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देस बिराना - 7

देस बिराना

किस्त सात

तो ... अब ... हो गया घर भी..। जितना रीता गया था, उससे कहीं ज्यादा खालीपन लिये लौटा हूं। तौबा करता हूं ऐसे रिश्तों पर। कितना अच्छा हुआ, होश संभालने से पहले ही घर से बेघर हो गया था। अगर तब घर न छूटा होता तो शायद कभी न छूटता.. उम्र के इस दौर में आ कर तो कभी भी नहीं। बस, यही तसल्ली है कि सबसे मिल लिया, बचपन की खट्टी-मीठी यादें ताज़ा कर लीं और घर के मोह से मुक्त भी हो गया। जिसके लिए जितना बन पड़ा, थोड़ा-बहुत कर भी लिया। बेबे और गुड्डी के ज़रूर अफ़सोस हो रहा है कि उन्हें इन तकलीफ़ों से निकालने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है।

गुड्डी बेचारी पढ़ना चाहती है लेकिन लगता नहीं, उसे दारजी पढ़ने देंगे। चाहे एमबीए करे या कोई और कोर्स, उसे देहरादून तो छोड़ना ही पड़ेगा। उसके लिए दारजी परमिशन देने से रहे। बस, किसी तरह वह बीए पूरा कर ले तो उसके लिए यहीं कुछ करने की सोचूंगा। एक बार मेरे पास आ जाये तो बाकी सब संभाला जा सकता है। फिलहाल तो सबसे बड़ा काम यही होगा कि उसे दारजी किसी तरह बीए करने तक डिस्टर्ब न करें और वह ठीक - ठाक नम्बर ला सके।

आते ही फिर से उन्हीं चक्करों में खुद को उलझा लिया है। पता नहीं अब कब तक इसी तरह की ज़िंदगी को ठेलते जाना होगा। बिना किसी ख़ास मकसद के....।

आज गुड्डी का पार्सल मिला है। उसने बहुत ही खूबसूरत स्वेटर बुन कर भेजा है। सफेद रंग का। एकदम नन्हें-से खरगोश की तरह नरम। इसमें गुड्डी की मेहनत और स्नेह की असीम गरमाहट फंदे-फंदे में बुनी हुई है। साथ में उसका लम्बा खत है।

लिखा है उसने

- वीर जी,

सत श्री अकाल

उस दिन आपके अचानक चले जाने के बाद घर में बहुत हंगामा मचा। वैसे मैं जानती थी कि मेरे वापिस आने तक आप जा चुके होंगे। और कुछ हो भी नहीं सकता था। आप बाज़ार से शाम तक भी वापिस नहीं आये तो चारों तरफ आपकी खोज-बीन शुरू हुई। वहां जाने वाले सभी लोग आ चुके थे। ले जाने के लिए मिठाई वगैरह खरीदी जा चुकी थी। लेकिन आप जब कहीं नज़र नहीं आये तो बेबे को लगा - एक बार फिर वही इतिहास दोहराया जा चुका है। मैं चार बजे कॉलेज से आ गयी थी तब तक दारजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। उन्हें मुझ पर शक हुआ कि जरूर मुझे तो पता ही होगा कि वीर जी बिना बताये कहां चले गये हैं। तब गुस्से में आ कर दारजी ने मुझे बालों से पकड़ कर खींचा और गालियां दीं। मैं जानती थी, ऐसा ही होगा। सबकी निगाहों में मैं ही आपकी सबसे सगी बनी फिर रही थी। लेकिन मार खा कर भी मैं यही कहती रही कि मुझे नहीं मालूम। बेबे ने भी बहुत हाय-तौबा मचाई और बिल्लू और गोलू ने भी। आखिर परेशान हो कर वहां झूठा संदेसा भिजवा दिया गया कि आपको अचानक ऑफिस से तुरंत बंबई पहुंचने के लिए बुलावा आ गया था, इसलिए हम लोग नहीं आ पा रहे हैं। बाद की कोई तारीख देख कर फिर बतायेंगे।

बाद में दारजी तो कई दिन तक बिफरे शेर की तरह आंगन खूंदते रहे और बात बे बात पर आपको गालियां बकते रहे।

करतार सिंह वाला मामला फिलहाल ठप्प पड़ गया है लेकिन जिस को भी पता चलता है कि इस बार भी आप दारजी की जिद के कारण घर छोड़ कर गये हैं, वही दारजी को लानतें भेज रहा है कि अपनी लालच के कारण तूने हीरे जैसा बेटा दूसरी बार गंवा दिया है।

बाकी आप मुझमें आत्म-विश्वास का जो बीज बो गये हैं, उससे मैं, जहां तक हो सका, अपनी लड़ाई अपने अकेले के बलबूते पर लड़ती रहूंगी। आप ही मेरे आदर्श हैं। काश, मैं भी आपकी तरह अपने फ़ैसले खुद ले सकती। अपनी खास सहेली निशा का पता दे रही हूं। पत्र उसी के पते पर भेजें। मेरी जरा भी चिंता न करें और अपना ख्याल रखें।

सादर,

आपकी बहन,

गुड्डी।

पगली है गुड्डी भी!! ऐसे कमज़ोर भाई को अपना आदर्श बना रही है जो किसी भी मुश्किल स्थिति का सामना नहीं कर सकता और दो बार पलायन करके घर से भाग चुका है।

उसे लम्बा खत लिखता हूं।

- गुड्डी,

प्यार,

तेरा पत्र मिला। समाचार भी। अब तू भी मानेगी कि इस तरह से चले आने का मेरा फैसला गलत नहीं रहा। सच बताऊं गुड्डी, मुझे भी दोबारा चोरों की तरह घर से भागते वक्त बहुत खराब लग रहा था, लेकिन मैं क्या करता। जब मैंने पहली बार छोड़ा था तो चौदह साल का था। समझ भी नहीं थी कि क्यों भाग रहा हूं और भाग कर कहां जाऊंगा, लेकिन जब दारजी ने घर से धक्के दे कर बाहर कर ही दिया तो मेरे सामने कोई उपाय नहीं था। अगर दारजी या बेबे ने उस वक्त मेरे कान पकड़ कर घर के अंदर वापिस बुला लिया होता, जबरदस्ती एक-आध रोटी खिला दी होती तो शायद मैं भागा ही न होता, बल्कि वहीं बना रहता, बेशक मेरी ज़िंदगी ने जो भी रुख लिया होता, बल्कि इस बार भी उन्होंने मुझसे कहा होता कि देख दीपे, हम हो गये हैं अब बुड्ढे और हमें चाहिये घर के लिए एक देखी-भाली शरीफ बहू तो, सच मान गुड्डी, मैं वहीं खड़े-खड़े उनकी पसंद की लड़की से शादी भी कर लेता और अपनी बीवी को उनकी सेवा के लिए भी छोड़ आता, लेकिन दोनों बार सारी चीजें शुरू से ही मेरे खिलाफ कर दी गयी थीं। इस बार भी मुझे बिलकुल सोचने का मौका ही नहीं मिला और एक बार फिर मैं घर के बाहर था। एक तरह से पहली बार का भागना भी मेरे लिए अच्छा ही रहा कि दूसरी बार भी मैं उनके अन्याय को मानने के बजाये चुपचाप चला आया। तुम इसे मेरा पलायन भी कह सकती हो, लेकिन तुम्हीं बताओ, अगर मैं न भागता तो क्या करता। वहां तो मुझे और मेरे साथ तुम्हें भी फंदे में कसने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। मेरे भाग आने से कम से कम तुम्हारे सिर पर से तो फिलहाल मुसीबत टल ही गयी है। अब बाकी लड़ाई तुम्हें अकेले ही लड़नी होगी। लड़ सकोगी क्या?

यहां आने के बाद एक बार फिर वही ज़िंदगी है मेरे सामने। बस एक ही फ़र्क है कि यहां से जिस ऊब से भाग कर गया था, घर के जिस मोह से बंधा भागा था, उससे पूरी तरह मुक्त हो गया हूं। बेशक मेरी ऊब और बढ़ गयी है। पहले तो घर को लेकर सिर्फ उलझे हुए ख्याल थे, बिम्ब थे और रिश्तों को लेकर भी कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं बनती थी, लेकिन घर से आने के बाद घर के बारे में मेरी सारी इमेज बुरी तरह से तहस-नहस हो गयी हैं। बार-बार अफ़सोस हो रहा है कि मैं वहां गया ही क्यों था। न गया होता तो बेहतर था, लेकिन फिर ख्याल आता है कि इस पूरी यात्रा की एक मात्र यही उपलब्धि यही है कि सबसे मिल लिया, तुझे देख लिया और तुझे एक दिशा दे सका, तेरे लिए कुछ कर पाया और घर के मोह से हमेशा के लिए मुक्त हो गया। अब कम से कम रोज़ रोज़ घर के लिए तड़पा नहीं करूंगा। बेशक तेरी और बेबे की चिंता लगी ही रहेगी।

यहां आने के बाद दिनचर्या में कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा है। सिर्फ यही हुआ है कि अंधेरी में जिस गेस्ट हाउस में रह रहा था, वह छोड़ दिया है और इस बार बांद्रा वेस्ट में एक नये घर में पेइंग गेस्ट बन गया हूं। पता दे रहा हूं। ऑफिस से आते समय कोशिश यही रहती है कि खाना खा कर एक ही बार कमरे में आऊं। तुझे हैरानी होगी जान कर कि बंबई में पेइंग गेस्ट को सुबह सिर्फ एक कप चाय ही दी जाती है। बाकी इंतज़ाम बाहर ही करना पड़ता है। वैसे कई जगह खाने के साथ भी रहने की जगह मिल जाती है।

अगर छुट्टी का दिन हो या कमरे पर ही होऊं तो मैं सिर्फ खाना खाने ही बाहर निकलता हूं। अपने कमरे में बंद पड़ा रहता हूं। शायद यही वजह है कि मैं कभी भी बोर नहीं होता।

कल एक अच्छी बात हुई कि सामने वाले घर में रहने वाले मिस्टर और मिसेज भसीन से हैलो हुई। सीढ़ियां चढ़ते समय वे मेरे साथ-साथ ही आ रहे थे। उन्होंने ही पहले हैलो की और पूछा - क्या नया आया हूं सामने वाले घर में। उन्होंने मेरा नाम वगैरह पूछा और कभी भी घर आने का न्यौता दिया।

कभी जाऊंगा। आम तौर पर मैं किसी के घर में भी जाने में बहुत संकोच महसूस करता हूं।

दारजी, बेबे और गोलू, बिल्लू ठीक होंगे। तेरी सहेली निशा ठीक होगी और तेरे साथ खूब गोलगप्पे उड़ा रही होगी। दोबारा जा भी नहीं पाये तेरे कैलाश गोलगप्पा पर्वत में। तेरे लिए हज़ार रुपये का ड्राफ्ट भेज रहा हूं। खूब शॉपिंग करना।

जवाब देना।

तेरा ही

वीर...

आज दीपावली का त्योहार है। चारों तरफ त्योहार की गहमा-गहमी है। लेकिन मेरे पारसी मकान मालिक इस हंगामे से पूरी तरह बाहर हैं। हर छुट्टी के दिन की तरह सारा दिन कमरे में ही रहा। दोपहर को खाना खा कर कमरे में वापिस आ रहा था कि नीचे ही मिस्टर और मिसेज भसीन मिल गये हैं। दीपावली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ तो वे पूछने लगे - क्या बात है घर नहीं गये? क्या छुट्टी नहीं मिली या घर बहुत दूर है?

- दोनों ही बातें नहीं हैं, दरअसल एक प्रोजेक्ट में बिजी हूं, इसलिए जाना नहीं हो पाया। वैसे अभी हाल ही में घर हो कर आया था। मैं किसी तरह बात संभालता हूं।

यह सुनते ही कहने लगे - तो आप शाम हमारे साथ ही गुज़ारिये। खाना भी आप हमारे साथ ही खायेंगे। मैंने बहुत टालना चाहा तो वे बहुत जिद करने लगे। मिसेज भसीन बोलने में इतनी अच्छी हैं कि मुझसे मना ही नहीं किया जा सका। इनकार करने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है उन्होंने।

हां कर दी है - आऊंगा।

आम तौर पर किसी के घर आता जाता नहीं, इसलिए कोई खास ज़ोर दे कर बुलाता भी नहीं है। लेकिन दिवाली के दिन वैसे भी अकेले बैठे बोर होने के बजाये सोचा, चलो किसी भरे पूरे परिवार में ही बैठ लिया जाये।

दरवाजा मिसेज भसीन ने खोला है। मैं उन्हें दिवाली की बधाई देता हूं - हैप्पी दिवाली मिसेज भसीन। मैं बहुत ज्यादा संकोच महसूस कर रहा हूं। वैसे भी युवा महिलाओं की उपस्थिति में मैं जल्दी ही असहज हो जाता हूं।

वे हँसते हुए जवाब देती हैं - मेरा नाम अलका है और मुझे जानने वाले मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।

वे मुझे भीतर लिवा ले गयी हैं और बहुत ही आदर से बिठाया है।

मैं बहुत ही संकोच के साथ कहता हूं - दरअसल मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं ... दिवाली के दिन किसी के घर जाना.. ..।

वे मुझे आश्वस्त करती हैं - आप बिलकुल भी औपचारिकता महसूस न करें और बिलकुल सहज हो कर इसे अपना ही घर समझें।

यह सुन कर कुछ हद तक मेरा संकोच दूर हुआ है।

कहता हूं मैं - मैं भी आपके दरवाजे पर नेम प्लेट देखता था तो रोज़ ही सोचता था, कभी बात करूंगा। भसीन सरनेम तो पंजाबियों का ही होता है। मैं दरअसल मोना सिख हूं। कई बार अपनी ज़ुबान बोलने के लिए भी आदमी.. ..। मैं झेंपी सी हँसी हँसता हूं।

बात अलका ने ही आगे बढ़ाई है।

पूछ रही हैं - कहां है आपका घर-बार और कौन-कौन है घर में आपके।

इतना सुनते ही मैं फिर से संकोच में पड़ गया हूं।

अभी मैं अपना परिचय दे ही रहा हूं कि मिस्टर भसीन आ गये हैं। उठ कर उन्हें नमस्कार करता हूं। वे बहुत ही स्नेह से मेरे हाथ दबा कर मुझे दिवाली की शुभ कामना देते हैं।

घर से आने के बाद इतने दिनों में यह पहली बार हो रहा है कि घर के माहौल में बैठ कर बातें कर रहा हूं और मन पर कोई दबाव नहीं है। बहुत अच्छा लगा है उनके घर पर बैठना, उनसे बात करना।

मैं देर तक उनके घर बैठा रहा और हम तीनों इधर-उधर की बातें करते रहे। इस बीच मैं काफी सहज हो गया हूं और उनसे किसी पुराने परिचित की तरह बातें करने लगा हूं।

अलका ने मुझे खाना खाने के लिए जबरदस्ती रोक लिया है। मैं भी उनके साथ पूजा में बैठा हूं। पूरी शाम उनके घर गुज़ार कर जब मैं वापिस लौटने लगा तो अलका और मिस्टर भसीन दोनों ने एक साथ ही आग्रह किया है कि मैं उनके घर को अपना ही घर समझूं और जब भी मुझे उसे घर की याद आये या पारिवारिक माहौल में कुछ वक्त गुज़ारने की इच्छा हो, निसंकोच चला आया करूं।

मैं अचानक उदास हो गया हूं। भर्राई हुई आवाज में कहता हूं - आप लोग बहुत अच्छे हैं। मुझे नहीं पता था लोग अनजान आदमी से भी इतनी अच्छी तरह से पेश आते हैं। मैं फिर आऊंगा। थैंक्स। कह कर मैं तेजी से निकल कर चला आया हूं।

बाद में भाई दूज वाले दिन अलका ने फिर बुलवा लिया था। तब मैं उनके घर ढेर सारी मिठाई वगैरह ले आया था। चाय पीते समय अलका ने बहुत संकोच के साथ मुझे बताया था - मेरा कोई भाई नहीं है, क्या तुम्हें मुझे भइया कह कर बुला सकती हूं।

यह कहते समय अलका की आंखों में आंसू भर आये थे और वह रोने-रोने को थी।

उसका मूड हलका करने के लिए मैं हंसा था - मेरी भी कोई बड़ी बहन नहीं है। क्या मैं आपको दीदी कह कर पुकार सकता हूं। तब हम तीनों खूब हंसे थे। अलका ने न केवल मुझे भाई बना लिया है बल्कि भाई दूज का टीका भी किया। और इस तरह मैं उनके भी परिवार का एक सदस्य बन गया हूं। मैं अब कभी भी उनके घर चला जाता हूं और काफी देर तक बैठा रहता हूं।

हालांकि उनके घर आते जाते मुझे एक डेढ़ महीना हो गया है और मैं अलका और देवेद्र भसीन के बहुत करीब आ गया हूं और उनसे मेरे बहुत ही सहज संबंध हो गये हैं लेकिन फिर भी उन्होंने मुझसे कोई व्यक्तिगत प्रश्न नहीं ही पूछे हैं।

आज इतवार है। दापहर की झपकी ले कर उठा ही हूं कि देवेद्र जी का बुलावा आया है। अलका मायके गयी हुई है। तय है, वे खाना या तो खुद बनाएंगे या होटल से मंगवायेंगे तो मैं ही प्रस्ताव रखता हूं - आज का डिनर मेरी तरफ से। शाम की चाय पी कर हम दोनों टहलते हुए लिंकिंग रोड की तरफ निकल गये हैं।

खाना खाने कि लिए हम मिर्च मसाला होटल में गये हैं। वेटर पहले ड्रिंक्स के मीनू रख गया है। मीनू देखते ही देवेद्र हॅंसे हैं - क्यों भई, पीते-वीते हो या सूफी सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते हो। देखो अगर जो पीते हो तो हम इतनी बुरी कम्पनी नहीं हैं और अगर अभी तक पीनी शुरू नहीं की है तो उससे अच्छी कोई बात ही नहीं है।

- आपको क्या लगता है?

- कहना मुश्किल है। वैसे तो तुम तीन साल अमेरिका गुज़ार कर आये हो, और यहां भी अरसे से अकेले ही रह रहे हो, इसलिए कहना मुश्किल है कि तुम्हारे हाथों अब तक कितनी और कितनी तरह की बोतलों का सीलभंग हो चुका होगा। वे हँसे हैं।

- आपको जान कर हैरानी होगी कि मैंने अभी तक कभी बीयर भी नहीं पी है। कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। वहां अमेरिका के ठंडे मौसम में भी, जहां खाने का एक एक कौर नीचे उतारने के लिए लोग गिलास पर गिलास खाली करते हैं, मैं वहां भी इससे दूर ही रहा। वैसे न पीने के कई कारण रहे। आर्थिक भी रहे। फिर उस किस्म की कम्पनी भी नहीं रही। यह भी रहा कि कभी इन चीज़ों के लिए मुझे फुर्सत ही नहीं मिली। अब जब फ़ुर्सत है, पैसे भी हैं औरे अकेलापन भी है तो अब ज़रूरत ही नहीं महसूस होती। वैसे आप तो पीते ही होंगे, आप ज़रूर मंगायें। मैं तो आपसे बहुत छोटा हूं, पता नहीं मेरी कम्पनी में आपको पीना अच्छा लगे या नहीं.... वैसे मुझे अच्छा लगेगा। मैं कोल्ड ड्रिंक ले लूंगा।

वे मुझे आश्वस्त करते हैं - यह बहुत अच्छी बात है कि तुम अब तक इन खराबियों से बचे हुए हो। मैं भी कोई रेगुलर ड्रिंकर नहीं हूं। बस, कभी-कभार ही वाला मामला है,

- आप अगर मेरी सूफी कम्पनी का बुरा न मानें तो आपके लिए कुछ मंगवाया जाये। बेचारा वेटर कब से हमारे आर्डर का इंतज़ार कर रहा है। मैं कहता हूं।

- तुम्हारी कम्पनी का मान रखने के लिए मैं आज बीयर ही लूंगा।

मैंने उनके लिए बीयर का ही आर्डर दिया है।

हमने पूरी शाम कई घंटे एक साथ गुज़ारे हैं और ढेर सारी बातें की हैं। बातचीत के दौरान जब मैं उन्हें वीरजी कह कर बुला रहा हूं तो उन्होंने टोका है - तुम किस औपचारिकता में पड़े हो, चाहो तो मुझे नाम से भी बुला सकते हो।

- दरअसल मैं कभी परिवार में नहीं रहा हूं। रिश्ते-नाते कैसे निभाये जाते हैं, नहीं जानता। तेरह-चौदह साल की उम्र थी जब घर छूट गया। तब से एक शहर से दूसरे शहर भटक रहा हूं।

- क्या मतलब? घर छूट गया था का मतलब? तो ये सब पढ़ाई और एमटैक और पीएचडी तक की डिग्री?

- दरअसल एक लम्बी कहानी है। मैंने आज तक कभी भी किसी के भी सामने अपने बारे में बातें नहीं की हैं। आपको मैं एक रहस्य की बात यह बताऊं कि दुनिया में मेरे परिचितों में कोई भी मेरे बारे में पूरे सच नहीं जानता। यहां तक कि, मेरे मां-बाप भी मेरे बारे में कुछ खास नहीं जानते। मैंने कभी किसी को राज़दार बनाया ही नहीं है। यहां तक कि मैं अभी चौदह साल के बाद घर गया था तो वहां भी किसी को अपने सच का एक टुकड़ा दिखाया तो किसी को दूसरा। अपनी छोटी बहन जिसे मिल कर मैं बेहद खुश हुआ हूं, उसे भी मैंने अपनी सारी तकलीफों का राज़दार नहीं बनाया है। उसे भी मैंने सारे सच नहीं बताये क्योंकि मैंने कभी नहीं चाहा कि कोई मुझ पर तरस खाये। मेरे लिए अफ़सोस करे। मुझे अगर किसी शब्द से चिढ़ है तो वह शब्द है - बेचारा।

- यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि हम क्यों किसी के सामने अपने जख्म दिखाते फिरें। मैं तुम्हें बिलकुल भी मजबूर नहीं करूंगा कि अपने मन पर बोझ डालते हुए कोई भी काम करो। मैं तुम्हारी भावनाएं समझ सकता हूं। सैल्फ मेड आदमी की यही खासियत होती है कि वह अपने ही बारे में बात करने से बचना चाहता है।

- नहीं, वह बात नहीं है। दरअसल मेरे पास बताने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे शेयर करने में मैं गर्व का अनुभव करूं। अपनी तकलीफ़ों की बात करके मैं आपकी शाम खराब नहीं करना चाहता।

- जैसी तुम्हारी मर्जी। विश्वास रखो, मैं तुमसे कभी भी कोई भी पर्सनल सवाल नहीं पूछूंगा। इसके लिए तुम्हें कभी विवश नहीं करूंगा।

पहले घर छोड़ने से लेकर दोबारा घर छोड़ने तक के अपने थोड़े-बहुत सच बयान कर दिये हैं उनकी मोटी-मोटी जानकारी के लिए।

बताता हूं उन्हें - अब पिछले तीन-चार साल से यहां जॉब कर रहा हूं तो आस-पास दुनिया को देखने की कोशिश कर रहा हूं। मैं कई बार ये देख कर हैरान हो जाता हूं कि मैं कितने बरसों से बिना खिड़कियों वाले किसी कमरे में बंद था और दुनिया कहां की कहां पहुंच गयी है। जैसे मै कहीं ठहरा हुआ था या किसी और ही रफ्तार से चल रहा था। खैर, पता नहीं आज अचानक आपके सामने मैं इतनी सारी बातें कैसे कर गया हूं।

- सच मानो, मैं सोच भी नहीं सकता था कि तुम, जो हमेशा इतने सहज और चुप्पे बने रहते हो, कभी बात करते हो और कभी बंद किताब की तरह हो जाते हो, अपनी इस छोटी-सी ज़िंदगी में कितने कितने तूफान झेल चुके हो।

खाना खा कर लौटते हुए बारह बज गये हैं। मुझे लग रहा है कि मैं एक परिचित के साथ खाना खाने गया था और बड़े भाई के साथ वापिस लौट रहा हूं।

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