फ्लैट लिफ्ट से लगा हुआ ही था.

मैं अन्दर दाखिल हुआ तो उसकी मुस्कान ने मुझे बाँध लिया. इससे पहले एक बार ऐसा हुआ था कि मैंने उसकी दोस्ती में रोमांस को शामिल करना चाहा था और एक बार गाडी में उसका हाथ पकड़ लिया था. वो नाराज़ हो गयी थी और मेरा हाथ झटक कर बोली थी, "तुम मर्द हर वक़्त बस एक ही बात सोचते हो. क्या औरत और मर्द सिर्फ दोस्त नहीं हो सकते? जैसे दो मर्द या दो औरतें होती हैं."

मैं शर्मिंदा हुआ था और मैंने उसी वक़्त उससे माफी मांग ली थी. उसके बाद हम कई बार मिले थे. फिल्म भी साथ देखी लेकिन एक शारीरिक दूरी हमारे बीच अलिखित समझौते के तहत बनी रही. मैंने फिर कभी कोशिश नहीं कि उसे छूने की.

एक दो बार मुझे एहसास हुआ कि वो नज़दीक आ जाती. कभी उसका घुटना मेरे घुटने से लग जाता और उस वक़्त उसकी ऑंखें अजीब तरीके से मुझ देख रही होतीं. जैसे मेरे अन्दर के इंसान की उसे तलाश हो. मैंने इन सब को सिर्फ इत्तिफाक समझा और खुद को आगे बढ़ने से रोके रखा. वैसे भी मैं एक शरीफ मर्द हूँ. औरत की मर्ज़ी के बिना मैं उसके बदन को छू कर आयी हवा को भी नहीं छूता.

लेकिन आज जिस तरह मुझे रोज़ी ने न्यौता दिया था और साफ़ कहा था कि डिनर में हम दोनों ही मौजूद होंगे तो मेरी दिल में एक उम्मीद जगी थी. जो ज़ाहिर है इस वक़्त रोज़ी के बर्ताव से उसे हवा मिल रही थी. मैं अन्दर दाखिल हुआ और लिविंग रूम के सोफे पर जा कर बैठ गया.

"क्या पियोगे?" रोज़ी मेरे सामने खडी थी. उसने एक सफ़ेद रंग का झीना सा टॉप और काले रंग की जाली वाली शॉट्स पहन रखी थीं.

मेरी आँखें उसकी सुडोल जाँघों और टांगों में अटक कर रह गयी थी. मैं जानता हूँ ये सरासर बद्त्त्मीज़ी थी लेकिन मेरी तमाम कोशिश के बावजूद मैं अपनी नज़रें वहां से हटा नहीं पा रहा था.

मैंने महसूस किया कि उसकी आँखों में अचानक एक मुस्कराहट उभर आयी थी. मुझे लगा वो मेरी इस अकबकाहट का मज़ा ले रही है. मैं झेंप गया.

औरत के सामने यूँ इस तरह बेईज्ज्त होने का मेरा इरादा कतई नहीं था. बावजूद इसके कि मैं बड़ी उम्मीदें ले कर रोज़ी के घर डिनर के लिए आया था. मेरे दिमाग में इस वक़्त डिनर में होने वाले खाने के अलावा सब कुछ था. डिनर शब्द के मायने भी आज मेरे लिए कुछ और ही हो गए थे.

खैर, मुझे बताना था कि मैं क्या पियू तो मैं सोच में पड़ गया. मैं शराब बहुत कम पीता हूँ. और जब पीता हूँ तो व्हिस्की मैं स्कॉच पीता हूँ और वाइन फ्रेंच. इनके अलावा और कुछ भी नहीं. और मैं ये नहीं जानता था कि इनमें से कुछ रोज़ी के यहाँ होगा या नहीं.

"क्या पिलाओगी?" ज़ाहिर है मैंने भी सवाल के जवाब में सवाल ही दाग दिया.

"यार, तुम क्या पियोगे?" वो थोडा झुंझला गयी थी. "सॉफ्ट ड्रिंक. व्हिस्की, वाइन, वोडका, बियर या कुछ और? नीम्बू पानी या सोडा विथ लाइम? बोलो यार." और उसने एक ठहाका लगाया था. "देखो तुम्हारे लिए मैं वेट्रेस भी बन गयी हूँ. "

मैं ठहाका नहीं लगा पाया. अलबत्ता उठ खड़ा हुआ. "बताओ कहाँ है तुम्हारी बार. मैं खुद बनाता हूँ अपने लिए और तुम्हारे लिए भी. "

और मैं उसके पीछे डाइनिंग रूम की तरफ चल पडा. मेरा इरादा तो था कि मैं खड़ा हो कर किसी काम में लगूंगा तो नदीदों की तरह जो मेरे आँखें उसकी टांगों को घूरे जा रही हैं उन्हें कण्ट्रोल कर सकूंगा. मगर रोज़ी के पीछे चलते हुए मेरी मरदूद आँखें उसके कूल्हों में अटक कर रह गयी थीं.

हर क़दम के साथ ऊपर नीचे होते उसके कूल्हे मुझे खुला निमंत्रण दे रहे थे. मैं तो सुबह से आज के डिनर के ख्याल में गुम तरह-तरह के ख्याली पुलाव पकाते हुए यहाँ आया था. अब मुझे अपने चावलों की हांडी रोज़ी के चूल्हे पर पकाने की उतावली हो रही थी.

मैं उसके पीछे पीछे चलता हुआ खो गया था अपने चलने में और उसके कूल्हों के मचलने में. वो रुकी तो मैं खुद को रोक नहीं सका उतनी चुस्ती से और लगभग जा टकराया उसमें. समय रहते संभाला खुद को और पीछे हट कर खड़ा हो गया. वो शायद मेरा लगभग टकराना भांप गयी थी. सो ठिठक गयी.

कुछ सेकंड इसी तरह गुज़रे. फिर वह मेरी तरफ मुडी. उसके चेहरे पर जो था मैं उसे पढ़ कर हैरान रह गया. मुझे उम्मीद तो बहुत सारी थी, लेकिन इस कदर नग्न आमंत्रण उसकी आँखों, उसके चेहरे और उसकी पूरी देह में उस वक़्त था कि मैं भौचक्का रह गया.

उसने अपने दोनों हाथों को फैला कर बार की तरफ इशारा किया. जिसके काउंटर पर शराब, सोडा और सॉफ्ट ड्रिंक्स की बोतलें, गिलास, और बर्फ से भरा एक प्याला रखा था. एक प्याले में कोने में रखे थे कुछ नींबू, खीरे और गाजर तरतीब से कटी और सजाई हुईं.

"तुम बहुत हेल्दी चीज़ें खाती हो." मैं बेवकूफ इतना ही कह पाया.

उसका आमंत्रण मेरे लिए दुरूह पहाडी बन गया था जिस तक पहुँचने के लिए मुझे एक गहरी खाई को पाटना था. मेरी अपनी नासमझी की. मैं समझ नहीं पा रहा था कि इसे कैसे उलान्घूं?

कैसे एक सभ्य मर्द की तरह उसके आमन्त्रण को स्वीकार करूँ और साथ ही अपने अंदर के जानवर को भी संतुष्ट करूँ जो लपक कर सामने खडी खूबसूरत लोमड़ी का शिकार करने को बेकाबू हुआ जा रहा था. मैं तलवार की धार पर खड़ा हुआ कुछ देर असमंजस में रहा. तभी उसने अपनी फैली हुयी बाहें कुछ इस तरह फैलाई कि मैं उनकी गिरफ्त में हो भी रहा था और नहीं भी.

याने अब गेंद मेरे पाले में थी. और मैं बेढब हो आया था. लडखडाते हुए मैंने आगे बढ़ कर दो कदम उसकी तरफ बढ़ाए. एक बारगी लगा कि मैं उसे अपनी बाँहों में ले लूँगा लेकिन मैं हल्का सा मुड कर काउंटर पर रखी व्हिस्की की बोतल उठा कर उसे खोलने लगा.

ज़ाहिर था रोज़ी भी मेरे इस अचानक उठाये गए क़दम से हैरान हो गयी थी. उसी हैरानी में अकबकाई से वो मेरी बगल में लगभग मुझसे चिपक कर खडी हो गयी. मेरे हाथ कांपने लगे थे. मैंने खुद को संभाला तो लिया लेकिन जो दो सेकंड के लिए कम्पन मेरे जिस्म में आयी थी उसने रोज़ी को भी प्रभावित किया था. रोज़ी ने मेरे हाथ से बोतल ले कर दो गिलासों में व्हिस्की ढाली. बर्फ डाली और ऑन द रॉक्स का एक-एक पेग हम दोनों ले कर वापिस लिविंग रूम में आ गए. इस बीच मैंने देख लिया था कि व्हिस्की अच्छी थी. ब्लू लेबल.

अब हम एक दूसरे की कमर में हाथ डाले चल रहे थे और आ कर एक ही सोफे पर बैठ गए.

उसके बाद की बातें मुझे तफसील से याद नहीं हैं. कब हमारे होठ व्हिस्की पीते-पीते एक दूसरे को पीने लगे थे मैं नहीं याद रख पाया. नशा हम दोनों पर चढ़ गया था. शराब का नहीं. एक दूसरे का. हल्का मीठा नशा धीरे धीरे हमें अपने आगोश में ले रहा था. और उसी नशे की मदहोशी में मैं और रोज़ी एक दूसरे के आगोश में सिमटते जा रहे थे.

खाना बहुत अच्छा था. रोज़ी ने खुद बनाया था. और रोज़ी उससे भी अच्छी थी. वो कुदरत की बनायी हुयी थी. बेहद खूबसूरत, नर्म और गर्म औरत. मैंने अपने अन्दर वैसी ही रवानगी महसूस की थी जैसी कि शादी के शुरुआती दिनों में पाता था. रोज़ी के साथ जितने वक़्त मैं रहा मुझे एक पल के लिए भी निम्मी का ख्याल नहीं आया था.

रोज़ी ने और मैंने एक दूसरे को छक कर पिया था. खाना पहले खाया था कि अपने जिस्मों की प्यास पहले बुझाई थी, कुछ याद नहीं मुझे. शायद सब कुछ बीच बीच में होता रहा था. हम दोनों नैसर्गिक पोशाक में डाइनिंग रूम और गेस्ट रूम के बीच विचरते रहे थे. शायद तीन या चार बार सहवास भी किया था. मेरी हालत देखिये मुझे यह तक ठीक से याद नहीं है. ऐसा भरपूर नशा जैसा हनीमून में होता है. मैं तो पूरी तरह से रोजी के हाथों बिक चुका था उस रात.

एक बजे के करीब उसने मुझे याद दिलाया था कि मुझे अपने घर जाना चाहिए. मैं अनमना सा उठा था, कपडे पहने थे और रोज़ी को बाहों में लेकर एक लम्बा सा चुम्बन दे कर बाहर आधी बीत चुकी रात के गहरे सन्नाटे में बह रही मदमस्त ठंडी हवा को अपनी अय्याशी भरी शाम की गवाही देने निकल आया था.

मैंने उस रात नशे में गाडी चलाई थी. नशा भी शराब का नहीं था उस रात. उस शाम हमने जो स्कॉच ऑन द रॉक्स के दो पेग लिए थे वे वैसे ही रखे रह गए थे रोज़ी की कॉफ़ी टेबल पर. मुझे बस यही याद आ रहा था कि किस तरह सोफे तक हम एक दूसरे की कमर में हाथ डाले पहुंचे थे. कोई शब्द नहीं, कोई बात नहीं, कोई वादा या तारीफ नहीं बस सिर्फ एक दूसरे का साथ. एक मर्द और एक औरत का साथ. सोफे पर एक दूसरे के अगल-बगल बैठते ही रोज़ी ने मेरे कंधे पर अपना सर रख दिया था और मैंने उसकी कमर में अपना बाजू जमा कर उसे खुद में समेट लिया था.

मैं घर जा रहा था गाडी में मगर मुझे लग रहा था जैसे मैं हवा में उड़ रहा होऊं. मज़े-मज़े में गाडी चला रहा था जो शायद पचास किलोमीटर की रफ्तार से भी कम पर चल रही थी. दिल्ली में तो लोग देर रात गाडी बेतहाशा दौडाते हैं. मगर मुझे तो उस रात का नशा, रोजी के बदन का नशा और खुद मेरे होने का नशा चढ़ा हुआ था. कहीं जाने की जल्दी थी नहीं. सो आराम से अहिस्ता-अहिस्ता गाडी को लगभग ठेलता हुआ सा मैं अपनी बी. एम.डब्ल्यू. से अपने घर पहुंचा था.

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