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देस बिराना - 8

देस बिराना

किस्त आठ

देवेंद्र जी के साथ उस दिन की बातचीत के कुछ दिन बाद ही अलका दीदी ने घेर लिया है। उनके साथ बैठा चाय पी रहा हूं तो पूछा है उन्होंने - ऑफिस से आते ही अपने कमरे में बंद हो जाते हो। खराब नहीं लगता?

- लगता तो है, लेकिन आदत पड़ गयी है।

- कोई दोस्त नहीं है क्या?

- नहीं। कभी मेरे दोस्त रहे ही नहीं। आप लोग अगर मुझसे बात करने की शुरूआत न करते तो मैं अपनी तरफ से कभी बात ही न कर पाता।

- कोई गर्ल फ्रैंड भी नहीं है क्या? अलका ने छेड़ा है - तेरे जैसे स्मार्ट लड़के को लड़कियों की क्या कमी!

क्या जवाब दूं। मैं चुप ही रह गया हूं लेकिन अलका ने मेरी उदासी ताड़ ली है। मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछती है - ऐसी भी क्या बेरूखी ज़िंदगी से कि न कोई पुरुष दोस्त हो और न ही कोई लड़की मित्र ही। सच बताओ क्या बात है। वह मेरी आंखों में आंखें डाल कर पूछती है।

- सच मानो दीदी, कोई ख़ास बात नहीं है। कभी दोस्ती हुई ही नहीं किसी से, वैसे भी मुझे लड़कियों से बात नहीं करनी ही नहीं आती।

- क्यों, क्या वहां आइआइटी में या अमेरिका में लड़कियां नहीं थीं?

- होंगी, उनके बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता, क्योंकि तब मैं उनकी तरफ़ देखता ही नहीं था कि कहीं मेरी तपस्या न भंग हो जाये। जिस वक्त सारे लड़के हॉस्टल के आसपास देर रात तक हा हा हू हू करते रहते, मैं किताबों मे सिर खपाता रहता। आप ही बताओ दीदी, प्यार-व्यार के लिए वक्त ही कहां था मेरे पास?

- तो अब तो है वक्त और जॉब भी है और पैसे भी हैं। वैसे तो उस वक्त भी एक-आध लड़की तो तुम्हारी निगाह में रही ही होगी।

- वैसे तो थी एक।

- लड़की का नाम क्या था?

- लड़की जितनी सुंदर थी, उसका नाम भी उतना ही सुंदर था - ऋतुपर्णा। घर का उसका नाम निक्की था।

- उस तक अपनी बात नहीं पहुंचायी थी? उसके नाम की ही तारीफ कर देते, बात बन जाती।

- कहने की हिम्मत ही कहां थी। आज भी नहीं है।

- किसी और से कहलवा दिया होता।

- कहलवाया था।

- तो क्या जवाब मिला था?

- ज़िंदगी के इसी इम्तिहान में मैं फेल हो गया था।

- क्या बात हो गयी थी?

- वह उस समय एमबीबीएस कर रही थी। हमारे ही एक प्रोफेसर की छोटी बहन थी। कैम्पस में ही रहते थे वे लोग। कभी उनके घर जाता तो थ़ेड़ी बहुत बात हो पाती थी। एकाध बार लाइब्रेरी वगैरह में भी बात हुई थी। वैसे वह बहुत कम बातें करती थी लेकिन अपने प्रति उसकी भावनाओं को मैं उसके बिना बोले भी समझ सकता था। मैं तो खैर, अपनी बात कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकता था। मेरा फाइनल ईयर था। जो कुछ कहना करना था, उसका आखिरी मौका था। मैं न लड़की से कह पा रहा था और उसके भाई के पास जाने की हिम्मत ही थी। उन्हीं दिनों हमारे सीनियर बैच की एक लड़की हमारे डिपार्टमेंट में लेक्चरर बन कर आयी थी। उसी को विश्वास में लिया था और उसके ज़रिये लड़की के भाई से कहलवाया था।

- क्या जवाब मिला था?

- लड़की तक तो बात ही नहीं पहुंची थी लेकिन उसके भाई ने ही टका-सा जवाब दे दिया था कि हम खानदानी लोग हैं। किसी खानदान में ही रिश्ता करेंगे। मैं ठहरा मेहनत-मज़दूरी करके पढ़ने वाला। उनकी निगाह में कैसे टिकता।

- बहुत बदतमीज था वो प्रोफेसर, सैल्फ - मेड आदमी का भी भला कोई विकल्प होता है। हम तुम्हारी तकलीफ़ समझ सकते हैं। अकेलापन आदमी को कितना तोड़ देता है। देवेद्र बता रहे थे कि तुमने तो अपनी तरफ से घर वालों से पैच-अप करने की भी कोशिश की लेकिन इतना पैसा खर्च करने के बाद भी तुम्हें खाली हाथ लौटना पड़ा है।

- छोड़ो दीदी, मेरे हाथ में घर की लकीरें ही नहीं हैं। मुझे भी अच्छा लगता अगर मेरा घर होता, आप दोनों के घर की तरह।

- क्यों, क्या ख़ास बात है हमारे घर में? देवेद्र जी ने आते-आते आधी बात सुनी है।

- जब भी आप दोनों को इतने प्यार से रहते देखता हूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। काश, मैं भी ऐसा ही घर बसा पाता।

- अच्छा एक बात बताओ, अलका दीदी ने छेड़ा है - घर कैसा होना चाहिये?

- क्यों, साफ सुथरे, करीने से लगे घर ही तो सबको अच्छे लगते हैं। वैसे मैं कहीं आता-जाता नहीं लेकिन इस तरह के घरों में जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है।

- लेकिन अपने घर को लेकर तुम्हारे मन में क्या इमेज है?

मैं सकपका गया हूं। सूझा ही नहीं कि क्या जवाब दूं। बहुत उधेड़बुन के बाद कहा है - मेरे मन में बचपन के अपने घर और बाद में बाबा जी के घर को लेकर जो आतंक बैठा हुआ है, उससे मैं आज तक मुक्त नहीं हो पाया हूं। मैं अपने बचपन में या तो पिटते हुए बड़ा हुआ या फिर लगातार सिरदर्द की वजह से छटपटाता रहा। घर से भाग कर जो घर मिला, वहां बाबाजी ने घर की मेरी इमेज को और दूषित किया। बाद में बेशक अलग-अलग घरों में रहा लेकिन वहां मैं न कभी खुल कर हँस ही पाता था और न कभी पैर फैला कर बैठ ही सकता था। कारण मैं नहीं जानता। फिर ज्यादातर वक्त हॉस्टलों में कटा, जहां घर के प्रति मेरा मोह तो हमेशा बना रहा लेकिन कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं बनती थी कि घर कैसा होना चाहिये, बस, जहां भी बच्चों की किलकारियां सुनता या हसबैंड वाइफ को प्यार से बात करते देखता, एक दूसरे की केयर करते देखता, लगता शायद घर यही होता है।

- घर को लेकर तुम्हारी जो इमेज है, दरअसल तुम्हारे अनुभवों की विविधता की वजह से और घर को दूर से देखने के कारण बनी है, देवेद्र जी बता रहे हैं - तुम हमेशा या तो ऐसे घरों में रहे जहां माहौल सही नहीं था या ऐसे घरों में रहे जो तुम्हारे अपने घर नहीं थे। वैसे देखा जाये तो हर आदमी के लिए घर के मायने अलग होते हैं। माना जाये तो किसी के लिए फुटपाथ या उस पर बना टीन टप्पर का मामूली सा झोपड़ा भी घर की महक से भरा हुआ हो सकता है और ऐसा भी हो सकता है कि किसी के लिए महल भी घर की परिभाषा में न आता हो और वहां रहने वाला घर की चाहत में इधर-उधर भटक रहा हो। बेशक तुम्हें अपने पिता का घर छोड़ कर भागना पड़ा था क्योंकि वह घर अब तुम्हारे लिए घर ही नहीं रहा था लेकिन तुम्हारी मां या भाइयों के लिए तब भी वह घर बना ही रहा था क्योंकि उनके लिए न तो वहां से मुक्ति थी और न मुक्ति की चाह ही। हो सकता है तुम्हारे सामने घर छोड़ने का सवाल न आता तो अब भी वह घर तुम्हारा बना ही रहता। उस पिटाई के बावजूद उस घर में भी कुछ तो ऐसा रहा ही होगा जो तुम्हें आज तक हाँट करता है। पिता की पिटाई के पीछे भी तुम्हारी बेहतरी की नीयत छुपी रही होगी जिसे बेशक तुम्हारे पिता अपने गुस्से की वजह से कभी व्यक्त नहीं कर पाये होंगे। इसमें कोई शक नहीं कि आपसी प्रेम और सेंस ऑफ केयर से घर की नींवें मज़बूत होती हैं, लेकिन हम दोनों भी आपस में छोटी-छोटी चीज़ों को ले कर लड़ते-झगड़ते हैं। एक दूसरे से रूठते हैं और एक-दूसरे को कोसते भी हैं। इसके बावज़ूद हम दोनों एक ही बने रहते हैं क्योंकि हमें एक दूसरे पर विश्वास है और हम एक दूसरे की भावना की कद्र भी करते हैं। हम आपस में कितना भी लड़ लें, कभी बाहर वालों को हवा भी नहीं लगने देते और न एक दूसरे की बुराई ही करते हैं। शायद इसी भावना से घर बनता है। हां, जहां तक साफ-सुथरे घर को लेकर तुम्हारी जो इमेज है, अगर तुम बच्चों की किलकारियां भी चाहो और होटल के कमरे की तरह सफाई भी, तो शायइ यह विरोधाभास होगा। घर घर जैसा ही होना और लगना चाहिये। घर वो होता है जहां शाम को लौटना अच्छा लगे न कि मजबूरी। जहां आपसी रिश्तों की महक हमेशा माहौल को जीवंत बनाये रखे, वही घर होता है। तुम्हें शायद देखने का मौका न मिला हो, यहां बंबई में जितने भी बीयर बार हैं या शराब के अड्डे हैं वहां तुम्हें हज़ारों आदमी ऐसे मिल जायेंगे जिन्हें घर काटने को दौड़ता है। वज़ह कोई भी हो सकती है लेकिन ऐसे लोग होशो-हवास में घर जाने से बचना चाहते हैं। वे चाहें तो अपने घर को बेहतर भी बना सकते हैं जहां लौटने का उनका दिल करे लेकिन हो नहीं पाता। आदमी जब घर से दूर होता है तभी उसे घर की महत्ता पता चलती है। वह किसी भी तरीके से घर नाम की जगह से जुड़ना चाहता है। घर चाहे अपना हो या किसी और का, घर का ही अहसास देता है। तो बंधुवर, हम तो यही दुआ करते हैं कि तुम्हें मनचाहा घर जल्दी मिले।

- बिलीव मी, वीर जी, आपने तो घर की इतनी बारीक व्याख्या कर दी।

- चिंता मत करो, तुम्हें भी अपना घर जरूर मिलेगा और तुम्हारी ही शर्तों पर मिलेगा।

- मैं घर को लेकर बहुत सेंसिटिव रहा हूं लेकिन अब घर से लौटने के बाद से तो मैं बुरी तरह डर गया हूं कि क्या कोई ऐसी जगह कभी होगी भी जिसे मैं घर कह सकूं। मैं अपनी तरह के घर को पाने के लिए कुछ भी कर सकता था लेकिन.. अब तो....।

- घबराओ नहीं, ऊपर वाले ने तृम्हारे नाम भी एक खूबसूरत बीवी और निहायत ही सुकून भरा घर लिखा होगा। घर और बीबी दोनों ही तुम तक चल कर आयेंगे।

- पता नहीं घर की यह तलाश कब खत्म होगी।

- जल्दी ही खतम होगी भाई, अलका ने मेरे बाल बिखेरते हुए कहा है - अगर हमारी पसंद पर भरोसा हो तो हम दोनों आज ही से इस मुहिम पर जुट जाते हैं।

मैं झेंपी हँसी हँसता हूं - क्यों किसी मासूम की जिंदगी ख़राब करती हैं इस फालतू आदमी के चक्कर में।

- यह हम तय करेंगे कि हीरा आदमी कौन है और फालतू आदमी कौन?

गुड्डी की चिट्ठी आयी है। समाचार सुखद नहीं हैं ।

- वीर जी,

आपकी चिट्ठी मिल गयी थी। बेबे बीमार है। आजकल घर का सारा काम मेरे जिम्मे आ गया है। बेबे के इलाज के लिए मुझे अपनी बचत के काफी पैसे खर्च करने पड़े जिससे दारजी और बेबे को बताना पड़ा कि मुझे आपसे काफी पैसे मिले हैं।

वीर जी, यह गलत हो गया है कि सबको पता चल गया है कि आप मुझे पैसे भेजते रहते हैं। अब बीमार बेबे के एक्सरे और दूसरे टैस्ट कराने थे और घर में उतने पैसे नहीं थे, मैं कैसे चुप रहती। अपनी सारी बचत निकाल कर दारजी के हाथ पर रख दी थी। वैसे भी ये पैसे मेरे पास फालतू ही तो रखे हुए थे।

आप यहां की चिंता न करें। मैं सब संभाले हुए हूं। अपने समाचार दें। अपना कॉटैक्ट नंबर लिख दीजियेगा।

आपकी

गुड्डी

मैं तुरंत ही पांच हजार रुपये का ड्राफ्ट गुड्डी के नाम कूरियर से भेजता हूं और लिखता हूं कि मुझे फोन करके बताये कि अब बेबे की तबीयत कैसी है। एक पत्र मैं नंदू को लिखता हूं। उसे बताता हूं कि किन हालात के चलते मुझे दूसरी बार मुझे बेघर होना पड़ा और मैं आते समय किसी से भी मिल कर नहीं आ सका। एक तरह से खाली हाथ और भरे मन से ही घर से चला था। बेबे बीमार है। ज़रा घर जा कर देख आये कि उसकी तबीयत अब कैसी है। गुड्डी को पैसे भेजे हैं। और पैसों की जरूरत हो तो जल्दी बताये।

सोचता हूं, जाऊं क्या बेबे को देखने? लेकिन कहीं फिर घेर लिया मुझे किसी करतारे या ओमकारे की लड़की के चक्कर में तो मुसीबत हो जायेगी। फिर इस बार तो बेबे की बीमारी का भी वास्ता दिया जायेगा और मैं किसी भी तरह से बच नहीं पाऊंगा। गुड्डी की चिट्ठी आ जाये फिर देखता हूं।

नंदू का फोन आ गया है।

बता रहा है - आप किसी किस्म की फिकर मत करो। बेबे अब ठीक है। घर पर ही है और डॉक्टरों ने कुछ दिन का आराम बताया है। वैसे चिंता की कोई बात नहीं है।

पूछता हूं मैं - लेकिन उसे हुआ क्या था ?

- कुछ खास नहीं, बस, ब्लड प्रेशर डाउन हो गया था। दवाइयां चलती रहेंगी। बाकी मुझे गुड्डी से सारी बात का पता चल गया है। आप मन पर कोई बोझ न रखें। मैं गुड्डी का भी ख्याल रख्गां और बेबे का भी। ओके, और कुछ !!

- जरा अपने फोन नम्बर दे दे।

- लो नोट करो जी। घर का भी और रेस्तरां का भी। और कुछ?

- मैं अपने पड़ोसी मिस्टर भसीन का नम्बर दे रहा हूं। एमर्जेंसी के लिए। नोट कर लो और गुड्डी को भी दे देना।

फोन नम्बर नोट करता हूं और उसे थैंक्स कर फोन रखता हूं..।

तसल्ली हो गयी है कि बेबे अब ठीक है और यह भी अच्छी बात हो गयी कि अब नंदू के जरिये कम से कम समाचार तो मिल जाया करेंगे।

इस बीच दारजी चिट्ठी आयी है। गुरमुखी में है। हालांकि उनकी हैण्ड राइटिंग बहुत ही खराब है लेकिन मतलब निकाल पा रहा हूं ।

यह एक पिता का पुत्र के नाम पहला पत्र है।

लिखा है

- बरखुरदार,

नंदू से तेरा पता लेकर खत लिख रहा हूं। एक बाप के लिए इससे और ज्यादा शरम का बात क्या होगी कि उसे अपने बेटे के पते के वास्ते उसके दोस्तों के घरों के चक्कर काटने पड़ें। बाकी तूने जो कुछ हमारे साथ किया और दूसरी बार बीच चौराहे उत्ते मेरी पगड़ी उछाली, उससे मैं बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने केध काबिल नहीं रहा हूं..। सब लोग मुझ पर ही थू थू कर रहे हैं। कोई यह नहीं देखता कि तू किस तरह इस बार भी बिना बताये चोरों की तरह निकल गया। तेरी बेबे तेरा इंतजार करती रही और जनाब ट्रेन में बैठ कर निकल गये। बाकी आदमी में इतनी गैरत और लियाकत तो होनी ही चाहिये कि वह आमने-सामने बैठ कर बात कर सके। तेरी बेबे इस बात का सदमा बरदाश्त नहीं कर पायी और तब से बीमार पड़ी है। तुझसे तो इतना भी न हुआ कि उसे देखने आ सके। बाकी तूने अपनी बेबे को हमेशा ही दुख दिया है और कभी भी इस घर के सुख-दुख में शामिल नहीं हुआ है। छोटी-मोटी बातों पर घर छोड़ देना शरीफ घरों के लड़कों को शोभा नहीं देता। तुम्हारी इतनी पढ़ाई-लिखाई का क्या फायदा जिससे मां-बाप को दुख के अलावा कुछ भी न मिले।

बाकी मेरे समझाने-बुझाने के बाद करतार सिंह तेरी यह ज्यादती भुलाने के लिए अभी भी तैयार है। तू जल्द से जल्द आ जा ताकि घर में सुख शांति आ सके। इस बहाने अपनी बीमार बेबे को भी देख लेगा। वो तेरे लिए बहुत कलपती है। वैसे भी उसकी आधी बीमारी तुझे देखते ही ठीक हो जायेगी। तू जितनी भी ज्यादती करे हमारे साथ, उसके प्राण तो तुझमें ही बसते हैं।

तुम्हारा,

दारजी

ज़िंदगी में एक बाप पहली बार अपने बेटे को चिट्टी लिख रहा है और उसमें सौदेबाजी वाली यह भाषा!! दारजी जो भाषा बोलते हैं वही भाषा लिखी है। न बोलने में लिहाज करते हैं न लिखने में किया है।

अब ऐसे ख़त का क्या जवाब दिया जा सकता है। वे यह नहीं समझते कि इस तरह से वे मेरी परेशानियां ही बढ़ा रहे हैं।

अगले ही दिन की डाक में गुड्डी का एक और खत आया है।

लिखा है उसने

- वीर जी, पत्र लिखने में देर हो गयी है। जब नंदू वीर जी ने बताया कि उन्होंने आपको बेबे की तबीयत के बारे में फोन पर बता दिया है इसलिए भी लिखना टल गया। बेबे अब ठीक हैं लेकिन कमज़ोरी है और ज्यादा देर तक काम नहीं कर पाती। वैसे कुछ सदमा तो उन्हें आपके जाने का ही लगा है और आजकल उनमें और दारजी में इसी बात को लेकर अक्सर कहा-सुनी हो जाती है।

बेबे की बीमारी के कारण कई दिन तक कॉलेज न जा सकी और घर पर ही पढ़ती रही। वैसे निशा आ कर नोट्स दे गयी थी।

दारजी ने मुझसे आपका पता मांगा था। मैंने मना कर दिया कि जिस लिफाफे में ड्राफ्ट आया था उस पर पता था ही नहीं। पता न देने की वज़ह यही है कि पिछले दिनों करतार सिंह ने संदेसा भिजवाया था कि अब हम और इंतजार नहीं कर सकते। अगर दीपू यह रिश्ता नहीं चाहता या जवाब नहीं देता तो वे और कोई घर देखेंगे। उन पर भी बिरादरी की तरफ से दबाव है।

पता है वीर जी, दारजी ने करतार सिंह के पास इस संदेस के जवाब में क्या संदेसा भिजवाया था - तू संतोष का ब्याह बिल्लू या गोलू से कर दे., दहेज बेशक आधा कर दे। करतार सिंह ने दारजी को जवाब दिया कि बोलने से पहले कुछ तो सोच भी लिया कर। तू बेशक व्यापारी न सही, मैं व्यापारी आदमी हूं और कुछ सोच कर ही तेरे दीपू का हाथ मांग रहा था। दारजी का मुंह इतना सा रह गया।

दारजी नंदू से आपका पता लेने गये थे। वे शायद आपको लिखें, या लिख भी दिया हो .. आप उनके फंदे में मत फंसना वीरजी।

आपके भेजे पांच हज़ार के ड्राफ्ट के लिए दारजी ने मेरा खाता खुलवा दिया है, लेकिन यह खाता उन्होंने अपने साथ ज्वाइंट खुलवाया है। नंदू वीर जी अकसर बेबे का हालचाल पूछने आ जाते है। आपकी चिट्ठी का पूछ रहे थे। वे आपकी बहुत इज्जत करते हैं।

पत्र देंगे।

आपकी बहना,

गुड्डी

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