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देस बिराना - 9

देस बिराना

किस्त नौ

समझ में नहीं आ रहा, किन झमेलों में फंस गया हूं। जब तक घर नहीं गया था, वे सब मेरी दुनिया में कहीं थे ही नहीं, लेकिन एक बार सामने आ जाने के बाद मेरे लिए यह बहुत ही मुश्किल हो गया है कि उन्हें अपनी स्मृतियों से पूरी तरह से निकाल फेंकूं। हो ही नहीं पाता ये सब। वहां मुझे हफ्ता भर भी चैन से नहीं रहने दिया और जब वहां से भाग कर यहां आ गया हूं तो भी मुक्ति नहीं है मेरी।

अलका दीदी मेरी परेशानियां समझती हैं लेकिन जब मेरे ही पास इनका कोई हल नहीं है तो उस बेचारी के पास कहां से होगा। मुझे उदास और डिस्टर्ब देख कर वह भी मायूस हो जाती है, इसलिए कई बार उनके घर जाना भी टालता हूं। लेकिन दो दिन हुए नहीं होते कि खुद बुलाने आ जाती हैं। मजबूरन मुझे उनके घर जाना ही पड़ता है।

डिप्रैशन के भीषण दौर से गुज़र रहा हूं। जी चाहता है कहीं दूर भाग जाऊं। बाहर कहीं नौकरी कर लूं जहां किसी को मेरी खबर ही न हो कि मैं कहां चला गया हूं। एक तो ज़िंदगी में पसरा दसियों बरसों का यह अकेलापन और उस पर से घर से आने वाली इस तरह की चिट्ठियां। खुद की नादानी पर अफ़सोस हो रहा है कि बेशक गुड्डी को ही सही, पता दे कर ही क्यों आया..। मैं अपने हाल बना रहता और उन्हें उनके ही हाल पर छोड़ आता। लेकिन बेबे और गुड्डी .. यहीं आ कर मैं पस्त हो जाता हूं।

अब मैं इस दिशा में ज्यादा सोचने लगा हूं कि यहां से कहीं बाहर ही निकल जाऊं। बेशक कहीं भी खुद को एडजस्ट करने में, जमाने में वक्त लगेगा लेकिन यहां ही कौन सी जमी-जमायी गृहस्थी है जो उखाड़नी पड़ेगी। सब जगह हमेशा खाली हाथ ही रहा हूं। जितनी बार भी शहर छोड़े हैं या जगहें बदली हैं, खाली हाथ ही रहा हूं, यहां से भी कभी भी वैसे ही चल दूंगा। किसी भी कीमत पर इंगलैण्ड या अमेरिका की तरफ निकल जाना है।

  • ऑफिस से लौटा ही हूं कि अलका दीदी का बुलावा आ गया है। पिछले कितने दिनों से उनके घर गया ही नहीं हूं।

    फ्रेश हो कर उनके घर पहुंचा तो दीदी ने मुस्कुराते हुए दरवाजा खोला है। भीतर आता हूं। सामने ही एक लम्बी-सी लड़की बैठी है। दीदी परिचय कराती हैं - ये गोल्डी है। सीएमसी में सर्विस इंजीनियर है। उसे मेरे बारे में बताती है। मैं हैलो करता हूं। हम बैठते हैं। दीदी चाय बनाने चली गयी है।

    किसी भी अकेली लड़की की मौजूदगी में मैं असहज महसूस करने लगता हूं। समझ ही नहीं आता, क्या बात करूं और कैसे शुरूआत करूं। वह भी थोड़ी देर तक चुप बैठी रहती है फिर उठ कर दीदी के पीछे रसोई में ही चली गयी है। चलो, अच्छा है। उसकी मौजूदगी से जो तनाव महसूस हो रहा था, कम से कम वो तो नहीं होगा। लेकिन दीदी भी अजीब हैं। उसे फिर से पकड़ कर ड्राइंग रूम में ले आयी है - बहुत अजीब हो तुम दोनों? क्या मैं इसीलिए तुम दोनों का परिचय करा के गयी थी कि एक दूसरे का मुंह देखते रहो और जब दोनों थक जाओ तो एक उठ कर रसोई में चला आये।

    मैं झेंप कर कहता हूं - नहीं दीदी, ऐसी बात नहीं है दरअसल .. मैं ..

    - हां, मुझे सब पता है कि तुम लड़कियों से बात करने में बहुत शरमाते हो और कि तुम्हारा मूड आजकल बहुत खराब चल रहा है और मुझे यह भी पता है कि ये लड़की तुझे खा नहीं जायेगी। बेशक कायस्थ है लेकिन वैजिटेरियन है। दीदी ने मुझे कठघरे में खड़ा कर दिया है। कहने को कुछ बचा ही नहीं है।

    मैं बात शुरू करने से हिसाब से पूछता हूं उससे - कहां से ली थी कम्प्यूटर्स में डिग्री?

    - इंदौर से। वह भी संकोच महसूस कर रही है कि उठ, कर रसोई में क्यों चली गयी थी।

    - बंबई पहली बार आयी हैं?

    - जॉब के हिसाब तो पहली ही बार ही आयी हूं, लेकिन पहले भी कॉलेज ग्रुप के साथ बंबई घूम चुकी हूं।

    - चलो, गगनदीप के लिए अच्छा हुआ कि उसे गोल्डी को बंबई नहीं घुमाना पड़ेगा।

    - आप तो मेरे पीछे ही पड़ गयी हैं दीदी, मैंने ऐसा कब कहा...

    - हां, अब हुई न बात। तो अब पूरी बात सुन। गोल्डी एक हफ्ता पहले ही बंबई आयी है। बिचारी को आते ही रहने की समस्या से जूझना पड़ा। कल ही विनायक क्रॉस रोड पर रहने वाली हमारी विधवा चाची की पेइंग गेस्ट बन कर आयी है। इसे कुछ शॉपिंग करनी है। तू ज़रा इसके साथ जा कर इसे शॉपिंग करा दे।

    - ठीक है दीदी, करा देता हूं। दीदी की बात टालने की मेरी हिम्मत नहीं है।

    - जा गोल्डी। वैसे तुझे बता दूं कि ये बहुत ही शरीफ लड़का है। पता नहीं रास्ते में तुझसे बात करे या नहीं या तुझे चाट वगैरह भी खिलाये या नहीं, तू ही इसे कुछ खिला देना।

    - दीदी, इतनी तो खिंचाई मत करो। अब मैं इतना भी गया गुजरा नहीं हूं कि ....।

    - मैं यही सुनना चाहती थी। दीदी ने हँसते हुए हमें विदा किया है।

    हम दोनों एक साथ नीचे उतरते हैं।

    सीढ़ियों में ही उससे पूछता हूं - आपको किस किस्म की शॉपिंग करनी है? मेरा मतलब उसी तरह के बाज़ार की तरफ जायें।

    - अब अगर यहीं रहना है तो सुई से लेकर आइरन, बाल्टी, इलैक्ट्रिक कैटल सब कुछ ही तो लेना पड़ेगा। पहले यही चीजें ले लें - ऑटो ले लें? बांद्रा स्टेशन तक तो जाना पड़ेगा।

    दो तीन घंटे में ही उसने काफी शॉपिंग कर ली है। बहुत अच्छी तरह से शॉपिंग की है उसने। उसने सामान भी बहुत बढ़िया क्वालिटी का खरीदा है। ज्यादातर सामान पहली नज़र में ही पसंद किया गया है। दीदी की बात भूला नहीं हूं। गोल्डी को आग्रह पूर्वक शेरे पंजाब रेस्तरां में खाना खिलाया है। इस बीच उससे काफी बात हुई है। गोल्डी कराटे में ब्लू बैल्ट है। पुराने संगीत की रसिया है और अच्छे खाने की शौकीन है। उसे फिल्में बिलकुल अच्छी नहीं लगती।

    उसने मेरे बारे में भी बहुत कुछ जानना चाहा है। संकट में डाल दिया है उसने मुझे मेरी डेट ऑफ बर्थ पूछ कर। कभी सोचा भी नहीं था, इधर-उधर के फार्मों में लिखने के अलावा जन्म की तारीख का इस तरह भी कोई महत्व होता है। एक तरह से अच्छा भी लगा है। आज तक यह तारीख महज एक संख्या थी। आज एक सुखद अहसास में बदल गयी है।

    मैं भी उससे उसकी डेट ऑफ बर्थ पूछता हूं। बताती है - बीस जुलाई सिक्सटी नाइन।

    मैं हँसता हूं - मुझसे छः साल छोटी हैं।

    वह जवाब देती है - दुनिया में हर कोई किसी न किसी से छोटा होता है तो किसी दूसरे से बड़ा। अगर सब बराबर होने लगे तो चल चुकी दुनिया की साइकिल....।

    काफी इंटेलिजेंट है और सेंस ऑफ ह्यूमर भी खूब है। आज से ठीक बीस दिन जनम दिन है गोल्डी का। देखें, तब यहां होती भी है या नहीं....!

    - आपका ऑफिस तो बांद्रा कुर्ला कॉम्पलैक्स में है। सुना है बहुत ही शानदार बिल्डिंग है।

    - हां बिल्डिंग तो अच्छी है। कभी ले जाऊंगी आपको। अभी तो नयी हूं इसलिए हैड क्वार्टर्स दिया है। मैं तो फील्ड स्टाफ हूं। अपने काम के सिलसिले में सारा दिन एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ेगा।

    - बंबई से बाहर भी?

    - हां, बाहर भी जाना पड़ सकता है।

    हम लदे फदे वापिस पहुंचे हैं। गोल्डी का काफी सारा सामान मेरे दोनों हाथों में है। उसे चाची के घर के नीचे विदा करता हूं तो पूछती है - ये सारा सामान लेकर मैं अकेली ऊपर जाऊंगी तो आपको खराब नहीं लगेगा!

    - ओह, सॉरी, मैं तो ये समझ रहा था मेरा ऊपर जाना ही आपको खराब लगेगा, इसलिए चुप रह गया। लाइये, मैं पहुंचा देता हूं सामान।

    चाची को नमस्ते करता हूं। उनसे अक्सर दीदी के घर मुलाकात हो जाती है। हालचाल पूछती हैं। गोल्डी का सामान रखवा कर लौटने को हूं कि वह कहती है - थैंक्स नहीं कहूंगी तो आपको खराब लगेगा और थैंक्स कहना मुझे फॉर्मल लग रहा है।

    - इसमें थैंक्स जैसी कोई बात नहीं है। इस बहाने मेरा भी घूमना हो गया। वैसे भी कमरे में बैठा बोर ही तो होता।

    हँसती है - वैसे तो दीदी ने मुझे डरा ही दिया था कि आप बिलकुल बात ही नहीं करते। एनी वे थैक्स फॉर द नाइस डिनर। गुड नाइट।

    किसी लड़की के साथ इतना वक्त गुज़ारने का यह पहला ही मौका है। वह भी अनजान लड़की के साथ पहली ही मुलाकात में। ऋतुपर्णा के साथ भी कभी इतना समय नहीं गुज़ारा था। गोल्डी के व्यक्तित्व के खुलेपन के बारे में सोचना अच्छा लग रहा है। कोई दुराव छुपाव नहीं। साफगोई से अपनी बात कह देना।

    चलो, अलका दीदी ने जो ड्यूटी सौंपी थी, उसे ठीक-ठाक निभा दिया।

  • सुबह सुबह ही मकान मालिक ने बताया है कि दरवाजे पर कोई सिख लड़का खड़ा है जो तुम्हें पूछ रहा है। मैं लपक कर बाहर आता हूं।

    सामने बिल्लू खड़ा है। पास ही बैग रखा है। मुझे देखते ही आगे बढ़ा है और हौले से झुका है।

    मैं हैरान - न चिट्ठी न पत्री, हज़ारों मील दूर से चला आ रहा है, कम से कम खबर तो कर देता। उसे भीतर लिवा लाता हूं। मकान मालिक उसे हैरानी से देख रहा है। उन्हें बताता हूं - मेरा छोटा भाई है। यहां एक इन्टरव्यू देने आया है। मकान मालिक की तसल्ली हो गयी है कि रहने नहीं आया है।

    उसे भीतर लाता हूं। पूछता हूं - .. इस तरह .. अचानक ही.. कम से कम खबर तो कर ही देता.. मैं स्टेशन तो लेने आ ही जाता..।

    हंसता है बिल्लू - बस, बंबई घूमने का दिल किया तो बैग उठाया और चला आया।

    मैं चौंका हूं - घर पर तो बता कर आया है या नहीं ?

    - उसकी चिंता मत करो वीर, उन्हें पता है, मैं यहां आ रहा हूं।

    मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि घर वह कह कर आया है। सोच लिया है मैंने, रात को नंदू को फोन करके बता दूंगा - घर बता दे, बिल्लू यहां ठीक ठाक पहुंच गया है। फिकर न करें।

    - बेबे कैसी है? दारजी, गुड्डी और गोलू?

    - बेबे अभी भी ढीली ही है। ज्यादा काम नहीं कर पाती। बाकी सब ठीक हैं।

    मकान मालिक ने इतनी मेहरबानी कर दी है कि दो कप चाय भिजवा दी है।

    बिल्लू नहा धो कर आया है तो मैं देखता हूं कि उसके कपड़े, जूते वगैरह बहुत ही मामूली हैं। घर पर रहते हुए मैंने इस तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया था। आज-कल में ही दिलवाने पड़ेंगे। घुमाना-फिराना भी होगा। यही काम मेरे लिए सबसे मुश्किल होता है। मैंने खुद बंबई ढंग से नहीं देखी है, उसे कैसे घुमाऊंगा। पता नहीं कितने दिन का प्रोग्राम बना कर आया है।

    पूछ रहा है बिल्लू - क्या सोचा है वीर शादी के बारे में। उसने अपने बैग में से संतोष की तस्वीर निकाल कर मेरे आगे रख दी है। लगता है मुझे शादी के लिए तैयार करने और लिवा लेने के लिए आया है। उसे लिखा-पढ़ा कर भेजा गया है। वह जिस तरह से मेरी चीजों को उलट-पुलट कर देख रहा है और सारी चीजों के बारे में पूछ रहा है उससे तो यही लगता है कि वह मेरा जीवन स्तर, रहने का रंग ढंग और मेरी माली हालत का जायजा लेने आया है। कहा उसने बेशक नहीं है लेकिन उसके हाव-भाव यही बता रहे हैं।

    परसों अलका दीदी ने दोनों को खाने पर बुला लिया था। गोल्डी भी थी। वहां पर भी वह सबके सामने मेरे घर छोड़ कर आने के बारे में उलटी-सीघी बातें करने लगा। जब मैं चुप ही रहा तो अलका को मेरे बचाव में उसे चुप करना पड़ा तो जनाब नाराज़ हो गये - आपको नहीं पता है भैनजी, ये किस तरह बिना बताये घर छोड़ कर आ गये थे कि सारी बिरादरी इनके नाम पर आज भी थू थू कर रही है। सगाई की सारी तैयारियां हो चुकी थीं। वो तो लोग-बाग दारजी का लिहाज कर गये वरना..इन्होंने कोई कसर थोड़े ही छोड़ रखी थी।

    वह ताव में आ गया था। बड़ी मुश्किल से हम उसे चुप करा पाये थे। हमारी सारी शाम खराब हो गयी थी। गोल्डी क्या सोचेगी मेरे बारे में कि इतना ग़ैर-जिम्मेवार आदमी हूं। उससे बात ही नहीं हो पायी थी। मैं देख सकता था कि वह भी बहुत आक्वर्ड महसूस कर रही थी।

    इस बीच देवेन्‍द्र और अलका जी ने दोबारा बुलाया है लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही कि उसे वहां ले जाऊं। ले ही नहीं गया। अब तो बिल्लू से बात करने की ही इच्छा नहीं हो रही है। इसके बावजूद बिल्लू को ढेर सारी शापिंग करा दी है। घुमाया-फिराया है और हजारों रुपयों की चीज़ें दिलवायीं हैं। वह बीच-बीच में संतोष कौर का जिक्र छेड़ देता है कि बहुत अच्छी लड़की है, मैं एक बार उसे देख तो लेता। आखिर मुझे दुखी हो कर साफ-साफ कह ही देना पड़ा कि अगली बार जो तूने उस या किसी भी लड़की का नाम लिया तो तुझे अगली ट्रेन में बिठा दूंगा। तब कहीं जा कर वह शांत हुआ है।

    अब उसकी मौजूदगी मुझमें खीज पैदा करने लगी है।

    उसकी वज़ह से मैं हफ्ते भर से बेकार बना बैठा हूं। जनाब ग्यारह बजे तो सो कर उठते हैं। नहाने का कोई ठिकाना नहीं। खाने-पीने का कोई वक्त नहीं। यहां संकट यह है कि पूरी ज़िंदगी मैं हमेशा सारे काम अनुशासन से बंध कर करता रहा। जरा-सी भी अव्यवस्था मुझे बुरी तरह से बेचैन कर देती है। घूमने-फिरने के लिए निकलते-निकलते डेढ दो बजा देना उसके लिए मामूली बात है। तीन-चार घंटे घूमने के बाद ही जनाब थक जाते हैं और फिर बेताल डाल पर वापिस।

    पूरे हफ्ते से उसका यही शेड्यूल चल रहा है। उसकी शॉपिंग भी माशा अल्लाह अपने आप में अजूबा है। पता नहीं किस-किस की लिस्टें लाया हुआ है। यह भी चाहिये और वह भी चाहिये। अब अगर किसी और ने सामान मंगाया है तो उसके लिए पैसे भी तो निकाल भाई। लेकिन लगता है उसके हाथों ने उसकी जेबों का रास्ता ही नहीं देखा। उसकी खुद की हजारों रुपये की शॉपिंग करा ही चुका हूं। उसमें मुझे कोई एतराज़ नहीं है। लेकिन किसी ने अगर कैमरा मंगवाया है या कुछ और मंगवाया है तो उसके लिए भी मेरी ही जेब ढीली करा रहा है। उसके खाने-पीने में मैंने कोई कमी नहीं छोड़ी है। मैं खुद रोज़ाना ढाबे में या किसी भी उडिपी होटल मे खा लेता हूं लेकिन उसे रोज ही किसी न किसी अच्छे होटल में ले जा रहा हूं। इसलिए जब उसने कहा कि मैं गोवा घूमना चाहता हूं तो मुझे एक तरह से अच्छा ही लगा। उसे गोवा की बस में बिठा दिया है और हाथ में पांच सौ रुपये भी रख दिये हैं। तभी पूछ भी लिया है - आजकल रश चल रहा है। ऐन वक्त पर टिकट नहीं मिलेगी। तेरा कब का टिकट बुक करा दूं?

    उसे अच्छा तो नहीं लगा है लेकिन बता दिया है उसने

    - गोवा से शुक्रवार तक लौटूंगा। शनिवार की रात का करा दें।

    और इस तरह से बिल्लू महाराज जी मेरे पूरे ग्यारह दिन और लगभग आठ हजार रुपये स्वाहा करने के बाद आज वापिस लौट गये हैं। लेकिन जाते-जाते वह मुझे जो कुछ सुना गया है, उससे एक बार फिर सारे रिश्तों से मेरा मोह भंग हो गया है। उसकी बातें याद कर करके दिमाग की सारी नसें झनझना रही हैं। कितना अजीब रहा यह अनुभव अपने ही सगे भाई के साथ रहने का। क्या वाकई हम एक दूसरे से इतने दूर हो गये हैं कि एक हफ्ता भी साथ-साथ नहीं रह सकते। उसके लिए इतना कुछ करने के बाद भी उसने मुझे यही सिला दिया है....।

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