Desh Virana - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

देस बिराना - 5

देस बिराना

किस्त पांच

इस वक्त मेरा सारा ध्यान उस करतार सिहां की तरफ है जो अपनी लड़की मेरे पल्ले बांधने की पूरी योजना बना कर आया हुआ है। अच्छा ही है कि आज मैं नंदू के साथ बाहर निकल जाऊंगा, नहीं तो वो मुझे अपने सवालों से कुरेद - कुरेद कर छलनी कर देगा। कैसे शातिराना अंदाज पूछ रहा था - बंबई विच तुसीं कित्थे रैंदे हो और घर बार दा की इंतजाम कित्ता होया ए तुसी..? जैसे मैं बंबई से उसकी दसवीं या नौंवी पास लड़की से रिश्ता तय करने के लिए यहां आया हूं। न बात न चीत, निकाल के पांच सौ एक रुपये मेरी तरफ बढ़ा दिये - ऐ रख लओ तुसी..।

क्यों रख ले भई, कोई वजह भी तो हो पैसे रख लेने की। मेरा दिमाग बुरी तरह भन्ना रहा है। हमारी बेबे भी जरा भी नहीं बदली.. उसका काम करने का वही पुराना तरीका है। अपने आप ही सब कुछ तय किये जाती है। लेकिन इस मामले में तो दोनों की मिली भगत ही लग रही है मुझे..!

मैं दारजी को न तब समझ पाया था और न अब समझ पा रहा हूं। हालांकि जब से आया हूं उनका गुस्सा तो देखने में नहीं आया है लेकिन जैसे बहुत खुश भी नहीं नज़र आते। अपना काम करते रहते हैं या इधर उधर निकल जाते हैं और घंटों बाद वापिस आते हैं। मुझसे भी जो कुछ कहना होता है बेबे के जरिये ही कहते हैं - दारजी ए कै रये सन या दारजी पुछ रये सन....।

हिसाब लगाता हूं दारजी अब पचपन-छप्पन के तो हो ही गये होंगे। अब उमर भी तो हो गयी है। आदमी आखिर सारी ज़िंदगी अपनी जिद लेकर लड़ता झगड़ता तो नहीं रह सकता.. आदमी मेहनती हैं और पूरे घर का खर्च चला ही रहे हैं। गुड्डी की पढ़ाई है। गोलू, बिल्लू ने भी अभी ढंग से कमाना शुरू नहीं किया है। ऐसा तो नहीं हो सकता कि मेरे आने से दारजी को खुशी न हुई हो। लगता तो नहीं है, लेकिन वे जाहिर ही नहीं होने देते कि उनके मन में क्या है। जब भी उनके पास बैठता हूं, एकाध छोटी मोटी बात ही पूछते रहे हैं - बंबई में सुना है, मकान बहुत मुश्किल से मिलते हैं। खाने-वाने की भी तकलीफें होंगी। क्या इस तरफ ट्रांसफर नहीं हो सकता....। और इसी तरह की दूसरी बातें।

  • कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा.... किसकी मदद ली जाये....कोई भी तो यहां मेरा राज़दार नहीं है। सभी कटे-कटे से रहते है। गोलू बिल्लू भी मुझे ऐसे देखते हैं मानो मैं उनका बड़ा भाई न होकर दुश्मन सरीखा होऊं। जैसे मैं उनका कोई हक छीनने आ गया होऊं। पहले ही दिन तो गले मिल मिल कर रोये थे और दो-चार बातें की थीं, उनमें भी अपनी परेशानियां ज्यादा बता रहे थे। उसके बाद तो मेरे साथ बैठ कर बातें करते ही नहीं हैं।

    जब से मैं आया हूं, गुड्डी ही सबसे ज्यादा स्नेह बरसा रही है मुझ पर। जब भी बाहर से आती है, उसके साथ एक न एक सहेली ज़रूर ही होती है जिससे वह मुझसे मिलवाना चाहती है।

    उसी को घेरता हूं।

    उसने मेरा लाया नया सूट पहना हुआ है। लेकिन चप्पल उसके पास पुराने ही हैं। यही तरीका है उसे घर से बाहर ले जाने का और पूरी बात पूछने का।

    उसे बुलाता हूं - गुड्डी, जरा बाजार तक चल, मुझे एक बहुत ज़रूरी चीज़ लेनी है। जरा तू पसंद करा दे।

    - क्या लेना है वीर जी, वह बड़ी-बड़ी आंखों से मेरी तरफ़ देखती है।

    - तू चल जो सही। बस दो मिनट का ही काम है।

    - अभी आयी वीर जी, जरा बेबे को बता हूं आपके साथ जा रही हूं।

    रास्ते में पहले तो मैं उससे इधर-उधर की बातें कर रहा हूं। उसकी पढ़ाई की, उसकी सहेलियों की और उसकी पसंद की। बेचारी बहुत भोली है। सारा दिन फिरकी की तरफ घर में घूमती रहती है। स्वभाव की बहुत ही शांत है। आजकल मेरे लिए स्वेटर बुन रही है। अपने खुद के पैसों से ऊन लायी है..। मेरी सेवा तो इतने जतन से कर रही है कि जैसे इन सारे बरसों की सारी कसर एक साथ पूरी करना चाहती हो। जूतों की दुकान में मैं सेल्समैन को उसके लिए कोई अच्छे से सैंडिल दिखाने के लिए कहता हूं।

    गुड्डी बिगड़ती है - ये क्या वीर जी, आप तो कह रहे थे कि आप को अपने लिए कुछ चाहिये और यहां ... मेरे पास हैं ना..

    - तू चुप चाप अपने लिए जो भी पसंद करना है कर, ज्यादा बातें मत बना।

    - सच्ची, वीरजी, जब से आप आये हैं, हम लोगों पर कितना खर्च कर रहे हैं ..

    - ये सब सोचना तेरा काम नहीं है।

    गुड्डी की शापिंग तो करा दी है लेकिन मैं तय नहीं कर पर रहा हूं कि जो सवाल उससे पूछना चाहता हूं, कैसे पूछूं।

    हम वापिस भी चल पड़े हैं। अभी दो मिनट में ही अपनी गली में होंगे और मेरा सवाल फिर रह जायेगा।

    उससे कहता हूं - गुड्डी, बता यहां गोलगप्पे कहां अच्छे मिलते हैं, वहां तो आदमी इन चीजों के लिए तरस जाता है।

    वह झांसे में आ गयी है।

    आपको इतने शानदार गोलगप्पे खिलाऊंगी कि याद रखेंगे। हमारा पैट गोलगप्पे वाला है कैलाश.।

    - कहां है तुम्हारे कैलाश का गोलगप्पा पर्वत..?

    - बस, पास ही है।

    - वैसे गुड्डी बीए के बाद तेरा क्या करने का इरादा है। मैं भूमिका बांधता हूं।

    - मैं तो वीर जी, एमबीए करना चाहती हूं। लेकिन एमबीए के लिए किसी बड़े शहर में हॉस्टल में रहना, कहां मानेंगे मेरी बात ये लोग? आपको तो पता ही है दारजी बीए के लिए भी कितनी मुश्किल से राजी हुए थे।

    - चल तेरी ये जिम्मेवारी मेरी। तू बीए में अच्छे मार्क्स ले आ तो एमबीए तुझे बंबई से ही करा दूंगा। मेरा भी दिल लगा रहेगा। मेरा खाना भी बना दिया करना।

    - सच वीर जी, आप कितने अच्छे हैं, आज आप कितनी अच्छी अच्छी खबरें सुना रहे है। चलिये, गोलगप्पे मेरी तरफ से। लेकिन मैं आपका खाना क्यों बनाने लगी। आयेगी ना हमारी भाभी....।

    अब सही मौका है .. मैं पूछ ही लेता हूं - अच्छा गुड्डी, बताना, ये जो करतार सिहं वगैरह आये थे सवेरे, क्या चक्कर है इनका, मैं तो परेशान हो रहा हूं।

    - कोई चक्कर नहीं है वीर जी, हमारे लिए भाभी लाने का इंतजाम हो रहा है।

    - लेकिन गुड्डी, ऐसे कैसे हो सकता है? तू खुद सोच, मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई को थोड़ी देर के लिए एक तरफ रख भी दूं, अपनी अफसरी को भी भूल जाऊं, लेकिन ये तो देखना ही चाहिये ना कि कौन लोग हैं, क्या करते हैं, लड़की क्या करती है, मेरे साथ देस परदेस में उसकी निभ पायेगी या नहीं, कई बातें सोचनी पड़ती हैं, मैं अकेले रहते रहते थक गया था गुड्डी, इसलिए घर वापिस आ गया हूं लेकिन इतना वक्त तो लेना ही चाहिये कि पहले मेरे घर वाले ही मुझे अच्छी तरह से समझ लें।

    - आपकी बात ठीक है वीर जी, लेकिन बेबे और दारजी का कुछ और ही सोचना है। अभी परसों की बात है, आप कहीं बाहर गये हुए थे। मैं दारजी के लिए रोटी बना रही थी। बेबे भी वहीं पास ही बैठी थी। तभी आपकी बात चल पड़ी। वैसे तो जब से आप आये हैं, घर में आपके अलावा और कोई बात होती ही नहीं, तो दारजी बेबे से कह रहे थे - कुछ ऐसा इंतजाम किया जाये कि अब से दीपू का घर में आना जाना छूटे नहीं। कहीं ऐसा न हो कि आज आया है फिर अरसे तक आये ही नहीं।

    - तो ?

    - बेबे बोली फिर - इसका तो एक ही इलाज है कि कोई चंगी सी कुड़ी वेख के दीपे की सगाई कर देते हैं। शादी बेशक साल छः महीने बाद भी कर सकते हैं, लेकिन यहीं सगाई हो जाने से उसके घर से बंधे रहने का एक सिलसिला बन जायेगा।

    - तो दारजी ने क्या कहा..?

    - दारजी ने कहा - लेकिन इतनी जल्दी लड़की मिलेगी कहां से..?

    - तो बेबे बोली - उसकी चिंता मुझ पे छोड़ दो। मेरे दीपू के लिए अपनी ही बिरादरी में एक से एक शानदार रिश्ते मिल जायेंगे। जब से दीपू आया है, अच्छे अच्छे घरों के कई रिश्ते आ चुके हैं। मैं ही चुप थी कि बच्चा कई सालां बाद आया है, कुछ दिन आराम कर ले। कई लोग तो हाथों हाथ दीपू को सर आंखों पर बिठाने वाले खड़े हैं।

    - अच्छा तो ये बात है। सारी प्लैनिंग मुझे घेरने के लिए बनायी जा रही है। मेरी आवाज में तीखापन आ गया है।

    - नहीं वीर जी यह बात नहीं है .. लेकिन .. गुड्डी घबरा गयी है। उसे अंदाजा नहीं था कि उसकी बतायी बात से मामला इस तरह से बिगड़ जायेगा।

    - अच्छा एक बात बता। उसका मूड ठीक करने करने के लिहाज से मैं पूछता हूँ - ये करतार जी करते क्या हैं और इनकी कुड़ी क्या करती है। जानती है तू उसे?

    - बहुत अच्छी तरह से तो नहीं जानती, ये लोग धर्म पुर में रहते हैं। शायद दसवीं करके सिलाई कढ़ाई का कोर्स किया था उसने।

    - तू मिली है उससे कभी?

    - पक्के तौर तो नहीं कह सकती कि वही लड़की है।

    - खैर जाने दे, ये बता ये सरदारजी क्या करते हैं..?

    - उनकी पलटन बाजार में बजाजी की दुकान है..।

    - कहीं ये खालसा क्लॉथ शाप वाले करतार तो नहीं? मुझे याद आ गया था कि इन्हें मैंने बचपन में किस दुकान पर बैठे देखा था। मैं तब से परेशान हो रहा था कि इस सरदार को कहीं देखा है लेकिन याद नहीं कर पा रहा था।

    गुड्डी के याद दिलाने से कन्फर्म हो गया है।

    मैं गुड्डी का कंधा थपथपाता हृं ।

    - लेकिन वीरजी, आपको एक प्रॉमिस करना पड़ेगा, आप किसी को बतायेंगे नहीं कि मैंने आपको ये सारी बातें बतायी हैं।

    - गाड प्रॉमिस, धरम दी सौं बस। मुझे बचपन का दोस्तों के बीच हर बात पर कसम खाना याद आ गया है - वैसे एक बात बता, तू चाहती है कि मेरा रिश्ता इस करतार सिंह की सिलाई-कढ़ाई करने और तकिये के गिलाफ काढ़ने वाली अनजान लड़की से हो जाये। देख, ईमानदारी से बतायेगी तो आइसक्रीम भी खिलाऊंगा।

    हंसी है गुड्डी - रिश्वत देना तो कोई आपसे सीखे वीरजी, जरा सी बात का पता लगाने के लिए आप इतनी सारी चीजें तो पहले ही दिलवा चुके है। मेरी बात पूछो तो मुझे ये रिश्ता कत्तई पसंद नहीं है। हालांकि मैंने अपनी होने वाली भाभी को नहीं देखा है, लेकिन ये मैच जमेगा नहीं। पता नहीं क्यों मेरा मन नहीं मान रहा है लेकिन आप तो जानते ही हैं, दारजी और बेबे को।

    - ओये पगलिये, अभी तुझे तेरी होने वाली भाभी से मिलवाता हूं।

    उसके मन का बोझ दूर हो गया है लेकिन मेरी चिंता बढ़ गयी है। अब इस मोर्चे पर भी अपनी सारी शक्ति लगा देनी पड़ेगी। पता नहीं दारजी और बेबे को समझाने के लिए क्या करना पड़ेगा।

    हम घर की तरफ लौट रहे हैं तभी गुड्डी पूछती है – वीर जी, कभी हमें भी बंबई बुलायेंगे ना.. मेरा बड़ा मन होता है ऐक्टरों और हीरोइनों को नजदीक से देखने का। सुना है वहां ये लोग वैसे ही घूमते रहते हैं..और अपनी सारी शॉपिंग खुद ही करते हैं। वह लगातार बोले चली जा रही है - आपने कभी किसी ऐक्टर को देखा है।

    मैं झल्ला कर पूछता हूं - पूरे हो गये तेरे सवाल या कोई बाकी है?

    - वीर जी, आप तो बुरा मान गये। कोई बंबई आये और अपनी पसंद के हीरो से न मिले तो इत्ती दूर जाने का मतलब ही क्या....?

    तो सुन ले मेरी भी बात .. तुझे अगर जो मेरे पास आना है तो तू अभी चली चल मेरे साथ। मैं भी तेरे साथ ही बंबई देख लूंगा। और जहां तक तेरे एक्टरों का सवाल है, वो मेरे बस का नहीं। मुझे वहां अपनी तो खबर रहती नहीं, उनकी खोज खबर कहां से रखूं...।

    ***