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राहबाज - 5

रोजी की राह्गिरी

(5)

मन क्यूँ बहका

मुझे नियोग करना था. इसके लिए मुझे किसी देवता का आव्हान करना होगा. लेकिन आज के इस युग में कोई देवता मुझे कहाँ मिलेगा? ये कैसे हो सकता था कि मुझे कोई वरदान मिले. मैं उस वरदान के चलते एक कोई मन्त्र पढ़ूं और कोई सूर्य जैसा कान्तिमान देवता आ कर मेरी कोख हरी कर जाए.

मुझे तो इस कलियुग में मर्दों के बीच में से एक ऐसा मर्द ढूंढ निकालना था जो परायी स्त्री का उपभोग भी करे लेकिन उसके मन में कोई मलिन भाव न हो. एक ऐसा मर्द जिसके मन में औरत को लेकर आदर भाव हो. जो इस बात को समझ सके कि कोई औरत सिर्फ और सिर्फ देह सुख के लिए ही विवाह के बाहर देह सुख नहीं ढूंढती फिरती. साथ ही यह पुरुष मेरे प्रेम में भी न पड़े. इस बात की भी गारंटी चाहिए थी मुझे.

एक ऐसा मर्द जो एक औरत के मन और देह की प्यास बुझाये और साथ ही उसके लिए अपने मन में सम्मान बचा रखे. एक ऐसी औरत जो रिश्ते में उसकी कुछ भी न लगती हो. जिसने उसके प्रेम में कोई कसीदे न काढ़े हों. जिसके लिए खुद उसके मन में प्रेम या इश्क जैसे कोई भावना न हो.

मुझे इश्क नहीं करना था. मुझे तो मेरा इश्क मिल चुका था कार्ल में. कार्ल से जिस गहराई के साथ मैं जुडी हूँ इतनी मैं अपने पहले पति विक्टर के साथ भी नहीं जुड़ पाई थी. शायद वह मेरी अल्हड जवानी का प्रेम था और जल्दी ही मेरी ज़िंदगी से रुखसत भी हो गया था.

कार्ल मेरी ज़िंदगी में तब आया था जब मैं निराश थी और वो खुद भी कुछ ऐसे ही दौर से गुज़र रहा था. हम दोनों ने मिल कर एक दूसरे के सहारे खुद को इस भंवर से निकाला था और अब साथ थे. एक दूसरे के प्रेम में जुड़े इज्ज़त के साथ जीते हुए. मैं इस बेशकीमती हीरे जैसे प्रेम को किसी भी कीमत पर खो नहीं सकती थी.

लेकिन मुझे खुद को इत्मीनान से जीने देने के लिए बच्चे की सख्त ज़रुरत थी. और अब इसके लिए मुझे एक मर्द की ज़रूरत थी. जो मुझे प्रेम न करे लेकिन मेरी दैहिक ज़रुरत को प्रेम और सम्मान से पूरा करे. ऐसी विडंबना भरी मांग मैं किसके आगे रखती? मैं बहुत पशोपश में थी. कुछ समझ नहीं आ रहा था. कई दिन इसी उलझन में निकले थे कि एक दिन मुझे मेरे दोस्त रुशील का फ़ोन आया जो मुंबई में मेरा कलीग था.

हम साथ ही एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे जब मैं विक्टर के जाने के बाद दिन काटने का कोई जुगाड़ करने की फ़िराक में रहती थी. उस वक्त रुशील ने मेरे सामने प्रेम प्रस्ताव रखा था जिसे मैंने सिरे से नकार दिया था.

मुझे रुशील का व्यक्तित्व मेरे अनुकूल नहीं लगा था. वह बेहद चंचल और बातूनी युवक था. जो ज़ाहिर है मेरे जैसे मिजाज़ की औरत को पसंद आना ही नहीं था. उसने भी सम्मान के साथ मेरी न को स्वीकार किया था और कुछ महीनों के बाद अपनी माँ की सुझाई हुयी लडकी से शादी कर ली थी.

उस दिन अचानक उसका फ़ोन आया तो मुझे सारी बातें याद आ गयीं. वह कुछ दिनों के लिए दिल्ली में था. अचानक जाने क्या हुआ कि मुझे लगा जैसे मुझे मेरा नियोग देवता मिल गया है. मैंने उसे अगले दिन फ़ोन किया और हमने वीकेंड पर मिलना तय कर लिया.

वह सुबह फिर किसी नयी उम्मीद के साथ उगी थी. मैंने उठ कर अपना चेहरा खुद को दिखाया था और कार्ल को फैक्ट्री जाते हुए देखती बैठी रही थी. उसके जाने से मैंने अपने मन में और कोख में उसके बच्चे की कल्पना की थी. वह बच्चा जो कार्ल मुझे नहीं दे सकता था लेकिन मैं ये भी जानती थी की जब भी मुझे बच्चा होगा वह कार्ल का ही होगा, बीज चाहे जिसका भी हो. मैने ज़िंदगी के नशे का घूँट उस सुबह कुछ ज्यादा ही भर कर पिया था.

जिस वक़्त मैं उस होटल की लॉबी में पहुँची जहाँ रुशील ठहरा हुआ था मेरा सुरूर उरूज़ पर था. मैं देह ही देह में बसी मन ही मन हो चुकी थी. मेरे पाँव ज़मीने पर नहीं पड़ रहे थे. मेरी आवाज़ मानो कहीं दूर से निकल कर आ रही थी और मुझे हर उस इंसान की आवाज़ में घुँघरू बजते सुनायी दे रहे थे जो उस वक़्त मुझ से कुछ भी कह रहा था. मेरी मुस्कान अपने किनारे तोड़ कर खिलखिलाहट में बहे चली जा रही थी.

इसी सजग मदहोशी में जब मैं रुशील के कमरे में दाखिल हुई तो मैंने देखा कि वो कमरे में नहीं था. मैं असमंजस में पड़ गयी. मैंने दरवाज़ा नॉक तो किया था और उसकी आवाज़ भी सुनी थी ये कहते हुए कि, "अंदर आ जाओ."

तो वह गया कहाँ? हैरान परेशान मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या करूँ? रुकूँ या कि उलटे पैर लौट जाऊं? ये सोच ही रही थी कि रुशील बाथरूम से निकल कर आया. उसने गहरे लाल रग की टीशर्ट और सफ़ेद हाफ पेंट पहन रखी थी, बदन पहले से कुछ भर गया था. चेहरे पर फ्रेंच कट दाढ़ी उगा ली थी जिसके चलते वह कुछ कुछ यूरोपीय लगने लगा था.

हमने नज़र भर के एक दूसरे को देखा तो उसने मेरी तरफ बाहें फैला दीं. मैंने फ़ौरन आगे बढ़ कर उसके आलिंगन का जवाब आलिंगन से दिया. मेरी तरफ से ये एक सादा दोस्ताना आलिंगन था जिसमें एक पुराने दोस्त से फिर से मिलने की ललक थी.

लेकिन जैसे ही मैंने आलिंगन के नार्मल वक़्त के बाद अपनी बाहों की पकड़ कुछ ढीली की तो उसने अपनी पकड़ मज़बूत कर दी. मैंने कसमसा कर खुद को रुशील से अलग किया और उसे लगभग धकेलते हुए आ कर सोफे पर बैठ गयी. इन्हीं कुछ पलों में ही मेरे भीतर के उन्माद पर बर्फीला पानी पड़ चुका था.

वह उसी तरह खड़ा रहा.

“कैसे हो?” आखिर मैंने ही चुप्पी तोडी.

“ठीक ही हूँ. तुमने तो भूले से भी मेरी कभी खबर नहीं ली. आज भी मैंने ही दिल्ली आ कर तुम्हे याद किया तो तुमसे मिलना हुआ है.”उसके स्वर में शिकायत थी.

“रुशील हमारी दोस्ती को तुमने ही प्रेम प्रस्ताव से खराब किया था. क्या खबर रखती तुम्हारी? तुमने तो शादी कर ही ली थी. खबर रखने वाली तुम्हारे साथ है.” मैंने हंस कर माहौल को हल्का किया था.

वह भी हंस पड़ा था लेकिन उसकी हंसी मुझे बनावटी लगी थी.

“हाँ है तो. एक तरह से है भी. और नहीं भी.” उसके चेहरे और बदन पर मायूसी थी.

“मतलब?” मैं चौंक गयी थी. अमूमन अरेंज्ड शादियाँ तो चल ही जाती हैं, इत्मीनान से. मुझे उसे देख कर भी ऐसा नहीं लगा था कि उसकी शादी में कोई दरार होगी. वह एक मुतमईन और खुश पति लग रहा था.

“यार बच्चे हो गये हैं, दो. एक बेटा और एक बेटी. उनसे मनीला को फुर्सत ही नहीं. उन्हीं में लगी रहती है सारा दिन. मैं तो जैसे उसको बच्चे देने के लिए ही था उसकी ज़िंदगी में और अब उसकी और बच्चों की ज़रूरतों के लिए एक कमाऊ मशीन बन कर रह गया हूँ."

मेरा मन एक ही फूँक में मुझ गया था.

"वे तुम्हारे ही तो बच्चे हैं. और उनकी देखभाल कर रही है मनीला. तुम्हारी पत्नी है. तुम्हारे ही बच्चों की माँ है. "

"तुम नहीं समझोगी. तुमने बच्चे नहीं किये हैं न. अच्छा किया. औरत बंट जाती है बच्चों के बाद. मर्द के लिए वक़्त ही नहीं रहता उसके पास. "

मैं चुपचाप सुन रही थी. और सोच रही थी कि शायद इसी तरह की खुदगर्जी मैंने उस वक़्त रुशील में पाई होगी तभी उसके प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा कर आगे बढ़ गयी थी. खुद पर अफ़सोस भी हुआ की क्यों दबी हुयी राख को कुरेदने चली आयी थी. मंशा चाहे जो भी रही हो इस वक़्त अचानक मुझे अपनी सोच और इरादे पर बहुत शर्म महसूस होने लगी थी.

ऐसे खुदगर्ज़ पुरुष का बीज मैं कैसे खुद में धारण कर सकती थी? जिसे खुद अपने ही परिवार से प्रेम नहीं. जो सिर्फ अपनी निजी ज़रूरतों और इच्छाओं का सम्मान हर हालत में दूसरों से करवाना चाहता है बिना उनकी सुख सुविधा का ख्याल रखे. उस वक़्त सिर्फ और सिर्फ एक ही वाक्य दिमाग में गूँज रहा था.

"मुझे ऐसे पुरुष का बीज नहीं चाहिए."

उसके बाद भी बातों का सिलसिला चलता रहा था लेकिन मैं अनमनी हो चुकी थी. आखिर कार आधे घंटे तक किसी तरह इधर-उधर की बातों और पुराने मिलने वालों, सहयोगिओं, दोस्तों की जानकारी और दूसरी बातें करने और एक कप चाय पीने के बाद मैंने रुशील से रुखसती ली थी.

मेरा मन पूरी तरह बुझ चूका था. मन की चाह और देह के आकर्षण से खिंची मैं चली तो गयी थी रुशील से मिलने मगर मेरा मकसद उसकी बातों को सुन कर गायब ही हो गया था मन से.

उस रात मैं सो नहीं पायी थी. रुशील के साथ इस मुलाकात के बाद एक और बार मैंने एक चांस लिया था जब मैं फैक्ट्री के काम से बंगलोर गयी थी एक हफ्ते के लिए. काम तो एक ही दिन का था लेकिन मैंने एक हफ्ते वहां रहने का फैसला किया था.

मेरा एक पुराना सहपाठी कॉलेज के ज़माने से वहां था. अब्दुल रजाक. मैंने उससे मिलने और उसे परखने का फैसला किया.

अब्दुल बेहद खूबसूरत लम्बा-ऊँचा खुशमिजाज़ मर्द था. कॉलेज के ज़माने से ही मैं उसे पसंद करती थी और शायद वह भी मुझे पसंद करता था. कई बार ऐसा लगा था मुझे. लेकिन स्कूल के ज़माने से ही मैं तो विक्टर के साथ थी. सो अब्दुल और मेरी पसंद को इश्क की हवा नहीं लग पायी.

उस रोज़ जब अब्दुल मेरे होटल में मुझसे मिलने आया तो मैंने ये सावधानी बरती कि सीधे ही उसे कमरे में नहीं बुलाया. हम होटल की कॉफ़ी शॉप में मिले. मैंने सोचा था कि अगर बात कुछ आगे बढ़ी तो मेरा कमरा तो है ही.

हम मिले और एक दूसरे को देखते ही पुराने दिनों की यादें ताज़ा हो आयीं. बहुत सारी बातें हुईं और ज़ाहिर है विक्टर की बातें हुईं. कैसे मैं और विक्टर हर वक़्त एक दूसरे में खोये रहते थे. आज अब्दुल ने मुझे खुल कर बताया कि किस तरह वह विक्टर से बेहद जलन महसूस किया करता था. और कैसे विक्टर की प्यार भरी दोस्ती ने उस जलन को मिटा कर हम तीनों के बीच एक दोस्ताना रिश्ता कायम किया था. और कैसे उसी दोस्ती के नाते आज वह इतना सहज हो कर मुझे मिल पा रहा था.

मैंने भी बहुत दिनों के बाद विक्टर को इतनी शिद्दत से याद किया था. और खुद को रोक नहीं पायी थी. मेरे आंसू लगातार बह रहे थे. अब्दुल परेशान हो चला था. ज़ाहिर है उसकी मंशा मुझे रुलाने की तो कत्तई नहीं थी. मैं भी खुशनुमा वक़्त उसके साथ बिताना चाहती थी और माहौल कुछ और ही याने बेहद ग़मगीन हो गया था.

उसी तरह बहते आंसुओं के साथ रुंधी आवाज़ में मैंने उसे विदा किया था और अगले दिन हमने मिलने की बात तय की थी.

उस शाम मैं अपने कमरे में ही रही. वाइन पीती रही. और विक्टर को याद कर-कर के रोती रही. बीच बीच में कार्ल का खयाल भी आ जाता और मन उसके लिए प्यार से उमड़-उमड़ जाता. लेकिन साथ ही उस बच्चे का ख्याल भी आ जाता जो मैं कार्ल के साथ पैदा करना चाहती थी.

कुल मिला कर एक बहुत भारी रात मैंने काटी थी अपनी ज़िन्दगी के तमाम पुरुषों की याद में. हर सांस के साथ कोई न कोई भूली याद कसक उठती थी और मेरा एक और आंसू आँख में उतर आता था, बेशर्मों की तरह. सुबह तक गला बैठ गया था रुलाई को रोकते-रोकते. खुल कर रोने से मैं हमेशा बचती हूँ. और शायद यही वजह है कि ये आंसू अक्सर बाँध तोड़ कर बह निकलते हैं. गम में और खुशी में दोनों ही वक़्त एकसार से.

विक्टर जब अपनी आखिरी फ्लाइट के लिए गया था तो हमने कुछ दिन पहले ही अपना परिवार बढ़ाने की बात पर सोचना शुरू किया था. उस दिन जाते-जाते विक्टर ने शरारत से मेरी तरफ देखते हुए कहा था, "मैं आ जाऊं तो हमारी कोशिशें जारी रखेंगे."

मैंने उसकी आँखों में भरी शरारत को लपक कर दिल में बसा लिया था और उसके इंतजार के चार दिनों को अपनी ज़िंदगी की दूसरी हलचलों से भर दिया था ताकि जब वो आये लौट कर तो मुझे पूरा का पूरा अपने साथ पाए.

इसी इंतज़ार में कटे तीन दिनों के बाद जब फ़्रंकफ़र्ट से उसकी वापसी में प्लेन क्रेश हो गया था तो मैं जिस गढ़े में जा गिरी थी वहां से निकलने में मैंने जो कुछ भोगा और देखा था उसको याद कर के मेरे आज भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं. बच्चे का ख्याल भी मन में आने ही नहीं पाता था और शायद यही वजह थी कि कार्ल के साथ मेरी शादी शुदा ज़िंदगी बहुत सुकून से चल रही थी क्योंकि वह खुद भी ज़िंदगी में मेरे अलावा और कुछ नहीं चाहता था.

मगर अब उस छोटी बच्ची ने मेरे अन्दर जिस औरत को जगा दिया था वह किसी हाल में भी बुझने को तैयार नहीं थी. उसे तो एक बच्चा अपने भीतर बनाना ही था तभी उसे चैन आने वाला था.

उस रात के रतजगे में मैंने रोते-हँसते तय कर लिया था कि कल अब्दुल से मुलाकात में इस बात को साफ़ शब्दों में रख देना है. इससे पहले कि हमारी बातचीत किसी और दिशा में मुड़ जाए और मैं मुद्दे से भटक जाऊं.

एक दिन तो मैं जाया कर ही चुकी थी. मुझे पूरा यकीन था कि अब्दुल मेरी बात समझेगा और मुझे सहयोग भी करेगा. मर्द की कमजोरी वैसे भी औरत फ़ौरन ताड़ लेती है. मैंने देख लिया था अब्दुल आज भी मेरे आकर्षण से छूटा नहीं था.

और अब्दुल मेरे आकर्षण से आज भी छूटा नहीं था यह अगली ही सुबह साबित भी हो गया था. अभी मैं उठी भी नहीं थी कि मेरे कमरे का फ़ोन बज उठा. रात भर जागने के बाद सुबह मेरी आंख लगी थी. कोशिश करके बंद होती जाती ऑंखें खोल कर सबसे पहले मैंने सामने दीवार पर टंगी घड़ी में वक़्त देखा तो सुबह के साढ़े आठ बजे थे.

इतनी देर तक तो मैं कभी नहीं सोती. फ़ौरन फ़ोन उठाया तो रिसेप्शन से सुबह के अभिवादन के बाद जो बात आयी तो मेरा चौंकना स्वाभाविक था.

"मे'म हियर इज़ अ विजिटर फॉर यू. हिज नेम इज़ मिस्टर अब्दुल. शैल आय सेंड हिम टू योर रूम?"

मैं एकाएक तो समझ ही नहीं पायी कि क्या करूँ. फिर बिजली की फुर्ती से दिमाग ने घोड़े दौड़ाये और यह तय पाया कि जो बात मैं अब्दुल से करना चाहती हूँ वह कमरे में ही निरापद रूप से हो पायेगी. सो मैंने उसे कमरे में भेजने का निर्देश दे कर उसी फुर्ती से बाथरूम का रुख किया. जब तक मैं धडाधड ब्रश कर के मुंह धो कर जल्दी से अपने कपडे बदल कर उसका सामना करने लायक हुयी मेरे दरवाजे की घंटी बज चुकी थी.

मैं उसी तरह लपकते हुए दरवाजे की तरफ भागी. लेकिन फिर रुक कर खुद को कुछ संयत किया और अहिस्ता क़दमों से जा कर दरवाज़ा खोला.

सामने टेनिस की यूनिफार्म में अब्दुल खड़ा था. बिलकुल कॉलेज के ज़माने जैसा कॉलेज का टेनिस स्टार, कई चैंपियन शिप्स का विजेता. बस बालों में कुछ खिचड़ी पक चुकी थी अब तक. बाकी वैसा ही चुस्त-दुरुस्त और मुस्तैद. कम बोलने वाला लेकिन बात का धनी अब्दुल. मैं मानो नए सिरे से उस पर मुग्ध हो गयी थी. ख्याल आया कि ये ख्याल अच्छा है. मुझे ऐसी ही पुरुष का बीज तो चाहिए जिसे मैं दिल से पसंद करूँ.

मुस्कुरा कर हम दोनों एक दूसरे के गले लगे और अन्दर आ कर वह खिड़की से सटी कॉफ़ी टेबल के दोनों और रखी दो कुर्सियों में से एक पर बैठ गया. मैं भी उसकी तरफ देखती सामने की कुर्सी पर बैठ गयी.

कुछ देर गहरी खामोशी छाई रही. मैं इंतज़ार करती रही कि अब्दुल कुछ बोलेगा और अब्दुल मेरी आवाज़ सुनने को बैठा रहा. या शायद हम दोनों ही बीते वक़्त को हम दोनों के बीच से खामोशी के साथ गुज़र जाने का इंतज़ार करते रहे.

इतना कुछ था हमारे बीच. कॉलेज के मस्ती भरे लेकिन आने वाले दिनों की चिंता से भरे दिन. जैम सेशन के दिन. कैंटीन में खाए गए तेल में लिथड़े समोसों और ब्रेड पकोड़ों के दिन. विक्टर और मेरे प्यार और झगड़ों के दिन. वे दिन जिन के गवाह कई दोस्तों समेत अब्दुल भी रहा था.

जब मुझसे चुप्पी सही नहीं गयी तो मैं बोल ही पडी, "तुम ये सुबह सुबह टेनिस खेलने तो नहीं आये हो यहाँ. क्लब से सीधे यहाँ आ गए कि क्लब गए ही नहीं?'

वह ठठा कर हंस पडा.

"यार तुम ज़रा सी भी चालाकी नहीं करने देती हो. सुबह उठते ही तुमसे मिलने का मन हुआ. वैसे रात भर तुम्हारा ख्याल था. सो भागा चला आया. अब इतनी सुबह टेनिस खेलने निकल जाऊं तो रुखसाना को कोई सवाल नहीं करना पड़ता मुझसे. "

मैं भी मुस्कुरा पडी थी. रुखसाना अब्दुल के परिवार से ही थी. अब्दुल की बड़ी भाभी की भतीजी. ये शादी घर के बुजुर्गों ने करवाई थी. दोनों कमोबेश खुश थे एक दूसरे के साथ. दो बच्चे भी हैं. एक बार दिल्ली में मिलना हुआ था मेरा रुखसाना से, जब ये लोग किसी शादी में आये थे. बेहद प्यारी लडकी है. पति और बच्चों में मगन.

"याने रुखसाना को बता कर नहीं आये हो कि मुझसे मिलने आये हो?" मैं थोडा चौंकी थी.

हालाँकि मैं भी इस बार रुखसाना से मिलने के इरादे से नहीं रुकी थी यहाँ. लेकिन फिर भी ये सोच कर कुछ अजीब लगा कि अब्दुल ने क्या सोच कर मेरे आने की बात रुखसाना से छिपाई थी.

"नहीं यार. तुमने ही तो कहा था कि तुम मुझसे कुछ बात करना चाहती हो. तो मुझे लगा कि जो भी बात है हम कर लें तो बाद में रुखसाना तुमसे मिल लेगी. इसीलिये आज मैं सुबह ही आ गया हूँ. दिन में मंगलुरु जाना है मुझे एक ज़रूरी मीटिंग है. रात हो जायेगी आते-आते. कल भी बात हो नहीं पायी. हम दोनों ही.... " कहते कहते वह रुक गया था. शायद डर गया था कि मैं फिर भावुक न हो जाऊं और बात अधूरी न रह जाए.

अब मैं क्या कहती? इतना कुछ कहना था. सच में तो इतनी बड़ी बात कहनी थी और अब कहने का वक़्त आया था तो मैं पत्थर की तरह जम के रह गयी थी. उसकी तरफ देख पाना भी मुश्किल लग रहा था. जबकि अब्दुल बेहद उत्सुकता से मेरी तरफ देखता इंतज़ार कर रहा था. शायद उसे देर भी हो रही हो. उसने बता ही दिया था की उसे मीटिंग के लिए मंगलुरु जाना था.

मैंने खुद को अंदर से मज़बूत किया. जैसे एक रस्सी की सीढ़ी का सिरा पकड़ा और अपने अन्दर की खाई में बैठे हुयी औरत को खड़ा किया और अहिस्ता-आहिस्ता ऊपर पहाडी पर चढ़ने को तत्पर हुयी.

पहला कदम मैंने रस्सी की पहली सीढ़ी पर रखा.

"अब्दुल मुझे तुमसे एक बहुत ही ज़रूरी बात करनी है."

"हाँ. वो तो तुम मुझे बता ही चुकी हो. अब ये बताओ कि ये ज़रूरी बात है क्या?"

अब तक इस पहले पायदान पर मेरा पैर कुछ जम चुका था. मैंने अगले पायदान पर रखने के लिए पैर उठाया.

"मैं एक बच्चा चाहती हूँ." यहाँ पैर जमाने में मैं लड़खड़ा गयी थी. मेरी आँखें अब अब्दुल को नहीं देख पा रही थी. मैंने नज़रें खिड़की से बाहर जमा दी थीं. हालाँकि वहां उस वक़्त मुझे नज़र कुछ भी नहीं आ रहा था. मेरी नजरें तो मेरे अन्दर के सच को बयान करने में भारी हुईं भीतर ही भीतर धंसी जा रही थीं.

"ये तो बहुत अच्छी बात है रोजी. अब तुम्हें बच्चा होना ही चाहिए. इससे तुम्हारी ज़िन्दगी मुकम्मिल हो जायेगी." अब्दुल के ठहरे हुए स्वर में जो था उसे मैं सुन कर भी अनसुना करने को मजबूर थी.

वहां हैरत थी कि ये बात मैं अपने पति कार्ल से न कह कर उससे क्यों कह रही हूँ. लेकिंन शायद वह भी इस बात को समझ गया था कि मेरी, विक्टर और उसकी दोस्ती मेरे लिए हमेशा ख़ास रही है. और अब जब विक्टर इस दुनिया में नहीं है तो दोस्ती का फ़र्ज़ उसको निभाना ही है.

अब मैंने इससे अगले पायदान की तरफ अपने कदम उठाये. अब तक मेरे क़दमों में लडखडाहट काफी हद तक कम हो गयी थी.

"मुझे कार्ल बच्चा नहीं दे सकता और मुझे बच्चा तुमसे चाहिए." ये कह कर मैंने रस्सी की सीढ़ी को एक झटके में फलांग लिया और पहाडी के आखिरी सिरे पर पहुँच कर हांफने लगी.

अब्दुल भौचक्का था. कुछ पल एक ठहरा हुआ सन्नाटा पूरे कमरे में गूंजता रहा. मैं और अब्दुल इसमें डूबते उतराते रहे. मैं विक्टर को याद कर रही थी. अब्दुल शायद रुखसाना और विक्टर दोनों को.

हैरत की बात ये थी कि इस वक़्त मेरे ज़ेहन में एक बार भी कार्ल का ख्याल नहीं आया था. हालाँकि कार्ल का नाम मैंने लिया था लेकिन उस नाम के साथ मेरे दिल में तस्वीर विक्टर की ही बनी थी.

तो क्या मैं कार्ल को प्यार नहीं करती थी? क्या मैं अब तक कार्ल में विक्टर की ही तलाश कर रही थी. तो फिर ये मांग मैंने अब्दुल से क्यूँ की थी? मैं क्यों कार्ल के नाम से बच्चा पैदा करने को तैयार थी? किसी भी सूरत में? किसी भी मर्द से बीज ले कर? लेकिन बच्चा तो मुझे खुद के लिए चाहिए था. कार्ल को तो चाहिए ही नहीं था. ये सिर्फ मेरी और मेरी मांग थी. तो मैं फिर इसे किसी भी बाप का नाम क्यों देना चाहती थी? क्या मैं सचमुच कार्ल से प्यार करती थी?

मैं अपने आप में ही गुम हो गयी थी और जब मैंने अब्दुल की तरफ एक नज़र देखा तो पाया कि वह भी कहीं गुम ही था.

कितनी देर हम इसी तरह इस बोझ को ढोते बैठे रहे नहीं पता लगा. इस बीच नाश्ता आ चुका था जिसका आर्डर मैंने अब्दुल के आते ही कर दिया था. कुछ मिनट इस काम में खर्च हो गए. इस बीच जैम लगाने और अंडे को छीलने जैसी सामान्य बातों ने हमारे बीच की हवा को कुछ हल्का कर दिया था.

नाश्ता कर के अपने-अपने चाय का कप थामे हम एक बार फिर एक दूसरे के सामने बैठे थे. मैं अभी तक अब्दुल के जवाब के इंतज़ार में थी. और अब्दुल शायद अपने अन्दर शब्दों को ढाल रहा था जिनसे वो मेरा सामना कर सके. आखिर उसकी भारी आवाज़ मुझे दूर से आती सुनायी पडी.

"रोज़ी. डू यू नो आय ऑलवेज लव्ड यू."

ये सवाल नहीं था लेकिन मुझे जवाब देना था. झूठ कैसे बोलती?

"येस."

वह फिर बहुत देर चुप बैठा रहा.

"अब हालात बहुत बदल गए हैं. लेकिन आज भी हम साथ हो सकते हैं. मैं तुमसे निकाह कर लूँगा. इस्लाम मुझे इसकी इजाज़त देता है. रुखसाना को मैं मना लूँगा. मैं इज्ज़त के साथ तुम्हें अपने बच्चे की माँ होते देखना चाहता हूँ."

ये कैसा मोड़ आ गया था? इस बारे में तो मुझे कोई अंदेशा ही नहीं था. नहीं. मुझे शादी नहीं करनी अब्दुल से. मुझे सिर्फ बच्चा चाहिए. मुझे शादी में सिर्फ कार्ल के साथ रहना है. ये बात मैं चीख चीख कर कहना चाहती थी. उठ खडी हुयी और फिर बैठ गयी. लगा अब्दुल नहीं समझ पायेगा. फिर लगा कि एक बार कोशिश कर के देखूं.

"अब्दुल. नहीं. बिलकुल नहीं. मैं तुम्हें प्यार नहीं करती. मेरा मतलब है वैसा वाला प्यार. वो मैं कार्ल से करती हूँ. मुझे तुमसे सिर्फ बच्चा चाहिए." मैंने जैसे अब्दुल पर अपना हक ही समझ लिया था. लेकिन यहाँ मैं गलत थी. ये अगले ही पल मैं समझ गयी थी.

"रोजी. मैं भी चाहता हूँ कि हमारे बच्चे हों. लेकिन मैं शादी के बिना ऐसा नहीं कर सकता. मेरा ज़मीर इसकी इजाज़त नहीं देता. इस्लाम मुझे तुमसे निकाह करने की इजाज़त देता है. तुम कार्ल से तलाक ले लो. तब तक हम इंतज़ार कर लेंगें."

मैं समझ गयी थी. इसके बाद मैंने बहस करना सही नहीं समझा.

"अब्दुल. तुम मुझे गलत समझ रहे हो." मायूसी मेरे हर लफ्ज़ में थी.

अब्दुल भी समझ गया था कि हम दोनों ही अलग-अलग ज़मीन पर खड़े एक दूसरे की तरफ बढ़ने को बेताब लेकिन अलग-अलग वजहों से अपने पैरों में पत्थर बांधे ज़िंदगी की रेलमपेल में काफी आगे निकल चुके हैं. अब कोई ज़मीन ऐसी नहीं बची थी जहाँ अब्दुल मेरे साथ एक नए पुल को बाँध सके. वह पुल बांधे बिना मेरी तरफ बढ़ना नहीं चाहता था और मैं किनारे पर ही खड़ी रह कर हलके से झुकते हुए बहती नदी में से एक सीपी को चुरा ले जाना चाहती थी.

उस दिन हम दोनों जब एक दूसरे से विदा हुए तो शायद दोनों पर ये सोच हावी थी कि अब कभी नहीं मिल पाएंगे. कम से कम इस तरह सजह हो कर तो हरगिज़ नहीं, जैसे अब तक मिलते आये थे. उस अजन्मे बच्चे का साया हमारे बीच भूत की तरह मौजूद रहेगा.

लेकिन मेरे अन्दर जो ख्वाहिश भूत की तरह बस गयी है उसका क्या करूं? जैसे जैसे इसके पूरे होने की राह में अडचने बढ़ रही हैं वैसे वैसे ये ख्वाहिश भी दमदार होती जा रही है.

मैं बंगलुरु से लौट तो आयी उसी दिन, मगर जैसे मेरा कोई अंश आसमान में ही अटका रह गया. वापसी की फ्लाइट के दौरान मेरा दिल किया कि ये फ्लाइट कभी ख़त्म ही न हो. मैं ज़िन्दगी भर यूँही आसमान में अटकी अपनी ख्वाहिशों के सर होने के इंतजार में चुपचाप अपने में खोयी बैठी रहूँ. किसी से न कुछ कहना हो न कुछ सुनना.

अब्दुल के साथ हुयी बातचीत रह रह कर याद आती रही. मैं उसके शादी के प्रस्ताव पर हैरान भी होती रही और दुखी भी. एक बार को भी भूल कर भी इस प्रस्ताव पर मुझे झूठे से भी खुशी नहीं हुयी.

हालाँकि मैं हमेशा से जानती थी कि अब्दुल मेरी तरफ आकर्षित है और मेरे मन में भी उसके बच्चे को अपनी कोख में लेने की इच्छा पैदा हुयी थी लेकिन इसके बावजूद मैं उसके इस प्रस्ताव पर दुखी तो थी ही, साथ ही मेरे अंदर एक अलग ही तरह का गुस्सा भी भर रहा था. जैसे-जैसे मैं उन बातों को बार बार याद कर रही थी वैसे-वैसे मेरा यह गुस्सा बढ़ रहा था. अब्दुल क्यों वह मुझ से प्रेम करता था? इतने साल बीत जाने के बाद, इतना कुछ हो जाने के बाद भी उस प्रेम की दुहाई देने क्यों बैठ गया था?

आखिर अब्दुल ने ये बात सोच भी कैसे ली थी कि मैं कार्ल से तलाक ले कर उससे शादी करने के प्रस्ताव को सुनूंगी. फिर अगले ही पल ये ख्याल भी आया कि यह मैं ही तो थी जो उसके बच्चे को अपनी कोख में धारण करने का प्रस्ताव ले कर उसके पास गयी थी.

इस प्रस्ताव पर अब्दुल की प्रतिक्रिया उसके हिसाब से, उसकी परिस्थितियों और उसकी समझ के अनुसार बिलकुल सही थी. मुझे समझ में आ रहा था कि मेरी ही मांग जायज़ नहीं थी.

जैसे ही यह बात मेरे दिमाग में आयी एक ही झटके में मुझे यह भी समझ आ गया कि मुझे अपनी इस नाजायज़ मांग को किसी नाजायज़ तरीके से ही पूरा करना होगा.

इसके साथ ही आसमान में बैठे हुए बादलों को अपनी खिड़की से देखते हुए जहाँ धरती और धरती की कठोर सच्चाईया मेरी नज़रों से ओझल थीं, मेरे दिमाग ने मेरे सपने को आकार देने की एक तरकीब को ठोस शक्ल देना शुरू कर दिया था. इस पूरी प्रक्रिया के चलते रहने तक मैं आसमान में ही टंगे रहना चाहती थी.

यहाँ बैठ कर मेरा दिमाग सही दिशा में काम कर रहा था. मुझे भरोसा था कि यही खुला हुआ आसमान अपनी खुली हुयी रवायत में मुझ पर करम करेगा और मुझे अपनी इस क़ैद से रिहाई हासिल करने की कोई अनूठी राह दिखायेगा.

और यही हुया भी था. उस शाम जब मैं कैब में एअरपोर्ट से घर जा रही थी तब मैं तय कर चुकी थी कि अब किसी दोस्त को अपनी इस कमज़ोर ज़मीन की मज़बूत ख्वाहिश की हवा नहीं लगने देना है. अब मुझे खुद ही एक आज़ाद ख्याल औरत का किरदार निभाना है जो किसी भी मर्द के साथ जिस्मानी आकर्षण से बंधी हमबिस्तर हो सकती है और आसानी से उसे भूल भी सकती है. मेरे आजादी की राह इन्हीं बदचलन गलियों से हो कर गुज़रने वाली थी.

***